गुरुवार, अगस्त 26, 2010

पश्चिम बंगाल की जनता का द्वन्द


पश्चिम बंगाल की जनता का द्वन्द
वीरेन्द्र जैन
यदि पिछले लोकसभा, ग्राम पंचायतों, और नगर निगमों के चुनाव परिणामों के आधार पर मूल्यांकन करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि पश्चिम बंगाल राज्य में गत तेतीस साल से सत्तारूढ बाम मोर्चा का पुनः सत्ता में लौटना कठिन हो सकता है। पिछला लोकसभा का चुनाव कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस ने एक साथ मिल कर लड़ा था और बाम मोर्चा इसके पहले वाले चुनावों से कुल दो प्रतिशत मत कम पाने के बाद भी अपने खिलाफ संयुक्त विरोध के कारण अनेक सीटों से हाथ धो बैठा था। वैसे तृणमूल कांग्रेस के गठन के बाद आम चुनावों में त्रिकोणीय संघर्ष होता था जिससे बाम मोर्चे की जीत सुनिश्चित रहती थी। किंतु परमाणु ऊर्जा के सवाल पर मनमोहन सरकार से समर्थन वापिस लेने के बाद हुये चुनावों में कांग्रेस ने चालीस में से कुल चौथाई सीटों पर खुद चुनाव लड़ा था और बाकी की सीटें तृणमूल कांग्रेस के लिये छोड़ दी थीं। इस रणनीति ने उन्हें ऎतिहासिक सफलता दिला दी। स्मरणीय है कि इस अवसर पर भी तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी ने अपना अहंकार नहीं छोड़ा था और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गान्धी के साथ कुल एक आम सभा सम्बोधित की थी। इस आमसभा से पहले और आमसभा में भी ममता बनर्जी ने सोनिया गान्धी से तब तक कोई बात नहीं की थी, जब तक कि सोनिया गांधी स्वयं चल कर मंच पर उन के पास नहीं गयी थीं।
1977 से पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी राजनीति की केन्द्रीय भूमिका में है और दूसरी गैरबामपंथी पार्टियाँ या तो उसकी विरोधी होती हैं या उसकी प्रतियोगी होती हैं। कांग्रेस पार्टी सीपीएम विरोधी पार्टी थी जबकि उससे टूट कर बनी तृणमूल कांग्रेस ने उसकी प्रतियोगी होने का प्रयास किया। यही कारण रहा कि इतने लम्बे समय तक सत्ता में बने रहने के बाद सीपीएम से खिसका हुआ मामूली समर्थन कांग्रेस की ओर जाने की जगह तृणमूल कांग्रेस की ओर गया। ममता बनर्जी की राजनीति को भले ही दिशाहीन माना जाता हो किंतु, वे कम्युनिष्टों की ही तरह सादगीपूर्ण, ईमानदार, और संघर्षशील नेता के रूप में प्रचारित हैं। पिछले दिनों उन्होंने किसानों की जमीनों पर उद्योग लगाये जाने के सम्बन्ध में नन्दीग्राम और सिंगूर में जिन मुद्दों पर संघर्ष कर के अपना जनाधार बढाया और उस संघर्ष में हिंसा से भी परहेज नहीं किया वह कभी बामपंथी तरीका ही रहा था। अपने इन्हीं तरीकों के कारण वे बंगाल में बामपंथियों की प्रतियोगी बनकर उभरीं और सत्ता विरोधी वोटों की वृद्धि को कांग्रेस की ओर जाने की जगह अपनी ओर मोड़ लिया। वहीं दूसरी ओर बामपंथ में से एक अतिबामपंथी धड़ा निकला था जो सीपीएम की रणनीति से असहमत था और उन्हें संसदवाद का शिकार मानता था। वे पहले नक्सलवाद के नाम से पहचाने गये और बाद में माओवादियों के रूप में जाने गये। सीपीएम का विरोध करने के लिए उन्होंने सीपीएम विरोधी शक्तियों के साथ मदद का आदान प्रदान किया जिसका चुनावी लाभ ममता बनर्जी ने भी उठाया। पिछले दिनों उनकी आतंकित करने वाली हिंसक गतिविधियाँ बहुत ही बढ गयीं जिसमें ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस का वह हादसा भी शामिल है जिसमें 150 से भी अधिक निर्दोष नागरिक मारे गये। पहले तो ममता बनर्जी ने इसे माओवादियों का कारनामा ही मानने से इंकार कर दिया पर बाद में जब सारे सूत्र उन्हीं से जुड़ने लगे तो उन्होंने चुप्पी साध ली। जबकि संसद में गृहमंत्री चिदम्बरम ने भी पुष्ट कर दिया कि जाँच से मिले सबूतों के आधार पर यह पता चलता है कि इसमें माओवादियों का हाथ है। आरोपियों में से कुछ की गिरफ्तारी भी हुयी।
अब ममता बनर्जी द्वारा बंगाल में सरकार बनाने का सपना तीन आयामों से मिल कर बनता है, पहला तो वह कुलीन, सम्पन्न और जमींदार रहा वर्ग जो कम्युनिष्टों के कारण अपनी जमीन और सम्मान सहित बहुत कुछ खो चुके हैं, दूसरे लम्बे समय से चली आ रही राज्य की सत्ता के विरोधी मतों [एंटी इंकम्बेंसी वोट] के प्रवाह का कांग्रेस से उनकी ओर खिसकना, तथा तीसरे माओवादी। उन्हें बाममोर्चा की लगातार खिलाफत करते रहने के कारण सत्ता विरोधी मानसिकता का नकारात्मक समर्थन पहले भी मिलता रहा है, जिसमें अब वृद्धि हुयी है। बिडम्बना यह है कि जो सम्पन्न वर्ग अपने हितों पर कुठाराघात के कारण सीपीएम सरकार का विरोधी है वे माओवादियों के सहयोगियों का साथ कैसे दे सकेंगे जिनसे उन्हें सदैव हिंसक खतरा है! माओवादी भी जानते हैं कि ममता बनर्जी का साथ तात्कालिक मदद के रूप में भले ही मिल जाये पर ममता की पार्टी का आधार उनके शत्रु वर्ग से ही आता है, इसलिए ये साथ लम्बा नहीं चल सकता।
सीपीएम का पिछला समर्थन कांग्रेस को बहुत मँहगा साबित हुआ था जिन्होंने न केवल सूचना का अधिकार, मनरेगा, और शिक्षा का अधिकार जैसी योजनाएं लागू करने के लिए निरंतर दबाव बनाया अपितु पेट्रोल डीजल और गैस की कीमतें भी बढने नहीं दीं जबकि विश्व समुदाय का दबाव सभी तरह की सब्सिडी खत्म कर देने के लिए लगातार पड़ रहा था। चुनाव के एक साल पहले वे परमाणु ऊर्जा का समझौता लागू करने के लिए साहस जुटा सके थे। इसलिए बामपंथ को कमजोर करने के लिए उन्होंने झुक कर उन ममता बनर्जी से समझौता करना मंजूर कर लिया था जो भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार में भी मंत्री रही थीं। लालगढ में माओवादियों के सहयोगी संगठन पीसीपीए [पीपुल्स कमेटी अगेंस्ट पुलिस एट्रोसिटीज] के साथ रैली करने और पूरी संसद द्वारा एक स्वर से उस पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करने के बाद कांग्रेस के सामने मुश्किल यह है कि वह किस मुँह से ममता के आगे झुक कर खड़ी हो सकेगी जबकि प्रधानमंत्री माओवादियों को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बतलाते रहते हैं।
एक द्वन्द यह है कि धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े पक्षधर होने के कारण बंगाल के मुस्लिम वोट अब तक बाम मोर्चे को मिलते रहे हैं, तथा इसीलिए भाजपा अपने समर्थन को बंगाल में बाम पंथियों की सबसे बड़ी शत्रु तृणमूल कांग्रेस की ओर खिसकाती रही है। किंतु पिछले दिनों नन्दीग्राम और तस्लीमा नसरीन आदि प्रकरणों के बाद यह कहा जा रहा है कि बामपंथियों का कुछ मुस्लिम वोट तृणमूल की ओर खिसका है। यदि यह सच है तो भाजपा का जो परोक्ष समर्थन उन्हें मिलता रहा था वह अब नहीं मिलेगा। दशा यह है कि ममता बनर्जी जिन तीन/चार खम्भों पर खड़े होकर बाम मोर्चे से सत्ता छीन लेने का सपना पाल रही हैं वे आपस में एक दूसरे के स्वाभाविक विरोधी हैं और स्वयं को अपनी राष्ट्रीय छवि के रूप में उनसे बड़ा मानते हैं। अपना समर्थन देने के लिए उन्हें कोई घोषित कार्यक्रम या नीति तो जनता को बतानी ही पड़ेगी, जो विरोधाभासों के कारण सम्भव नहीं दिख रही है। इसके उलट बाम मोर्चे में सम्मलित दलों की नीतियां और कार्यक्रम स्पष्ट हैं और उनका समर्थन कुछ प्रतिशत घट जाने के बाद भी 45% से ऊपर बना हुआ है।
दूसरी ओर, ममता बनर्जी की एक जुझारू विरोधी नेता के रूप में छवि तो आकर्षक है किंतु जब जब उन्हें केन्द्र में मंत्री पद मिला वे उसमें न केवल असफल हुयी हैं अपितु वे उस पर अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकीं। उनकी ईमानदारी और सादगी की जो छवि है वैसी छवि उनंकी पार्टी के दूसरे लोगों की नहीं है जबकि बंगाल की राजनीतिक चेतना से सम्पन्न जनता पिछले तेतीस सालों से जिस तरह के शासन की अभ्यस्त हो चुकी है उससे भी बेहतर की अपेक्षा रखती है जो तृणमूल के सिद्धांतहीन शासन में सम्भव नहीं हो सकती। यह साफ हो चुका है कि राजनीतिक चेतना और सिद्धांत विहीन नेता राजनीति में केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए जुटते हैं जो तीन सौ करोड़पतियों वाली संसद में सांसद निधि बेचने वालों, सवाल पूछने के लिए पैसे उगाहने वालों, और कबूतरबाजी से लेकर दलबदल तक करने में रुचि लेते हैं। इस समूह में से चन्द नमूने कैमरे की पकड़ में आ जाने के बाद बात साफ हो चुकी है। दूसरी ओर इतने लम्बे समय एक ही गठबन्धन का शासन देखते देखते ऊबी हुयी जनता कुछ हलचल मचाने को उतावली दिखती है। स्वाद परिवर्तन की इस इच्छा से बंगाल में निरंतर द्वन्द पैदा हो रहा है और प्रदेश अस्थिर सरकारों के युग की ओर बढ रहा है। जो माओवादी एक सौ चालीस जिलों में अपने पाँव पसार चुके हैं उनका शासन के सहयोगी दल होने की कल्पना ही भयावह है।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

शनिवार, अगस्त 21, 2010

यह केवल आर्थिक अपराध नहीं है


यह केवल आर्थिक अपराध नहीं है
वीरेन्द्र जैन
पिछले कुछ समय से ऐसा कोई सप्ताह नहीं जाता जब समाचार माध्यमों में किसी न किसी सरकारी अधिकारी, राजनेता, या ठेकेदार के यहाँ पड़े छापों में करोड़ों रुपयों का अवैध धन और किलो की तौल में सोना निकलने का समाचार नहीं आता। समाचार माध्यमों का आम पाठक, श्रोता या दर्शक इसे कौतूहल या ईर्षा के भाव से देखता है और निरीह सा अपनी व्यवस्था में आस्था घटाते हुये चुप बैठ जाता है। इन समाचारों से केवल अल्पकालीन सनसनी भर पैदा होती है, और फिर आरोपियों को मामला रफा दफा करने के लिए पर्याप्त समय देते हुये ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। लोग यह मानते हुये कि इस देश में कुछ नहीं बदल सकता उस घटना को भूलने लगते हैं। आरोपी यथावत अपना शानदार जीवन जी रहे होते हैं उनके ऐश और सम्मान में कोई अंतर नहीं आता उल्टे समाज में उनकी दबंगई और बढ जाती है क्योंकि इतने पक्के सबूत के बाद भी लोगों को लगता है कि सरकार भी इसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। अपनी सुरक्षा में वे और ज्यादा कठोर व आक्रामक हो जाते हैं। हमारे लोकतंत्र में शोषण का रास्ता बहुत पेंचदार है जिससे जनता को अपना शत्रु पता ही नहीं चलता। सरकार जनता से धन वसूलती है और उसे टैक्स कहती है, उसका एक बड़ा हिसा जिस तरह से खर्च करती है उसे देश की सुरक्षा, जनहित या विकास कहती है। इस सुरक्षा, जनहित और विकास के नाम पर ही सारा खेल खेला जाता है। रोचक यह है कि देश में काम करने वाले राजनीतिक दल इस अप्रत्यक्ष शोषण के खिलाफ कभी आन्दोलन खड़ा नहीं करते जबकि यह सीधा सीधा आर्थिक अपराध ही नहीं अपितु दण्डनीय अपराध भी है। मध्य प्रदेश में अकेले एक स्वास्थ विभाग के मामूली से अधिकारी के पास से सौ करोड़ रुपयों की अवैध कमाई का पता चला था, उसके बाद विभाग के मंत्री के भाई भतीजों के यहां से भी इतनी ही राशियाँ बरामद हुयी थीं। विभाग के लोग बताते हैं कि ये तो बहुत ही मामूली से नमूने हैं इन से भी बड़े सैकड़ों मगरमच्छ तो अभी भी धन के सरोवर में तैर रहे हैं। यहाँ केवल उनकी काली कमाई का सवाल ही नहीं है अपितु यह कमाई उन्होंने जनस्वास्थ में खर्च होने वाले जिस बजट में से की है वह आम जनता के स्वास्थ के साथ आपराधिक खिलवाड़ का मामला है। उनके इस अपराध के कारण हजारों की संख्या में वे सामान्य लोग असमय ही काल कवलित हो गये जिन्हें अगर इलाज और उचित दवा मिल जाती तो उनकी जान बचाई जा सकती थी। लाखों की संख्या में लोग सरकारी अस्पतालों से मिली नकली दबाइयों के कारण स्वस्थ नहीं हो सके या और अधिक बीमार और अपंग हो गये। कभी पंजाब और महाराष्ट्र में लोक सेवा आयोग के सचिव करोड़ों रुपयों के साथ पकड़े गये थे जिनके द्वारा चयनित अपात्रों के सहारे प्रशासन चल रहा है। उन लोगों ने अपनी नियुक्ति के लिए चुकाये गये धन को कितने गुना वसूला होगा और प्रशासन में क्या न्याय किया होगा इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।
अपनी काली कमाई करने के लिए ये लोग मूल रूप से हत्यारे हैं और इनका अपराध मय सबूतों के सामने आ चुका है फिर भी वे आज समाज में गर्व से सिर ऊंचा करके घूम रहे हैं। मंत्रीजी का पद यथावत है और वे उस पद के प्रभाव से मामले को रफा दफा करने में लगे हैं। आयकर विभाग का काम केवल सामने आई सम्पत्ति पर टैक्स और मामूली दण्ड की राशि वसूलने तक सीमित है, उसे इस बात से कोई मतलब नहीं है कि उक्त राशि किसने कैसे कमाई है और यह राशि हजारों लोगों की अप्रत्यक्ष हत्या करके वसूली गयी है। राज्य सरकारें स्वयं ही इसमें सम्मलित हैं इसलिए उसकी कार्यवाही पहले तो होती ही नहीं है और यदि हो भी जाये तो वह ऐसी होती है जिसमें से आरोपी न केवल आसानी से निकल जाता है अपितु अपनी पिछली भरपाई भी कर लेता है। दण्ड का एक उद्देश्य दूसरे सम्भावित अपराधियों के मन में एक भय पैदा करना भी होता है, किंतु जब सामने आये अपराधियों को दण्ड नहीं मिलता और वे ईर्षायोग्य जीवन शैली जीते नजर आते हैं तो उससे प्रतिदिन नये नये लोग अपराधों के लिए प्रोत्साहित होते हैं। एक मतदाता भी जब यह पाता है कि उसके मत से कुछ भी नहीं होने जा रहा तो वह अपने मत को उपलब्ध तात्कालिक लाभ से ही भुनाने की कोशिश करता हुआ पूरे लोकतंत्र को ही चूना लगा देता है। अपराधी बड़ी शान से खरीदे हुये वोटों से जनता के विश्वास की दुहाई देता हुआ विधानसभा में पहुँचता है और मंत्री पद सुशोभित करता है। सड़कें अपना जीवन चार दिन भी नहीं जी पातीं और उनके गड्ढों से न जाने कितने वाहन फिसलते और गिरते रहते हैं सैकड़ों सम्भानाशील युवा सड़कों के इन गड्ढों के शिकार होकर दुर्घटना में प्रति वर्ष काल के गाल में समा जाते है, पर इंजीनियर, ठेकेदार और मंत्री के घरों में सोने की बरसात होती रहती है। उनके बंगले कभी नहीं गिरते। सिंचाई मंत्री के यहाँ बोरों में नोट भरे रहते हैं और उनके अधिकारियों के बैड में नोट बिछे रहते हैं। वहीं सूखे में कर्ज न चुका पाने के कारण किसान आत्म हत्या करते रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी स्वीकार करते हैं कि तीस प्रतिशत न्यायाधीश भ्रष्ट हैं और यह आंकड़ा उनका अनुमान भर है यह कई गुना कम या ज्यादा भी हो सकता है। किसी भी काम के लिए किसी को भी कितने ही दिन का स्टे मिल सकता है, भले ही वह स्टे न्याय को टालने के लिए ही क्यों न लिय जा रहा हो। शिकायतों पर जाँच बैठा दी जाती है जिसका कार्यकाल अनिश्चित काल तक बढता रहता है। ऐसा एक जगह से ही नहीं होता है अपितु अब यही तरीका सब जगह अपनाया जाने लगा है और इतने बड़े बड़े नक्कारखाने पैदा हो गये हैं कि उनमें तूतियों की आवाजें कहीं नहीं सुनायी देतीं। कुछ ज्यादा आवाज पैदा करने वाली तूतियों को शांत कर दिया जाता है।
इस हम्माम में न केवल विरोधी दल भी सम्मलित हैं अपितु पुलिस प्रशासन और मीडिया भी हिस्सेदार है। पुल धसक रहे हैं, भवन गिर रहे हैं, बाँध रिस रहे हैं, खेती सूख रही है, लोगों को इलाज नहीं मिल पाता, बच्चे कुपोषित हैं, शिक्षा का निजीकरण और निजीकरण से लूट मची हुयी है, जरूरी वस्तुयें लागत मूल्य और उपलब्धता के अनुपात से भी मँहगी हो रही हैं। दलित, पिछड़े, आदिवासी, महिला और अल्प्संख्यकों को सशक्तिकरण के नाम पर अरबों रुपयों का बण्टाढार हो रहा है पर उनकी दशा में कोई परिवर्तन होता नहीं दिखता। गरीबी, बेरोजगारी और अपराध दिन प्रति दिन वृद्धि पर हैं। सीमा पर अनावश्यक तनाव पैदा कर रक्षा खर्चों में बजट का बड़ा हिस्सा व्यय किया जाता है, जिसका विवरण गोपनीय रहता है। किंतु जनता को अपना दुश्मन सीधे सीधे दिखाई नहीं देता। सरकारें आये दिन अखबारों में पूरे पूरे पृष्ठों के विज्ञापन और उन विज्ञापनों में अपनी उपलब्धियाँ बखानती रहती रहती हैं जो राष्ट्रीय या प्रदेश स्तर की होती हैं। यदि यही उपलब्धियाँ ग्राम स्तर पर लाभांवित के नाम सहित छोटे छोटे अखबारों में प्रकाशित की जायें तब पता चलेगा कि इनकी सच्चाई क्या है।
आर्थिक अपराधों के खिलाफ मारे गये छापों में उस अपराध के मूल तत्व को पहचाना जाना जरूरी है। यह गैरकानूनी ढंग से केवल मुद्रा का संचयन भर नहीं है अपितु जिन लोगों का इस पर अधिकार था, या जिनके उपयोग के लिए यह राशि जनता से वसूली गयी थी उनके हित में उपयोग न करके उन्हें कुपोषण, बीमारी, और मौत के मुँह में झोंकने की यह हत्यारी मुहिम है और जनता को गलत जानकारी से धोखा देने का प्रयास है।


वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, अगस्त 11, 2010

फिलहाल गुलगुलों से परहेज करती जेडी[यू ]का पलड़ा भारी है


फिलहाल गुलगुलों से परहेज करती जेडी[यू] का पलड़ा भारी है
वीरेन्द्र जैन
हिन्दी में एक पुराना मुहावरा है ‘गुड़ खायें, गुलगुलों से परहेज करें”। बिहार में सत्तारूढ जेडी [यू] भी इसी रास्ते पर चलती नजर आ रही है। अभी हाल ही में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक समाप्त होने के बाद उसके अध्यक्ष शरद यादव, जो एनडीए के अध्यक्ष भी हैं, ने जो वक्तव्य दिया उससे ऐसा ही आभास होता है। जब वे एक ओर तो आगामी बिहार विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा से सीटों के बँटवारे की पुष्टि करते हुये कहते हैं कि सीटों के बँटवारे की और चुनाव प्रचार की पुरानी व्यवस्था कायम रहेगी, वहीं दूसरी ओर वे कहते हैं कि चुनाव में नरेन्द्र मोदी और वरुण गान्धी प्रचार में हिस्सा नहीं लेंगे। उल्लेखनीय है कि इससे पहले भाजपा दबे ढके कह चुकी है कि भाजपा की ओर से कौन चुनाव प्रचार करेगा इसका फैसला उसके गठबन्धन या चुनावी सहयोगी नहीं अपितु भाजपा स्वयं करेगी।
अगर भाजपा अपने शब्दों पर कायम रह सके तो उसके इस कथन में कुछ भी गलत नहीं है। किसी भी गठबन्धन का कोई भी सहयोगी गठबन्धन में रहने, न रहने के लिए तो स्वतंत्र है किंतु किसी दूसरे दल की कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप का उसे कोई अधिकार नहीं होता। स्मरणीय है कि यूपीए गठबन्धन को समर्थन देने से पहले बामपंथी दल श्रीमती सोनिया गान्धी के कटु आलोचक थे किंतु गठबन्धन को समर्थन देने के बाद जब उनसे पूछा गया था कि क्या वे सोनिया गान्धी को प्रधान मंत्री बनाये जाने पर भी यूपीए का समर्थन जारी रखेंगे तो बामपंथियों का उत्तर था कि हम तो न्यूनतम समझौता कार्यक्रम के आधार पर बाहर से यूपीए का समर्थन कर रहे हैं तथा नेता पद के लिए किसे चुनना है या किसे नहीं चुनना यह उनका आंतरिक मामला है। ठीक इसी तरह जेडी[यू] को भी एक बार बिना शर्त एनडीए गठबन्धन में सम्मलित होने के बाद भाजपा के आंतरिक मामलों में दखल देने का कोई अधिकार नहीं है, भले ही उनका नेता उसका अध्यक्ष ही क्यों न हो।
यद्यपि यह सुविख्यात है कि भाजपा एक अवसरवादी दल है और वह सत्ता के लिए किसी के आगे किसी भी आवश्यक कोण पर तना रह सकता है या झुक सकता है। बिहार में जेडी[यू] के समर्थन के बिना वे अपनी वर्तमान की सीटों में से आधी भी नहीं जीत सकते, इसलिए वे यह शर्त भी मान लेंगे किंतु यह उनकी स्वीकरोक्ति केवल कूटनीतिक होगी और जैसे ही अवसर मिलेगा वे जेडी[यू] से बदला लेने में नहीं चूकेंगे। आम मतदाताओं के सामने इस बहस से जो सन्देश जाना था वह जा ही चुका है। नरेन्द्र मोदी केवल हिन्दू साम्प्रदायिकता से कुप्रभावित लोगों के नायक हैं व शेष दुनिया के लिए खलनायक हैं, जिनमें जेडी[यू] के समर्थक भी सम्म्लित हैं। अपने इस वक्तव्य से उसने कितने मतों का नुकसान रोक लिया है यह चुनाव परिणाम ही बताएंगे।
बिहार में जो भी राजनीतिक दल सक्रिय हैं उनमें से भाजपा के साथ कोई नहीं जा सकता है। लालू प्रसाद की राष्ट्रीय छवि का निर्माण ही रथ यात्रा निकाल कर अपने पीछे दंगों की एक श्रंखला छोड़ते जाने वाले लाल कृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार करने और धर्म निरपेक्षता का पक्ष लेते रहने से ही बनी है, राम विलास पासवान ने तो एनडीए सरकार से स्तीफा ही गुजरात में हुए साम्प्रदायिक दंगों के बाद दिया था और अब वे राज्यसभा की सदस्यता तक लालू प्रसाद की कृपा से पा सके हैं अतः वे लालू का साथ कभी नहीं छोड़ेंगे। बामपंथी दलों और कांग्रेस का भाजपा से हाथ मिलाने का सवाल ही नहीं उठता इसलिए जेडी[यू] जानता है कि भाजपा, जो झारखण्ड में सरकार में सम्मलित होने के लिए शिबू सोरेन का समर्थन करने पर भी तैयार हो सकती है, उनकी हर शर्त मानेगी। पिछले दिनों बिहार व यूपी के लोगों के साथ महाराष्ट्र में भाजपा के स्वाभाविक गठबन्धन साथी शिवसेना के दोनों धड़ों ने जो कुछ भी किया और भाजपा चुपचाप देखती रही उससे भी बिहार के सभी वर्गों में गहरी नाराजी व्याप्त है। इसलिए अकेले भाजपा की बिहार में कोई गति नहीं है। बिहार भाजपा में नेतृत्व के सवाल पर भी काफी टकराव रहा है और सुशील कुमार मोदी के विरोध में पच्चीस से अधिक विधायक दिल्ली में हाई कमान के सामने एकजुट विरोध कर चुके हैं जिन्हें बहुत ही मुश्किल से सम्हाला गया था अन्यथा सरकार ही गिरने का खतरा पैदा हो गया था। यदि दुबारा सुशील कुमार मोदी को ही नेतृत्व सौंपा जाता है तो वे उन विधायकों को टिकिट ही नहीं पाने देंगे, जिससे एक नया संकट पैदा होगा। पिछले दिनों जब भाजपा के नव नियुक्त अध्यक्ष गडकरी ने अपनी कार्यकारिणी घोषित की थी तो शाहनवाज खान ने अपने पद से असंतुष्ट रह कर कई महीनों तक कार्य नहीं किया था। शत्रुघ्न सिन्हा तो कभी भी अनुशासन में नहीं रहे और गडकरी की टीम का मुखर विरोध करने वालों में सबसे आगे रहे हैं। उन्होंने तो प्रमोद महाजन की बेटी पूनम महाजन को महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों में टिकिट मिलने का खुल कर विरोध किया था जबकि पूरी भाजपा महाजन परिवार के आगे साष्टांग रहने की मजबूरी पर कायम है।
यद्यपि 2004 के लोकसभा चुनावों के बाद भाजपा ने श्रीमती सोनिया गान्धी के कांग्रेस दल का नेता चुने जाने पर जो अनुचित हस्तक्षेप किया था और श्रीमती गान्धी को पदत्याग की अंतर्प्रेरणा दी थी, वही भूल अब उनके गले की फांस बन सकती है, जेडी[यू] यह तर्क कर सकता है कि जब नेतृत्व के सवाल पर आप चुनाव में बहुमत प्राप्त दल के नेता चुने जाने के प्रश्न पर अनुचित हस्तक्षेप कर सकते हैं तो एनडीए के अध्यक्ष के रूप में शरद यादव चुनाव में प्रचार करने वाले नेताओं पर फैसला क्यों नहीं ले सकते, जबकि इससे चुनावी परिणामों के प्रभावित होने की सम्भावना हो।
भले ही शरद यादव की दलील में दम हो किंतु आडवाणी के रिटायरमेंट के बाद बदनाम ही सही पर नरेन्द्र मोदी भाजपा के सबसे चर्चित चेहरे हैं और वरुण गान्धी उनके सबसे महत्वपूर्ण मोहरे हैं। इन दोनों पर समझौता करने से भाजपा के कार्यकर्ताओं में दिशा का संकट पैदा होगा। अपना नेतृत्व वकीलों और वकीलनुमा पत्रकारों के हाथों में सौंप कर जसवंत सिंह जैसे वरिष्ठ नेता को पीछे की सीट पर धकेल देना कितना कारगर होगा यह भविष्य के गर्त में है। पर यह मोदी के सवाल पर अटल बिहारी वाजपेयी का स्तीफा रोकने वाले खुलासे के बाद फिर से उसी भाजपा में शामिल हो गये जसवंत सिंहों की क्या गति होगी जहाँ मोदी को स्टार प्रचारक मानने, न मानने पर बहस चल रही हो।


वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, अगस्त 06, 2010

चोरी करने वाले को गोली मारती भीड़्

अस्वीकृति में उठा हाथ
चोरी करने वाले को गोली मारती भीड़
वीरेन्द्र जैन
विभूति नारायण प्रसंग इस तरह चर्चा में है कि इस समय मँहगाई, अलगाववादियों के पक्ष में जाता कश्मीरी जनता का पत्थर विरोध और उसमें मरते नौनिहाल, तथा माओवादियों की चुनौती भी चर्चा से पिछड़ गयी है। दरअसल इस प्रसंग में रसरंजन जुड़ा होने के कारण बौद्धिक विमर्श कम और गैरजिम्मेवार भीड़ की कुण्ठाएं अधिक बोल रही हैं।
सबसे पहले तो चर्चा के केन्द्र में बने विभूति नारायण की बात की जाये जो अपने चरित्र में वे, उस धर्म निरपेक्षता के इतने प्रबल पक्षधर हैं जिस धर्म निरपेक्षता के लिए बामपंथी दल अपने वर्ग शत्रु की सरकार बनवाने में मददगार होने की रणनीति बना लेते हैं। उनका अपना लेखन भी एक पुलिस अधिकारी के रूप में मिले अनुभवों के आधर पर साम्प्रदायिकता के खिलाफ है। धर्म निरपेक्षता की इसी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें नामवर सिंह जैसे लोगों ने महात्मा गांधी हिन्दी विश्वविध्यालय का कुलपति बनवाया है और वे अभी भी उनके कृपा पात्र हैं तथा उनका मौन आशीर्वाद लिए घूमते हैं। यह भी सच है कि विश्वविध्यालय जिस पक्षपात, रिश्वतखोरी, और पतन के गर्त में गिरते जा रहे हैं उससे शिक्षा से जुड़े अयोग्य और अक्षम लोगों में अटूट वेतन बाँटने वाले इन संस्थानों में नियुक्ति को लालायित लोगों के बीच गजब कुत्सित प्रतियोगिताएं चल रही हैं। म.गा. हि.वि. की नियुक्तियाँ भी इसका अपवाद नहीं हैं। नया ज्ञानोदय के सम्पादक रवीन्द्र कालिया की पत्नी ममता कालिया उनकी समिति में हैं तथा मैत्रीय पुष्पा भी हिन्दी डिस्कोर्स के लिए आवेदक रही बतायी गयी हैं, पर उनकी नियुक्ति वहाँ नहीं हुयी।
यह सच है कि एक पुलिस अधिकारी रहे होने के कारण विभूति की भाषा पर उसका प्रभाव हो, इसलिए अपनी बात कहने के लिए उन्होंने जिस शब्द का प्रयोग किया वह निन्दनीय है। एक साहित्यकार को, जिसके साहित्य के आधार पर ही उसे किसी भाषा से जुड़े विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया गया हो, से शब्दों का उचित प्रयोग अपेक्षित है। किंतु कुछ बातें ध्यान में रखने योग्य हैं-
• उन्होंने जो कुछ भी कहा है वह उनका बयान नहीं है अपितु लिए गये साक्षात्कार में साक्षात्कार लेने वाले के प्रश्न का उत्तर है जिसमें उन्होंने किसी का भी नाम नहीं लिया है।
• यह साक्षात्कार नया ज्ञानोदय के “सुपर बेबफाई अंक” के सन्दर्भ में लिया गया था, और जैसा कि विशेषांक के विषय से ही स्पष्ट है, सम्पादक का इरादा अपनी पत्रिका को चर्चा के केन्द्र में लाने के लिए बोल्ड माडलों की तरह, बोल्ड विषयों को विवादित करना ही रहा है।
• यदि विवादित वाक्य से ठीक पहले के प्रश्न का उत्तर देखें तो बहुत सारी बातें स्पष्ट हो सकती हैं जिसमें वे कहते हैं- “वर्जित फल चखने की कल्पना ही उत्तेजना से भरी होती है। यह मनुष्य का स्वभाव है। फिर यहाँ लुत्फ लेने वला कौन है? मनुष्य रूप से पुरुष, । व्यक्तिगत सम्पत्ति और आय के स्त्रोत उसके कब्जे में होने के कारण वह औरतों को नचा कर आनन्द ले सकता है। उन्हें रखैल बना सकता है, और बेबफा के तौर पर उनकी कल्पना कर सकता है। पर जैसे जैसे स्त्रियाँ व्यक्तिगत सम्पत्ति या क्रय शक्ति की मालकिन होती जा रही हैं, धर्म द्वारा प्रतिपादित वर्जनाएं टूट रही हैं, और लुत्फ लेने की प्रवृत्ति उनमें भी बढ रही है।“
इसके बाद जब साक्षात्कार लेने वाला पूछता है कि “ हिन्दी समाज से कोई उदाहरण ?” तब वे यह कहते हुए कि पिछले दिनों हमारे यहाँ जो स्त्री विमर्श हुआ है वह मुख्य रूप से शरीर केन्द्रित है। यह भी कह सकते हैं कि यह बेबफाई का विराट उत्सव की तरह है...............................
खेद के बात तो यह है कि जो लोग भी इस विषय पर चर्चा कर रहे हैं उनमें से कितनों ने उसे पढा है जिसमें वे एंगिल की किताब से उदाहरण देकर अपनी बात स्प्ष्ट करते हुए कहते हैं- एंगिल की पुस्तक “ परिवार व्यक्तिगत सम्पत्ति और् राज्य की उत्पत्ति,” से उदाहरण देते हुए कहते हैं-
“जब तक सम्पत्ति और उत्पादन के साधनों पर स्त्री और पुरुष का समान अधिकार नहीं होगा तब तक पुरुष इस स्तिथि का फायदा महिलाओं के भावनात्मक शोषण के लिए करेगा । असमानता समाप्त होने तक बेबफाई का जेंडर विमर्श न केवल सम्भव ही है अपितु होना ही चाहिए।“
यह तय है कि साक्षात्कर देते समय विभूति नारायण से शब्द चयन में भूल हुयी है, किंतु चोरी के अपराधी को गोली मारने की सजा तो कानून भी नहीं देता है। जब वे स्वयं ही मान रहे हैं कि महिला के आत्म निर्भर होने पर उसमें भी वे वृत्तियाँ पैदा हो जाना स्वाभिक है जिनका शिकार आज पुरुष है तो फिर वे महिला लेखकों के जीवन व्यवहार और उसके स्वीकार को सोशल पुलिस की दृष्टि से क्यों देख रहे हैं।
वे इसी द्वैत का शिकार हैं और उसकी ही सजा पा रहे हैं। मुझे नहीं पता कि विरोध करने वालों में से कितनों ने वह साक्षात्कर पढा है, पर जो बिना पढे ही विरोध कर रहे हैं उनसे अनुरोध है कि उसे आवश्यक रूप से पढें और फिर सजा मुकर्रर करें।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

बुधवार, अगस्त 04, 2010

अदालतों और जांच एजेन्सियों की गरिमा गिराती भाजपा


अदालतों और जाँच एजेंसियों की गरिमा गिराती भाजपा
वीरेन्द्र जैन
यह सहज रूप से जुबान की फिसलन नहीं है कि जब संघ द्वारा थोपे गये मध्यप्रदेश भाजपा के अध्यक्ष प्रभात झा ने इन्दौर में भारतीय जनता पार्टी के महापौर और पार्षदों के सम्मेलन में कहा कि हाईकोर्ट से समाज नहीं चलता अपितु हाईकोर्ट को समाज से चलना होगा। भाजपा के सन्दर्भ में यह साफ है कि जब वे देशवासी, हिन्दू या समाज शब्द का स्तेमाल करते हैं तो उनका मतलब केवल संघ भाजपा तक ही सीमित होता है। पिछले दिनों घटे घटनाक्रम में भाजपा में सक्रिय अपराधी एक एक कर कानून की गिरफ्त में आते जा रहे हैं और राम जेठमलानी जैसे वकीलों को राज्यसभा की सदस्यता सौंपने के बाद भी वे समझते हैं कि कानून के छिद्रों में से आखिर कितने लोग निकल पायेंगे, इसलिए वे न केवल सीबीआई जैसी जाँच एजेंसियों को ही निशाना बनाने में लग गये हैं अपितु न्यायपालिका पर भी हमले कर के केवल भीड़ और लाठी की ताकत ही नहीं अपितु आतंकी कार्यवाहियों में पकड़े गये लोगों को भी खुला संरक्षण देने में लग गये हैं।
रोचक है कि अभी पिछले दिनों ही मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने इमरजेंसी समाप्त होने के उन्नीस साल बाद मीसा बन्दियों के नाम पर इस तर्क से मासिक पेंशन बाँटना शुरू कर दी कि उन्होंने तानाशाही के विरोध में अपनी अवाज बुलन्द की थी जब इन्दिरा गान्धी ने कोर्ट का फैसला आने के बाद प्रधानमंत्री पद से स्तीफा न देकर इमरजेंसी लागू कर दी थी और कानून बदल कर सता में बनी रही थीं। यह पेंशन उन संघ और जनसंघ के उन लोगों के लिए भी उपलब्ध करायी गयी जो कि माफी माँग कर श्रीमती गान्धी की प्रशंसा करते हुए जेल से बाहर आये थे। अब वही संघ परिवार अपने द्वारा नामित प्रतिनिधियों के माध्यम से आपराधिक मुकदमों का सामना करने जा रहे अपने सदस्यों को बचाने के लिए हाईकोर्ट के आदेशों की अवहेलना का आवाहन कर रहा है। यदि प्रभात झा के कथनानुसार देखें तो श्रीमती गान्धी, जो उस समय “समाज” की प्रतिनिधि थीं, द्वारा लागू की गयी इमर्जेंसी सही ठहराई जा सकती है और इस आधार पर मीसाबन्दियों की पेंशन मुफ्त में जीमने वाले इन लोगों को अपनी अपनी पेंशन वापिस कर देना चाहिए, पर उसे वे कभी नहीं करेंगे।
हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत सोच समझ कर लोकतंत्र को कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के खम्भों पर खड़ा किया था, जिसमें न्यायपालिका के प्रति अतिरिक्त सम्मान का भाव है जो तबतक कार्यपालिका और विधायिका के निर्णयों को भी रोक सकती है जब तक कि विधायिका कानून में ही परिवर्तन न कर दे। इसलिए उसकी स्तिथि सर्वोच्च मानी गयी है। हमारे तंत्र में समाज की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व विधायिका करती है और वह चाहे तो नये कानून बना सकती है, जिसके आधार पर ही न्यायपालिका अपने फैसले देगी। यह व्यवस्था सभी संस्थाओं को एक दूसरे का सम्मान करना सिखाती है।
संघ परिवार इस समय केन्द्र की सता में नहीं है इसलिए वह कानून बनाने की स्तिथि में नहीं है, किंतु जिन प्रदेशों में वह सत्त्ता में है, वहाँ पुलिस और अभियोजन पर प्रभाव डालकर वह कानून को भटका रही है। दशहरा के अवसर पर मुख्यमंत्री के नाबालिग पुत्र द्वारा पुलिस अधिकारियों के सामने गोली चलाने का मामला हो या इसी दिन एक आरएसएस कार्यकर्ता की गोली लगने से हुयी मौत का मामला हो, पत्रकारों द्वारा पूछे जाने पर पुलिस अधिकारियों का यह उत्तर देना कि गवाह ही नहीं मिल रहे हैं अपने आप में अपनी कहानी कह देता है। उज्जैन के सव्वरवाल हत्याकाण्ड में गवाहों का पलट जाना और फैसले में कोर्ट द्वारा अभियुक्तों को बरी करने के बाद सारा दोष अभियोजन को देने से साफ संकेत मिलते हैं कि भाजपा शासित राज्यों में कानून का किस तरह खिलवाड़ होता रहा है।
भाजपा में प्रत्येक स्तर पर संगठन सचिव का पद संघ के प्रचारक द्वारा ही भरे जाने का नियम है और संघ इनके माध्यम से ही भाजपा में अपना एजेंडा लागू करती है। संघ के प्रतिनिधियों ने भविष्य की सम्भावनाओं को दृष्टिगत रखते हुए अपने हमले प्रारम्भ कर दिये हैं। अयोध्या का फैसला आने वाला है और संघ परिवारियों ने कहना शुरू कर दिया है कि अगर फैसला उनके खिलाफ आता है तो वे मानने के लिए तैयार नहीं हैं जबकि इंडियन मुस्लिम लीग की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष ने कहा है कि वे अदालत का फैसला मानेंगे भले ही वह उनके खिलाफ ही क्यों न हो। आतंकी घटनाओं में घेरे में आये संघ के सदस्यों के बारे में कहना शुरू कर दिया है कि सरकार जानबूझ कर “हिन्दुओं” को परेशान कर रही है। साध्वी के चोले में रहने वाली प्रज्ञा की वेषभूषा ही इनकी पक्षधरता का आधार बन रही है भले ही जाँच में कितने ही सबूत मिल गये हों। मोदी के खिलाफ हुयी जाँच और अमित शाह की गिरफ्तारी भी हिन्दुओं के खिलाफ कांग्रेस की रची गयी साजिश बतायी जा रही है। मध्यप्रदेश का तो हर तीसरा नेता कहीं न कहीं भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबा हुआ ही नहीं है अपितु अनेकों के प्रकरण भी दर्ज करने पड़े हैं। संघ की ओर से प्रदेश संगठन मंत्री माखन सिंह ने तो गत दिनों एक बैठक के दौरान भाजपा विधायकों से हाथ जोड़ कर कहा कि अब बस करो और और न लजवाओ। पर जब अदालतों और जाँच एजेंसियों को ही चुनौती देने की योजना है तो मंत्री विधायक बस कहाँ करने वाले। इस अपील के अगले दिन ही करैरा के भाजपा विधायक रिश्वत लेते हुये कैमरे की कैद में आ गये। पुलिस अभियोजन और प्रशासन को मुट्ठी में कर लेने के बाद भरपूर बहुमत प्राप्त पार्टी जब अदालतों को भी धता बताने के सन्देश देने लगे तो तानाशाही कितनी दूर रहती है।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

रविवार, अगस्त 01, 2010

उमा भारती को वापिस लेने की मजबूरी क्या है?


उमाभारती को वापिस लेने की मजबूरी क्या है?
वीरेन्द्र जैन
साध्वी के चोले में रहने वाली लोधी जाति की भूतपूर्व भाजपा नेत्री उमाश्री भारती के भाजपा में पुनर्प्रवेश की सम्भावनाओं पर पार्टी में आपस में तलवारें खिंच गयीं हैं। भाजपा में पद का सुख भोग रहा कोई नेता उमा को वपिस नहीं चाहता, वहीं पद से वंचित या अपने पद से असंतुष्ट नेता उमा के वापिसी का समर्थन करके अपने नेतृत्व को ब्लेकमेल करना चाह रहे हैं। सवाल यह है कि आखिर अब उमा भारती की वापिसी क्यों जरूरी मानी जा रही है और क्या उमा भारती भी भाजपा नेतृत्व को ब्लेकमेल कर रही हैं? यदि ऐसा है तो वह कौन सी कमजोरी है जिस के आधार पर वे संघ परिवार पर दबाव बनाने में सफल हुयी हैं?
गत दिनों भाजपा से बाहर आकर उन्होंने न केवल अपनी ताकत का ही आकलन कर लिया अपितु भाजपा ने भी उनकी ताकत का आकलन करके यह जान लिया है कि उनका जनाधार थोड़ा सा साध्वी भेषभूषा से भ्रमित धर्मान्ध लोगों, कुछ लोधी जाति के जातिवादी वोटों और बहुत सारा भाजपा में टिकिट या पदों से वंचित रह जाने के कारण असंतुष्ट रह गये लोगों से निर्मित है। यह जनाधार भी केवल मध्य प्रदेश या उत्तर प्रदेश के कुछ लोधी बहुल चुनाव क्षेत्रों तक ही सीमित है। उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह लोधियों के अपेक्षाकृत बड़े और स्थानीय नेता हैं और उनकी तुलना में उमा भारती को महत्व नहीं मिल सकता। उत्तर प्रदेश के गत विधान सभा चुनावों में उन्होंने अपने उम्मीदवारों की सम्भावनाओं का आँकलन करने के बाद अपने सारे उम्मीदवार वापिस ले लिये थे। [ वैसे मुँह छुपाने के लिए उन्होंने हिन्दू वोटों के बँटवारे का बहाना लिया था पर यह बात उन्हें सारे उम्मीदवारों के फार्म भरवाने के बाद ही क्यों नजर आयी थी और अगर इसे सच भी मान लिया जाये तो उनके नेतृत्व की क्षमता पर सवालिया निशान लगता है।] यही काम उन्होंने गुजरात के विधांसभा चुनावों के समय भी किया था जहाँ उम्मीदवारी वापिसी का फैसला फार्म भरवाने के बाद लेने के कारण उन्हें अपमानित भी होना पढा था। इस समय भी उन्होंने फार्म वापिसी का कारण अपने गुरु की आज्ञा को बताया था जिससे पुनः उनकी नेतृत्व क्षमता का सार समझ में आ गया था । मध्य प्रदेश में जो उन्हें बारह लाख वोट मिले थे वे भी भाजपा के असंतुष्टों को अपनी पार्टी से टिकट देने के कारण मिले थे जो अभी भी असंतुष्ट ही हैं, और अब वे उमा भारती द्वारा चोरी छुपे भाजपा में सेंध लगाने और उन्हें धोखे में रखने के कारण उनसे भी असंतुष्ट चल रहे हैं। उमा भारती के राजनीतिक गुरू गोबिन्दाचार्य न तो उनके इस कदम से खुश हैं और ना ही वे अपनी बौद्धिक छवि के कारण उन प्रश्नों को सुलझाये बिना वापिस जा सकते हैं जिन्हें आगे रख कर वे भाजपा से बाहर आये थे। गत दिनों भाजपा अध्यक्ष गडकरी को बुरी तरह डाँट देने के कारण उनके पुनर्प्रवेश की सारी सम्भावनाएं लगभग समाप्त हो चुकी हैं। महिला आरक्षण विधेयक में पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए अलग से सीट आरक्षण के सवाल पर भी उनके भाजपा की नीति से मतभेद हैं और अगर वे इस पर समझौता करेंगी तो लोधी वोट बैंक उनसे बिल्कुल खिसक जायेगा।
दूसरी ओर लोकसभा में भाजपा और प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज उमा के प्रवेश के खिलाफ हैं, राज्य सभा में भाजपा और प्रतिपक्ष के नेता अरुण जैटली उमा के खिलाफ हैं, भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और अडवाणी के हनुमान वैंक्य्या नायडू, जिन्हें उमा के कारण ही बीच में अपना पद त्यागना पड़ा था, उमा के खिलाफ हैं, मध्य प्रदेश राज्य के अध्यक्ष प्रभात झा संघ में अपने संरक्षक सुरेश सोनी के इशारे पर उमा के प्रवेश के खिलाफ हैं, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान जिन पर उमा भारती ने उनकी हत्या करवाने का षड़यंत्र करवाने का आरोप लगाया था, अपने संरक्षक सुन्दरलाल पटवा के आदेशानुसार उनके प्रवेश पर अंगद का पैर अड़ाये हुये हैं। इनके अलावा भी धन बल और मुख्यमंत्री काल में मिले प्रैस कवरेज से उपजी गलत फहमी में उमा भारती ने उनका साथ न देने वाले सभी महत्वपूर्ण लोगों से व्यक्तिगत दुश्मनी पाल ली थी और ऐसा कुछ भी नया नहीं हुआ है कि वे लोग उसे भूल जायें। ये सारे तथ्य आडवाणी समेत सघ के सभी लोग जानते हैं किंतु फिर भी वे उमा को प्रवेश दिलाने के लिए सबको मनाने में जुटे हैं। इससे स्पष्ट है कि कहीं कुछ तो ऐसा है कि अपने किसी कार्य, बयान, या किये गये नुकसान की माफी माँगे बिना ही एक ओर से उमा भारती को प्रवेश दिलाने के प्रयत्न किये जा रहे हैं जबकि उनके प्रवेश से मध्य प्रदेश में संगठन में दो गुटों का उभरना तय माना जा रहा है जिसके संकेत मिलने लगे हैं। यदि उन्हें उत्तर प्रदेश तक सीमित रखने की शर्त पर भी प्रवेश दिया गया तो एक ओर तो यह कदम भाजपा को बहुत ही हास्यास्पद स्तिथि में छोड़ेगा और दूसरी ओर यह भी तय नहीं कि वे उस शर्त का उल्लंघन नहीं करेंगी। यदि इस आधार पर उन्हें दुबारा निकालने की जरूरत पड़ी तो भी भाजपा का बड़ा नुकसान होना तय है। उमा के प्रवेश की एक मजबूरी बाबरी मस्जिद ध्वंस के अपराध में उनके वायदा माफ गवाह बन जाने की भी हो सकती है। कहा तो यह भी जा रहा है कि आडवाणीजी को दूरदृष्टि के आधार पर ही सदन में विपक्ष के नेता पद से अलग रखा गया है जबकि परोक्ष में सारी चाबी उन्हीं के पास हैं। उमाकी वापिसी को लटका कर रखना भी एक रणनीति हो सकती है ताकि वे इस बीच अपना मुँह बन्द रखें और कोई पक्ष नहीं ले सकें। बहरहाल उमा भारती की वापिसी अभी भी एक पहेली बनी हुयी है।


वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629