मंगलवार, सितंबर 29, 2015

सरकार के प्रचार पर विचार

सरकार के प्रचार पर विचार                 
                                               वीरेन्द्र जैन                                                        
‘जन सम्पर्क अधिकारी’ जिन्हें अंग्रेजी में पी आर ओ कहा जाता है, किसी संस्थान के कार्य से सम्बन्धित व्यक्तियों के साथ मधुर रिश्ते बनाने, गलतफहमियां दूर करने और अपने संस्थानों के उत्पादों के प्रचार हेतु बनाया गया पद है। क्रमशः यह पद संस्थान की कमियां छुपाने, विरोधी प्रचार का स्पष्टीकरण देने का काम भी करने लगा।  उद्योग व्यापार जगत से चल कर यह पद सरकारों में भी चला आया। लोकतांत्रिक व्यवस्था आने के बाद शासक दलों को आवश्यक लगा कि वे अपने प्रशासनिक कार्यों, विकास योजनाओं, और सामाजिक जागरूकता के लिए जनता से सम्पर्क रखें क्योंकि उन्हें एक निश्चित अवधि के बाद उससे पुनः समर्थन पाने की जरूरत होती है।
  जब किसी संस्थान को अपने उत्पाद की गुणवत्ता से अधिक गुणवान बताने की जरूरत होती है तब उसे उतने ही अधिक और प्रभावी जन सम्पर्क अधिकारियों की जरूरत भी होती है। हमारे देश की अधिकांश सरकारें अपनी कमतर उपलब्धियों को अधिक दर्शाने के लिए इस विभाग का उपयोग करती रही हैं। जो लाभ जनता को जीवन में महसूस होना चाहिए, वे केवल सूचना माध्यमों के विज्ञापनों आदि में देखने को मिलते हैं। सरकारी विज्ञापनों का काम सत्तारूढ नेताओं की छवि को निखार कर प्रचारित करना होकर रह गया है, यही कारण है कि इन विज्ञापनों में नीतियों की कम और नेताओं की छवि अधिक होती है। पिछले साठ सालों में इन विज्ञापनों से सामाजिक कुरीतियों को दूर करने और नई योजनाओं को प्रचारित करने में किये गये व्यय के अनुपात में मदद नहीं मिली। यही कारण रहा कि सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि सरकारी विज्ञापनों का आडिट होना चाहिए और अनावश्यक रूप से नेताओं के चित्रों को प्रकाशित, प्रचारित नहीं किया जाना चाहिए। खेद की बात यह भी है कि सरकार के जिन जनसम्पर्क विभागों को अभिव्यक्ति के अवसरों में वृद्धि के लिए काम करना चाहिए था वही विभाग सरकार की स्वस्थ समीक्षा को रोकने और उचित विरोध को दबाने के लिए मुँह बन्द कराने के कार्यालयों में बदल गये। ये विभाग लोकतांत्रिक मूल्यों को भटकाने, भ्रष्टाचार, अनियमितताओं, और नाकारापन पर परदा डालने के कार्य ही प्रमुख रूप से कर रहे हैं। जो राशि सूचना माध्यमों के चारणों के हित में लगायी जा रही है यदि वही राशि सुपात्रों को वांछित सुविधाएं देने में लगायी जाती तो हितग्राहियों के संतुष्ट चेहरे स्वयं ही सरकारों के प्रचार माडल नजर आने लगते।
     सरकारी जनसम्पर्क विभागों के प्रचार का प्रमुख कार्य लक्ष्य विमुख हो गया है इसलिए उनमें गुणवत्ता भी देखने को नहीं मिलती, इसीलिए प्रभाव भी देखने को नहीं मिलता। घर घर शौचालय बनवाने के एक विज्ञापन में प्रसिद्ध अभिनेत्री विद्या बालन एक ग्रामीण महिला को औषधि देते हुए कहती हैं कि वह स्कूल जाने वाली अपनी मुन्नी को बाहर शौच जाने के लिए कह रही है जिस पर मक्खियां भिनभिनाएंगीं, जो बाद में मुन्नी के खाने पर बैठ कर उसे बीमार करेंगी। अब मक्खियां इतनी पालतू  कैसे हो गयीं जो मुन्नी के शौच पर बैठने के बाद मुन्नी के खाने पर ही बैठेंगी, और उसी को बीमार करेंगीं। यदि वह महिला अपने घर में शौचालय भी बनवा लेती है तो भी अगर गाँव के दूसरे लोग खुले में शौच के लिए जाते हैं तो भी मक्खियां मुन्नी के खाने पर बैठ सकती हैं, या मुन्नी के खुले में शौच जाने पर उस पर बैठी मक्खियां पड़ोस के खाने पर भी बैठ सकती हैं। सच तो यह है कि हमारे विज्ञापन औपचारिक होते जा रहे हैं| जहाँ समस्या सामूहिकता में है वहाँ भी हमने हल को व्यक्ति केन्द्रित कर दिया है। भोपाल में डेंगू फैलने के बाद इस राजधानी के सबसे विशिष्ट स्थान चार इमली, जिसमें मंत्री और आईपीएस जैसे लोगों के बंगले हैं, तीस जगह डेंगू का लारवा पाया गया। किंतु अस्पतालों में डेंगू के इलाज के लिए भरती मरीजों में चार इमली के विशिष्ट लोगों में कोई नहीं था। रिपोर्ट सामने आने के दूसरे दिन जब मैं वहाँ से गुजरा तो देखा कि जगह जगह सफाई हो रही है, धुआँ किया जा रहा है, दवा छिड़की जा रही है। क्या हमारे विशिष्ट लोग कभी आम लोगों की बस्ती और बाज़ारों, पार्कों, सिनेमा हालों की ओर नहीं जाते। जब उन्हें इसी देश की इसी जगह रहना है तो अपना अलग ‘देश’ बना कर कब तक रह सकते हैं? अगर शहर में डेंगू वाले मच्छर होंगे तो उन्हें व्यक्तियों के विशिष्ट होने का शायद ही पता हो, और वे भारतीय नागरिकों की तरह भेद कर पाते हों। केन्द्रीय मंत्री कुमार मंगलम की मृत्यु मलेरिया से हुयी थी और तत्कलीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दो निकट के रिश्तेदारों को डेंगू पाया गया था।
    परिवार नियोजन का प्रचार यदि लक्षित समूह के लिए नीति बना कर किया जाता तो उसी बजट में सार्थक परिणाम निकल सकते थे। किंतु यह बच्चों, वृद्धों, अविवाहित युवक-युवतियों, आदि तक एक साथ झौंक दिया गया, जिसे देख कर कुछ ने शर्म के मारे और कुछ ने पुरानी नैतिकता के मारे इसे कोसा। सबसे ज्यादा प्रचार बढती आबादी के कारण संसाधनो व सुविधाओं के कम होते जाने के सम्बन्ध को आधार बना कर किया गया तो लोगों में यह सन्देश भी गया कि जब तक पूरा समाज बड़े स्तर पर इस सन्देश को ग्रहण नहीं करता तब तक अपने परिवार को नियोजित करके भी संसाधन नहीं बढाये जा सकते। यहीं से लोगों ने समाज में जातियों सम्प्रदायों के रूप में देखना शुरू किया और दूसरों के प्रयासों को अधिक गिनने लगे। शातिर राजनेताओं ने भी उस जानकारी का दुरुपयोग शुरू कर दिया। उल्लेखनीय है कि इसे जब और जहां चयनित नव दम्पत्तियों के समूह तक पहुँचाया गया वहाँ यह प्रभावी साबित हुआ।
      हमारी बहुत सारी कमियां उचित जनसम्पर्क की समझ के कारण भी हैं। इसी कमी के कारण पिछली सरकार अपने अच्छे कार्यों और नीतियों को जनता तक नहीं पहुँचा सकी जबकि विपक्ष ने उसकी कमजोरियों को जनता तक पहुँचा दिया था। वर्तमान सरकार के नेताओं ने जिस कुशल प्रचार प्रतिभा से पिछली सरकार के कार्यों का भी श्रेय ले लिया वही प्रतिभा अगर सरकारी सामाजिक सुधार कार्यों में दिखे तो समाज का कुछ भला हो। जनसम्पर्क के लिए निरंतर परिणाम परीक्षण से गुजरती हुई कोई ठोस नीति होनी चाहिए और इसे तैयार करने के लिए स्तरीय समाजशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों, समेत क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं और सक्रिय पत्रकारों का सहयोग प्राप्त करना चाहिए। इस महत्वपूर्ण विभाग को चापलूसों, चारणों, मुफ्तखोरों, की चारागाह बनने से रोकना भी जरूरी है।   
वीरेन्द्र जैन                                     
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629

                                              

गुरुवार, सितंबर 17, 2015

जीतनराम माँझी के नाम खुला खत

जीतनराम माँझी के नाम खुला खत
वीरेन्द्र जैन

=========================================================================
प्रिय जीतनराम जी
पूर्व मुख्यमंत्री बिहार
पटना
आशा है कि इस समय तक आप एनडीए से आपके दल को मिली सीटों पर चुनाव में जुट गये होगे।
मुझे आपका वह भविष्य दिख रहा है जो सम्भवतः आपको नहीं दिख रहा, इसलिए मुझे आप से सहानिभूति है। जो लोग इतिहास नहीं पढ पाते वे दूसरों की भूलों से सबक नहीं सीखते अपितु स्वयं अनुभव करके ही सीखते हैं। लगता है आप उसी प्रक्रिया में हैं। यही कारण है कि यह पत्र आपके किसी काम का नहीं पर इसके बहाने अगर दूसरे साक्षर लोग कुछ विचार कर सकें तो अच्छा होगा।
       आँख द्वारा देखने के कुछ नियम होते हैं। आँखों के बहुत निकट किसी वस्तु के आ जाने पर भी वस्तु दिखायी नहीं देती, और बहुत दूर चले जाने पर भी यही हाल होता है। यही कारण है कि चुनावी राजनीति करने वाले, और चुनाव लड़ कर जमानत जब्त कराने वाले, सभी उम्मीदवार, डमी या ‘वोट कटउआ’ नहीं होते। उनमें से कुछ तो सचमुच इस भ्रम में रहते हैं कि वे जीत जाएंगे जबकि उनके अलावा शेष सब जानते हैं कि उनकी जमानत जब्त होने वाली है, और वह होती भी है। प्रत्येक चुनाव में ऐसे कई हजार उम्मीदवार उतरते हैं और अपनी कमाई झौंकते हैं।
उम्मीद है कि आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में अगर भाजपा ने चाहा तो आप और आपके कथित दल के दो-चार लोग चुनाव जीत सकते हैं। [ मैं आपके दल का नाम जानता हूं किंतु कथित दल इसलिए कह रहा हूं कि उस नाम का कोई मतलब नहीं व यह भी जानता हूं कि वह क्या है और क्यों बना] यह तय है कि अगर भाजपा चुनाव जीतने की स्थिति में होगी तो वह आपको चुनाव हरा कर आपकी राजनीति को हमेशा के लिए समाप्त करना चाहेगी जिससे आपकी जाति का वोट और विधायक उनमें समाहित हो सकें। इसकी शुरुआत तो उन्होंने इस योजना से ही कर दी है कि आपकी पार्टी के पाँच उम्मीदवार उनके टिकिट पर चुनाव लड़ें, जिसे आपने झुक कर स्वीकार कर लिया है। इस स्वीकार से उन्हें आपकी रीढ की लोच का पता लग गया है। किसी शायर ने कहा है कि ‘नाज है उनको बहुत सब्र मुहब्बत में किया, पूछिए सब्र न करते तो और क्या करते’। आपके पास उनकी हर बात मानने के अलावा दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है।
सच तो यह है कि आपकी आज की हैसियत नितीश कुमार की एक गलत चाल का परिणाम है। जब मोदी का विरोध करके नितीश ने भाजपा को गठबन्धन से बाहर किया तो उन्हें उम्मीद थी कि मुस्लिम वोटों के समर्थन से वे बिहार में लोकसभा चुनाव जीत जाएंगे, किंतु पाँसा उल्टा पड़ा। भाजपा के चुनावी प्रबन्धकों द्वारा बहाये गये धन, गठबन्धन और दलबदलुओं की दम पर भाजपा ने चुनाव जीत लिया। हार के बाद अपनी छवि के लिए नितीश ने आपको अस्थायी मुख्यमंत्री पद सौंप कर समझा था कि आप उनकी खड़ाऊँ से शासन करेंगे, और उपकृत होंगे। कुछ महीनों तक आपने यह किया भी किंतु आपको यह कुर्सी और मुख्यमंत्री निवास के आम व लीची ऐसी भा गयी कि आप भाजपा की चाल में फँस गये और यह समझ बैठे कि अब तक आपको पानी पी पी कर कोसने वाली पार्टी आपको मुख्यमंत्री बनाये रखना चाहती है। काश आपने भाजपा के इतिहास को ठीक से जाना होता कि प्रत्येक संविद या संयुक्त मोर्चा सरकार में आगे बढ कर सम्मिलित होने वाली इस पार्टी के जन्मदाताओं का अपना एजेंडा है व उसने हमेशा ही अपने सहयोगियों को सीड़ी बनाया है और उनको कुतर कुतर कर हजम किया है। देश की पहली गैर काँग्रेस सरकार उनकी इसी हरकत के कारण टूटी थी। उनका आज जो अस्तित्व है वह उनकी इसी कूटनीति के कारण है। देश में दलबदल का खेल उन्होंने ही शुरू किया और बढाया है। देश में जो भी दलितों के उत्थान के विरोधी हैं, वे सभी इस पार्टी के समर्थक हैं, इससे इसका चरित्र प्रकट होता है।
क्या भाजपा द्वारा मुख्यमंत्री के रूप में आपको समर्थन देना विचित्र नहीं लगा था! हो सकता है आपको नहीं लगा हो किंतु पूरे देश के लोगों को आपकी समझ के स्तर और भाजपा के कुतर्क समझ में आ रहे थे। आपके खिलाफ आये अविश्वास प्रस्ताव के समय जो महादलित का तर्क दे रहे थे उन्हें चुनाव के समय महादलित का तर्क याद नहीं आया और आपको मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित करने की बात नहीं की। दूसरी ओर एनडीए के अन्य सारे घटकों को आपसे अधिक सीटें देकर उन्होंने बता दिया कि वे आपका कद कितना आँकते हैं। उन्हीं की पार्टी के वरिष्ठ सांसद शत्रुघ्न सिन्हा आपके प्रतिद्वन्दी रामविलास पासवान को सर्वोत्तम मुख्यमंत्री उम्मीदवार मान रहे हैं।
जीतनराम जी जातिवादी बिहार में आप विधान सभा की दो चार सीटें जीत कर मंत्री पद पा लेने वाले व्यक्ति तो हो सकते थे किंतु कभी भी मुख्यमंत्री मटेरियल न थे, और न हो सकते हैं। दुखद यह है आपको जिस संगठन ने किसी रणनीति की तरह मौका दिया था आपने उसी को धोखा दिया। इससे आपकी जाति के मतदाताओं को कुछ समय के लिए आप पर गर्व जरूर हुआ होगा किंतु दूसरे मतदाताओं के बीच आपकी छवि अच्छी नहीं बनी है। आपकी निर्भरता आपको बनाने वालों पर रही इसलिए भी आप ऐसा कुछ नहीं कर सके जिससे आपके व्यक्तित्व का कोई गुण उभर कर सामने आ पाता। अब आप और आपकी जाति के लोगों का समर्थन भाजपा के लिए है, पर भाजपा आपके व्यक्तित्व में कुछ भी जोड़ने नहीं जा रही है। भविष्य में आप कहीं दया और कहीं हँसी के पात्र समझे जाने वाले हैं।
पुरानी कहावत है – आधी छोड़ सारी खों धावै,  आधी मिलै, न सारी पावै । सनद रहे तथा वक्त जरूरत काम आवै।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629     

शनिवार, सितंबर 05, 2015

भोपाल में विश्व हिन्दी पंचायत [सम्मेलन]



भोपाल में विश्व हिन्दी पंचायत [सम्मेलन]


वीरेन्द्र जैन
मध्य प्रदेश के व्यापम प्रसिद्ध मुख्यमंत्री पंचायतें जोड़ने के लिए भी चर्चित हैं और उन्होंने समय समय पर, विशेष रूप से चुनाव का समय निकट होने पर घरेलू काम करने वाली महिलाओं, ठेले वालों, दर्जियों, बस चालकों-परिचालकों, फुटकर दुकानदारों, नाइयों आदि से लेकर विभिन्न तरह की सेवाएं देने वालों की पंचायतें सरकारी खर्च पर आयोजित की हैं व इनके प्रचार प्रसार के नाम पर जन सम्पर्क विभाग से धन पानी की तरह बहाया है। भले ही इन पंचायतों से सम्बन्धित सेवा वर्ग का कोई भला हुआ हो या नहीं किंतु मुख्यमंत्री की छवि को प्रसारित करने में अवश्य मदद मिली होगी। शायद यही कारण है कि एसआईटी और लोकायुक्त जैसे पदों पर विराजे वरिष्ठ न्यायाधीशों द्वारा व्यापम को उनके जीवन में देखे भयंकरतम घोटाला बताये जाने के बाद भी मुख्यमंत्री अपने पद पर सुशोभित हैं, और हिन्दी सेवियों की पंचायत बुलाने को तत्पर हैं। सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट निर्देशों के बाद भी अभी तक सरकारी विज्ञापनों के आडिट कराये जाने के बारे में कोई प्रगति देखने को नहीं मिलती और मध्य प्रदेश का जनसम्पर्क विभाग आडिट का सबसे सुपात्र है।
इन्हीं पंचायतों की तर्ज पर भोपाल में विश्व हिन्दी सम्मेलन के नाम करोड़ों रुपया फूंका जा रहा है और अमिताभ बच्चन के सहारे नरेन्द्र मोदी की मेजबानी की जा रही है। अगर इसे विश्व हिन्दी पंचायत कहा जाये तो कुछ भी गलत नहीं होगा। उल्लेखनीय है कि इस सम्मेलन के नाम पर एक ओर तो भोपाल की पुरानी जर्जर पानी की टंकियों पर बारह खड़ी लिखवा कर हिन्दी सेवा की जा रही है. पुराने पड़ चुके प्रसिद्ध न्यू मार्केट को नया बाज़ार का नाम देने की औपचारिकता की जा रही है, पर इसी बीच बदनाम हो चुके व्यापम का नाम बदल कर प्रोफेशनल एग्जामिनेशन बोर्ड कर दिया है, क्योंकि अंग्रेजी नाम से ईमानदारी और हिन्दी नाम से बेईमानी की बू आती है।
हरिशंकर परसाई ने एक बार लिखा था कि हिन्दी दिवस के दिन हिन्दी बोलने वाले हिन्दी बोलने वालों से कहते हैं कि हिन्दी में बोलना चाहिए। किसी हिन्दी प्रदेश में विश्व हिन्दी सम्मेलन करने का सांकेतिक अर्थ भी नहीं होता है। स्मरणीय है कि गुजराती मातृभाषा वाले महात्मा गाँधी ने राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना गैर हिन्दीभाषी प्रदेश में की थी।
विश्व हिन्दी सम्मेलनों के परिणामों का कभी सही मूल्यांकन नहीं हुआ है और विदेशों में होने वाले ये सम्मेलन सरकारी धन पर कुछ सरकारी पत्रकारों, चयनित साहित्यकारों एवं सरकारी नौकरी में अतिरिक्त कमाई कर के तृप्त हो जाने वाले अधिकारियों के पर्यटन का साधन बनते रहे हैं। इन सम्मेलनों का जो आयोजन करते रहे हैं उनमें से कुछ पर्यटन स्थलों पर जाने वाली वायुयान कम्पनियों और होटलों के एजेंट भी हैं। हमारी पुराण कथाएं प्रेरक भी होती थीं और सबसे प्रसिद्ध पुराण कथा बताती है कि रावण साधु के भेष में आने पर ही छल करने में सफल होता है। जैसे कि आस्थावानों से पैसा निकलवाने के लिए धार्मिक वेषभूषा वाले ठग, गाय, गंगा आदि के नाम पर दुहते हैं, उसी क्रम में बेचारी हिन्दी को भी रख कर सरकार के माध्यम से पूरी जनता का पैसा निकलवा लिया जाता है। कैसी विडम्बना है कि भोपाल में हिन्दी के नाम पर जितनी संस्थाएं चल रही हैं वे कौड़ियों के नाम पर सरकारी ज़मीनें लेकर मँहगे बारात घर चला रही है और अहसान की तरह सरकारी अनुदान लेकर कभी कभी कुछ साहित्यिक दिखावा भी कर लेती हैं। इनके आयोजनों ने न किसी नये साहित्यिक आन्दोलन को जन्म दिया और न ही किसी विमर्श का सूत्रपात किया। किसी भी असली नकली शोध छात्र के प्रबन्ध में इन आयोजनों से मिले ज्ञान का उल्लेख देखने को नहीं मिलता।
प्रत्येक विश्व हिन्दी सम्मेलन में साहित्यकार सर्वाधिक उत्साहित नजर आते हैं जबकि ये आयोजन साहित्य सम्मेलन की जगह भाषा सम्मेलन होते हैं, और इनमें साहित्य की एक निश्चित जगह होती है जो पाठको के निरंतर कम होते जाने से और भी कम होती जा रही है। हिन्दी का सबसे अधिक प्रयोग सूचना माध्यमों और विज्ञापनों में हो रहा है और ये ही माध्यम अपनी जरूरतों के अनुसार बदलते समाज की भाषा को प्रभावित कर रहे हैं। समाचार पत्रों के या तो पूरे पूरे नाम अंग्रेजी में हैं या उनके संलग्नकों [सप्प्लीमेंट्स] के नाम अंग्रेजी में हैं। विडम्बना यह भी है कि पूरे हिन्दी नाम वाले अखबार या तो बन्द होते जा रहे हैं या सिकुड़ते जा रहे हैं। विज्ञापन समाचार माध्यमों का बड़ा हिस्सा घेरने लगे हैं और ऐसी कोई शर्त नहीं है कि जिस भाषा का अखबार है वह उसी भाषा में विज्ञपन देगा। केवल हिन्दी समझने वाले लोगों के क्षेत्र में बिकने वाले सामान पर भी वस्तुओं के नामों और विवरणों का ज्यादार हिस्सा अंग्रेजी में होता है। ज्यादातर का उद्देश्य इस प्रयोग के पीछे अपने ग्राहकों को अँधेरे में रखना होता है। इसी तरह सरकारी काम काज और सशक्तीकरण योजनाओं के प्रपत्र आदि या तो अंग्रेजी में होते हैं या क्लिष्ठ संस्कृतनिष्ठ होने के कारण सम्बन्धित को अस्पष्ट होते हैं जिसके सहारे सुपात्र को वंचित करके भ्रष्टाचार की राह आसान की जाती है। खेद है कि हिन्दी सम्मेलनों में इन विषयों पर विमर्श की जगह सरस्वती माता, हिन्दी माता  की आरती उतारने जैसे काम अधिक होते हैं।
क्या जरूरी है कि कोई भी भाषा सम्मेलन किसी भी तरह की सरकार का मुखापेक्षी रहे? यह काम अपनी भाषा से प्रेम करने वाले साहित्यकार, पत्रकार और व्यापार जगत क्यों नहीं कर सकता। जो समाज धार्मिक स्थलों पर अरबों रुपये चढा सकता है वह अपनी भाषा के लिए क्या कुछ भी योगदान नहीं कर सकता? लोकतंत्र में सरकारें भी जनता की होती हैं किंतु जब तक जनता की मांग के बिना सरकारें कुछ भी देती हैं तो वह भ्रष्टाचार की भेंट चढ जाता है इसलिए जरूरत है कि अपनी भाषा के प्रति जनता को जागरूक और सक्रिय किया जाये। यदि कोई हिन्दी सम्मेलन यह काम कर सकेगा तब ही वह कामयाब होगा, बरना सरकारी धन को राम की चिड़ियां, राम का खेत मान कर भर भर पेट खा लेने वाले तो तैयार बैठे हैं।         
      वीरेन्द्र जैन                                                            
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629