शुक्रवार, अक्तूबर 13, 2017

जनान्दोलनों का विकृतीकरण

जनान्दोलनों का विकृतीकरण
वीरेन्द्र जैन
सुप्रसिद्ध लेखक व वामपंथी विचारक राजेन्द्र यादव ने अपने एक सम्पादकीय आलेख में कुछ इस तरह लिखा था कि हमारे विरोधी कई तरह के हथकण्डे स्तेमाल करते हैं। पहले वे विरोध करते हैं पर जब उसमें सफल नहीं हो पाते तब हमारे विचार को विकृत करके पेश कर नफरत पैदा करते हैं, और उसमें भी सफल न हो पाने पर वे विलीनीकरण करते हुए कहते हैं कि हमारा रास्ता तो एक जैसा है और हमारी भाईबन्दी है। उन्होंने बुद्ध धर्म का उदाहरण देते हुए बताया था कि एक समय उनका बहुत विरोध किया गया यहाँ तक कि हिंसक संघर्ष में उनके हजारों मठ नष्ट कर दिये गये व मूर्तियां तोड़ दी गयीं। उसके बाद विकृतीकरण का दौर आया और तरह तरह से उनके नियमों आचरणों का मखौल बनाया गया। बुद्धू शब्द भी बुद्ध को विकृत करके जन्मा है। पर उसके बाद बुद्ध को विष्णु के अवतार के रूप में मान्यता दे दी गयी और उनको विलीन करने की कोशिश की गयी। उल्लेखनीय है कि अभी हाल ही में भाजपा के एक सांसद मेघराज जैन ने जैन धर्माबलम्बियों को अल्पसंख्यक घोषित किये जाने को एक षड़यंत्र बताते हुए उसे हिन्दू धर्म की ही एक शाखा बताया व मांसाहारियों के साथ अल्पसंख्यक होने की घोषणा को वापिस लेने की मांग की है। रोचक यह है कि इसी दौरान उन्हीं के राज्य के एक विधायक ने स्लाटर हाउस के विरोधियों को जबाब देते हुए कहा कि देश का अस्सी प्रतिशत हिन्दू भी मांसाहारी है, उसके बारे में भी सोचो।
अब आये दिन देखा जाने लगा है कि मजदूरों, कर्मचारियों के आन्दोलन में जलूस धरने प्रदर्शन की जगह कुछ लोग सामूहिक सद्बुद्धि यज्ञ हवन या भजन कीर्तन करने लगे हैं। यह बात अलग है कि अगर प्रबन्धन और श्रमिक संगठनों के बीच पहले से सांठ गांठ न रही हो तो ऐसे धार्मिक आयोजनों के प्रभाव में कभी कोई मांग पूरी नहीं हुयी है। ऐसे आयोजनों के पीछे एक और कूटनीति छुपी होती है और वह है मजदूरों के बीच में साम्प्रदायिक विभाजन कराना। जब एक धर्म विशेष की पूजा पद्धति को आन्दोलन का हिस्सा बनाया जायेगा तो श्रमिक एकता में विभाजन को रोका नहीं जा सकेगा। इसका ही परिणाम हुआ है कि कई प्रबन्धकों ने एक धर्म विशेष के लोगों को कार्यालय के समय में उपासना के लिए छुट्टी दे कर विभाजन के बीज बो दिये हैं जबकि होना यह चाहिए था कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के कार्यालयों/ कारखानों में समस्त उपासनाएं उनके व्यक्तिगत समय में ही सीमित होना चाहिए और भक्ति या नौकरी में से किसी एक का चुनाव करने का नियम कठोरता से लागू होना चाहिए। देखने में यह बहुत मामूली सी सुविधा लगती है पर इसका प्रभाव दूरगामी होता है।
हिन्दू पुराणों में दुनिया के निर्माण के लिए एक देवता का उल्लेख आया है जिन्हें विश्वकर्मा का नाम दिया गया है। बाद में तो देश की कुछ श्रमिक जातियों जैसे लोहार, बढई आदि ने अपना जातिनाम विश्वकर्मा रखना शुरू कर दिया। दुनिया में रूस की क्रांति के बाद जब मजदूरों किसानों का महत्व पहचाना गया तब अमेरिका के शिकागो से शुरू हुये मई दिवस [मजदूर दिवस] का आयोजन हमारे देश में भी जोर शोर से होने लगा। श्रमिकों के बीच कम्युनिष्ट पार्टी से जुड़े मजदूर संगठनों की लोकप्रियता भी बढने लगी। हमारे देश के पहले संसदीय चुनावों में कम्युनिष्ट पार्टी मुख्य विपक्षी पार्टी की तरह उभरी थी। जब दुनिया में शीत युद्ध का दौर आया तो कम्युनिष्ट पार्टियों के समानांतर दक्षिणपंथी पार्टियों को उभारा गया। इनमें आरएसएस की पृष्ठभूमि वाली जनसंघ जो बाद में भाजपा की तरह अवतरित हुयी मुख्य दक्षिणपंथी पार्टी की तरह सामने आयी। इसने वामपंथी श्रमिक संगठनों के समानांतर अपने श्रमिक संगठन बनाये जो भारतीय मजदूर संघ के बैनर तले गठित किये गये। इस संघ ने कालांतर में मई दिवस के समानांतर विश्वकर्मा दिवस मनाना शुरू कर दिया व धार्मिक प्रतीक के साथ जुड़े होने के कारण हिन्दू मजदूरों में सहज लोकप्रियता प्राप्त कर ली। वैसे तो पुराणों में विश्वकर्मा जयंती दीवाली त्योहर के अगले दिन होने का उल्लेख आया है किंतु समस्त कार्यालयीन कार्य ग्रेगेरियन कलेंडर के हिसाब से होने के कारण उसे प्रतिवर्ष 17 सितम्बर को मनाया जाने लगा व भारतीय मजदूर संघ की मांग पर प्रबन्धन ने उस दिन छुट्टी भी घोषित कर दी। इस तरह मजदूरों के बीच धार्मिक आधार पर भेद पैदा कर दिया गया। नई इकाइयों के प्रारम्भ करने में हिन्दू विधि से पूजा पाठ करने, भूमि पूजन करने आदि की परम्परा ने भी जोर पकड़ा।
धर्मनिरपेक्ष समाज में साम्प्रदायिक आधार पर विभाजन के बीज बोने के बारीक काम तो बहुत सारे होते रहे जो तुरंत समझ में नहीं आते किंतु इनके परिणाम दूरगामी होते हैं, जैसे कि ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित स्कूलों की लोकप्रियता के समानांतर संघ ने शिक्षण संस्थाएं संचालित करना प्रारम्भ कीं और अपने स्कूलों का नाम सरस्वती शिशु मन्दिर रखा। विद्यालय की जगह मन्दिर का नामांकरण किसी संस्था को धर्म विशेष से जोड़ देने का महीन खेल था, जिसमें दोपहर के भोजन अवकाश के समय भोजन मंत्र का पाठ किया जाना अनिवार्य था। बाद में इनकी सरकारें बन जाने पर तो समस्त योजनाओं का नामांकरण ही इस तरह से किया जाने लगा जिसमें धर्म विशेष से सम्बन्ध प्रकट होता था। सत्ता के सुख भोगते रहने तक काँग्रेस इस के प्रति उदासीन रही।
मजदूरों के विभिन्न संगठनों में बँट जाने के बाद भी उनमें धार्मिक और जातियों के आधार पर भेद हो जाने से उनकी ताकत कमजोर हुयी है। नियमित मजदूरों की संख्या निरंतर कम होती जा रही है व ठेका मजदूरों की संख्या बढ रही है। बेरोजगारी के कारण प्रतियोगिता बढने के कारण भी वे अपनी मांगों के लिए दबाव नहीं बना पाते जिससे प्रबन्धन ही लाभ की स्थिति में रहता है। इन दिनों धर्म के नाम पर श्रम के शोषण के जो खेल चल रहे हैं उन्हें समझने की जरूरत है। गौरक्षा, घर वापिसी, मन्दिर मस्ज़िद, लव जेहाद, तीन तलाक, धर्म परिवर्तन, आदि ऐसे ही तुरुप के पत्ते हैं जो विभिन्न तरह के आन्दोलनों के खिलाफ पटक दिये जाते हैं जिन्हें खरीदा हुआ मीडिया हवा देता रहता है।
सरकारी मशीनरी और लोकतांत्रिक स्तम्भों/ संस्थाओं को पूर्ण धर्म निरपेक्ष बनाये बिना शोषण की शक्तियों से मुकाबला कठिन है।   
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629

     

गुरुवार, अक्तूबर 05, 2017

दलितों का स्वतंत्रता आन्दोलन शुरू होता है अब ...

दलितों का स्वतंत्रता आन्दोलन शुरू होता है अब ...
वीरेन्द्र जैन

देश की अंग्रेजों से स्वतंत्रता चाहने वाले दूसरे लोगों की तरह स्वतंत्रता आन्दोलन में अम्बेडकर अंग्रेजों से तुरंत आज़ादी के पक्षधर इसलिए नहीं थे क्योंकि उस मांग में दलितों को सवर्णों की गुलामी से मुक्ति पाने की स्पष्टता नहीं थी। उनका सही सवाल था कि यह आज़ादी किसको मिलेगी? जब तक देश में जातिभेद है तब तक जिनके हाथों में सत्ता आयेगी वे दलितों को समान नागरिक का दर्जा भले ही दे दें पर समाज में बराबरी की हैसियत हासिल नहीं करने देंगे। दूसरी ओर सामंती समाज में गाँधीजी अछूत उद्धार के कार्यक्रम इतनी सावधानी से चला रहे थे ताकि स्वतंत्रता आन्दोलन में समाज की एकता बनी रहे। वे चाहते थे कि अम्बेडकर द्वारा समर्थित अंग्रेजों द्वारा जातिवाद की विसंगति को उभारने वाला अलग निर्वाचन क्षेत्र का कानून लागू न हो।
जैसा कि प्रचारित किया जाता है, उसके विपरीत महात्मा गाँधी ने अनशन के हथियार का प्रयोग अंग्रेजों के खिलाफ नहीं किया था अपितु अपने लोगों के मानस को बदलने के लिए ही किया था। ऐसा ही एक अनशन उन्होंने यरवदा जेल में रहते हुए अम्बेडकर की दलितों के अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग के खिलाफ किया था। असहमत होते हुए भी अम्बेडकर ने देश भर के राष्ट्रीय नेताओं के आग्रह पर यह मांग इसलिए वापिस ले ली थी क्योंकि वे गाँधीजी के जीवन को महत्वपूर्ण मानते थे। इसे इतिहास में पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है। 26 सितंबर 1932 को गांधी जी ने, कवि रवींद्रनाथ ठाकुर तथा अन्य मित्रों की उपस्थिति में संतरे का रस लेकर अनशन समाप्त कर दिया था। इस अवसर पर भावविह्वल कवि ठाकुर ने स्वरचित "जीवन जखन शुकाये जाय, करुणा धाराय एशो" यह गीत गाया। गांधी जी ने अनशन समाप्त करते हुए जो वक्तव्य प्रकाशनार्थ दिया, उसमें उन्होंने यह आशा प्रकट की कि, "अब मेरी ही नहीं, किंतु सैकड़ों हजारों समाजसंशोधकों की यह जिम्मेदारी बहुत अधिक बढ़ गई है कि जब तक अस्पृश्यता का उन्मूलन नहीं हो जाता, इस कलंक से हिंदू धर्म को मुक्त नहीं कर लिया जाता, तब तक कोई चैन से बैठ नहीं सकता। यह न मान लिया जाए कि संकट टल गया। सच्ची कसौटी के दिन तो अब आनेवाले हैं।"    
समाज का पीड़ित पक्ष संगठन में कमजोर और बिखरा हुआ भी होता है और ज्यादातर अवसरों पर वह अपनी लड़ाई लड़ने की हिम्मत, संसाधन और रणनीति भी खुद नहीं बना पाता, जबकि उत्पीड़क पक्ष अधिक साहसी साधन सम्पन्न और तर्क सम्पन्न होता है, उसे परम्परा का बल मिला होता है। यही कारण है कि पीड़ित पक्ष के बहुत सारे आन्दोलनों की भूमिका उनसे सहानिभूति रखने वाले भिन्न पक्ष ने लिखी होती है। दलितों के मसीहा अम्बेडकर की प्रतिभा को निखारने में मदद करते हुए उनकी वैचारिक स्वतंत्रता बनाये रखने में बड़ोदा के महाराज सियाजीराव गायकवाड़ की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।
आज़ादी के बाद लिखे संविधान में दलितों के उत्थान के लिए जो आरक्षण की व्यवस्था की गयी थी उसने जातिवाद के उन्मूलन में तो वांछित भूमिका नहीं निभा पायी किंतु सत्तर सालों में इतना चेतना सम्पन्न अवश्य  कर दिया कि वे अब अपने समान मानवीय अधिकारों की बात सोच सकते हैं। प्रारम्भ में जब उन्हें आरक्षण मिला तब शिक्षा में प्रवेश व नौकरी आदि के लिए प्राथमिक योग्यता की अनिवार्ताएं वही रहीं जिन्हें प्राप्त करने का अवसर ही उनके समाज को नहीं मिला था, इसलिए योग्य उम्मीदवार के न मिलने को आधार बना कर रिक्त स्थानों को सवर्ण अधिकारियों ने गैरआरक्षित वर्ग से भर लिया। बहुत बाद में यह व्यवस्था आयी कि आरक्षित पदों को तब तक खाली रखा जायेगा जब तक कि उसी वर्ग में से वांछित योग्यता वाले उम्मीदवार नहीं मिल जाते। संसद और विधानसभाओं में भी बहुत सारी आरक्षित सीटों पर पूर्व राजा महाराजा या सवर्ण नेताओं के आरक्षित वर्ग के सेवकों को भेजा जाता रहा। सदन की कार्यवाही की रिपोर्टें बताती हैं कि सदन की बहस में उनको कितने कम अवसर मिल सके हैं। आज़ादी के तीस-चालीस साल बाद जब साधन हीन दलितों की पहली शिक्षित पीढी सामने आयी उसी समय से आरक्षण का सक्रिय विरोध भी शुरू हो गया।
आरक्षण ने सभी कार्यालयों में निश्चित संख्या में आरक्षित वर्ग की उपस्तिथि तय करने का प्रारम्भिक काम किया। सवर्णों के वर्चस्व वाले इन कार्यालयों में आरक्षित वर्ग से आये कर्मचारियों के साथ जो नफरत और उपेक्षा बरती गयी उससे पीड़ित लोगों की आवाज बन कर कांसीराम उभरे। वे इसलिए आगे बढ सके क्योंकि एक निश्चित स्थान पर निश्चित संख्या में थोड़ा पढा लिखा, पीड़ित वर्ग उपलब्ध था जिसके साथ संवाद किया जा सकता था और उसका सहयोग लिया जा सकता था। इसमें मिली सफलता के बाद ही वे बामसेफ, डीएसफोर से गुजरते हुए बहुजन समाज पार्टी के गठन तक पहुँचे और जब तक यह पार्टी भटक नहीं गयी तब तक दलितों के आन्दोलन की बड़ी संस्था बनी रही। वंचित वर्ग के भटकने और चकाचौंध में दृष्टि खो देने की सम्भावनाएं भी अधिक रहती हैं। मायावती के बाद उदितराज और रामदास अठावले आदि की भटकनें इसका उदाहरण हैं।  
पिछले दिनों दलितों के शिक्षित और नाराज युवकों की जो पीड़ी सामने आयी है वह दलितों की आज़ादी का एक नया इतिहास लिखने जा रही है। वे जानते हैं कि उनके वर्ग के लोग प्रत्येक कार्यालय, संसद, विधान सभा व शिक्षण संस्थानों में हैं। जे एन यू और हैदराबाद विश्वविद्यालय में उनके छात्र संगठन का उभार हो या गुजरात में जिग्नेश व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चन्द्रशेखरउर्फ रावण की भीम सेना का उभार हो, वे अपने अधिकारों को कटोरा लेकर नहीं मांग रहे अपितु टेबिल ठोक कर लेना चाह रहे हैं। गुजरात, आन्ध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश, तामिलनाडु, महाराष्ट्र, आदि स्थानों पर वे टकराव की स्थिति में हैं तथा दूसरे अन्य स्थानों में भी वे पीछे नहीं हैं। वे बार बार विभिन्न स्थानों पर धर्म बदल कर चुनौती दे रहे हैं, और भाजपा कानून का समरण कराने का साहस भी नहीं दिखा पा रही।।
भाजपा ने उनकी चुनौती को समझा है इसलिए वह दो तरह की रणनीतियों पर काम कर रही है एक ओर तो वह दलित नेतृत्व को पदासीन कर रही है जैसे कि राष्ट्रपति पद पर श्री रामनाथ कोविन्द को बैठाना, दूसरी ओर वह आदिवासियों को दलितों से दूर करने के लिए उन्हें विशेष महत्व दे रही है। पिछले दिनों मध्यप्रदेश में एक आदिवासी महिला को राज्यसभा में भेजा गया है। वे आरक्षण को खतरे की तरह चित्रित कर रहे हैं और सवर्णों की बेरोजगारी को आरक्षण से जोड़ कर उन्हें भड़काकर अपना सवर्ण वोट बैंक मजबूत करने में लगे हैं। आरएसएस प्रमुख ने चुनावों से पहले आरक्षण की समीक्षा का बयान दे कर सवर्णों को सांत्वना दी थी। भाजपा के पास जुटाये हुए दलित नेता तो हैं किंतु स्वाभाविक रूप से उभरा दलित नेतृत्व नहीं है। यह हो भी नहीं सकता क्योंकि उनके हिन्दुत्व का स्वरूप दलितों को डराता है। मृत जानवरों के चमड़े का काम करने वाला दलित भयभीत है और अपना धन्धा चौपट हो जाने के कारण गुस्से में है।
आगामी गुजरात चुनाव में इसका परिणाम दिखाई देगा। 
 वीरेन्द्र जैन
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