बुधवार, फ़रवरी 27, 2019

स्मरण /श्रद्धांजलि “रोहिताश्व” उसने फर्श से अर्श तक का सफर किया


स्मरण /श्रद्धांजलि “रोहिताश्व”
उसने फर्श से अर्श तक का सफर किया
वीरेन्द्र जैन

दुश्यंत की शे’र है-
हमने तमाम उम्र अकेले सफर किया
हम पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही
जब प्रबन्धन की नाराजी से किसी का ट्रांसफर गाज़ियाबाद से हैदराबाद कर जाये, जैसा कि मेरा कर दिया गया था, तो स्वभावतः किसी को भी घबराहट होना चाहिए, किंतु मेरी प्रतिक्रिया थी कि इस मामले में प्रबन्धन हारा है, क्योंकि जब सेवा नियमों के अनुसार देश में कहीं भी ट्रांसफर किया जा सकता हो तो यह कोई दण्ड नहीं माना जा सकता। उल्टे यह इस बात का प्रमाण था कि कि वे इतनी नाराजी की स्थिति में भी मुझे दण्डित नहीं कर पा रहे थे। इस मामले में साहित्यकारों की मित्रता ने मेरी बहुत मदद की। आदरणीय काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी, हरिओम बेचैन, मुकुट बिहारी सरोज, प्रदीप चौबे आदि ने तो अपने परिचितों को पत्र लिख कर या उनके पते देकर मिलने की सलाह दी थी क्योंकि ये लोग कवि सम्मेलनों में वहाँ जाते रहते थे और इनके परिचय का क्षेत्र था। दूसरी ओर सुप्रसिद्ध कहानीकार से.रा. यात्री ने मुनीन्द्र जी और ओम प्रकाश निर्मल जैसे कल्पना के सम्पादकीय विभाग में रहे साहित्यकार व समाजवादी लोगों को पत्र लिख कर और सम्भवतः कुछ अतिरंजित परिचय देकर मेरे लिए रास्ता बना दिया था। इन दोनों ही लोगों का हैदराबाद में बहुत सम्मान था क्योंकि बद्री विशाल पित्ती जैसे कला व समाजवादी आन्दोलन के पोषक व्यक्ति के ये निकट के लोग थे। कामरेड सव्यसाची जी ने भी कुछ लोगों के पते भेजे थे जिनमें वेणु गोपाल व कुछ तेलगु के कवि थे। उन दिनों मैं हिन्दी की लोकप्रिय पत्रिकाओं में खूब छप रहा था इसलिए उनके सिफारिशी पत्रों की पुष्टि भी हो रही थी। किस्सा कोताह ये कि मैं बिना किसी व्यवस्था के अपना फोल्डिंग सामान ट्रांसपोर्ट पर पटक बिस्तर अटैची और किताबों का बक्सा ले पत्नी व एक साल की बेटी के साथ हैदराबाद की ट्रेन में बैठ गया था। वैसे तो मैं दिल्ली के ही उपनगर गाज़ियाबाद में रह रहा था किंतु सीधे महानगर में पोस्टिंग का पहला अवसर था। जेब और बैंक दोनों ही में बहुत सीमित पैसे थे और भाषा से भोजन तक सब कुछ अनजाना था। एक सस्ते से लाज में रहा व पेंडिंग काम से भरे हुये आफिस में देर तक काम करने की उम्मीद की जा रही थी। उधर लाज में पत्नी सारे दिन बिना काम के कैद रहती थी व एक साल की बच्ची जो बाहर जाना चाहती थी, को सम्हालना दुष्कर था। रोटी केवल मांसाहारी होटलों में मिलती थी व ‘शुद्ध’ शाकाहारियों के लिए चावल रसम और लाल मिर्च वाले अचार के भोजनालय ही उपलब्ध थे। रविवार का दिन मकान की तलाश और उसके लिए लोगों से मिलने में निकलता था। इसी क्रम में रोहिताश्व से मुलाकात हुयी। पुरुषोत्तम प्रशांत और बालकृष्ण शर्मा ‘रोहिताश्व’ का मकान पास पास ही था। सम्भवतः दो सौ साल पहले जब राजस्थान से मारवाड़ी लोग आकर बसे थे तब वे अपने साथ अपने मुनीम और विभिन्न संस्कारों के लिए पुरोहितों को भी ले कर आये थे। बेगम बाज़ार के ज्यादातर व्यापारी और उनके मुनीम पुरोहित शुरू में उसी क्षेत्र में बसते गये थे। हिन्दी साहित्य में सक्रिय ज्यादातर युवा इन्हीं परिवारों में से थे। उन्हीं दिनों सेठों ने अपने मनोरंजन के लिए कवि सम्मेलन कराना भी शुरू कर दिये थे व समझ में आने वाली हास्य व्यंग्य की कविता के लिए अच्छा भुगतान होने लगा था। उसी अनुपात में मंच की कविता का स्तर भी गिरा जिसमें हैदराबाद के सेठाश्रित मंचों की बड़ी भूमिका रही।
मकान की तलाश में निकला तो रोहितश्व ने अपने मकान का एक हिस्सा भी दिखाया जो ऐसा था जिसका भविष्य भी अच्छा नहीं लगता था। सीलन वाली दीवारें और उखड़े पलस्तर का कमरा। मैंने अपनी प्रारम्भिक उम्र का हिस्सा ऐसे ही घर में गुजारा था इसलिए जब चुनाव का मौका मिलता तो अपेक्षाकृत ठीक से मकान में रहना चाहता रहा हूं, इसलिए विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। कुछ दिनों में मुझे आफिस के पास ही एक कमरे का फ्लेट मिल गया था जो पहली सोच में तो अस्थायी रूप से लिया था किंतु ब्रोकर को और दो महीने के कमीशन के भय व काम चल जाने के कारण बदला नहीं गया। कल्पना बन्द होने के बाद मुनीन्द्र जी हैदराबाद समाचार नाम से एक साप्ताहिक अखबार निकालते थे जिसके इतने आजीवन सदस्य थे कि अखबार नियमित रूप से निकल रहा था और हजारों की संख्या में हिन्दीभाषी, विशेषरूप से मारवाड़ियों के यहाँ पहुँच रहा था। मैं उसमें नियमित रूप से व्यंग्य आदि लिखने लगा। मुनीन्द्र जी काफी वरिष्ठ थे और सब उनका सम्मान करते थे व उनसे सलाह लेते थे। यही कारण रहा होगा कि हिन्दी साहित्य से सम्बन्धित आयोजनों में दस बारह प्रमुख आमंत्रितों में मेरा नाम भी जुड़ने लगा। महीने में ऐसे तीन चार साहित्यिक आयोजन हो जाते थे जिनमें मेरी और रोहिताश्व की मुलाकात हो ही जाती थी। रोहिताश्व उन दिनों पीएचडी कर रहे थे व किसी इवनिंग कालेज में पढाते भी थे। उस समय उनके पास धन की कमी रहती थी जो प्रकट भी होती रहती थी। निर्मल जी उन्हें मजाक में रोहिताश्व की जगह अश्व कहते थे। अब हैदराबाद में न तो न मुनीन्द्रजी हैं, न निर्मलजी हैं, न वेणुगोपाल, न ही एम उपेन्द्र, न पुरुषोत्तम प्रशांत, और अब इसी साल शिवमोहन लाल श्रीवास्तव व रोहिताश्व भी चले गये। हैदराबाद की मित्रता का खजाना रीतता जा रहा है।
रोहिताश्व महात्वाकांक्षी थे पर हवा हवाई नहीं थे। उनको उड़ान से पहले अपने धरातल का अहसास था। इसके साथ ही उन्हें बीतते जीवन का भी अहसास था इसलिए वे उड़ान भरने और उसके लिए जीवन को स्थगित न करने अर्थात जीवन जीने का काम एक साथ करते रहे। उन दिनों तो सम्वाद नहीं हुआ किंतु उन्होंने बाद में गोवा में ही एक बार बताया था कि उन्होंने प्रारम्भ में पैट्रोल पम्प, व सिनेमा हाल में टिकिट बेचने का काम भी किया, स्कूल में अध्यापन के साथ साथ अन्य छोटा मोटा काम भी किया और पढाई भी करते रहे। अपना जीवन स्वयं गढते रहे। हर जगह पक्षपात के शिकार भी हुये किंतु उसके खिलाफ लड़ते भी रहे। पीएचडी की, और प्रोफेसर बने,  अपनी दम पर गोवा विश्वविद्यालय में नौकरी प्राप्त की। वहाँ भी वे कभी हैड आफ द डिपार्टमेंट के लिए या अन्य हक के लिए साथियों से टकराते रहे।
रोहिताश्व ने प्रोफेसर बनने के बाद भी अपना मध्यमवर्गीय स्वरूप नहीं छोड़ा था। अपने पहनावे और व्यवहार में वे वही पुराने रोहितश्व दिखते रहे। पेंट से बाहर निकली शर्ट और उसकी मोड़ी गयी आस्तीनें वैसी ही रहीं जैसे किसी अभियान के लिए सदैव तैयार हों। इस प्रक्रिया ने उन्हें कभी बूढा और थका हुआ नहीं दिखने दिया। जब हैदराबाद में रही पोस्टिंग के बीस साल बाद मैं गोवा में उनसे मिला तो भी वे वैसे ही कालेज के लड़कों जैसे युवा दिखे। मैंने उन दिनों तात्कालिक हंस में प्रकाशित कहानी दोना पावला की लड़कियां [या औरतें] की चर्चा की तो उन्होंने मेरी 20 साल पुरानी एक कविता की याद दिला दी जो दर असल कविता नहीं एक जुमला भर था और मेरी स्मृति में उस तरह दर्ज नहीं था।
जब भी गोवा गया तो वे अपनी एम ए की क्लास में जरूर ले गये और अच्छा खासा परिचय देकर मेरी कविताएं सुनवायीं। छात्रों से सवाल जबाब भी हुये। पिछले वर्षों में उन्होंने वहाँ एक बड़ा फ्लेट भी ले लिया था और उनसे वादा भी हो गया था कि वे जब लम्बे समय के लिए हैदराबाद जायें तो मैं वहाँ  एकांत में आकर अपने संस्मरण व आत्मकथात्मक जैसा कुछ लिखना चाहूंगा, जिसके लिए उनको पूरा किराया भी चुकाऊंगा। पर यह बात केवल एक बात ही रह गयी। मैं फुरसत नहीं निकाल सका, या कहें कि मैं यह कहते समय उतना गम्भीर नहीं था।
उन्हें जनवादी लेखक संघ से जोड़ने में मेरा आग्रह भी था। किंतु वे वेणुगोपाल से अक्सर असहमत रहते थे और साझा मित्र होने के कारण मुझ से शिकायत करते रहते थे। शिकायतें तो उन्हें शिव कुमार मिश्र से भी थीं। मैं कहता था कि तुम तो एक प्रदेश के अध्यक्ष हो और मैं तो कार्यकारिणी सदस्य भी नहीं हूं।
वैसे नामवरजी और राजेन्द्र यादव समेत हिन्दी के समस्त बड़े लेखकों को उन्होंने गोवा में अतिथि बनाया और खुद भी देश भर के विश्वविद्यालयों के सेमिनारों में भाग लेते रहे। प्रकाशकों ने भी उनकी किताबों को खूब छापा जिसका ढेर उन्होंने गोवा में मुझे दिखाया था। गोवा में मेरे परिचय के दो लोग थे, एक साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित रमेश वेलुस्कर और दूसरे रोहिताश्व, दोनों ही इसी एक साल के अन्दर बिछुड़ गये। कामना कर सकता हूं कि इन लोगों का लिखा हुआ लम्बे समय तक उनके नाम को बनाये रखे, उनके काम को बनाये रखे।
वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629

          

गुरुवार, फ़रवरी 14, 2019

मुलायम सिंह को अब आराम की जरूरत है?


 मुलायम सिंह को अब आराम की जरूरत है?

वीरेन्द्र जैन
सोलहवीं लोकसभा के अंतिम दिन समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव का यह कहना कि इस सदन के सभी लोग फिर से जीत कर आयें और हमारी पार्टी तो सरकार नहीं बना सकती इसलिए मोदी जी आप फिर से प्रधानमंत्री बनें, ने देश के राजनीतिक माहौल में हलचल मचा दी है। यह कथन इसलिए भी असंगत लगा क्योंकि इस समय पूरे देश के प्रमुख राजनीतिक दल मोदी को हटाने के लिए महागठबन्धन बनाने की ओर अग्रसर हैं और अनेक धुर विरोधी दल भी अपने मतभेद भुला कर एकजुट हो रहे हैं, तब मोदी को फिर से प्रधानमंत्री की औपचारिक कामना करने को भी गलत माना जाना स्वाभाविक है। इसका एक अर्थ यह भी निकलता है कि उनकी पार्टी की जीत न होने पर वे गैर भाजपा के किसी अन्य व्यक्ति के प्रधानमंत्री बनने की जगह मोदी को बेहतर मानते हैं। उनकी पार्टी में जो भी हैसियत शेष हो किंतु उपकृत जाति भाइयों में कुछ तो अपील बाकी है।
सोशल मीडिया पर अनेक लोगों के गुस्से के जबाब में मुलायम समर्थकों ने कहा है कि वे डिमेंशिया से पीड़ित हैं और भूल जाते हैं। उदाहरण के रूप में पिछले दिनों शिवपाल यादव के कार्यक्रम में अखिलेश की तारीफ, या शिवपाल यादव के उस बयान को सामने लाया जा रहा है जिसमें उन्होंने मुलायम सिंह को कैद में बताया था। उनके कुछ पक्षधर इसे उनकी राजनीतिक पहलवानी का चरखा दांव बता रहे हैं। दूसरी ओर उनके आलोचक इसे सीबीआई के दबाव का परिणाम बताते हुए उनके उस बयान की याद दिला रहे हैं जिसमें उन्होंने अपनी पार्टी वालों को अमर सिंह के सहयोग के महत्व को बतलाते हुए कहा था कि जिसके बिना सात साल की कैद हो सकती थी। प्रकरण अभी भी सीबीआई के झरोखे से अवसर की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
मुलायम सिंह को लोहियावादी कहा जाता रहा है किंतु सत्ता के लिए चुनावी राजनीति में जोड़ तोड़ करते हुए ना तो उन्हें लोहियावाद की दार्शनिक व्याख्या करते हुए सुना गया ना ही उनके राजनीतिक व प्रशासनिक फैसलों में लोहियावाद को अलग से रेखांकित किया जा सकता है। उनका लोहियावाद केवल लाल टोपी तक दिखता है। वे युवा काल में जुझारू और निर्भीक रहे हैं और इसी कारण से उनके आसपास के युवा उन्हें नेता मानने लगे थे। उन्होंने कुश्ती में जसवंतनगर के नत्थूसिंह का दिल जीत लिया था और पुरस्कार में उनकी विधानसभा सीट पायी थी। तब से उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उत्तर प्रदेश में कभी समाजवादी आन्दोलन ही मुख्य विपक्ष की तरह उभरा था व सत्ता विरोधी अनेक युवा उसके साथ चलने लगे थे। वे भी विचार के साथ नहीं अपितु संगठन के साथ थे और अपने देशज व्यवहार से वे सदैव निजी नेतृत्व वाला संगठन बनाने में सफल रहे। चौधरी चरण सिंह के साथ से पिछड़े वर्ग को राजनीति की मुख्यधारा में लाने और हिन्दू साम्प्रदायिकता से सतर्क मुस्लिम समाज को मिला कर चुनाव में उनकी जीत का आधार तैयार होता रहा है। मण्डल कमीशन से जागृत व संगठित पिछड़ा वर्ग तथा अयोध्या में रामजन्मभूमि विवाद के सहारे ध्रुवीकरण की कोशिश करने वालों के सामने कोई कमजोरी न दिखा कर उन्होंने मुस्लिम समाज को अपनी ओर आकर्षित कर लिया था। अपने मुख्यमंत्री काल में उन्होंने अपनी जाति के लोगों को किसान मजदूर से ठेकेदार और खानमालिक बना दिया था व सवर्ण समाज की ओर होने वाले धन व शक्ति के प्रवाह को मोड़ दिया था। पंचायत के पदों से लेकर नगरपालिका, जनपद पंचायत, एमएलसी, या पुलिस, होमगार्ड, सशस्त्र बलों में अपनी जाति या पिछड़ा वर्ग के लोगों की भर्ती कर के उन्होंने स्थायी समर्थक बना लिये थे। प्रशासन में प्रमुख पदों पर निजी पसन्द के अधिकारियों की नियुक्ति कर उन्होंने मनमानी का माहौल बना लिया था व लोकतांत्रिक व्यवस्था में जन समर्थन के सहारे केन्द्र में भी अपना स्थान बना लिया था। अमर सिंह के साथ ने उनके राजनीतिक कौशल की कमी की पूर्ति कर दी थी और उनको प्राप्त समर्थन की ताकत को राजनीति के बाज़ार में अच्छे सौदे के साथ ले जाने लगे थे।
अमर सिंह के निर्देशन में वे राजनीति में विचार, मानवीयता, बफादारी से दूर होते गये और निरंतर अवसरवादी फैसले लेते गये। वीपी सिंह का साथ नहीं देना, सोनिया गाँधी को विदेशी मूल के नाम पर अचानक समर्थन देने से पलट जाना और अटल बिहारी का मार्ग प्रसस्त कर देना। राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपा काँग्रेस के उम्मीदवार को समर्थन देना व वामपंथियों के उम्मीदवार का प्रतीकात्मक समर्थन भी न देना, 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की परोक्ष मदद से सरकार बना लेना, लखनऊ में अटल बिहारी वाजपेयी के चुनाव में उनके प्रतिनिधि द्वारा साड़ी वितरण के समय मची भगदड़ में कई औरतों के मारे जाने पर पीड़ितों की जगह अटल जी के यहाँ पहुँचना, यूपीए सरकार से वामपंथियों द्वारा न्यूक्लियर डील पर समर्थन वापिस लेने पर पहले उनके साथ आम सभाएं करना और अचानक मतदान के समय पक्ष परिवर्तन कर लेना, उत्तराखण्ड आन्दोलनकारियों पर रात्रि में सोते समय गोलियां चलना व महिलाओं के साथ बलात्कार होना, आदि ऐसी सैकड़ों घटनाएं हैं जो कोई समाजवादी नेता नहीं कर सकता। 2012 के चुनावों में बिना मुख्यमंत्री घोषित किये हुए चुनाव लड़ना और अचानक अखिलेश को मुख्यमंत्री घोषित कर देना। अमर सिंह को वापिस पार्टी में लेकर राज्यसभा में भेज देना। सत्ता को अपने परिवार तक के घेरे में बनाये रखना आदि ऐसे अनेक काम हैं जो उनकी टोपी के रंग से मेल नहीं खाते। वे केन्द्र में सत्तारूढ दल के आगे झुकने को विवश हैं, इसलिए पता नहीं मौका देख कर अपने जाति समर्थन को किस जनविरोधी के चरणों में डाल दें।
अगर मुलायम सिंह अस्वस्थ हैं तो उन्हें स्वास्थलाभ हेतु आराम और अमर सिंह शिवपाल आदि से दूर रहने की जरूरत है। यही देश के हित में भी है। यह समाजवादी पार्टी के लोगों को भी चेतने का समय है।
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, फ़रवरी 04, 2019

श्रद्धांजलि शरद भट्ट सक्रिय, संतोषी, और हँसमुख व्यक्तित्व के धनी थे


श्रद्धांजलि
शरद भट्ट सक्रिय, संतोषी, और हँसमुख व्यक्तित्व के धनी थे
वीरेन्द्र जैन
3 फरबरी 2019 को चार बजे राजीव व्यास का फोन आया कि शरद भट्ट भाई साहब के न रहने की खबर किसी अज्ञात स्त्रोत से आयी है क्या आपको पता चला! अंतिम संस्कार का समय भी चार बजे सुभाष नगर विश्राम घाट पर ही है, और मैं दूर हूं। सुभाष नगर मेरे निवास से आधा किलोमीटर दूर पर ही है इसलिए मैं पुष्टि करने की जगह सही समय पर सीधे वहीं पहुंच गया। कई पुराने परिचित मिल गये और जैसा कि होता है अनेक तरह की स्मृतियां कौंधती रहीं। डा. विजय अग्रवाल, डा. आर डी गुप्ता, बुधौलिया जी, रमेश शर्मा, आदि लोग भी थे।
दतिया जैसे छोटे कस्बे में जहाँ सारे सक्रिय लोग एक दूसरे को जानते पहचानते रहे हैं, हम लोग जब कालेज में पढते थे तब नगर की आबादी कुल 25000 के आसपास थी। शरद से पहला घनिष्ठ परिचय 1970 के आसपास हुआ जब मैं एम.ए. [अर्थशास्त्र] फाइनल में था और शरद ने किसी विषय में एम.ए, में प्रवेश लिया था। सक्रियता के क्षेत्र सीमित थे और हर क्षेत्र में हाथ पांव मारने वाले मेरे जैसे लोग कालेज में अपनी उपस्थिति दिखाना चाहते थे। राजनीतिक दलों के लोग तो थे किंतु विचारधारा के लोग नहीं दिखते थे। मैं ब्लिट्ज का नियमित पाठक था और उससे भी वाम झुकाव बना था, या कहें कि उससे सूचनाएं और तर्क प्राप्त होते रहते थे जिनका प्रयोग कर मैं अपनी अलग पहचान बना लेता था। साहित्य, पत्रकारिता, खेल, संगीत से लेकर चुनावी गतिविधियों तक हर जगह बिना बुलाये हुए भी प्रवेश कर जाना हम लोग अपना अधिकार समझते थे व किले चौक पर हर शाम सौ पचास लोग अकारण भी एकत्रित रहते थे और कारण भी तलाश लेते थे।
शरद भट्ट राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में था और मेरी पहचान वामपंथी की तरह बनती जा रही थी इसलिए वह शायद मेरी टोह लेने के लिए निकट आया या भेजा गया था। हम लोगों का एक ग्रुप साथ साथ घूमता फिरता था जिनमें मैं तो अपने थोड़े से अध्ययन की जुगाली करता रहता था किंतु शरद कुछ बोलता नहीं था। वह संघ द्वारा किये जाने वाले बौद्धिक आयोजनों के कार्ड हम लोगों को देता था और कई बार तो किन्हीं बन्द दरवाजों में प्रवेश करने के लिए हम लोग भी उसके कार्ड ले लेते थे और उन्हें स्वचयनित घरों में बांट आते थे।
1971 का ऎतिहासिक आम चुनाव जो स्वघोषित समाजवादी इन्दिरा गाँधी और सीपीआई ने संयुक्त दक्षिण पंथ के खिलाफ लड़ा था, जिसमें हमारे क्षेत्र से जनसंघ की ओर से श्रीमती विजया राजे सिन्धिया उम्मीदवार थीं। मैं तब तक सीपीआई और सीपीएम के भेद को नहीं जानता था और स्वाभाविक रूप से देश के करोड़ों लोगों की तरह श्रीमती गाँधी के प्रचार से प्रभावित होकर उनका पक्षधर था। वैसे भी वहाँ वामपंथी पार्टी की उपस्थिति ही नहीं थी। मैंने ही पहली बार कम्युनिष्ट पार्टी के गठन के लिए शाकिर अली खाँ को पत्र लिखा था जो सेंसर हो गया था और पुलिस के स्पेशल ब्रांच के सदस्य मेरी निगरानी करने लगे थे। उसी चुनाव के दौरान काँग्रेस उम्मीदवार नरसिंहराव दीक्षित के पक्ष में चल रही आमसभा में मैंने भी बोलने की इच्छा प्रकट की और इस इच्छा का स्वागत हुआ। संयोग से उन्हीं दिनों मैंने अहमदाबाद के दंगों की रिपोर्ट पढी थी जिसमें किन्हीं हाजरा बेगम, जो विधवा थीं के चार बच्चों को उन्हीं के सामने काट डाला गया था व उनके सबसे छोटे बच्चे को भी उनके गिड़गिड़ाने व एक विधवा का आखिरी सहारा बताने के बाद भी न बख्शे जाने का जिक्र था। मैंने उस घटना की चर्चा बहुत ही मार्मिक ढंग से की जिसका बहुत प्रभाव पड़ा। कुछ श्रोताओं ने तो कहा था कि मेरे रोंगटे खड़े हो गये थे। उसके बाद मैं संघ के निशाने पर आ गया था। या कहें कि निगरानी में आ गया था। जनसंघ के बड़े बड़े नेताओं की आमसभाओं में जिन्हें सुनने किले चौक पर सभी कामन श्रोता जाते थे, तब मेरी निगरानी के लिए संघ के लोग मेरे समीप ही खड़े हो जाते थे और मेरे जगह बदलने पर वे भी जगह बदल कर वहीं आ जाते थे।
शरद उस चुनाव में श्रीमती सिन्धिया का कार्यालय सम्हाल रहे थे। वे उक्त भाषण की चर्चा के बाद मेरे पास भेजे गये थे और उन्होंने पूछा था कि मुझे क्या चाहिए? यह सीधा सीधा आर्थिक लालच था क्योंकि श्रीमती सिन्धिया बहुत पैसा खर्च कर रही थीं और जैसा कि बाद में पता चला था कि उनका काँग्रेस के उम्मीदवार और समर्थकों से सौदा भी हो गया था। मेरे जैसे युवा के लिए वह ज़िन्दगी का पहला ऐसा प्रस्ताव था, और उसे ठुकरा कर गौरवान्वित होने का भी पहला अवसर था। मैं जीवन भर इस गौरव के साथ जिया और वह घटना कभी नहीं भूला। हो सकता है कि उस घटना के बाद शरद के दिल में मेरे प्रति सम्मान बढा हो या नहीं बढा हो पर मेरी दृढता जरूर बढी थी। बाद में भी मैंने उसकी आत्मीयता में कभी कोई कमी नहीं देखी। इमरजैंसी में वे उन चन्द लोगों में थे जो 19 महीने मीसा बन्दी के रूप में जेल में रहे।
वह पीताम्बरा पीठ के भी सक्रिय प्रबन्धकों में थे और वहाँ आने वाले सैकड़ों विशिष्ट लोगों से उसका परिचय था किंतु कभी भी किसी अतिरिक्त लाभ लेने की कोई खबर नहीं सुनने को मिली जबकि अन्य अनेक लोग इस रोग के रोगी पाये गये। मैं एक स्थानीय अखबार में लिखता था और धार्मिक क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ भी लिखता रहा और आशंका रही कि शायद कभी शरद कोई शिकायत करे किंतु उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया।
तीन बेटियों, और असामयिक निधन के बाद अपने भाई के बेटे के पिता शरद जिम्मेवार पिता भी थे व उनके आग्रह पर ही पिछले साल से भोपाल आकर रहने लगे थे। मुझे बाद में पता लगा। इसी दौरान एक कामन मित्र के असामायिक निधन पर जब मैंने उन्हें सूचना दी तो उन्होंने अंतिम संस्कार में आने में किंचित देर नहीं की। उसी दौरान उन्होंने भोपाल स्थित दतिया के सारे मित्रों की एक बैठक व दावत करने का प्रस्ताव किया था जो अधूरा ही रह गया।
उनके सहयोग करने को तत्पर रहने और सदैव हँसमुख रहने की अनेक स्मृतियां हैं। “करोगे याद तो हर बात याद आयेगी। “
वीरेन्द्र जैन
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