अस्वीकृति में उठा हाथ
चोरी करने वाले को गोली मारती भीड़
वीरेन्द्र जैन
विभूति नारायण प्रसंग इस तरह चर्चा में है कि इस समय मँहगाई, अलगाववादियों के पक्ष में जाता कश्मीरी जनता का पत्थर विरोध और उसमें मरते नौनिहाल, तथा माओवादियों की चुनौती भी चर्चा से पिछड़ गयी है। दरअसल इस प्रसंग में रसरंजन जुड़ा होने के कारण बौद्धिक विमर्श कम और गैरजिम्मेवार भीड़ की कुण्ठाएं अधिक बोल रही हैं।
सबसे पहले तो चर्चा के केन्द्र में बने विभूति नारायण की बात की जाये जो अपने चरित्र में वे, उस धर्म निरपेक्षता के इतने प्रबल पक्षधर हैं जिस धर्म निरपेक्षता के लिए बामपंथी दल अपने वर्ग शत्रु की सरकार बनवाने में मददगार होने की रणनीति बना लेते हैं। उनका अपना लेखन भी एक पुलिस अधिकारी के रूप में मिले अनुभवों के आधर पर साम्प्रदायिकता के खिलाफ है। धर्म निरपेक्षता की इसी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें नामवर सिंह जैसे लोगों ने महात्मा गांधी हिन्दी विश्वविध्यालय का कुलपति बनवाया है और वे अभी भी उनके कृपा पात्र हैं तथा उनका मौन आशीर्वाद लिए घूमते हैं। यह भी सच है कि विश्वविध्यालय जिस पक्षपात, रिश्वतखोरी, और पतन के गर्त में गिरते जा रहे हैं उससे शिक्षा से जुड़े अयोग्य और अक्षम लोगों में अटूट वेतन बाँटने वाले इन संस्थानों में नियुक्ति को लालायित लोगों के बीच गजब कुत्सित प्रतियोगिताएं चल रही हैं। म.गा. हि.वि. की नियुक्तियाँ भी इसका अपवाद नहीं हैं। नया ज्ञानोदय के सम्पादक रवीन्द्र कालिया की पत्नी ममता कालिया उनकी समिति में हैं तथा मैत्रीय पुष्पा भी हिन्दी डिस्कोर्स के लिए आवेदक रही बतायी गयी हैं, पर उनकी नियुक्ति वहाँ नहीं हुयी।
यह सच है कि एक पुलिस अधिकारी रहे होने के कारण विभूति की भाषा पर उसका प्रभाव हो, इसलिए अपनी बात कहने के लिए उन्होंने जिस शब्द का प्रयोग किया वह निन्दनीय है। एक साहित्यकार को, जिसके साहित्य के आधार पर ही उसे किसी भाषा से जुड़े विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया गया हो, से शब्दों का उचित प्रयोग अपेक्षित है। किंतु कुछ बातें ध्यान में रखने योग्य हैं-
• उन्होंने जो कुछ भी कहा है वह उनका बयान नहीं है अपितु लिए गये साक्षात्कार में साक्षात्कार लेने वाले के प्रश्न का उत्तर है जिसमें उन्होंने किसी का भी नाम नहीं लिया है।
• यह साक्षात्कार नया ज्ञानोदय के “सुपर बेबफाई अंक” के सन्दर्भ में लिया गया था, और जैसा कि विशेषांक के विषय से ही स्पष्ट है, सम्पादक का इरादा अपनी पत्रिका को चर्चा के केन्द्र में लाने के लिए बोल्ड माडलों की तरह, बोल्ड विषयों को विवादित करना ही रहा है।
• यदि विवादित वाक्य से ठीक पहले के प्रश्न का उत्तर देखें तो बहुत सारी बातें स्पष्ट हो सकती हैं जिसमें वे कहते हैं- “वर्जित फल चखने की कल्पना ही उत्तेजना से भरी होती है। यह मनुष्य का स्वभाव है। फिर यहाँ लुत्फ लेने वला कौन है? मनुष्य रूप से पुरुष, । व्यक्तिगत सम्पत्ति और आय के स्त्रोत उसके कब्जे में होने के कारण वह औरतों को नचा कर आनन्द ले सकता है। उन्हें रखैल बना सकता है, और बेबफा के तौर पर उनकी कल्पना कर सकता है। पर जैसे जैसे स्त्रियाँ व्यक्तिगत सम्पत्ति या क्रय शक्ति की मालकिन होती जा रही हैं, धर्म द्वारा प्रतिपादित वर्जनाएं टूट रही हैं, और लुत्फ लेने की प्रवृत्ति उनमें भी बढ रही है।“
इसके बाद जब साक्षात्कार लेने वाला पूछता है कि “ हिन्दी समाज से कोई उदाहरण ?” तब वे यह कहते हुए कि पिछले दिनों हमारे यहाँ जो स्त्री विमर्श हुआ है वह मुख्य रूप से शरीर केन्द्रित है। यह भी कह सकते हैं कि यह बेबफाई का विराट उत्सव की तरह है...............................
खेद के बात तो यह है कि जो लोग भी इस विषय पर चर्चा कर रहे हैं उनमें से कितनों ने उसे पढा है जिसमें वे एंगिल की किताब से उदाहरण देकर अपनी बात स्प्ष्ट करते हुए कहते हैं- एंगिल की पुस्तक “ परिवार व्यक्तिगत सम्पत्ति और् राज्य की उत्पत्ति,” से उदाहरण देते हुए कहते हैं-
“जब तक सम्पत्ति और उत्पादन के साधनों पर स्त्री और पुरुष का समान अधिकार नहीं होगा तब तक पुरुष इस स्तिथि का फायदा महिलाओं के भावनात्मक शोषण के लिए करेगा । असमानता समाप्त होने तक बेबफाई का जेंडर विमर्श न केवल सम्भव ही है अपितु होना ही चाहिए।“
यह तय है कि साक्षात्कर देते समय विभूति नारायण से शब्द चयन में भूल हुयी है, किंतु चोरी के अपराधी को गोली मारने की सजा तो कानून भी नहीं देता है। जब वे स्वयं ही मान रहे हैं कि महिला के आत्म निर्भर होने पर उसमें भी वे वृत्तियाँ पैदा हो जाना स्वाभिक है जिनका शिकार आज पुरुष है तो फिर वे महिला लेखकों के जीवन व्यवहार और उसके स्वीकार को सोशल पुलिस की दृष्टि से क्यों देख रहे हैं।
वे इसी द्वैत का शिकार हैं और उसकी ही सजा पा रहे हैं। मुझे नहीं पता कि विरोध करने वालों में से कितनों ने वह साक्षात्कर पढा है, पर जो बिना पढे ही विरोध कर रहे हैं उनसे अनुरोध है कि उसे आवश्यक रूप से पढें और फिर सजा मुकर्रर करें।
वीरेन्द्र जैन
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ये सच है कि आज के जमाने में नारी सशक्त हुई है लेकिन इसके साथ ये भी सच है कि विकृतियां भी आई हैं। महिला लेखकों को लेकर कुलपति ने जो टिप्पणी की है उस पर उन्होंने माफी मांग ली है। इसलिए उस पर कुछ कहना यथोचित नहीं होगा, लेकिन हां महिला लेखकों से ये कहना जरूरी है कि लेखन प्रगतिशीलता की राह पर होनी चाहिए न कि द्वेष की राह पर।
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