शुक्रवार, अप्रैल 26, 2019

क्या भाजपा ने नैतिक पराजय स्वीकार कर ली है


 क्या भाजपा ने नैतिक पराजय स्वीकार कर ली है

वीरेन्द्र जैन
2019 के आमचुनाव चल रहे हैं और परिणाम तो दूर अभी बाकी के चरणों के चुनाव बाकी हैं तब जय पराजय की बात वैसे नहीं की जा सकती, जैसी कि परिणाम आने के बाद की जाती है। किंतु 1971 के आम चुनावों की हार के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि ‘ हम चुनाव जरूर हारे हैं, पर हिम्मत नहीं हारे ‘। वही हिम्मत न हारने वाले वाजपेयी जी बाद में देश के प्रधानमंत्री बने। दर असल जय पराजय को नापने के कई आयाम होते हैं। मैं कभी युवा उत्साह में मीडिया [उस समय प्रिंट मीडिया ही था] में चलती बहसों के आधार पर चुनावी निष्कर्ष निकाला करता था, जबकि चुनावों की दिशा तय करने के दूसरे दूसरे कारक होते हैं। एक बार मैं एक मित्र की दुकान पर बैठा हुआ चुनावी चर्चा कर रहा था कि उसी समय उसके यहाँ एक ग्रामीण ग्राहक आ गया। मैंने उससे पूछा-
‘वोट देते हो?’
‘हव [हाँ]’ उसका उत्तर था
“ इस बार किसको दोगे? “ मैंने पूछा
“ जौन खों मराझ आप कव [ महाराज जिसको आप कहें उसको दे दें] ‘ उसने उत्तर दिया
“ नहीं, मैं किसी का प्रचार नहीं कर रहा हूं, मैं तो ये जानना चाहता हूं कि वोट क्या सोच कर, माने किस आधार पर दोगे? ”
उसका उत्तर सुन कर मेरी आँखें खुल गयीं, जब उसने कहा कि हमारे गाँव में तो दो ही पार्टियां हैं एक फूल वाले [भाजपा] और एक पंजा वाले [कांग्रेस] , हमारे घर में कुल चार वोट हैं, सो हम तो दो वोट फूल वालों को दे देते हैं और दो पंजा को, किसी से बुराई नहीं लेते।
मेरा मित्र मुझ से बोला कि तरह तरह से विश्लेषण कर के जो एक वोट तुम दोगे उसे तो इनके ‘मत-दान’ के वोट बराबर कर देंगे।
कमोवेश आज भी वही स्थिति है। वोट देने में चुनावों के एक दिन पहले आने वाले घोषणापत्र, वादे, या झूठे सच्चे प्रचार के अलावा बड़ी संख्या में वोट जाति, रिश्तेदारियां, धर्म, गाँव के दबंग, पुलिस और बैंकों के सम्पर्की, आदि के कारण असर डालते हैं, कहीं जयप्रदा, कहीं फसल काटती हेमा मालिनी, या अचानक उभरी प्रियंका गाँधी भी उस वोट का दान करा देती हैं जो वोटर की निगाह में निरर्थक है, और अगर उससे हजार दो हजार रुपये ही मिल जाते हैं तो वह सबसे सफल सौदा होता है। इसलिए कौन जीतेगा या कौन हारेगा वह विभिन्न कारकों से तय होता है। यही कारण है कि सरकार बनाने वाले प्रशांत कुमार जैसे चुनाव प्रबन्धकों की सहायता लेते हैं, या वैसा ही प्रबन्धन करने वाले अमित शाह अपने धूमिल अतीत के बाद भी भाजपा के अध्यक्ष मनोनीत हो जाते हैं और पार्टी में कहीं से विरोध की महीन आवाज भी नहीं उठ पाती।
2019 का चुनाव कोई भी जीते किंतु यह तय है कि भाजपा नैतिक रूप से चुनाव हार चुकी है। सच तो यह है कि मोदी-शाह के दौर में भाजपा का केवल नाम भर शेष है, पर असल में यह मोदी जनता पार्टी में बदल चुकी है, जो मोदी के अन्धभक्तों या अपने अस्तित्व के प्रति आशंकित लोगों का समूह है। इसमें अगर कोई अलग से विचार देने का साहस भी करता है तो भयभीत समूह उससे किनारा कर लेता है, बिका हुआ मीडिया उसके सवालों को स्थान नहीं देता है, और सत्ता में बैठे लोग उसके सवालों का कोई उत्तर नहीं देते। यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी, कीर्ति आज़ाद, राम जेठमलानी, शत्रुघ्न सिन्हा, सुब्रम्यम स्वामी आदि को अपने सवालों के जबाब नहीं मिले तो अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार, गोबिन्दाचार्य, संजय जोशी, आदि ने दूरदृष्टि से मुँह ही नहीं खोला। सुषमा स्वराज ने किसी तरह अपना कार्यकाल पूरा किया तो उमा भारती ने सिफारिश लगवा कर बीच कार्यकाल में मंत्रिपरिषद से हटाये जाने से खुद को बचाया। मंत्रिपरिषद के लोग केवल दो लोगों द्वारा लिये गये फैसलों का पालन करने के लिए थे और वहां लोकतंत्र की जगह घुटन थी। सांसदों को सांसद निधि तक व्यय करने की स्वतंत्रता नहीं थी। जावड़ेकर कैसे कपड़े पहिनेंगे इसका निर्देश भी पीएम आफिस से मिलता था इसलिए उन्होंने जींस पहिनना छोड़ दिया था। दूसरी ओर सत्ता में बने रहने का सुख था, इसलिए सब चुप थे।
पिछले दिनों एक समाचारपत्र को साक्षात्कार देते हुए गृहमंत्री राजनाथ सिंह से प्रज्ञा ठाकुर को टिकिट देने के बारे में पूछा गया तो उनका उत्तर था कि जब सही उम्मीदवार नहीं मिलता तो ऐसे ही लोगों को टिकिट देना पड़ता है। अर्थात भोपाल म.प्र, समेत पूरे देश में दिग्विजय आदि जैसे नेताओं के सामने भाजपा के पास उचित उम्मीदवार नहीं थे। पूरे चुनाव में उन्हें अपनी उपलब्धियों की जगह अपने विरोधियों के ऎतिहासिक दोष गिनाने पड़े। जिस एयर स्ट्राइक के बारे में रहस्यमय बयान देकर वे नासमझों को बहला रहे थे उसके बारे में बीच चुनाव में ही सुषमा स्वराज ने कह दिया कि एयर स्ट्राइक में कोई भी पाकिस्तानी नागरिक नहीं मारा गया। इस बयान से पढे लिखे लोगों के बीच उनके गुब्बारे की हवा निकल गयी, पर नासमझ लोग एयर स्ट्राइक से अपने पन्द्रह लाख वसूले हुये मानने लगे। आतंकियों, अलगाववादियों, द्वारा किये गये हमलों की प्रतिक्रिया में जो हमलों की बात फैलायी गयी वह अतिरंजित मानी गयी तथा सच्चाई जानने के प्रयास को देशद्रोह करार दिया गया। दलबदल कर आयी जयप्रदा को टिकिट देने या सनी देवल, हंस राज हंस, मनोज तिवारी के साथी दो भोजपुरी गायकों, नर्हुआ और किशन, क्रिकेट खिलाड़ी गौतम गम्भीर, आदि के साथ स्मृति ईरानी, किरण खेर, बाबुल सुप्रियो, आदि को टिकिट देकर लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश की गयी। साक्षी महाराज को टिकिट देना पड़ा।
प्रज्ञा ठाकुर को टिकिट देने के बारे में न तो मध्यप्रदेश के किसी नेता से पूछा गया न ही भोपाल के किसी नेता से सलाह ली गयी। किंतु केवल एक पूर्व विधायक डागा जिन्हें विधानसभा के टिकिट से वंचित रखा गया था, ने इस विषय पर घुमा फिरा कर पार्टी छोड़ने की बात की। यद्यपि सारे भाजपा नेता चेहरा दिखाने के लिए समर्थन कर रहे हैं पर इस फैसले से खुश कोई नहीं है। देश भर के मीडिया ने इस फैसले की भर्त्सना की है या चतुर चुप्पी साध रखी है।  बेरोजगारी, किसान समस्या, नोटबन्दी जैसी फेल योजना, जीडीपी की दर में गिरावट, आरबीआई समेत सभी आर्थिक संगठनों के सलाहकारों द्वारा पदत्यागना. न्यायाधीशों द्वारा चेतावनी. सीबीआई के पद पर हुये तमाशे, आदि तो सब किताबी बातें हैं, पर वे भीतर भीतर जीवन पर गहरे असर भी डालते हैं। इन्हें छद्म राष्ट्रवाद से ढका जा रहा है। गौवंश के नाम पर हमलों ने न केवल मुसलमानों अपितु दलितों के मन पर बुरा असर डाला है। छात्रों और युवाओं के आन्दोलनों से बहुत सारी सच्चाइयां सामने आयी हैं। बुद्धिजीवियों की हत्याएं और प्रतिक्रिया में सामूहिक रूप से सम्मान वापिसी ने भी इनके मुख पर कलिख पोती है।
कुल मिला कर कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसके लिए प्रशंसा के स्वर उठे हों, या इनके 31% मतों में वृद्धि के कारक बन सकें। वे मुँह के जबर जरूर हैं । चुनाव परिणाम जो भी हो किंतु नैतिक रूप से मोदी पराजित हैं और इसीलिए कभी प्रैस कांफ्रेंस न बुलाने वाले वे, फिल्मी कलाकार को बुला कर पहले से तैयार स्क्रिप्ट पर खुद ही अपना गुणगान कर रहे हैं। वे नैतिक रूप से पराजित हैं वोटों की गिनती के परिणाम प्रतीक्षित हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629

 


  
 

मंगलवार, अप्रैल 23, 2019

सवाल यहाँ से खत्म नहीं, शुरू होते हैं


सवाल यहाँ से खत्म नहीं, शुरू होते हैं

वीरेन्द्र जैन
कबीर दास ने बहुत पहले ही साधु और जोगियों को मिलने वाले सम्मान और श्रद्धा के लालच में साधुओं का बाना पहिन लेने वालों में से कतिपय लोगों के प्रति सावधान करते हुए कहा था-
मन न रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा
भक्तिकाल के ही दूसरे बड़े कवि पंडित गोस्वामी तुलसीदास ने भी ऐसी ही प्रवृत्ति के लिए लिखा है-
जे बरनाध तेली कुम्हारा. स्वपच किरात कोल कलवारा.
नारी मुई गृह सम्पति नासी. मूड मुडाई होही सन्यासी.
उत्तर भारत के हिन्दीभाषी लोगों के लिए कभी सामाजिक संविधान की तरह से जीवन के आदर्श बताने वाली रामकथा में भी रावण जब सीताहरण के लिए आया था तो उसने साधु का भेष धारण किया था क्योंकि इस भेष के आधार पर ही किसी भी धर्मभीरु के मन में श्रद्धा का भाव पैदा हो जाता है। इसी भेष की ओट में जो धोखे मिले होंगे इसी से ‘मुँह में राम बगल में छुरी’ ‘रामनाम जपना, पराया माल अपना’ या ‘बगुला भगत’ जैसे मुहावरों का जन्म हुआ होगा। यही कारण रहा होगा जब सलाह दी गयी होगी कि ‘गुरु कीजे जान कर, और इसकी तुक पानी पीजे छान कर से मिलायी गयी होगी। उर्दू के शायरों ने तो धर्म उपदेशकों के उपदेशों और आचरणों में भेद पर खूब लिखा है।
किसी समय जो काम धन धान्य आदि हड़पने के लिए किया गया होगा वही काम चुनावी लोकतंत्र में वोट हड़पने के लिए किया जाने लगा। वैसे तो किसी सच्चे संत का संसद में पहुँचना देश, समाज, मानवता और राजनीति के लिए सबसे अच्छी बात हो सकती है, किंतु चुनावों में पराजय के भय से ग्रस्त दलों ने साधु भेषधारियों को चुनाव में उतार कर  लोगों की श्रद्धा को ठग कर वोट झटकने के प्रयास किये हैं। ऐसे ही सहारों से 1984 के आम चुनावों में दो सीट तक सिमिट जाने वाली भाजपा क्रमशः दो से 275 की संख्या तक पहुँच गयी। भले ही कभी कभी एक दो सच्चे संत भी संसद तक पहुँचते रहे पर बहुत सारे ऐसे भी पहुँचे जो केवल भेषभूषा से भ्रमित कर के ही पहुँचे। ये नकली संत अपनी अभद्र भाषा व कदाचरण के कारण अपने असली रूप में पहचाने भी जाते रहे, व कानूनी शिकंजे में भी कसे जाते रहे। काले धन को सफेद करने और सांसद निधि का सौदा करते कैमरे में कैद हुये।
देश के नागरिकों को हिन्दू और गैरहिन्दुओं की तरह बांट कर देखने वाले संगठन को पाकिस्तान बनने से बहुत मदद मिली। धर्म निरपेक्ष भारत में बसने वाले मुस्लिमों के प्रति नफरत फैलाना आसान हो गया। उनकी सोच रही कि जितना ध्रुवीकरण तेज होगा उतने अधिक बहुसंख्यक वोट उन्हें मिल सकेंगे। इसलिए उनकी कोशिश हिन्दू मुस्लिम विभाजन के नये नये मुद्दे तलाशने की रही है, इसीलिए साम्प्रदायिकता फैलाने के मामले में बहुसंख्यक समुदाय हमेशा निशाने पर रहा। अयोध्या में रामजन्मभूमि अभियान से पैदा हुयी साम्प्रदायिकता की सफलता के बाद तो काशी और मथुरा ही नहीं अपितु साढे तीन सौ से अधिक विवादास्पद स्थानों की सूची उन्होंने तैयार रखी है, जिसका स्तेमाल उचित समय पर करने की उनकी तैयारी है।
भाजपा जिसका पूर्व नाम जनसंघ था, ने ऎन केन प्रकारेण सत्ता प्राप्त करने के लिए जो जो उपाय किये उनमें हर तरह की संविद सरकारों के सिद्धांतहीन गठबन्धनों में बेहिचक शामिल होना, दलबदल का सहारा लेना, लोकप्रिय [सैलिब्रिटीज] व्यक्तियों को उम्मीदवार बनाना आदि ही नहीं रहे अपितु धार्मिक प्रतीकों और स्वरूपों का स्तेमाल भी प्रमुख रहा है। इसी क्रम में उन्होंने काँग्रेस के सबसे चतुर, मुखर, सचेत और जनाधार वाले व्यवहारिक नेता दिग्विजय सिंह की घोषित धर्मनिरपेक्ष छवि पर लगातार हमला किया। उनका चुनावी मुकाबला करने के लिए दूसरी बार भगवा भेषधारी, मुखर महिला को उतारा है। पहली बार भी उनके पास मुकाबले के लिए कोई प्रमुख राजनेता नहीं था इसलिए सुश्री उमा भारती को सामने लाने से उन्हें उम्मीद के विपरीत भी सफलता मिल गयी थी। किंतु वे अपने स्वभाव के अनुसार अनुशासन मुक्त होकर काम करती रहीं और अंततः उन्हें पद मुक्त करने में ही भाजपा ने भलाई समझी थी। जो इस तरह लाया जाता है, उसके साथ संगठन के अनुभव खराब ही रहते रहे हैं।
इस बार भी उनका यही प्रयास रहा किंतु करकरे के प्रति सुश्री प्रज्ञा ठाकुर की कड़वाहट ने प्रथम ग्रासे मक्षिकापात की स्थिति ला दी है। एक दिन बाद ऊपर से संकेत पाकर उन्होंने क्षमा मांग ली, और दिन भर हतप्रभ रहे भाजपा प्रवक्ताओं ने जोर शोर से घटना का पटाक्षेप घोषित कर दिया, जबकि सच यह है कि इसके साथ ही विचार मंथन का क्रम समाप्त नहीं प्रारम्भ हुआ है।
विकास और नई आर्थिक नीतियों के नये नये नारों के बीच जोगिया बाने वाली एक और महिला को लाकर वे बेरोजगारी से परेशान युवाओं को क्या सन्देश देना चाहते हैं? करकरे जैसे समर्पित पुलिस अधिकारी की शहादत के अपमान ने देश के समस्त ईमानदार पुलिस और सुरक्षा अधिकारियों को सचेत किया है। ऐसी उम्मीदवारियों का सहारा लेने से पता चलता है कि भाजपा जीत के प्रति कितनी सशंकित है? इससे यह भी पता चलता है कि भक्तों की भरमार तो हो रही है किंतु राजनीतिक नेतृत्व का कितना सूखा है। सब अचम्भित होते हुए भी सवाल नहीं उठा पा रहे हैं जबकि उक्त प्रत्याशी ने प्रदेश के एक लोकप्रिय भाजपाई मुख्यमंत्री को ही नियमों का पालन करने पर कितना भलाबुरा कहा था। यदि कोई पीड़ित या गलत ढंग से प्रताड़ित है तो उसे न्याय मिलना चाहिए न कि उसे मोहरा बनाना चाहिए! चुनाव परिणाम तो बहुत सारी बातों पर निर्भर करते हैं, पर चुनावी पराजय की दशा में भी क्या पीड़ित को न्याय नहीं मिलना चाहिए? इसलिए इसे चुनाव से जोड़ना ठीक नहीं है।
दूसरा सवाल सम्बन्धित घटनाओं के असली दोषियों की तलाश का भी है? आखिरकार यह बार बार ‘ नो वन किल्लिड जेसिका’ क्यों दुहराया जाना चाहिए। निर्दोषों को प्रताड़ित करने वाली जाँच एजेंसियां भी सन्देह के घेरे में आती हैं कि अगर वे ऐसा करती हैं तो क्यों करती हैं, और क्यों वे सबूत नहीं जुटा पाती हैं। उनके ही गवाह क्यों पलट जाते हैं। ये बहुत से सवालों के शुरू करने का समय है, उन्हें ठंडे बस्ते में डालने का नहीं है।     
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
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बुधवार, अप्रैल 03, 2019

लोकतंत्र के उल्टे कदम


लोकतंत्र के उल्टे कदम

वीरेन्द्र जैन
लोकतंत्र सबसे अच्छी शासन प्रणाली है, बशर्ते वह अपनी मूल भावना के अन्दर काम कर पा रही हो। हमारे देश में इस के नाम पर जैसे जैसे तमाशे चल रहे हैं, उसको देख कर लगता है कि विविधिता से भरे हुए हमारे समाज के अनेक भाग इस प्रणाली के महत्व और उसके प्रयोग को नहीं समझते। जो समझते हैं वे अलपमत में हैं और बहुमत के सामने पिछड़ जाते हैं।
इन दिनों आमचुनाव चल रहे हैं और कांग्रेस द्वारा अपनी पुरानी भूमिका खो देने के बाद कोई भी एक दल राष्ट्रव्यापी नहीं कहा जा सकता। जो कभी राष्ट्रीय दल रहे वे भी क्षेत्रीय दलों में बदल चुके हैं, उनके मुद्दे और घोषणाएं भी उनके प्रभावक्षेत्र अनुसार, राज्यवार बदल जाती हैं या वे विवादित विषयों पर चुप लगा जाते हैं।
लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुयी सरकार होने की शेखी बघारने वाले दल अपने विचार को मिली सामाजिक स्वीकृतियों के कारण सत्ता में नहीं होते अपितु एक बड़े वर्ग को भावनात्मक रूप से ठग कर सत्ता में आ जाते हैं। भले ही उनके थैले में एक अच्छा सा घोषणा पत्र घुसा हुआ सा मिल सकता है किंतु उसका उनको प्राप्त समर्थन से कोई सम्बन्ध नहीं होता। दिन दहाड़े हत्या, अपहरण, और गम्भीर अपराध करने वाले व्यक्ति भी न केवल अच्छा खासा समर्थन जुटा लेते हैं, पार्टी टिकिट हथिया लेते हैं, अपितु ज्यादातर जीत भी जाते हैं। ऐसी जीत से लोकतंत्र प्रणाली पर विश्वास टूटता है, और जंगली शासन तंत्र पर भरोसा बढता है। जैसे न्यायप्रणाली में होने वाली देरी, और बाद में पैसे वालों द्वारा न्यायिक छिद्रों से निकल भागने में सफल हो जाने का परिणाम यह होता है कि गाँवों, कस्बों के लोग बहुत सारे मामलों में पुलिस के पास जाने की जगह स्थानीय बाहुबलियों का सहारा लेते हैं और बदले में अपना सारा विवेक उसके यहाँ गिरवी रख आते हैं। यही कारण होता है कि ज्यादातर क्षेत्रों में नेता दल बदलते रहते हैं पर उनको मिलने वाला समर्थन नहीं बदलता। राजनेता के यहाँ गिरवी रखा समर्थन नहीं बदलता। इसी आधार पर विश्लेषक विश्वास के साथ यह घोषणा करते रहते हैं कि कब कहाँ से कौन जीत जायेगा।
हम जिस तरह से पीछे लौट कर जा रहे हैं उसे देखते हुए इसे लोकतंत्र का विकास नहीं कहा जा सकता। अगर शेषन जैसे चुनाव आयुक्त, एसोशिएशन आफ डेमोक्रेटिक रिफार्म जैसी संस्थाएं और जनहित याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसले नहीं आते तो हमारे देश के राजनीतिक दल और स्वार्थी नेता लोकतंत्र को समाप्त कर चुके होते। उल्लेखनीय है कि उपरोक्त लोगों ने जो सुधार करवाये हैं उनसे मुख्य धारा के दल सबसे अधिक प्रभावित हुये हैं, और इनमें से किसी ने भी मुक्त कंठ से इन सुधारों की प्रशंसा नहीं की। अभी भी ढेरों सुधार अपेक्षित हैं। चुने गये जनप्रतिनिधियों पर चल रहे आपराधिक प्रकरणों को विशेष न्यायालयों के माध्यम से तय समय सीमा में निबटाने का वादा स्वयं नरेन्द्र मोदी ने पिछले आम चुनाव के प्रचार के दौरान किया था। चुनाव जीतने के बाद उन्होंने उस वादे को कभी याद नहीं किया।
खेद का विषय है कि हम पुराने राजघरानों का प्रभाव उनकी कथित प्रजा के मन से घटाने में सफल नहीं हो सके हैं, जबकि अधिकांश अच्छे शासक नहीं थे। उनके प्रिवीपर्स व विशेषाधिकार समाप्त करने का जो फैसला किसी समय श्रीमती इन्दिरा गाँधी को लेना पड़ा था उसकी प्रतिक्रिया में निर्जीव हो चुके राज परिवार फिर से अंगड़ाई लेकर उठ खड़े हुए और उन्होंने सुविधानुसार अपने अपने राजनीतिक दल चुन लिये और वहाँ दबाव बना लिये। आज तीन सौ के करीब ऐसे राजपरिवारों में से शायद ही कोई ऐसा हो जो किसी न किसी स्तर का जनप्रतिनिधित्व न कर रहा हो। देखा देखी उनके रिश्तेदारों ने भी उसी हैसियत के अनुसार अपने लिए जगहें बना ली हैं। मोटा मोटी वे आज फिर शासक हैं। रोचक यह है कि चुन कर आने का तर्क देने वाले ये लोग अपने पूर्व राजक्षेत्र से अलग चुनाव के मैदान में उतरने पर अपना प्रभाव खो बैठते हैं। जब 1980 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी के विरुद्ध विजयाराजे सिन्धिया को खड़ा किया गया था तो अपने क्षेत्र में सदैव जीतने वाली श्रीमती सिन्धिया बुरी तरह पराजित हो गयी थीं।
जातिविहीन समाज की स्थापना और जातियों में बँटे समाज में सामाजिक समरसता लाने के लिए दलितों और आदिवसियों के लिए आरक्षण जरूरी था और अब तक जरूरी बना हुआ है। पर यह भी विचारणीय है कि इससे हमने लोकतांत्रिक भावना का कितना नुकसान किया है। प्रारम्भिक आम चुनावों में सत्तारूढ दल को राजनीतिक काम किये बिना ही एक सुनिश्चित संख्या में सदस्य बैठे ठाले मिल जाते रहे जो अपने अनुभव, ज्ञान और शिक्षा की कमी से हर प्रस्ताव पर हाथ उठाने का काम करते रहे। उन्होंने लम्बे समय तक अपने वर्ग के हितों के लिए भी सदन में और पार्टी के अन्दर प्रभावी मांगें नहीं उठायीं। क्या यह विचारणीय नहीं है कि श्री जगजीवन राम जैसे कुछ योग्य प्रतिनिधि भी सदैव आरक्षित सीट से चुनाव लड़ते रहे। क्या इतना संशोधन भी नहीं हो सकता कि आरक्षित सीट से चुनाव लड़ कर जीतने का अवसर केवल एक बार मिले। दूसरी बार यदि उसी वर्ग के दूसरे व्यक्ति को अवसर मिलेगा तो आरक्षण के आधार पर सामाजिक उत्थान का उद्देश्य अधिक प्रभावकारी होगा। सम्बन्धित को दूसरा चुनाव सामान्य सीट से लड़ना चाहिए। विशेष प्रतिभाशालियों को राज्यसभा में भेजा जा सकता है। विडम्बना यह है कि आज भी आरक्षित वर्ग का कोई नेता सामान्य सीट से नहीं लड़ना चाहता और अपवाद स्वरूप लड़ता भी है तो जीत नहीं पाता।
पिछले दिनों हमने देखा कि भाजपा ने जिस तरह से अनेक दलों में रह कर और सांसद रहने के बाद भी अपनी पहचान केवल अभिनेत्री की तरह सुरक्षित रखने वाली जयप्रदा को पार्टी ज्वाइन करने के दिन ही उम्मीदवार घोषित कर दिया तो दूसरी ओर काँग्रेस ने उर्मिला मातोंडकर को भी उसी दिन उम्मीदवार बना दिया वह प्रमुख दलों में पार्टी लोकतंत्र के अनुपस्थित होने का संकेत देता है। क्या दलों में उम्मीदवारी के लिए तयशुदा और घोषित मापदण्ड नहीं होने चाहिए? क्या चयन समिति का चयन लोकतांत्रिक ढंग से नहीं होना चाहिए?
पिछले दिनों भाजपा में टिकिट याचना करते हुए उम्रदराज नेताओं का एक वीडियो सामने आया जिसमें लाइन लगाये हुये नेता अपनी बारी आने पर इकलौती कुर्सी पर बैठे मोदी द्वारा नामित अध्यक्ष अमित शाह को फाइल थमाते और पैर [घुटना] छूकर जाते हुए दिखाये गये हैं। बहुजन समाज पार्टी और कुछ हद तक काँग्रेस में भी ऐसे दृश्य देखे जाते हैं। यह घोर अलोकतांत्रिक, सामंती और अवसरवादी प्रवृत्ति है, अगर यह केवल श्रद्धा होती तो ऐसे लोग क्षणों में ही दल नहीं बदल लेते। ऐसी ही अनेक प्रवृत्तियां जो लोकतांत्रिक भावना को कमजोर करती हैं, घटने की जगह बढती जा रही हैं, और इन्हें समाप्त करने के लिए कहीं कोई प्रयास नहीं हो रहे।
  वीरेन्द्र जैन
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