शनिवार, सितंबर 28, 2013

राष्ट्रीय एकता परिषद का सोशल मीडिया पर गुस्सा

राष्ट्रीय एकता परिषद का सोशल मीडिया पर गुस्सा
वीरेन्द्र जैन
       गत दिनों एक अरसे बाद आयोजित राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक का अपने उद्देश्यों में असफल होना चिंता का विषय है। ऐसी बैठकें किसी घटना के बाद राजनीतिक दलों, केन्द्र व राज्यों की सरकारों और कुछ चयनित बुद्धिजीवियों का सामूहिक स्यापा और कभी पूरा न होने वाले संकल्पों की औपचारिकता के बाद समाप्त हो जाती रही हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ है। ऐसा महसूस किया गया है कि वे सही विन्दु पर पहुँचना ही नहीं चाहते इसलिए औपचारिकता का निर्वाह भर कर के रह जाते हैं। मुज़फ्फरनगर की हिंसा के बाद आयोजित सन्दर्भित बैठक इस बार सोशल मीडिया के दुरुपयोग पर सारी जिम्मेवारी डाल कर और प्रधानमंत्री के दृढ संकल्प के दुहराव के साथ समाप्त हो गयी। इस बैठक में व्यक्त विचारों से ऐसा लगा जैसे कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग ही समस्या की असली जड़ है जबकि यह साम्प्रदायिक संगठनों के हाथ में आया केवल एक नया साधन भर है, जिसका प्रयोग धर्मनिरपेक्षता के हित में भी किया जा सकता है। असल समस्या तो धर्मान्धता, और राजनीतिक आर्थिक हित में उस अन्धत्व का लाभ उठाने वालों से निबटने की है। वोटों की राजनीति के शिकार जनता से कटे हुए दल तरह तरह के बहानों से इस अन्धत्व निवारण के बड़े परिश्रम से बचते लगते हैं, जबकि इसके विपरीत साम्प्रदायिक दल इसी अन्धत्व में अपना हित पाने के कारण उसे बनाये ही नहीं रखना चाहते अपितु उसमें वृद्धि करने के प्रति निरंतर सक्रिय हैं।
       मूल लड़ाई निष्क्रिय धर्मनिरपेक्षता और सक्रिय साम्प्रदायिकता के बीच है जिसमें लगातार धर्मनिरपेक्षता कमजोर पड़ कर पराजित हो रही है और साम्प्रदायिकता अपनी पूरी कुटिलता के साथ नये नये दाँव चलती जा रही है। उत्तर प्रदेश की ताज़ा घटनाएं, जिनके कारण इस बैठक को आहूत किया गया था, इसी का परिणाम हैं।
       सोशल मीडिया के दुरुपयोग करने में साम्प्रदायिक संगठन अग्रणी रहे हैं  और लाखों की संख्या में छद्म पहचानों से नफरत फैलाने के काम को आगे बढाया है। ऐसा वे इसलिए कर सके क्योंकि उनके पास पहले से ही एक बड़ा प्रचारतंत्र कार्यरत था। इस मीडिया के प्रारम्भ के साथ ही वे बहुत कुशलता से तर्क विहीन धार्मिकता और भौगोलिक राष्ट्रवाद को बढावा देने की ओट में नफरत भरे लेखों और टिप्पणियों की बाढ ले आये थे तथा गलत नामों वाली पहचानों से उन पर पसन्दगी के ढेर लगाने लगे जिससे ऐसा भ्रम फैले कि उनकी बात को सबसे ज्यादा पसन्द किया जा रहा है। कुछ एग्रीगेटर ज्यादा पसन्दगी के आधार पर प्रतिदिन मेरिट लिस्ट बनाते थे जिसमें इसी झूठी पसन्दगी के आधार पर साम्प्रदायिकों की पोस्टों को पहली दस पोस्टों में आना तय होता था। इस कारण से इन पोस्टों को दूसरे वे लोग भी पढने की कोशिश करते थे जिन्होंने इन्हें पहले नहीं पढा होता था। यही छद्म नाम गन्दी गन्दी गालियों से छुटपुट रूप से आने वाली धर्मनिरपेक्षता की पक्षधर पोस्टों को हतोत्साहित करने में जुट जाते थे। इन छद्म नामधारियों की टिप्पणियों के पोस्टिंग समय को देख कर ऐसा लगता रहा है कि ये किसी व्यक्ति विशेष के विचार भर नहीं हैं अपितु किसी सुव्यवस्थित कार्यालय से संचालित हो रही हैं एक ही छद्म नाम से विभिन्न वेबसाइटों पर चयनित अद्यतन सूचनाओं से भरी पूरे चौबीसों घंटे टिप्पणियां आते रहना किसी एक व्यक्ति का काम नहीं हो सकता। गत वर्ष गुजरात के विधानसभा चुनाव के दौरान यह सच सामने आया था कि मोदी के प्रचारक ट्विटर पर नकली फालोअर बनवा कर भ्रम पैदा करा रहे हैं। अक्टूबर 2012 में लन्दन की एक कम्पनी ने ट्विटर के आंकड़ों का पर्दाफाश करते हुए यह गड़बड़ी पकड़ी थी और बताया था कि दस लाख फालोअर्स का दावा करने वाली साइट के आधे से अधिक फालोअर्स नकली हैं।  सूचना तकनीक बहुत आगे बढ चुकी है और हम लोग दावा करते हैं कि हमारे यहाँ ऐसे तकनीकी विशेषज्ञ लाखों की संख्या में निकल रहे हैं तो क्यों नहीं झूठ पर आधारित साम्प्रदायिकता फैलाने वाली इन पोस्टों के छद्मनामों से सक्रिय अपराधियों की पहचान इसके प्रारम्भ से ही किये जाने की कार्यवाही की गयी और न अब की जा रही है। यदि ऐसा किया जा सके तो उनके सांगठनिक जुड़ाव का खुलासा किया जा सकता है।
       तकनीक पर आधारित सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए इसे तकनीकी विशेषज्ञों की मदद और प्रशासनिक कार्यवाहियों से ठीक किया जा सकता था। उल्लेखनीय है कि जब से एक खास संगठन से निकले लोग आतंकी गतिविधियों के लिए पहचाने और पकड़े गये थे तब से देश में आतंकी गतिविधियां न केवल बन्द हो गयी हैं अपितु उन से जुड़े राजनीतिक दल को आतंकवाद को देश की सबसे बड़ी समस्या बताने के बहाने एक खास समुदाय को निशाना बना कर साम्प्रदायिकता फैलाने का काम करना स्थगित करना पड़ा था। यदि करकरे जैसे पुलिस अधिकारियों की शहादत से सबक लेते हुए उनके कार्यकाल के दौरान उनका विरोध करने वालों की पहचान कराने का काम लगातार चलाया जाता तो साम्प्रदायिकता फैलाने वालों को रक्षात्मक बनाया जा सकता था। स्मरणीय है कि शहीद करकरे की पत्नी ने उनकी शहादत के बाद मोदी द्वारा दी गयी एक करोड़ की रकम को इसीलिए ठुकरा दिया था क्योंकि उनके जीवनकाल में मोदी गिरोह ही उनके महत्वपूर्ण कार्यों का लगातार विरोध कर रहा था, और उनके खिलाफ आन्दोलन की धमकियां दे रहा था।
       भले ही राष्ट्रीय एकता परिषद की उपलब्धियां हमें वांछित लक्ष्यों तक नहीं पहुँचा सकी हों किंतु उसमें  उन तक पहुँचने के संकल्प बिन्दु होने की सम्भावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। ये कैसी दुखद स्थिति है कि कुछ खास पार्टियों के मुख्यमंत्री और नेता जानबूझ कर इसकी बैठक से अनुपस्थित रहते हैं और इसमें उपस्थित होने वाले उनकी जिम्मेवारियों से विमुख होने को ढंग से प्रचारित भी नहीं कर पाते। इस बात को बार बार रेखांकित किये जाने की जरूरत है कि साम्प्रदायिक दंगों को उनके प्रारम्भ होने के कारणों तक सीमित रखने से काम नहीं चलने वाला अपितु उस षड़यंत्रपूर्ण कूटनीति के विरुद्ध लगातार काम करने की जरूरत है जो घटना के पात्रों को तुरंत ही समुदायों के कामों में बदल देने का माहौल बनाने में निरंतर सक्रिय रहती हैं। इसके साथ ही सुरक्षा बलों और प्रशासनिक अधिकारियों के कार्यकलापों की निरंतर समीक्षा किये जाने और सक्षम अधिकारियों को जानकारी देने का काम भी राष्ट्रीय एकता परिषद द्वारा किये जाने का तंत्र बनाया जाना चाहिए।  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629

         

सोमवार, सितंबर 16, 2013

प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी पर मोदी के चयन से नया कौन जुड़ेगा?

 प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी पर मोदी के चयन से नया कौन जुड़ेगा?
वीरेन्द्र जैन

       बुन्देली भाषा में एक वाक्यांश आता है- मुँह का ज़बर होना। जब कोई अतार्किक ढंग से अपनी बात ठेलता हुआ दूसरे को बोलने ही नहीं देता तो उसे मुँह का ज़बर कहा जाता है। भारतीय राजनीति में कहा जा सकता है कि भाजपाई मुँह के ज़बर हैं। जो लोग भी टीवी चैनलों पर होने वाली बहसें सुनते हैं वे जानते हैं कि अधिकांश भाजपाइयों या भाजपा समर्थकों की यह कोशिश रहती है वे निरर्थक और अतार्किक बातों से इतना समय खराब कर दें ताकि उनसे भिन्न विचार रखने वालों को अपनी बात रखने का अवसर कम से कम मिले। संसद के सदनों में वे शोर मचा कर सदन को चलने नहीं देते ताकि तर्क और तथ्यों को स्थान नहीं मिले। जो नारेबाजी सड़कों पर करना चाहिए उसे वे संसद में करते हैं और सदन को स्थगित करना पड़ता है। इस तरह वे बहस को ठेल कर अपना काम तो चला लेते हैं पर इससे उनका अपराधबोध प्रकट हुए बिना नहीं रहता। उनके इस कारनामे से कुछ कुशिक्षित लोग भले ही बरगलाये जा सकते हों पर समझदार लोगों के सामने उनकी कार्यप्रणाली और चरित्र स्पष्ट हो जाता है।  
       जिन मोदी को सोचे समझे ढंग से एन केन प्रकारेण लगातार प्रचारित किया जाता रहा है उनके प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बनाये जाने पर ऐसा प्रकट किया गया है जैसे वे एनडीए के एक दल के बहुमत से प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी की जगह प्रधानमंत्री ही बन गये हों। यह तूमार उनकी छवि सुधारने और उनको जबरन जनता में रोपने के लिए बाँधा जा रहा है। स्मरणीय है कि गत वर्ष लालकृष्ण अडवाणी ने खेद के साथ साफ साफ कहा था कि जनता भाजपा को कांग्रेस के विकल्प के रूप में नहीं देख रही। इस बीच हुए कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में मोदी के प्रचार में सक्रिय होने के बाद भी भाजपा ने अपने समर्थन और सरकारों को खोया है। उत्तर प्रदेश में तरह तरह की नौटंकियां करने के बाद वे सीटों की संख्या और वोट प्रतिशत में घटे हैं और उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक की सरकारों को उन्होंने खोया है। ऐसा तब हुआ है जब यूपीए शासन के खिलाफ लगातार लम्बे चौड़े आरोप लगाये जा रहे थे और मँहगाई अपने चरम की ओर बढ रही थी। उल्लेखनीय है कि जहाँ भाजपा की राज्य सरकारें रहीं हैं वहाँ भ्रष्टाचार के अनेक मामलों में जाँच के बाद उनके पदाधिकारियों व जनप्रतिनिधियों की संलिप्तता पायी गयी है और आम अपराधियों की तरह अदालतों में वे सुनवाइयां टलवाने की कोशिशें करते पाये जाते हैं। ऐसे मामलों में जल्दी फैसला नहीं होने देने के उनके प्रयास उनकी प्रणाली के संकेत देते हैं। लोकायुक्तों की स्थापनाओं को वे टालते हैं [गुजरात] और जहाँ वह स्थापित है वहाँ उन्हें काम नहीं करने देते [मध्य प्रदेश] जहाँ काम करता है वहाँ उससे असहयोग करते हैं [कर्नाटक]।  
       सवाल उठता है कि ऐसे कौन से कारक हैं जो मोदी को प्रधानमंत्री की तरह दिखाने की नौटंकियां करने के लिए नकली लाल किला या नकली संसद भवन तक बनवाने, और 15अगस्त को समानांतर भाषण देने को प्रेरित करते हैं! सच तो यह है कि अन्दर से कमजोरी महसूस करने के बाद ही वे ये काम एक  भ्रम पैदा करने के लिए करते हैं। पार्टी का प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित हो जाने के बाद मोदी कैमरों की सीमा में इस तरह से लोगों के पाँव छू रहे थे गोया प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी की जगह प्रधानमंत्री ही बन गये हों।
       मोदी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के बदनाम व्यक्तित्वों में से आते हैं। अमेरिका उन्हें वीसा नहीं देना चाहती, ब्रिटेन को उनके प्रति नरम होने की खबरों का खण्डन करना पड़ता है, उनकी पार्टी के गठबन्धन के सदस्य उनके कारण उनका गठबन्धन छोड़ कर चले जाते हैं,[जनतादल-यू, तृणमूल कांग्रेस, लोकजनशक्ति, नैशनल कांफ्रेंस, बीजू जनता दल , नैशनल कांफ्रेंस आदि] जिनमें छोटे दलों से लेकर बड़े दल भी होते हैं। नोबल पुरस्कार से सम्मानित भारत रत्न अर्थशास्त्री उन्हें पसन्द नहीं करते[अमृत्य सेन]। सामाजिक कार्यकर्ताओं पर जब उनके प्रति नरम होने का आरोप लगाया जाता है तो वे सफाई देने में देर नहीं करते [अन्ना हजारे]। गुजरात के ब्रांड एम्बेसडर को जब उनके समर्थक होने का भ्रम फैलाया जाता है तो वे कानूनी नोटिस देने की बात करते हैं [अमिताभ बच्चन]। वे केवल एक राज्य में लोकप्रिय हैं, पर पूरे देश और दुनिया में अलोकप्रिय हैं, लोग उनसे घृणा करते हैं। बदनाम भी होंगे तो क्या नाम न होगा जैसी कहावत के अनुरूप उनकी बदनामी को भाजपा भुनाना चाहती है। भाजपा के वरिष्ठतम नेताओं में से लालकृष्ण अडवाणी को पिछली बार प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बना कर परखा जा चुका है व अटलबिहारी चुनाव में भाग लेने लायक स्वस्थ नहीं हैं। यही कारण है कि मोदीजी अपनी मुखरता, के कारण नये युवा नेतृत्व की तरह उभरे हैं। 2002 में हुए मुसलमानों के नरसंहार के बाद वे साम्प्रदायिकता से दुष्प्रभावित राज्य के बड़े वर्ग के बीच  दृढ नेतृत्व की तरह प्रचारित किये गये हैं। उनके मंत्रिमण्डल के सबसे वरिष्ठ मंत्री को जेल की यात्रा करनी पड़ी और उसके बाद अदालती आदेश से उसका प्रदेशनिकाला हुआ। उनकी दूसरी महिला मंत्री को आजन्म कैद की सजा हुयी है और उसके साथी को फाँसी की सज़ा सुनायी गयी है। ये सब उस स्थिति में हुआ है जब उक्त लोगों को बचाने में पूरी सरकारी मशीनरी झौंक दी गयी। उनके मंत्रिमण्डल के एक सदस्य की हत्या हुयी और उसके पिता ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के सामने सरे आम हत्या की ज़िम्मेवारी मोदी पर लगायी। झूठे एनकाउंटर के लिए जेल में बन्द डीजीपी ने जब यह काम उनके आदेश पर करने सम्बन्धित पत्र लिख कर उन पर लगे आरोप को पुष्ट कर दिया तब उन्हें और अपने आप को बचाने के लिए भाजपा को उन्हें प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित करना पड़ा क्योंकि अब बचने का कोई दूसरा रास्ता शेष नहीं था।
       स्मरणीय है कि मोदी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी जल्दी से जल्दी बनाने अन्यथा पार्टी के हिट विकट हो जाने का खतरा बताने वाले राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जैटली ने इस बयान के कुछ ही दिन पहले कहा था कि पार्टी में मोदी समेत कम से कम दस लोग सम्भावित प्रत्याशी हैं। जैटली का बयान बंजारा के पत्र खुलासे के समानांतर आया जिससे पता चलता है कि इस पत्र की जानकारी मिलते ही उनके विचार बदल गये थे, और आनन फानन में मोदी के अभिषेक जैसा तुमुल कोलाहल पैदा कर दिया गया। स्मरणीय है कि मोदी की हरियाणा में हुयी रैली के बाद ही एक अखबार [दैनिक भास्कर 16 सितम्बर 2013] में इस आशय का समाचार प्रकाशित हुआ कि बंजारे के पत्र के पीछे भाजपा के ही एक गुजरात से सांसद और पूर्व केन्द्रीय मंत्री [अर्थात अडवाणी] का हाथ है। यह बंजारा के पत्र के खुलासे को दलीय प्रतिद्वन्दता में बदल कर उसके महत्व को कम करने का षड़यंत्र है।   
       सच तो यह है कि मोदी को यह प्रत्याशी पद देने के पीछे उनके कारनामों से उन्हें सुरक्षा दिलाने से अधिक कुछ भी नहीं है। मोदी के आने पर दुन्दभि बजाने वाले सब किराये के लोग हैं। उनके आने से न कोई दल उनके गठबन्धन से जुड़ रहा है और न ही जनता का कोई वर्ग। उद्योग जगत का एक हिस्सा केवल धन दे सकता है जिसके नियमानुसार उपयोग के लिए निर्वाचन आयोग अपनी पूरी सख्ती से कमर कसे हुए है। मध्यम वर्ग के जिस कुशिक्षित हिस्से के उनके दृढ अनुशासन, आर्थिक ईमानदारी, आंकड़ागत विकास जैसी हवाई बातों से प्रभावित होने का प्रचार किया जा रहा है उसका किंचित असर होने पर भी मोदी के कारण जितना नुकसान होने जा रहा है वह कई गुना अधिक है। अभी भी हमारे यहाँ मतदान को जातियों, सम्प्रदायों, क्षेत्रीयताओं, लुभावने व्यक्तित्वों, पैसों और दबावों आदि से मुक्त नहीं किया जा सका है। इसलिए यह मानना चाहिये कि सारी कवायद मोदी और उनके सहयोगियों को कानूनी कार्यवाही से कुछ समय के लिए बचाने से अधिक कुछ नहीं है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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मंगलवार, सितंबर 10, 2013

मुज़फ्फरनगर के साम्प्रदायिक दंगे, कुछ विचारणीय बिन्दु

मुज़फ्फरनगर के साम्प्रदायिक दंगे, कुछ विचारणीय बिन्दु
वीरेन्द्र जैन

          मुज़फ्फरनगर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दूसरे नगरों, गाँवों के दंगों के मामले में एक बार फिर से वही भूल की जा रही है जिसमें पूरी स्थिति को तात्कालिक घटना\घटनाओं तक सीमित करके देखा जाता है। एक लड़के द्वारा किसी लड़की को छेड़ने और उसके भाइयों द्वारा सम्बन्धित को दण्डित करने के प्रयास में अति हो जाना असामान्य नहीं है। सामंती प्रभाव वाले क्षेत्रों और ग्रामों कस्बों में गाहे बगाहे ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं। इस घटना के बिगड़ने का प्रमुख कारण साम्प्रदायिकता, जातिवाद, और नारी को सम्पत्ति मानने की अवधारणा में निहित है। अगर साम्प्रदायिकता का जहर समाज में पहले से मौज़ूद नहीं होता तो इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि छेड़ने वाले लड़के का धर्म इस्लाम था और पीड़ित लड़की की जाति जाट [हिन्दू] थी। साम्प्रदायिकता और जातिवाद की अनुपस्थिति में यह एक कानून व्यवस्था का मामला था जिसे पुलिस के सहारे सुलझाया जाना चाहिए था तथा अब उसके लिए बहुत कठोर कानून अस्तित्व में हैं। किंतु पुलिस और न्याय व्यवस्था का जो हाल है उससे लोगों का उन पर से भरोसा उठता जा रहा है और दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस भरोसे के अभाव में लोग ऐसे मामलों में स्वयं फैसला करने में विश्वास करते हैं।
          उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था की हालत पहले भी ठीक नहीं थी व ताज़ा इबारत उसी दिन लिख दी गयी थी जब अखिलेश यादव के शपथ ग्रहण समारोह में लम्पट युवाओं ने उत्पात मचाते हुए शर्मनाक उच्छंखृलता का प्रदर्शन किया था। कितना विडम्बनापूर्ण था कि इस अवसर पर व्यवस्था के रखवाले विवश होकर हाथ बाँधे खड़े रहने को मजबूर दिखे थे। तब इन पंक्तियों के लेखक ने लिखा था कि अगर इस लम्पट उत्साह को कोई राजनीतिक दिशा और कार्यक्रम नहीं दिया गया तो सत्ता के दम्भ में ये अराजक युव जन समाजवादी पार्टी को मिले इस समर्थन को मटियामेट कर देंगे। आज वह सच सामने आ रहा है। अखिलेश सरकार आने के बाद खुद सरकार द्वारा माने गये चौबीस साम्प्रदायिक दंगे हो चुके हैं वहीं विपक्ष इनकी संख्या एक सौ चालीस तक बता रही है, पर इन दंगों में सरकारी पार्टी के समर्थकों की दंगा रोकने में कोई भूमिका सामने नहीं आयी। प्रश्न आँकड़ों का न होकर यह है कि व्यक्तियों द्वारा किये गये अपराध कैसे एक समुदाय द्वारा किये गये अपराध में बदल दिये जाते हैं और व्यक्ति के रूप में पीड़ित एक व्यक्ति को पूरे समाज का साथ मिलने की जगह क्यों उसके जाति समुदाय का साथ भर मिलने से वह एक जाति धर्म के खिलाफ दूसरी जाति धर्म का हमला बन कर रह जाता है। इसके साथ ही जुड़ा सबसे प्रमुख सवाल यह है कि क्यों इतने सारे कार्यक्रमों और योजनाओं के बाद भी लोगों का भरोसा पुलिस और न्याय से टूटता जा रहा है और अपनी जाति धर्म के लोगों पर बढता जा रहा है। समाजवादी पार्टी के नाम से उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज़ नेताओं द्वारा समर्थन पा लेने का मुख्य आधार उनके समाजवादी सिद्धांत नहीं अपितु एक जाति की एकजुटता और एक आशंकित धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों द्वारा किया गया नकारात्मक मतदान है, अर्थात यादव मुस्लिम गठजोड़। मतदान के समय यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि समाजवादी पार्टी की जीत की स्थिति में मुख्यमंत्री कौन बनेगा और मुलायम सिंह की असमर्थता के बाद वरिष्ठ व जीत दिलाने में महत्वपूर्ण आज़म खान कनिष्ठ अखिलेश की तुलना में बड़े दावेदार थे। भले ही उनका दावा स्वीकार नहीं किया गया था किंतु उन्हें मंत्रिमण्डल में मुख्यमंत्री के बराबर ही या कई मायने में अधिक अधिकार मिले हुए हैं। वे मुस्लिमों के एक क्षत्र नेता बने रहने के लिए समुचित मुस्लिम पक्षधरता का प्रदर्शन भी करते रहते हैं जो परोक्ष में मुस्लिम एकजुटता तक पहुँच कर साम्प्रदायिकता का रूप ले लेती है।
          समाजवादी पार्टी के सत्ता में आने के बाद उनका पहला काम यह होना चाहिए था कि राजनीति में सक्रिय प्रदेश के बड़े युवा वर्ग को साम्प्रदायिकता के खिलाफ जनजागरण में लगाते किंतु अखिलेश सरकार ने उत्तरप्रदेश में गहरी जड़ें जमाये हुए साम्प्रदायिक संगठनों के लगातार विषवमन के खिलाफ कुछ नहीं किया और अपने युवा समर्थकों को गैर कानूनी तरीके से सरकारी सुविधाएं चरने के लिए छुट्टा छोड़ दिया। उत्तर प्रदेश में केवल साम्प्रदायिकता ही नहीं अपितु सरकार की जाति के अधिकारियों, पुलिस निरीक्षकों आदि की पदस्थापनाएं पक्षपात पूर्ण ढंग से हुयी हैं और कानून का पालन करने वाले दण्डित किये जा रहे हैं। हर जगह मानव अधिकार व सामाजिक न्याय इनके घर गिरवी है। ऐसे तरीके सरकार में आस्था को कम करते हैं और अपने धर्म व जाति संगठनों में आस्थाएं बढाते हैं जिससे छोटी मोटी घटनाएं भी जाति धर्म गौरव में बदल कर बड़ा रूप ले लेती हैं।
            संविधान में समान नागरिक अधिकारों वाली नारी को समाज में पुरुष वर्ग की सम्पत्ति की तरह अब भी देखा जाता है। जहाँ किसी पुरुष द्वारा दूसरे समाज में शादी कर लेने पर जाति का कोई अपमान नहीं होता वहीं अगर समाज की नारी किसी दूसरे समाज के पुरुष से विवाह कर ले या प्रेम करे तो पूरा समाज अपमानित महसूस करता है। इस आधार पर दर्ज़नों घटनाएं प्रतिमाह सामने आती हैं और उनमें से ही कोई बड़ी साम्प्रदायिक या जातीय दंगे में बदल जाती है। किसी पिछड़ी या सवर्ण जाति की लड़की द्वारा दलित जाति के लड़के से विवाह कर लेने या प्रेम करने पर पूरी जाति के लोग उत्तेजित हो जाते हैं। यह एक पारम्परिक सामाजिक बुराई है किंतु दंगों का तात्कालिक उपचार करने और इन्हें कानून व्यवस्था तक सीमित मानने वाले लोग न केवल इस बुराई के खिलाफ कुछ नहीं कर रहे हैं अपितु अपने वोटों की खातिर जातिवादी घटकों को बढाने में लगे हैं।
          मुज़फ्फरनगर के दंगों में आधा सैकड़ा बहुमूल्य जानों और करोड़ों की सम्पत्ति का ही नुकसान नहीं हुआ है अपितु सामाजिक विश्वास के जो धागे कमजोर हुए हैं उसके नुकसान का कोई अन्दाज़ा ही नहीं लगाया जा सकता। अखिलेश सरकार को तो उसी समय सतर्क हो जाना चाहिए था जब भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का चेयरमेन बना कर उनके कहने से अमित शाह को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बना दिया था। जो लोग समाज को निरंतर पैट्रोल से सींचते रहते हैं उनके लिए इस बात का ज्यादा महत्व नहीं होता कि माचिस की जलती तीली जानबूझ कर या अनजाने में कौन फेंकता है। उन्हें तो आग लगने से मतलब होता है क्योंकि जब दो मजहबों के बीच कटुता बढती है तो राजनीतिक लाभ हमेशा बहुसंख्यक वर्ग ही उठाता है। जरूरत समय रहते पैट्रोल सींचने वाले के हाथ बाँधने की है।
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, सितंबर 03, 2013

आशारामदेवों की सरपरस्त पार्टी – भाजपा

आशारामदेवों की सरपरस्त पार्टी – भाजपा

वीरेन्द्र जैन
       जो लोग देश के नागरिकों की आस्थाओं से खिलवाड़ करते हुए अपना धन्धा करते हैं उन्हें भाजपा और संघ परिवार बहुत सुहाता है। वैसे तो धर्म के नाम पर भावनाओं को भुनाने का काम अकाली दल, मुस्लिम लीग र शिव सेना और केरलकांग्रेस आदि भी करती है किंतु गलत कामों की खुली वकालत करने और मुँहजोरी करने में भाजपा समेत पूरे संघ परिवार का कोई सानी नहीं। यही कारण है कि धर्म से जुड़ी पुरानी मान्यताओं को सफल  धन्धे में बदलने वालों के लिए यह पार्टी सबसे अनुकूल पड़ती है।
       गत दिनों जब आशाराम के ही एक अन्धभक्त ने अपनी लड़की के साथ हुए बलात्कार से दुखी होकर आशाराम की रिपोर्ट करने का साहस दिखाया और पूरा देश थू थू करते हुए कार्यवाही की माँग करने लगा तब भाजपा ने अपने दो राष्ट्रीय वरिष्ठ उपाध्यक्षों के माध्यम से अपनी पक्षधरता स्पष्ट करते हुए अपने सदस्यों को सन्देश दिया कि उन्हें क्या करना है। उनका सन्देश पाकर ही मध्यप्रदेश शासन के वरिष्ठ केबिनेट मंत्री कैलाश विजयवर्गीय जो पहले भी आसाराम के सौदे म.प्र. के मुख्यमंत्री से कराते रहे हैं, ने उनके के पक्ष में आवाज ही नहीं बुलन्द की अपितु एक टीवी चैनल की ग्रुप चर्चा में असंतुलित अशालीन व्यवहार कर अपने पक्ष को चर्चा के केन्द्र में लाने की सफल कोशिश की। उनसे ही संकेत ग्रहण करके छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री रमन सिंह और गृहमंत्री ननकी राम ने भी जाँच के लिए लम्बित मामले पर भाजपा का इकतरफा फैसला सुनाते हुए आसाराम को निर्दोष बता कर हुए उन्हें षड़यंत्र का शिकार बता दिया। निर्दोष होने का यह प्रमाणपत्र जारी करते समय उन्हें अपने ‘दिव्यज्ञान’ का आधार बताने की कोई जरूरत महसूस नहीं हुयी क्योंकि इस बयान के माध्यम से तो उन्हें अपने लोगों को सन्देश भर देना था कि उन्हें क्या कार्यवाही करनी है। आसाराम ने भी इन्दौर में भाजपा नेताओं, विधायकों और वकीलों से चर्चा करने के बाद अपने खिलाफ षड़यंत्र में कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गान्धी और उनके पुत्र की ओर भाजपायी अन्दाज़ में संकेत कर दिया कि वे लोग उनके खिलाफ षड़यंत्र कर रहे हैं। ऐसा करके वह गैर कांग्रेसी लोगों से समर्थन की उम्मीद कर रहा था। स्मरणीय है कि जब विश्व हिन्दू परिषद के दारा सिंह ने कुष्ट रोगियों की सेवा के लिए भारत आये आस्ट्रेलिया के पादरी फादर स्टेंस की उनके दो मासूम बच्चों के साथ आग लगा कर हत्या कर दी थी तब देश के तत्कालीन गृहमंत्री लाल कृष्ण अडवाणी ने तुरंत बयान दिया था कि इस नृशंस हत्याकांड में वीएचपीए का कोई हाथ नहीं है जबकि बाद में इसी आरोपी को सजा हुयी। यह तो संयोग ही था कि सबूत इतने स्पष्ट थे कि जाँच एजेंसियां प्रभावित नहीं हो सकीं। आसाराम की गिरफ्तारी और उससे पहले छुपने की कोशिश के दौरान मीडियाकर्मियों पर जिन लोगों ने हमले किये और उनके कैमरे तोड़ दिये वे ही लोग चुनावों और रैलियों के दौरान भाजपा द्वारा आहूत भीड़ में भी दिखायी देते हैं।
       अगर प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बनने की प्रत्याशा में डूबे नरेन्द्र मोदी ने अपने मतभेदों के कारण दूरदर्शिता दिखाते हुए फिलहाल आसाराम से दूरी बनाने के संकेत न दिये होते तो एक निरीह अन्धभक्त परिवार की अवयस्क लड़की के साथ हुये घटनाक्रम को इन मुँह के जबर लोगों द्वारा भीड़ जुटा कर वैसे ही दबा दिया गया होता जैसे कि इनके शासन काल में गुजरात और मध्यप्रदेश आदि भाजपा शासित राज्यों में सैकड़ों मामले जाँच में ही दबा दिये गये हैं या गवाहों को धमका लोक अभियोजकों पर दबाव बना कर निबटा दिये गये हैं। स्मरणीय है कि पिछले दिनों प्रोफेसर सभ्भरवाल की दिन दहाड़े हुयी हत्या में मध्यप्रदेश के बाहर मामला ले जाने पर भी गवाहों के बदलने और अभियोजन के नरम हो जाने के कारण आरोपी छूट गये थे और अपने फैसले की इस मजबूरी की चर्चा न्यायधीश ने स्वयं की थी। उल्लेखनीय यह भी है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री स्वयं जेल अस्पताल में इन आरोपियों से मिलने गये थे और इनके छूट जाने पर आरोपियों का शानदार स्वागत जलूस निकाला गया था जिसमें मध्य प्रदेश शासन के एक मंत्री खुशी से नाचते हुए चल रहे थे। इन्हीं मंत्री ने बयान भी दिया था कि आज में जितना खुश हूं उतनी खुशी मुझे मंत्री बनते समय भी नहीं हुयी थी। उल्लेखनीय यह है कि बाद में इन्हीं आरोपियों में से एक की ग्वालियर में अस्वाभाविक मृत्यु हुयी थी जिसे आत्महत्या बताया गया था। उसके परिवार के लोगों ने आत्महत्या की कहानी से असहमति जताते हुए जाँच की मांग की थी, पर नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है ।        
       भले ही कूटनीतिक रूप से भाजपा के एक गुट ने अपने मुँह को बन्द कर विश्व हिन्दू परिषद को आगे कर दिया है किंतु जब शरद यादव जैसे उनके पुराने सहयोगी संसद में आरोपी आशाराम को भूमाफिया बतलाते हुए तुरंत कानूनी कार्यवाही की मांग कर रहे थे तब भाजपा के लोग चुप लगा कर बैठे थे। एक ज्वलंत मुद्दे पर देश के सबसे बड़े और मुखर दल की चुप्पी का भी साफ संकेत होता है। स्मरणीय है कि गत 16 दिसम्बर को दिल्ली में हुए बर्बर गैंग रेप के खिलाफ जब पूरा देश उठ खड़ा हुआ था तब भाजपा की नेता सुषमा स्वराज बड़े जोर शोर से अपराधी को फाँसी देने की माँग कर रही थीं। बाबा रामदेव द्वारा भाजपा को पिछले दिनों नौ लाख रुपये का चन्दा देने का मामला सामने आया था और इसमें कोई सन्देह नहीं कि आसाराम भी भाजपा को अपने प्रवचन के धन्धे से अर्जित राशि, और ज़मीनों के कारोबार से बड़ा सहयोग करते होंगे, तभी तो भाजपा कार्यालय में इतनी नगदी जोड़ कर रखी जाती है कि डेढ करोढ रुपये चोरी हो जाने पर भी भाजपा रिपोर्ट लिखाने तक की जरूरत नहीं समझती।
       रामदेव के गुरु के गायब हो जाने की जाँच सीबीआई कर रही है और रामदेव ने जिन गुरु से ज्ञान प्राप्त कर आयुर्वेद दवाओं व योग प्रशिक्षण का इतना बड़ा व्यापार शुरू किया है कि कुछ ही वर्षों में ग्यारह सौ करोड़ से अधिक की दौलत अर्जित कर ली, उन्होंने अपने गुरु के गायब हो जाने पर कभी चिंता व्यक्त नहीं की अपितु एक रहस्यमयी चुप्पी ओढ कर जाँच और जाँच की मांग से दूरी बना कर रखी। हर संवेदनशील घटना को राजनीतिक मुद्दा बना लेने की कोशिश करने वाली भाजपा रामदेव के गुरु के सन्देहास्पद परिस्तिथियों में गायब हो जाने पर कभी मुखर नहीं हुयी। जब रामदेव का संस्थान कर वंचन की जाँच में आया तो भाजपा ने उसे रामदेव के खिलाफ षड़यंत्र बताने की कोशिश की। परिणाम यह हुआ कि कभी अलग पार्टी बना कर चुनाव लड़ने की घोषणा करने वाले रामदेव अब केन्द्र में भाजपा की सरकार बनवाने और नरेन्द्र मोदी को मुख्यमंत्री बनवाने के लिए तन मन धन से लगे हैं।
       भाजपा के कारण आज धर्म राजनीति और व्यापार का एक गिरोह बन गया है जो परस्पर एक दूसरे के सहयोगी बन कर काम कर रहे हैं। आसाराम के खुलासों के बाद इस गठजोड़ के नक्शे खुल कर सामने आ गये हैं जिनसे अन्दर अन्दर आर्थिक और सामाजिक अपराधों को इस गठजोड़ द्वारा दिये जा रहे संरक्षण का पता भी चलता है। लोकतंत्र के हित में ऐसे गठजोड़ों का टूटना समाज के हित में होगा इसलिए धार्मिक संस्थानों में अधिक पारदर्शिता और उनके कार्यों के प्रभाव के मूल्यांकन की जरूरत है।     
वीरेन्द्र जैन
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