मंगलवार, जून 25, 2013

आखिर कब मुँह खोलेंगे नितिश कुमार जी

आखिर मुँह कब खोलेंगे नितीश कुमार जी
वीरेन्द्र जैन

       आज़ादी के बाद की सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री रही श्रीमती इन्दिरा गान्धी की सबसे बड़ी आलोचना इस बात के लिए की गयी कि उन्होंने देश में इमरजेंसी लगायी थी जिसमें अभिव्यक्ति की आज़ादी पर नियंत्रण करने की व्यवस्था है। भले ही बाद के टिप्पणीकारों ने अपनी समीक्षा में कहा कि इमरजेंसी में जब झुकने के लिए कहा गया तो वे स्वतः लेट गये। पर इमरजैंसी हटने के बाद अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा को ही मुख्य मुद्दा बनाया गया था व दुबारा सत्ता में लौटने के बाद श्रीमती गान्धी ने स्वयं भी कहा था कि अब वे कभी इमरजैंसी नहीं लगायेंगीं। यह भी सच है कि बाद में अनेक सरकारें केन्द्र की सत्ता में रहीं पर विषम से विषम परिस्तिथियों में भी किसी ने इमरजैंसी लगाने के बारे में नहीं सोचा।
       भले ही अभिव्यक्ति की आज़ादी को रोकने के लिए कोई इमरजैंसी नहीं लगायी गयी हो और शायद भविष्य में भी ऐसा दुस्साहस कोई सत्तारूढ दल न कर सके पर जरूरी नहीं कि अभिव्यक्ति की आज़ादी को दबाने के लिए हमेशा इमरजैन्सी ही लगाना पड़े। लोगों के स्वार्थ, अपराधबोध और भय भी उन्हें मुँह नहीं खोलने देते अन्यथा आज हमारे देश में जो षड़यंत्रकारी राजनीति चल रही है उसका कहीं न कहीं खुलासा होता रहता और दोषियों को सजा मिलती रहती। अभी हाल ही में जेडी[यू] ने नरेन्द्र मोदी को प्रचार अभियान का चेयरमैन बनाये जाने पर भाजपा को बिहार सरकार से अलग कर दिया और गठबन्धन तोड़ दिया। इस चोट से आहत भाजपा के नेता जब जेडी[यू] पर तरह से तरह से अपशब्दों की बौछारें करने लगे तो नितीश कुमार को कहना पड़ा कि अगर मैंने मुँह खोल दिया तो भाजपा के कई नेता संकट में होंगे। उनके इस कथन से स्पष्ट है कि उनके पास भाजपा के ऐसे कई राज दफन हैं जिन्हें वे दबाये हुये हैं। यह राजदारी भले ही भाजपा नेताओं के हित में हो किंतु देश के हित में तो नहीं है। तो फिर क्या कारण है कि नितीश कुमार इन राजों को दबाये हुये हैं और भाजपा से भी अपना मुँह बन्द रखने की धमकियां दे रहे हैं। यह वैसा ही है कि न तुम हमारी कहो और न मैं तुम्हारी कहूं।
       स्मरणीय है कि अभी कुछ ही दिन पहले जब सुप्रसिद्ध वकील रामजेठमलानी को भाजपा से निकालना पड़ा था तब उन्होंने भी इसी भाषा का स्तेमाल किया था। उन्होंने भाजपा नेताओं को याद दिलाया था कि उन्होंने उन्हें भाजपा में वापिस आने के लिए खुद ही हाथ जोड़े थे, तब वे भाजपा में सम्मलित हुये थे। जेठमलानीजी भाजपा के सबसे प्रमुख और लोकप्रिय नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ चुनाव लड़ चुके हैं और उन जैसे वकील को हाथ जोड़ कर पार्टी में वापिस लाने का मतलब यही होता है कि किसी प्रकरण में उनकी वकालत अपरिहार्य समझी गयी होगी। उल्लेखनीय है कि अपनी मुखरता के लिए मशहूर श्री जेठमलानी ने भाजपा में वापिस आने के बाद सदैव ही मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाये जाने का समर्थन किया व मोदी ने भी उन की अनुशासनहीनता के खिलाफ कभी एक शब्द भी नहीं कहा। जेठमलानी ने कहा कि मौजूदा यूपीए सरकार को हटाना अगर उनका मिशन नहीं होता तो वे भाजपा के आला भ्रष्ट नेताओं की पोल पट्टी खोल कर देश को बता देते। अर्थात वे भी भाजपा के आला नेताओं के भ्रष्टाचार के राजदार हैं किंतु यूपीए सरकार को हटाने के नाम पर अपने मुँह से सचाई नहीं बखानना चाहते। क्या ऐसे नेताओं को इमरजैंसी का विरोध करने और उसे अभिव्यक्ति की आज़ादी का हनन बताने का हक़ है? रोचक यह है कि मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भाजपाई और समाजवादी इमरजैंसी में जेल में रहने की अवधि के आधार पर पेंशन के रूप में अच्छी खासी रकम प्राप्त कर रहे हैं और समाजवादियों को माफी माँग कर बाहर आने वाले भाजपाइयों के साथ पेंशन लेने में किसी तरह की शर्म महसूस नहीं होती।
       भाजपा में तो पार्टी से बाहर जाने वाला हर नेता राज खोल देने की धमकी देता है और फिर धमकी का सौदा करके चुप लगा जाता है। मदनलाल खुराना, कल्याण सिंह, केशूभाई पटेल, उमाभारती, से लेकर तमाम नेता ऐसी ही धमकियां दे दे कर चुप्पी साध चुके हैं। अमर सिंह भी मुलायम सिंह के खिलाफ ऐसी ही बातें कह कर चुप हो गये हैं। हमारे देश में कोई विक्कीलीक्स नहीं होता जो राजनीति के अन्दर पल रही सड़ाँध पर से ढक्कन हटाने का काम करे। इमरजैंसी में अभिव्यक्ति की आज़ादी का झंडा उठाने वाले जय प्रकाश नारायण के चेले होने का दावा करने वाले क्यों केवल मुँह खोलने को धमकी की तरह स्तेमाल करते हैं। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि उदय प्रकाश की एक कविता है-
मर जाने के बाद आदमी कुछ नहीं सोचता
मर जाने के बाद आदमी कुछ नहीं बोलता
कुछ नहीं सोचने
और कुछ नहीं बोलने पर आदमी मर जाता है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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गुरुवार, जून 20, 2013

भाजपा में छाया स्वार्थ का आपातकाल

भाजपा में छाया स्वार्थ का आपातकाल
वीरेन्द्र जैन       
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       संघ परिवार के लोग न तो लोकतंत्रिक हैं, न सच्चे, न ईमानदार,और न ही निर्भय। हाल में ही घटित मोदी प्रकरण के बाद यह बात और अधिक पुष्ट हो चुकी है। वे अवसरवादी, लालची, सिद्धांतहीन, और भयजनित हिंसा से भरे हुये लोग हैं जो मौका लगने पर कमजोरों को मारकर अपनी बहादुरी बखानते रहते हैं, और उसमें भी दूसरों को उकसाने व स्वयं को खतरों से दूर रख कर अवसर पर भुजायें पुजवाने के लिए आगे खड़े मिलते हैं। इनका नेतृत्व सवर्णों या सम्पन्नों के पास रहता है किंतु हिंसक गतिविधियों के लिए ये दलितों, आदिवासियों या पिछड़ों को आगे करते रहते हैं। इतना सब साफ और स्पष्ट हो जाने के बाद भी कि भाजपा आरएसएस का ही आनुषांगिक संगठन है और छोटी से छोटी बात में भी उसी का फैसला अंतिम होता है, ये गलतबयानी करते हुये कहते हैं कि संघ तो केवल माँगने पर सलाह देता है।
       मोदी को इन दिनों इस तरह से भाजपा, एनडीए, के केन्द्र में ले आया गया है, गोया उनके बिना देश की संसद में  सबसे अधिक संख्या वाले विपक्षी दल का अनाथ हो जाना तय हो। 2002 में गुजरात के अन्दर घटित मुस्लिमों के नरसंहार से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम हुए मोदी को विकास पुरुष, लौह पुरुष, अच्छा प्रशासक, आदि आदि विशेषणों से मण्डित करके उनके करनामों पर परदा डालने का सोचा समझा काम किया गया तथा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के शिकार हुए हिन्दुओं को मोदी के पीछे लामबन्द करने की चाल चली गयी। इस अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को अगर भाजपा के वरिष्ठ नेता, पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण अडवाणी और एनडीए के अध्यक्ष शरद यादव ने बीच में ही थाम नहीं लिया होता तो बहुत सम्भव था कि अडवाणी के रथ की तरह यह भी अपने पीछे पीछे एक खूनी लकीर खींचता हुआ निकल चुका होता।
       सच तो यह है कि मोदी के व्यक्तित्व का सारा महल झूठ पर खड़ा किया गया है और अभी भी अवसर के अनुकूल उनको वापिस खींचने के अनेक चोर रास्ते खुले रखे गये हैं। अभी तक भी उनको भले ही मीडिया में भाजपा की ओर से अगले प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के नाम से उछाला जा रहा हो, पर, पार्टी की किसी भी फोरम पर उन्हें प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित नहीं किया गया है। अभी तक भी यह बहुत स्पष्ट नहीं है कि उन्हें इस साल होने वाले विधानसभा चुनावों के प्रचार का ही चेयरमैन बनाया गया है या अगले साल सम्भावित लोकसभा चुनावों के लिए प्रभारी बनाया गया है। यदि यह पद इतना ही महत्वपूर्ण है तो इसके ठीक से निर्वाह के लिए मोदी ने गुजरात के मुख्य मंत्री पद को छोड़ने या अपना उत्तराधिकारी तय करने का काम क्यों नहीं किया! क्या भाजपा इतनी ही नेतृत्वशून्य हो चुकी है कि कहीं भी मोदी का विकल्प संघ के पदाधिकारियों को नज़र ही नहीं आता! प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के लिए तो मोदी, प्रचार समिति के चेयरमैन पद के लिए भी मोदी और गुजरात के मुख्यमंत्री पद के लिए भी मोदी ही चाहिए! दुनिया में सबसे बड़ी क्रांति के नेता ने कहा था कि अच्छा नेता वह नहीं है जो बहुत सारे अनुयायी बनाये अपितु अच्छा नेता वह है जो और और अपने जैसे नेता विकसित करे। यह तब ही सम्भव है जब कोई पार्टी किसी सिद्धांत पर आधारित हो और सरकार के बनने, बिखरने की चिंता किये बिना अनुशासन से कोई समझौता नहीं करे। उचित नेतृत्व के अभाव में भाजपा को बंगारू लक्ष्मण जैसे नेताओं को अध्यक्ष बनाना पड़ता है जो किसी काल्पनिक रक्षा उपकरण की खरीद में मदद करने के नाम पर धन लेते और अगली बार डालर में माँगते हुए कैमरे में कैद हो जाते हैं तथा जिन्हें बाद में सजा और ज़ुर्माना भी होता है। पर इस बीच में उनकी पत्नी को सांसद का टिकिट देकर व राजस्थान के सुरक्षित क्षेत्र से सांसद बना कर उपकृत किया जाता है। रोचक यह है कि जरा जरा से स्वार्थों पर पार्टी के झगड़े उजागर हो जाने पर ये पार्टी के अन्दर लोकतंत्र की दुहाई देने से नहीं चूकते पर अध्यक्ष जैसे अति महत्वपूर्ण विषयों पर यह लोकतंत्र कहीं नज़र नहीं आता। जब संघ चाहता है तो गडकरी जैसे व्यापारी नेताओं को न केवल थोप देता है अपितु दुबारा भी थोपने के लिए संविधान बदलवा देता है। दूसरी बार अगर कहीं मामूली सा विरोध देखने में आता है तो वह उन वकील नेताओं की ओर से देखने में आता है जिन्हें बतौर मेहनताना राज्यसभा की सदस्यता और पार्टी में पद देकर उपकृत किया गया होता है। कभी अडवाणी के हनुमानों को अध्यक्ष पद दे दिया जाता है जो घबरा कर अपनी पत्नी की बीमारी के बहाने उसे छोड़ कर भाग जाते हैं पर बाद में बीमारी के रहते ही उपाध्यक्ष पद स्वीकार कर लेते हैं।
       आइए अब भाजपा के सर्वोत्तम प्रचारित किये जा रहे नेता मोदी की बात करें। नरेन्द्रमोदी स्वाभाविक नेता के रूप में उभरकर मुख्यमंत्री नहीं बने थे अपितु उन्हें ऊपर से थोपा गया था। यह पद उन्होंने दिल्ली में पार्टी प्रवक्ता का का र्य करते हुए और गोबिन्दाचार्य के साथ रहते हुये जुगाड़ जमा कर पाया था। यह पद पाने के लिए उन्होंने भाजपा के ही विधिवत चुने हुये मुख्यमंत्री को विस्थापित किया था। वे उस समय विधायक भी नहीं थे तथा जब उन्होंने उपचुनाव लड़ कर विधानसभा की सदस्यता प्राप्त की उस समय विधानसभा की चार सीटों के लिए उपचुनाव हुये थे जिनमें से तीन पर भाजपा हार गयी थी मुख्यमंत्री रहते हुये नरेन्दमोदी जिस सीट से जीते थे उसे उससे पूर्व जीते भाजपा प्रत्याशी ने  उन से दुगने मतों से जीता था। यह नरेन्द्रमोदी की कथित  'लोकप्रियता' का नमूना था कि उस सीट पर भाजपा की जीत आधी रह गयी थी । मोदी को लोकप्रियता गोधरा में साबरमती एक्सप्रैस की बोगी संख्या 6 में हुयी आगजनी और उसके बारे में किये गये गलत प्रचार के बाद मिली जिसके आलोक में उन्होंने साम्प्रदायिकता से दुष्प्रभावित हो चुके एक वर्ग को हिंसा और लूटपाट की खुली छूट देकर अपने प्रभाव में ले लिया तथा बाद में उनके अपराधबोध में उन्हें सुरक्षा का आश्वासन भी दिया, जिससे वे उनके गुलाम हो गये। जब गुजरात में पैदा कर दिये गये साम्प्रदायिक तनावों को देखते हुए तत्कालीन चुनव आयुक्त लिंगदोह ने चुनावों को कुछ समय के लिए स्थगित किया था तो इन्हीं मोदी ने उन जैसे ईमानदार प्रशासक के लिए जिस भाषा का प्रयोग किया था उसे याद करने के बाद अगर कोई उन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने की सोचता भी है तो उसकी सोच पर शर्म आती है। आज तक देश का कोई प्रधानमंत्री ऐसा नहीं हुआ जिसने ऐसी भाषा बोली हो या जिसके इतिहास में मोदी जैसे आरोप लगे हों। आज भाजपा के लोग प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को मौनमोहन सिंह या मौनी बाबा कहते हैं किंतु अडवाणीजी बतायें कि भाजपा सरकार के ही एक वरिष्ठ मंत्री हरेन पंड्या की हत्या के बाद जब वह देश के गृह मंत्री रहते हुए शोक प्रकट करने गये थे तब हरेन पंड्या के पिता ने जोर शोर से नरेन्द्र मोदी पर हत्या के लिए जिम्मेवार होने का आरोप लगया था तब अडवाणी जी के मुँह में दही क्या इसलिए जम गया था क्योंकि वह गुजरात के गान्धी नगर से चुनाव लड़ने के लिए वहाँ के मुख्यमन्त्री की कृपा पर निर्भर रहते हैं। अडवाणीजी ही क्यों पाँच साल राज्यसभा में विपक्ष के नेता रहने के कार्यकाल में जिनकी सम्पत्ति 23 करोड़ से 256 करोड़ हो जाती है ऐसे एडवोकेट अरुण जैटली भी राज्य सभा में पहुँचने के लिए मोदी की दया पर रहते हैं। अपने और अपने मंत्रियों पर चल रहे आपराधिक मुक़दमों के लिए देश के सबसे अच्छे क्रिमिनल वकील राम जेठमलानी को भी मोदी  राजस्थान से राज्य सभा में भेजकर मेहनताने का एक भाग चुकाते हैं। ये वही जेठमलानी हैं जिन्होंने भाजपा के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ चुनाव में खड़े होकर चुनौती दी थी, पर मोदी को अपने आगे कोई नहीं दिखता।  स्मरणीय है कि भाजपा के अनुशासन को ठेंगे पर रखने वाले मोदीप्रिय जेठमलानी को जब अनुशासनहीनता के आरोप में पार्टी से निकाल दिया गया तो उन्होंने धमकी भरे अन्दाज़ में कहा कि पार्टी में आने के लिए भाजपा के नेताओं ने ही हाथ जोड़े थे तब वे वापिस आये थे तथा अब भी अगर वे नहीं माने तो उनकी पोलपट्टी खोलकर देश को सच बता देंगे। ये वही मोदी मित्र जेठमलानी हैं जो इससे पहले भी तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के भ्रष्टाचार के मामलों पर सवाल उठा चुके हैं।
       यदि मोदी 2002 में हुए मुस्लिमों के नरसंहार के लिए स्वयं को और अपने लोगों को दोषी नहीं मानते हैं तो उन्होंने कभी अपने गर्वीले गुजरात के इन निर्दोष नागरिकों के मारे जाने पर चिंता और दुख व्यक्त क्यों नहीं किया व दोषियों को दण्ड दिलाने के लिए कुछ क्यों नहीं किया? इसके विपरीत माया कोडनानी और अमित शाह जैसे लोगों को अपने मंत्रिमण्डल में सम्मलित करने के अलावा उनके पास विकल्प क्यों नहीं था? अपनी ईमानदारी का ढोंग करने वाले इस व्यक्ति को क्या पता नहीं था कि उसके मंत्रियों गोरधन झड़पिया और बाबूभाई बुकारिया आदि ने क्या क्या काला पीला किया हुआ है। आज गुजरात सर्वाधिक कर्ज़दार राज्य क्यों है और क्यों कर्ज़ ले ले कर बाहर से बुलाये गये उद्योगपतियों को अटूट सुविधायें लुटाकर अपई छवि बनायी जा रही है?
       सत्ता के सुख का गुलाम और ज़मीनों जायज़ादों की भूख में लिप्त भाजपायी कभी भी सच बात नहीं बोल पाता जिसका पता बलराज मधोक, कल्याण सिंह, उमा भारती, मदनलाल खुराना, केशूभाई पटेल, शंकर सिंह बघेला, सुरेश मेहता, काँशीराम राणा, के बाद लाल कृष्ण अडवाणी तक को लग चुका है। जब उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के वरिष्ठ नेता अमित शाह को प्रभारी बनाने के सवाल पर कुछ नहीं बोल पाते तो शायद वे कभी भी कुछ नहीं बोलेंगे। इस मौन का सबक तो अब जनता ही उन्हें सिखायेगी, जिसे अडवाणीजी समझ भी चुके हैं और कह भी चुके हैं।   
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, जून 10, 2013

मोदी कोचर्चा में बनाये रखने की तरकीब

मोदी को चर्चा में बनाये रखने की तरकीब

वीरेन्द्र जैन
       बदनाम भी होंगे तो क्या नाम न होगा?
                लोकप्रियतावाद के शिकार लोकतंत्र में भाजपा इसी सिद्धांत से काम करती है इसलिए हर तरह की लोकप्रियता को भुनाने के लिए विख्यात और कुख्यात दोनों तरह के चर्चित लोगों के सहारे वोटों के फल झड़ाने का जतन करती है। शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, दीपिका चिखलिया, दारा सिंह, हेमा मालिनी, धर्मेन्द्र, ही नहीं अपितु अरविन्द त्रिवेदी, और नवज्योत सिंह सिद्धु, आदि से लेकर साधु-साध्वियों के भेष में रहने वाले बहुरूपिये, क्रिकेट खिलाड़ी, मंच के कवि, पूर्व राजे-महाराजे, आदि सैकडों विख्यात और कुख्यात लोगों की पूंछ पकड़ कर चुनाव की बैतरणी पार करती रही है। नरेन्द्र मोदी उनके नये संसाधन बनते जा रहे हैं। प्रचार कुशल भाजपा किसी भी असत्य या अर्धसत्य को गोयेबल्स की नीति के अनुसार इतनी बार दुहराती है कि सामान्य जन को वह सत्य सा महसूस होने लगता है। झूठ का यह महायज्ञ वे चुनावों के आसपास ही प्रारम्भ करते हैं और इसी बीच सम्पन्न चुनावों में वे अपनी नैया पार लगा लेते रहे हैं।
       पिछले दिनों कर्नाटक में भाजपा ने येदुरप्पा को भरपूर बदनाम होने का अवसर देकर भी पद पर बनाये रखा था और फिर जब उनके सारे पाप अकेले येदुरप्पा में केन्द्रित होकर रह गये थे तब उन्हें इतनी सावधानी से पार्टी से निकाल दिया तकि राज्य सरकार बनी रहे और लगे कि भाजपा तो शुद्धतम है जिसमें से मवाद  को बाहर निकाल दिया गया है। उल्लेखनीय है कि येदुरप्पा उन लोगों में से एक थे जिन्होंने अपना पूरा बचपन ही नहीं अपितु यौवन भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयं सेवक की तरह से निकाला था व जेल यात्राएं की थी।  वे 1970 में ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शिकारीपुर इकाई के सचिव नियुक्त हुये। 1972 में वे जनसंघ [भाजपा] की तालुक इकाई के अध्यक्ष चुन लिये गये। 1975 में  वे शिकारीपुर की नगरपालिका के पार्षद और  1977 में चेयरमेन चुने गये थे। एक बार निरीक्षण के दौरान उन पर घातक हमला किया गया था। 1975 से 1977 के दौरान लगी इमरजैंसी  में वे  45 दिन तक बेल्लारी और शिमोगा की जेलों में रहे। 1980 में शिकारीपुर तालुका के भाजपा अध्यक्ष के रूप में चुने जाने की बाद 1985 में वे शिमोगा के जिला अध्यक्ष बना दिये गये। अगले तीन साल के अन्दर ही वे भाजपा की कर्नाटक राज्य भाजपा के अध्यक्ष चुन लिये गये। 1983 में पहली बार शिकारीपुर से विधायक चुने जाने के बाद वे छह बार इसी क्षेत्र से चुने गये। वे तब भी जीते जब 1985 में उनकी पार्टी के कुल दो सदस्य विजयी हो सके थे। बीच में कुल एक बार चुनाव हार जाने के कारण उन्हें विधान परिषद में जाना पड़ा। 1999 में वे विपक्ष के नेता रहे। स्मरणीय है कि इस पूरे दौर में उन पर भ्रष्टाचार का कोई दाग नहीं लग सका था। 
        जब रेड्डी बन्धु संघ की समर्पित कार्यकर्ता शोभा कलिंजिद्रे को हटाने या सरकार गिराने की धमकी दे रहे थे तब सरकार बचाने के लिए शोभा को मंत्रिमण्डल से हटाने के निर्देश किसने दिये थे? स्मरणीय है कि तब येदुरप्पा इस सैद्धांतिक मामले पर सरकार को कुर्बान करने के लिए तैयार थे। दूसरी बार जब विधायकों के एक गुट ने विद्रोह कर दिया था और कुछ विधायकों ने त्यागपत्र दे दिया था तब उसका प्रबन्धन किसने किया था। केन्द्रीय नेताओं ने किसके बूते यह कहा था कि येदि को कोई ताकत हटा नहीं सकती और वे पूरे कार्यकाल तक मुख्यमंत्री बने रहेंगे। उस समय तक जब पूरा देश जान चुका था कि यह कहानी उस समय से शुरू होती है जब श्रीमती  गान्धी ने बेल्लारी से चुनाव लड़ा था और उनके विरोध के लिए सुषमा स्वराज को उतारा गया था तब रेड्डी बन्धुओं से भाजपा का समझौता हुआ था तथा भाजपा की जड़ें इसी खनन माफिया से ही पल्लवित पुष्पित हुयी हैं व उनके द्वारा ही जुटाये गये समर्थन से ही दक्षिण में भाजपा को अपने डैने फैलाने का मौका मिला था। क्या यह अनायास था कि रेड्डी बन्धुओं द्वारा बेल्लारी में आयोजित होने वाली वरलक्ष्मी पूजा में 1999 के बाद सुषमा स्वराज तब तक लगातार आती रही हैं जब तक कि रेड्डी बन्धुओं पर उठने वाले छींटे उन तक पहुँचने लगे थे। जब भाजपा के वरिष्ठतम नेताओं में से एक शांता कुमार ने जो कर्नाटक के प्रभारी थे येदुरप्पा के कारनामों से पार्टी को सवधान किया था तब भी किसी के कान पर जूं भी नहीं रेंगी थी और नुकसान शांता कुमार का ही हुआ था।
       भाजपा इतने चतुर सुजानों की पार्टी है कि वह मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की मूर्खता कभी नहीं करेगी, क्योंकि वह जानती है कि पिछली एनडीए की सरकार मोदी के कारनामों के कारण ही टूटी थी। आज जो मोदी के लाउडस्पीकर बन रहे हैं उनमें कोई भी ऐसा नया व्यक्ति नहीं है जो पूर्व से ही भाजपा के साम्प्रदायिक स्वरूप का अन्ध समर्थक न रहा हो। एक साथ एक सी पुकार लगाने पर स्वर में ध्वनि विस्तारक का प्रभाव पैदा होता है, मोदी को प्रतीत होता समर्थन भी लगभग ऐसा ही है। अनुभवी अडवाणी समेत भाजपा के वरिष्ठ नेता पहले ही घोषित कर चुके थे कि यूपीए सरकार पर लगे आरोपों से पैदा की गयी अलोकप्रियता के बाद भी जनता भाजपा को विकल्प के रूप में नही देख रही है। उसके तिकड़मबाजी के इतिहास को देखते हुए ऐसा लगता है कि उन्होंने गुजरात और शेष भारत के कट्टरतावादियों को एकजुट करने के लिए मोदी का नाम उछाल दिया है त्तकि छीझते समर्थन से निराश अडवाणी जैसे नेताओं को प्रोत्साहित किया जा सके। इसी कारण से मोदी के विरोध और समर्थन की नौटंकियां खेली जा रही हैं और मोदी को लगातार सुर्खियों में रखा जा रहा है। आखिर क्या कारण रहा कि मोदी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित करने की जगह प्रचार अभियान समिति का चेयेरमैन भर बना कर छोड़ दिया गया। आखिर वो कौन सा मंत्र फूंका गया कि मोदी का लगातार विरोध करने वाले नेताओं ने रातों रात अपना विरोध वापिस ले लिया? आखिर अमित शाह जैसे गम्भीर आरोपों से घिरे व्यक्ति को उत्तरप्रदेश का प्रभारी बनाने के सवाल पर भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह मिमयाने क्यों लगते हैं?
       उल्लेखनीय है कि हाल ही के उप चुनावों में मुज़फ्फरपुर में जेडी[यू] द्वारा राजद की सीट न हथिया पाने को मोदी की जीत के रूप में प्रचारित किया गया और बिके हुए अखबारों ने अपने प्रथम पृष्ठ पर यह झूठ लिख कि मोदी समर्थकों द्वारा जेडी[यू] को समर्थन न देने से यह हार हुयी है, जबकि सच्चाई यह है कि जेडी[यू] को पहले भी भाजपा के साथ और पूरे समर्थन से चुनाव लड़ने के बाद भी पराजय मिली थी तथा गत चुनव में मिले 208813 मतों के विरुद्ध इस बार दो लाख चवालीस हजार मत मिले हैं। स्मरणीय है कि इस बार जेडी[यू] का पिछला उम्मीदवार ही दल बदल कर आरजेडी का उम्मीदवार था जो अपने साथ अपने व्यक्तिगत वोट भी लेता गया था। जब मैंने कुछ परिचित रिपोर्टरों से उनके निष्कर्ष का आधार पूछा तो वे हँस कर टाल गये। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह पेड न्यूज का ही हिस्सा था। संयोग से जब काँग्रेस के एक वरिष्ठ महासचिव ने उसी दिन सवाल पूछा कि मोदी बताएं कि गुजरात सबसे अधिक कर्ज़ वाला राज्य क्यों है और गर्वीले गुजरात का प्रत्येक नागरिक सबसे अधिक कर्ज़ में क्यों है तो किसी ने इसे प्रथम पृष्ठ पर जगह देने की ज़रूरत नहीं समझी।
       भाजपा नेताओं की बीमारियों के तो इतने रोचक और मनोरंजक किस्से हैं कि उन पर भाजपा नेतृत्व समेत शायद ही कोई विश्वास करता होगा। उल्लेखनीय है कि बात बात में बीमारी का बहाना बनाने वाली उमाभारती ने खजुराहो चुनाव क्षेत्र छोड़ कर भोपाल को चुनाव क्षेत्र बनाने के पीछे जो तर्क दिया था वह यह था कि वहाँ उस क्षेत्र में उनका स्वास्थ ठीक नहीं रहता, पर जब भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष वैकैय्या नायडू ने अपनी पत्नी की बीमारी के नाम पर अध्यक्ष पद से स्तीफा दिया तो उमाजी ने ही भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को पत्र लिख कर कहा था कि वैंकय्याजी ने अपनी पत्नी की रजोनिवृत्ति को राष्ट्रीय बीमारी बना दिया। उम्मीद है कि आदरणीय अडवाणीजी अपनी बीमीरी से, वह चाहे जो भी हो, शीघ्र मुक्त होकर स्वास्थ लाभ करेंगे। स्वस्थ लोकतंत्र में भरोसा रखने वाले सभी लोगों की शुभकामनाएं उनके साथ हैं। जहाँ तक आरोपों का सवाल है तो न तो मोदी उससे मुक्त हैं और न ही अडवाणीजी, शायद बहुत खोजने पर कोई मिल जाये!   
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, जून 07, 2013

कला संस्कृति के क्षेत्र में दुष्प्रवृत्तियां

कला-संस्कृति के क्षेत्र में दुष्प्रवृत्तियां
आखिर ये किसे धोखा दे रहे हैं?

वीरेन्द्र जैन 
       भारी भरकम पृष्ठों वाले समाचार पत्रों में फिल्म और सांस्कृतिक गतिविधियों से सम्बन्धित चार पृष्ठ सुरक्षित रहते हैं। इन पृष्ठों में सांस्कृतिक गतिविधियों से ज्यादा लगातार दिये जाने वाले सम्मानों और पुरस्कारों के समाचार छपते हैं। इन समाचारों में किसी संस्था के बैनर के समक्ष किसी मंत्री या वरिष्ठ अधिकारी के हाथों पुरस्कार लेते देते ऐसे संस्कृतिकर्मियों के चित्र छपे होते हैं जिनके सांस्कृतिक अवदान से अखबारों के अधिकांश पाठक ही नहीं अपितु नगर के संस्कृतिकर्मी तक अनभिज्ञ होते हैं। पुरस्कार देने वाली संस्था के पदाधिकारियों तक पुरस्कृतों की प्रकाशित कृतियों और रचनाकर्म के बारे में ठीक से नहीं जानते। ऐसे समारोहों का आमंत्रण देने आये संस्था के पदाधिकारियों से मैंने जब भी जिज्ञासाएं व्यक्त कीं तब तब वे दायें बायें करने लगे।
       मध्यप्रदेश से प्रारम्भ होकर यह बीमारी अब पूरे देश की राजधानियों में पहुँच गयी है। कभी सरकारी सहायता से विख्यात संस्कृतिकर्मियों को सम्मानित करने का काम एक अच्छी भावना से प्रारम्भ हुआ था। ये पुरस्कार सम्मान सुपात्रों को तब मिलते थे जब वे अपने कलाकर्म से कलाप्रेमियों के बीच सम्मानित जगह बना चुके होते थे। देश के प्रतिष्ठित और वरिष्ठ कला मनीषियों के द्वारा उनका चयन होता था और अपने प्रिय कलाकार को सम्मानित व पुरस्कृत होते देख कलाप्रेमी खुद की परख और सुरुचि को सम्मानित होता पाते थे। उन दिनों सम्मानों का एक क्रम भी होता था। बाद में कुछ पक्षपात पैदा हुआ और क्रम बदल गया व पुरस्कार देने वाली सरकार व उसके अधिकारियों के प्रति बफादारी उसका आधार बनता गया, पर इसमें भी पुरस्कृतों की पात्रता में उन्नीस-बीस का ही फर्क होता था। बाद में जब पक्षपात और बफादारी का आधार बढता गया तब हर ऐरा गैरा सरकारी पुरस्कार के रूप में प्राप्त होने वाले धन और सरकारी सम्मान के सपने देखने लगा। कला के क्षेत्र में सभी यशप्रार्थी होते रहे हैं पर अपने से वरिष्ठ की उपेक्षा करके पुरस्कार हथियाने की दुष्प्रवृत्ति इसी दौर में पैदा हुयी। माहौल ये हो गया कि कलाओं के क्षेत्र में प्रतियोगिता द्वारा पुरस्कार पाने की जगह सम्पर्कों, सम्बन्धों, और बफादारी प्रदर्शन से पुरस्कार हथियाने के लिए षड़यंत्र किये जाने लगे और मीडिया के सहारे एक दूसरे पर ही नहीं अपितु सरकार पर भी कीचड़ उछाला जाने लगा। अपनी छवि की रक्षा में सरकार ने विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं को सम्मान पुरस्कार देने के लिए अनुदान देना प्रारम्भ कर दिया ताकि उसकी आलोचनाओं को रोका जा सके। इसके बाद तो पुरस्कार सम्मान बाँटने वाली गैर संस्थाओं की बाढ आ गयी जिनके पदाधिकारी इन अनुदानों से अपना भला भी करने लगे।
       कला के क्षेत्र में इस व्यापार के आने के बाद पुरस्कार देने के लिए ऐसे सम्पन्न व्यक्तियों और मलाईदार पदों पर बैठे अधिकारियों की तलाश होने लगी जो सम्मान के बदले में संस्था या उसके पदाधिकारियों को लाभांवित कर सकें। धन हस्तगत करने के लिए पुरस्कार के दौरान स्मारिका के नाम एक बुकलेट निकाली जाने लगी जिसमें विज्ञापन के नाम पर सरकारी या पुरस्कृत अधिकारियों से सम्बन्धित व्यापारियों, ठेकेदारों, और उद्योगपतियों से यथासम्भव राशियां जुटायी जाने लगीं। आजकल राजधानियों में यह अनेक लोगों का धन्धा बन चुका है और इतनी बड़ी संख्या में इसे किया जा रहा है कि नगर का कोई भी व्यक्ति एक बार में ऐसी सारी संस्थाओं के नाम याद नहीं कर सकता। पुरस्कार और सम्मान बेचने के लिए एजेंट घूमते हैं जो पुरस्कार आकांक्षियों की सम्भावनाएं तलाशते रहते हैं। सरकारी विज्ञापनों के लिए बहुत बड़ी संख्या में पत्रिकाएं निकलने लगीं जिनमें से कई तो कुल पचास की संख्या से आगे नहीं जातीं व कुछ में तो केवल कवर ही बदल दिया जाता है। इन पत्रिकाओं के सम्पादकों ने भी व्यक्ति विशेष पर विशेषांक निकालने का धन्धा प्रारम्भ कर दिया जो कलाकर्मी के चालीसवें, पचासवें, साठवें जन्मदिन या कभी भी किसी अवसर के बहाने निकालने लगे। इसमें भी अधिकारियों, उनकी पत्नियों आदि में ज्यादा सम्भावना देखी गयी। उनकी प्रशस्ति लिखने के लिए लेखक भी पैदा हो गये व उनकी ‘कृतियों’ के समीक्षक भी विकसित हो गये। विमोचनों के आयोजन भी किसी विवाह समारोह की तरह भव्य और व्ययसाध्य होने लगे।
       साहित्य के प्रकाशक भी अब ऐसे ही अधिकारियों की तलाश में राजधानी के चक्कर लगाते हैं जो सरकारी खरीद में पुस्तकें खरीदवा सकें या भेंट देने के लिए स्वय़ं खरीद सकें। ये प्रकाशक राजधानी से निराश नहीं लौटते हैं। परिणाम यह हो गया है कि खोटे सिक्कों ने खरे सिक्कों को बाज़ार से बाहर कर दिया है। सरकारी धन का अपव्यय तो और भी अधिक मात्रा में दूसरे क्षेत्रों में हो रहा है पर इस क्षेत्र की इन गतिविधियों ने कलाजगत को नष्ट कर के रख दिया है। कब कौन किस बात के लिए पुरस्कृत या सम्मानित हो रहा है कोई नहीं जानता। ऐसी प्रकाशित कृतियां केवल भेंट में देने के काम आती हैं जिन्हें मुफ्त में पाने वाले भी नहीं पढते और इसी जुगुप्सा भाव के कारण कुछ अच्छी कृतियां भी छूट जाती हैं। साहित्यिक गोष्ठियों की जगह पुरस्कार सम्मान के आयोजन कई गुना होने लगे हैं जिनमें सम्मलित होने के लिए परिचितों, मित्रों को भी कई तरह के प्रलोभन दिये जाते हैं जिनमें भव्य दावतें भी सम्मलित होती हैं।
       विष्णु नागर ने अपने एक कवि मित्र के बारे में लिखा था कि जब उन मित्र ने अपने पिता से उनको सम्मान  मिलने की बात कही तो पिता ने कहा कि अगर इसके बाद तुम किसी पड़ोस की दुकान से पाँच रुपये का साबुन ही उधार लेने की पात्रता अर्जित कर लो तब मैं मानूंगा कि इस सम्मान का कोई अर्थ है।
       पता नहीं कि ये लोग किसे धोखा दे रहे हैं, या आत्मछल के शिकार हो रहे हैं। प्रत्येक बैठक में धातु जैसे दिखने वाले प्लास्टिक के ये स्मृतिचिंह भरे हुए हैं जिन पर कोई अतिथि निगाह भी नहीं डालता न ही पूछता है कि ये आपको किसने किस बात के लिए दिया है। जब उनके काल में ही इन सम्मानों का यह हाल है तो बाद में तो केवल हँसने के काम ही आने वाले हैं।  
वीरेन्द्र जैन
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