रविवार, अक्तूबर 25, 2020

श्रद्धांजलि/ संस्मरण - हरीश दुबे [स्मृति तिथि 28 अक्टूबर] साहित्य से जनित आभासी संसार का नागरिक था वह

 

श्रद्धांजलि/ संस्मरण - हरीश दुबे [स्मृति तिथि 28 अक्टूबर]

साहित्य से जनित आभासी संसार का नागरिक था वह  




वीरेन्द्र जैन

वे कालेज से निकलकर रोजगार की खोज वाले दिन थे जब उससे परिचय हुआ था। दतिया जैसे कस्बे में काफी हाउस कल्चर नहीं था और ना ही रोज रोज काफी हाउस का बिल चुका सकने की क्षमता वाले लोग थे. पर उसका विकल्प सस्ती चाय के होटल के रूप में मौजूद था। किला चौराहा इकलौता केन्द्रीय स्थान था जहाँ रोज हाजिरी लगाना हर जागरूक नागरिक का कर्तव्य भी था और मजबूरी भी थी क्योंकि इस स्थान के इर्दगिर्द ही नब्बे प्रतिशत बसाहट थी और कहीं भी जाने के लिए यहीं से होकर गुजरना होता था। हम लोगों जैसे बेरोजगार या खुद के घेरे से से बाहर निकल कर सामाजिक कार्यकर्ता बनने का ‘प्रशिक्षण’ लेने वाले युवा, पत्रकार, लेखक, संगीतकार, बुद्धिजीवी आदि कुछ ज्यादा ही समय उन चाय के होटलों में बिताते थे जिनमें बैठकर क्रिकेट की कमेंट्री भी सुनी जाती थी और बिनाका गीतमाला भी [ तब टीवी नहीं आया था]। इन होटलों में चार पाँच अखबार भी आते थे जिन्हें पढने के लालच में वे सात्विक लोग भी आ जाया करते थे जो होटल के कपों, गिलासों में चाय पीना पसन्द नहीं करते थे। बहरहाल सुन्दर और नरसू के इन दो होटलों में बैठ कर पूरे नगर के प्रमुख लोगों से मिला जा सकता था या उस समय उनकी स्थिति का पता मिल सकता था।

हायर सेकेंड्री स्कूल के एक लेक्चरर दार्शनिक किस्म के श्री वंशीधर सक्सेना की वह स्थायी बैठक थी और वे जब अपने स्कूल या सोने व खाना खाने घर न गये हों तो वहीं मिलते थे। वेतन मिलते ही वे पूरे पैसे लाकर सुन्दर [सिन्धी होटल मालिक]  को सौंप देते थे, और जब जितनी जरूरत पड़ती थी उतने मांगते रहते थे। न उन्होंने कभी हिसाब मांगा और न ही सुन्दर ने कभी खयानत की। वंशीधर मास्साब के बच्चे नहीं थे व उनकी पत्नी दृष्टिहीन थीं, वे अपने बड़े भाई के साथ संयुक्त परिवार में पैतृक मकान में रहते थे। खाने पीने व पहनावे में लापरवाह, वे उम्र का लिहाज किये बिना सबके मित्र, सखा, अभिभावक थे। खूब पढे लिखे थे, पर अपनी पढाई के अहंकार से दूर, और हर विषय पर सहज और निरपेक्ष भाव से बात कर लेने वाले व्यक्ति थे। झेन दर्शन के सहज भाव वाले व्यक्ति वंशीधर जी चुटकलों वाले फिलास्फर ही थे जो बेल्ट नहीं मिलने पर अपनी पेंट को नाड़े से भी बाँध सकते थे। वैसे वे अंग्रेजी और दर्शनशास्त्र में एमए थे। मेरे कुछ अधिक ही मित्र थे क्योंकि वे कहते थे कि मित्रता के लिए उम्र नहीं मानसिकता समान चाहिए होती है। मैं उनकी उदारता के बाद भी उनकी वरिष्ठता का सम्मान करता था किंतु हरीश में बचपना था व वह उनके मुँह लगा हुआ था। वह उम्र को नजर अन्दाज कर खुला सम्वाद कर लेता था। वैसे भी वह जीवन भर मुँहफट रहा।  

सथियों की कमजोरियों का उपहास उस स्थान का मुख्य शगल था। सब एक दूसरे की कमजोरियों का मजाक बना के खूब खिलखिलाते थे और यह काम तब कुछ अधिक ही होता था जब सम्बन्धित अनुपस्थित हो, इसलिए सबकी कोशिश यह होती थी कि समूह के जुटने से पहले ही पहुँच जाये, नहीं तो उसीकी छीछालेदर हो रही होती। उन दिनों हम लोगों के बीच आचार्य रजनीश चर्चा में थे, जो उनके द्वारा खण्डन का दौर था। इन अर्थों में हम सब क्रांतिकारी भी थे।  

यह बहुत बाद में पता चला कि समूह के लोगों में उम्र में सबसे छोटा हरीश बहुत कठिन समय में गुजर रहा था और फिर भी खूब खिलखिला लेता था, और बेलिहाज हो गया था।

दतिया उस सामंती प्रभाव वाला क्षेत्र था जहाँ ज्यादातर लोग निर्धन थे पर ‘गरीब’ नहीं थे। उनके इस चरित्र को कभी किसी ने शब्द दिये थे जो कहावत बन गये। वे शब्द थे-

ऎंठ दतिया में, / पेंठ दतिया में, / सज्जन, सुजान सें न भेंट दतिया में,

मिर्चुन [बिरचुन अर्थात बेरों का चूर्ण] घोर खांय पथरोटिया में।

अर्थात पत्थर की प्याली में बेरों के चूर्ण को घोल कर पीने वाले भी अपनी अकड़ और स्थान बना कर रखते हैं और व्यवहार में सरल व विनम्र लोगों से भेंट होना दुर्लभ ही है। कहने वाले के अपने अनुभव रहे होंगे।  

ये सारी कहावतें मध्यम वर्ग या मध्यमवर्गीय जातियों के चरित्र को लेकर ही बनायी जाती रही हैं क्योंकि उस दौर में निम्न वर्ग या निम्न मानी जाने वाली जातियां तो नगर के चरित्र की पहचान नहीं बनाती थीं। हरीश न केवल जाति से ब्राम्हण था, अपितु स्कूल इंस्पेक्टर के पद पर रहे पिता की सात संतानों में सबसे छोटा था। अपनी नौकरी और जाति के कारण पिता में एक कड़कपन और स्वभाव में कठोरता थी। उन्होंने न केवल अपनी संतानों को बड़ा किया था अपितु उन्हें सरकारी स्कूल में अपने समय की यथा सम्भव उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने को प्रेरित किया था। उनके सबसे बड़े बेटे रमेश उस दौर में एमबीबीएस थे अपितु फौज में कैप्टन रहे। उनसे छोटे सुरेश हाईकोर्ट ग्वालियर में अपने समय के सफल वकील रहे। उनसे छोटे लेखक दिनेश चन्द्र दुबे न केवल एडीशनल डिस्ट्रिक्ट जज रहे अपितु अपने लीक से हट कर न्यायिक फैसले लिखने के लिए भी जाने जाते रहे। वे कई कथा व कविता पुस्तकों के लेखक और कवि भी रहे।  प्रारम्भिक दौर में निर्भीकता से उन्होंने आमजन को न्याय दिलाने में स्थापित परम्परा से हट कर भी निर्णय किये। हाईकोर्ट की अनुमति के बिना किसी फिल्म में जज का अभिनय कर लेने के कारण उन्हें समय से पहले सेवा निवृत्त भी होना पड़ा। उनसे छोटे प्रेमचन्द्र दुबे चीफ म्युनिसिपल आफीसर रहे और उनसे छोटे प्रकाश चन्द्र दुबे एमबीबीएस सरकारी चिकित्सक रहे। प्रेम और प्रकाश दोनों बीएस-सी में मेरे क्लासफैलो भी रहे। इनसे छोटे गिरीश चन्द्र दुबे पेशे से तो हायर सेकेंड्री स्कूल में लेक्चरर रहे किंतु इसके अलावा भी अन्य गतिविधियों में सक्रिय रहे। हरीश सबसे छोटा था। हाँ इन सबकी एक बड़ी बहिन भी थीं जिनका विवाह एक डाक्टर साहब से हुआ था जो मध्य प्रदेश के गुना जिले में सिविल सर्जन होकर सेवानिवृत्त हुये। हरीश के चाचा हाईकोर्ट के जज व ला कमीशन के सदस्य रहे और चचेरे भाई भी डिस्ट्रिक्ट जज आदि रहे। अगर हरीश के भाइयों के रिश्तेदार व भतीजी भतीजों के बारे में भी चर्चा की जाये तो उनके सामाजिक रुतबे की बात बहुत दूर तलक चली जायेगी।

इतनी रिश्तेदारियों के बीच भी वह अकेला था और अब कह सकता हूं कि वह हम सब की तरह निर्धन ही था और वह यह बात जानता था। उसने कभी बताया था कि पिता ने अपनी शुरू की संतानों को कठोर अनुशासन में प्रारम्भिक पढाई का माहौल तो दिया किंतु लगभग उन सबने अपना कैरियर खुद ही बनाया, घर में दो एमबीबीएस डाक्टर, एक जज, एक हाई कोर्ट का वकील, एक मुख्य नगर पालिका अधिकारी, एक बेटा लेक्चरर, और एक एपीपी [हरीश] हुये। पिता ने अपने कुल गोत्र अनुसार उनका ब्याह करना अपना दायित्व या कहें कि अधिकार माना व कई मामलों में पुत्रों की इच्छा के विरुद्ध भी उनका ब्याह कर दिया था। हरीश मुझ से कुछ ज्यादा ही खुला हुआ था।  उसमें लेखक हो सकने की पूरी सम्वेदनशीलता मौजूद थी। वह दृष्टा की तरह अपने और अपने परिवेश के जीवन को तट्स्थ भाव से देख सकता था, उनकी अच्छाइयां, बुराइयां मुझे बता सकता था। उसने हँसते हुए बताया था कि उसके एक प्रेमी रहे भाई की शादी के समय उनको घोड़े पर बैठाने के बाद पिताजी ने दो बन्दूक वाले भी लगाये थे ताकि वे भाग न सकें। विवाह के बाद अपने भाइयों को पिता की तरह पालना सबके लिए कठिन होता है जो उनके भाइयों को भी रहा होगा। हरीश के बड़े भाइयों ने अपने से छोटों को अभिभावक बन कर पढाया और अनुशासित रखा किंतु भाई व भाभियों का अनुशासन माता पिता के अनुशासन से अलग महसूस होता है। जिनमें स्वाभिमान की मात्रा कुछ अधिक हो उसे कुछ ज्यादा ही महसूस होता होगा। फिर सबसे बड़े भाई साहब कैप्टन रमेश शार्ट सर्विस कमीशन से जल्दी रिटायर होकर आ गये व फौज की कुछ ऐसी आदतें लेकर आये जो सिविल जीवन के अनुकूल नहीं मानी जाती थीं। वे इतने एडिक्ट हो गये थे कि शराब न मिलने पर टिंचर तक पी जाते थे। उनकी ग्वालियर मे नियुक्त व्याख्याता पत्नी बच्चों ने उनसे दूरी बना ली थी और बाद में हरीश के माँ बाप ने उन्हें भी छोटे बच्चे की तरह पाला। पिता की पेंशन से काम नहीं चलता था इसलिए माँ गाहे बगाहे घर के गहने भी बेच देती थीं।

ऊपर से दूसरे नम्बर के भाई वकील सुरेश चन्द्रजी के संरक्षण में रहने पर हरीश आदि भाइयों को हिसाब से स्कूल फीस, किताबों, कपड़ों के लिए पैसे तो मिल जाते थे किंतु किशोर और युवा मन को अगर सिनेमा देखने के लिए पैसों की जरूरत हो तो वह काम अनैतिक माना जाता था, व भाभी के ताने भी सुनना होते थे। जिन्हें हर समय याद आ जाता था कि तुम्हारी माँ ने हमारे सारे गहने रख लिये हैं। ये ताने माँ के प्रतिनिधि के रूप में हरीश को ही सुनने और सहन करने पड़्ते थे, शायद दूसरे भाइयों को भी सुनने पड़े हों। बाद में इन भाभी ने आत्महत्या कर ली थी।

 जब हरीश दिनेश चन्द्र जी के साथ रहे तो जज के भाई होने के कारण कुछ सम्मान सुविधाएं तो मिलीं किंतु वहाँ भी उनकी सोच के अनुसार चलना पड़ता, जैसा वे चलना नहीं चाहते थे। वैसे दिनेश जी, इस सबसे छोटे भाई को अपने दोस्त का दर्जा भी देते थे, पर यहाँ भी भाभी फैक्टर काम करता था। हरीश को दिनेशजी से साहित्य में कैरियर बनाने से लेकर साहित्य पढने की रुचि भी मिल गयी थी। दिनेशजी हर काम आक्रामक रूप से करना पसन्द करते थे और पद के सहारे कर भी लेते थे। उन्हें छपना पसन्द था और जज होने के कारण उन्हें वरीयता भी मिल जाती थी। हरीश को भी उसका कुछ लाभ मिलने लगा। उस दौर को उसने अपनी परिष्कृत रुचि को और संवारने में लगाया। दिनेशजी के घर पर आने वाली ढेरों पत्र पत्रिकाओं के अलावा उसने लाइब्रेरी और हिन्दी के प्रोफेसरों से प्राप्त कर खूब सारा अच्छा कथा साहित्य पढा, और अपने जीवन के अनुभवों से मिला कर उसके मर्म तक भी पहुंचा। निर्मल वर्मा, गिरिराज किशोर आदि उसके प्रिय लेखक रहे।

उसने कविताएं, कहानियां, और गज़लें लिखीं। इसी साहित्य ने हरीश को गढा। और इसी के कारण उसका जीवन, असामान्य होकर सामाजिक मान्यताओं के अनुसार, बिगड़ा भी। विपुल कथा साहित्य पढ लेने के बाद वह मेरे साथ बैठ कर वह किसी के भी जीवन का विश्लेषण कर उसकी कमजोरियों पर कटाक्ष कर सकता था। इसमें वह मेरे जीवन और परिवार को भी नहीं बख्शता था। उसके कटाक्ष ने मुझे समय समय पर बहुत कुछ संवरने. सुधरने का मौका भी दिया। वह इतना सद्भावी था कि उस निन्दक को आंगन कुटी छवा कर नियरे राखने का मन करता था। ह्रदय से निर्मल होने के कारण मित्रों के घर की महिलाओं के साथ भी वह सबके सामने बेलिहाज बात कर लेता था और उसका कोई बुरा नहीं मानता था। वकार सिद्दीकी साहब बहुत वरिष्ठ थे और मेरे माध्यम से ही वह उनके सम्पर्क में आया था किंतु उनकी पत्नी उसकी सगी भाभी जैसी हो गयी थीं।   

मेरे प्रति हरीश की रुचि इसलिए ही जगी थी क्योंकि मैं उन दिनों धर्मयुग में लगातार छप रहा था और एक खास घटना के कारण मेरे नाम के आगे दतिया भी लिखा जाने लगा था। श्रेष्ठ पत्रिका में प्रकाशित लेखक प्रमाणित लेखक भी माना जाता है क्योंकि उसकी रचनाएं अपने समय के कठोर परीक्षक की निगाह से गुजर कर ही प्रकाशित हो पाती हैं। हरीश ने इस बीच में निर्मल वर्मा आदि को पढा और पसन्द किया। इसी बीच कमलेश्वर सम्पादित सारिका की समानान्तर कहानियां भी उसे पसन्द आती रहीं। उसके जीवन में उतार चढाव आते रहते थे, दिनेश जी के साथ रहता था तो जज के भाई के रूप में प्राप्त विशिष्ट व्यवहार पाता और दतिया में रहता था तो खाली जेब पाया जाने वाला जूनियर दोस्त होता था, जिसे सीनियर पैसे देकर सिगरेट लाने भेज सकते थे। सहकारी पार्टियों में उसे निःशुल्क शामिल किया जाता था। किसी तरह एलएलबी कर लेने के बाद उसे जरूरत थी नौकरी और निर्मल वर्मा के पात्रों की तरह भावुक प्रेम की। दोनों ही कठिन थे, क्योंकि वह निर्मल वर्मा की कहानियों के परिवेश में नहीं ठेठ देशी कस्बे में रह रहा था। इसी दौरान उसने एलएलबी करने के बाद प्रैक्टिस शुरू कर दी। उसके आदर्श विचारों को न तो प्रैक्टिस सूट कर रही थी और न ही वांछित भावुक प्रेम मिल पा रहा था। सामान्य लड़कियों को प्रेमी भी वैसा चाहिए होता है जो जल्दी ही कमाऊ पति होता दिखायी दे रहा हो। रिश्ते की बहिनों का सहारा लेकर उसने कई जगह सम्भावनाएं तलाशीं, पर गहरी समझ और भावुक, त्याग करने वाला प्लेटोनिक लव कहीं नहीं मिला। सारी लड़कियों को पिता व भाई की अनुमति से सुरक्षित जीवन का भरोसा देने वाला पति चाहिए था।

 उसकी उम्र बढ रही थी। खाली जेब वकील के स्वरूप से मुक्त होने के लिए उसने सबसे पहले नौकरी प्राप्त की जिसमें उसकी उच्च पद वाली रिश्तेदारियां भी कुछ काम आयीं और वह असिस्टेंट पब्लिक [तब पुलिस] प्रासीक्यूटर [एपीपी] हो गया। राहत मिली, पर काम चाहता था कि धारा के साथ बहो, जो उसे मंजूर नहीं था। कार्यालय में पीने के पानी के लिए घड़े नहीं होते थे, चैम्बर नहीं था, परदे नहीं थे, यहाँ तक कि विभागीय लाइब्रेरी भी नहीं होती थी। एपीपी को लाइब्रेरी के लिए किसी बड़े वकील के चैम्बर में जाना होता था और उनका अहसान लेना होता था। जिन आरोपियों के खिलाफ उसे पुलिस की ओर से मुकदमा लड़ना होता था उनमें से कई के पास खूब पैसा होता था और वे बड़े बड़े वकील करते थे। वह कहता था कि आम आदमी को न्याय दिलाना बहुत कठिन काम है, क्योंकि पूरी व्यवस्था उसके खिलाफ काम कर रही होती है। सजा दिलाने से पुलिस इंस्पेक्टर का रिकार्ड सुधरता है इसलिए वह कोर्ट साहब [एपीपी] के लिए डायरी में पैसे रख कर लाता है। हरीश ने वे पैसे लेने से मना कर दिया जिसका उसके साथी एपीपियों को बुरा लगा तो पुलिस भी सोचती थी कि कहीं एपीपी साहब नाराज तो नहीं। उसने बाद में पैसे की जगह विकल्प के रूप में पुलिस इंसपेक्टर से आफिस में नये घड़े रखवाने, परदे लगवा देने या भोपाल से कानून की किताबें मंगवा देना स्वीकार करना शुरू कर दिया। आफिस के साथियों को वह सनकी और अलग तरह से काम करने वाला लगने लगा इसलिए चतुर वरिष्ठों ने विभाग का कचरा काम उसकी ओर खिसकाना शुरू कर दिया व कमाई वाला काम खुद लेने लगे। जब उसे लगा कि ये लोग उसे बेबकूफ समझ रहे हैं तो उसने काम के नियमपूर्वक वितरण का सवाल उठाया। परिणाम यह हुआ कि उस की झूठी शिकायत कर साथियों ने उसे ही सस्पेंड करवा दिया। सस्पेन्ड करने वाले कलैक्टर थे श्री अरविन्द जोशी जो बाद में अपनी आईएएस पत्नी सहित कई सौ करोड़ की अवैध कमाई के आरोप में जेल में रहे हैं। उस समय उसकी पोस्टिंग मुरैना में थी और वह ग्वालियर रहता था। शादी की उम्र निकली जा रही थी और वह अपनी भाभियों, भाइयों के तनावपूर्ण रिश्ते देख कर पत्नी नहीं, अपितु प्रेमिका पत्नी की तलाश में था।  

इसी बीच ग्वालियर से मुरैना जाते हुए उसकी मुलाकात ट्रेन में साधना [पत्नी] से हुयी और साधना के घरवालों की असहमति के बाबजूद हिन्दुओं की शादी के आफ सीजन में भी सभी दोस्तों ने मिल कर एक मन्दिर में शादी करा दी। उस दिन तिथि थी आठ आठ अठासी। शादी में बाद में विधायक रहे शम्भू तिवारी समेत लगभग सभी हिन्दू, मुस्लिम सिख, सिन्धी, जैन, ईसाई मित्र सम्मलित थे, और सबको लग रहा था कि कोई ठीक काम किया है, शादी में उसने मित्र अकील वेग से मांग कर लगभग नई कमीज पहिनी थी। वह अपने अध्ययन से जनित भावना के साथ अपनी पत्नी से भरपूर प्रेम करने लगा व उन मित्रों से कट गया जो कभी उसके लिए भाइयों और रिश्तेदारों से भी बढ कर थे। वैसा ही प्रेम उसका बच्चों के साथ भी रहा। वह बच्चों की इच्छा पर उनके लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहता था। उस लाढ-प्यार और बच्चों के साथ दोस्तों जैसी बातों ने बच्चों के दिमाग में भी उसकी आम पापा से भिन्न छवि निर्मित कर दी थी । बच्चे अपने पिता को सक्षम समझते थे क्योंकि उन्हें पता ही नहीं था कि उसका पिता अपने बच्चों की इच्छाएं कैसे पूरी करता है। वह बेईमानी नहीं करता था किंतु बच्चों के लिए अपने सक्षम मित्रों से उधार लेने में कोई संकोच नहीं करता था।   

उसकी पत्नी साधना का परिवार भी अपने उत्थान पतन का रोचक इतिहास रखता था। साधना के पिता भी कभी मजिस्ट्रेट हुआ करते थे किंतु अपनी सिद्धांतवादिता में उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी व प्रैक्टिस करने लगे थे। वे योग्य थे किंतु अच्छी प्रैक्टिस के लिए जो व्यवहारिक व्यावसायिकता चाहिए होती है उसका अभाव था। उनके तीन बेटियां थीं, जब उनकी मृत्यु हुयी तो केवल बड़ी बेटी की शादी हुयी थी। साधना सबसे छोटी थी। सबसे बड़ी बेटी की शादी आगरा में श्री लवानिया जी से हुयी थी जो वहाँ वकील थे और भाजपा के सक्रिय नेता थे। बाद में वे आगरा के मेयर भी चुने गये थे। मझली बेटी बाद में हायर सेकेंडरी स्कूल में लेक्चरर नियुक्त हुयीं। उन्हें जिन से शादी करनी चाही थी उनकी पहले कभी शादी हो चुकी थी व तलाक का केस चल रहा था, जो चलता रहा व उसके फैसले की प्रतीक्षा में इतना लम्बा समय निकल गया और दोनों के दिल से विवाह की तमन्ना ही निकल गयी, पर वे अभिन्न मित्र बने रहे। उन दिनों लिव इन रिलेशन शब्द नहीं आया था और वैसी स्थिति को सामाजिक स्वीकृति नहीं थी। हरीश भी अपनी सैद्धांकिता में उन्हें पसन्द नहीं करता था। साधना के भी ऐसे ही विचार थे। कभी मजिस्ट्रेट रहे साधना के पिता ने जरूरत पड़ने पर किसी साहूकार से पैसे उधार लिये थे और मकान कुर्क होने की नौबत आने पर आगरा वाले दामाद ने वह उधार चुका दिया था। उन्होंने अपनी नैतिकिता में नगर के मुख्य मार्ग पर स्थित अपना मकान दामाद के न चाहते हुए भी उनके नाम कर दिया था। बाद में उन्होंने भी अपनी वसीयत में  वह मकान अपनी पत्नी समेत तीनों बहिनों के नाम कर दिया था जिसके आधार पर साधना और हरीश भी उसके एक हिस्से के हकदार हुये। जब साधना को उसकी मझली बहिन और माँ ने बड़ा किया था। उसे अपनी बड़ी बहिन का मित्र पसन्द नहीं आता था इसलिए बड़ी बहिन से तनाव के सम्बन्ध रहते थे। पर वे ही घर की प्रमुख थीं। घर में परम्परागत रूप से किसी पुरुष का संरक्षण और अनुशासन नहीं था। शिक्षा पूरी करते ही साधना ने पोस्टल विभाग में अस्थायी नौकरी भी की थी और हरीश के अनुसार संरक्षण की चाह में उसकी इच्छा रही होगी कि जल्दी से जल्दी उसकी शादी हो जाये ताकि यह असुरक्षित घर छूटे। इसी दौरान उसकी मुलाकात हरीश से हो गयी थी और जल्दी ही वे अंतरंग हो गये और दोनों ने विवाह का फैसला कर लिया था। घर में पिता नहीं थे, बड़ी बहिन ने माँ की देखभाल का जिम्मा लिया हुआ था और जो खुद की शादी न करने का फैसला कर चुकी थी। बड़ी बहिन की दशा तक पहुँचने से बचने के लिए ही साधना ने हरीश से शादी जल्दी में मन्दिर में गैर परम्परागत ढंग से की थी, जिसमें केवल हरीश के दोस्त ही सम्मलित हुये थे।

कुछ समय बाद हरीश की पोस्टिंग गुना हो गयी। बच्चे हुये। हरीश दोस्तों और उनकी महफिलों को भूल गया। बच्चों से उसने डूब कर प्यार किया। वह परिवार के रहन सहन में शाह खर्च था। उसके पास ना तो कुछ अतिरिक्त आय थी और ना ही किसी मुश्किल वक्त के लिए कुछ बचा कर रखने की आदत थी। स्वाभिमान इतना था कि भाइयों से सहायता मांगना उसे मंजूर नहीं था क्योंकि वे पैसे की जगह अपना जीवन दर्शन देने लगते थे, जिसके प्रति उसे वितृष्णा थी। कुछ समय बाद उसके मिलने जुलने वालों मित्रों का भी यही हाल हो गया, जो सलाह भी साथ में देने लगे थे। अभावों में भी उसने अपने मित्रों ही नहीं अपितु वरिष्ठ अधिकारियों से भी अपने सिद्धांतों के विपरीत किसी तरह का समझौता नहीं किया। खीझ कर उन्होंने उसे मुख्यधारा से हटाने के लिए उसका ट्रांसफर पुलिस प्रशिक्षण संस्थान में करवा दिया। उसका विचार था कि यह ट्रांसफर नियमानुसार नहीं है क्योंकि वह पुलिस विभाग का कर्मचारी नहीं है और प्रासीक्यूशन का डायरेक्टोरेट अलग है। बच्चे गुना के सबसे अच्छे स्कूल में पढ रहे थे और वह उन्हें दूसरी जगह नहीं ले जाना चाहता था। वह ट्रांसफर पर नहीं गया, इसलिए फिर सस्पेंड कर दिया गया। स्वाभिमान की इस लड़ाई में वह दो साल तक सस्पेंड रहा। इस दौरान भी उसने अपने बच्चों की पढाई और खर्चों में किसी तरह की कमी नहीं की। अभावों से परिवार में तनाव बढने लगा और पत्नी ने अपनी बहिन से सहायता मांगी जो उन्होंने दी। हरीश को लगा कि यह मकान के हिस्से के रूप में दी जा रही है। हरीश डिप्रैशन जैसी दशा में चला गया। जब उधार ज्यादा बढ गया तो उन्होंने पत्नी के कहने पर गुना छोड़ देने का निश्चय किया या कहें कि उसे छोड़ना पड़ा।

इस बीच उसकी माँ का निधन हो चुका था और बेसहारे वृद्ध पिता को उनके एक भतीजे ने सहारा दिया व अपने साथ ले गये। पिता ने भी अपने इलाज आदि खर्च पूरे करने के लिए मकान को उसके नाम कर दिया था जिसने देख रेख न कर पाने के कारण बेच दिया था। पिताजी ज्यादा दिन नहीं रहे। अब हरीश के पास कहीं भी कोई अपना मकान नहीं था। उसे ससुराल में ही आकर रहना पड़ा। बड़े हो चुके बच्चों को उस तरह से रहने की आदत नहीं थी। बहिन ने बड़े बच्चे का प्रवेश इन्दौर के एक इंजीनियरिंग कालेज में करा दिया। लड़का इस माहौल से बाहर तो निकलना चाहता था किंतु इंजीनियरिंग नहीं पढना चाहता था। बहरहाल उसको घुटन से राहत मिली। पर हरीश की घुटन बढ गयी थी। संयोग से उन दिनों प्रदेश के गृहमंत्री दतिया से ही थे, जिन से कह कर बड़ी बहिन और पत्नी साधना ने सस्पेंसन हटवा दिया और शाजापुर के आगर मालवा में पोस्टिंग मिली। रोचक यह रहा कि हरीश किसी के भी पास खुद आवेदन लेकर नहीं गया। शायद डाक्टर की सलाह पर वह प्रतिदिन एक घंटे किसी आत्मीय मित्र से बात करना चाहता था और उसके पास वह मित्र मैं ही था, इसलिए रोज फोन पर बातें होती थीं। ऐसा महीनों चला। फिर उसे सरकारी क्वार्टर भी मिल गया व परिवार भी आ गया। बाद में उसका ट्रांसफर भोपाल हुआ।

भोपाल में उसकी नौकरी के सस्पेंशन आदि के समय का निराकरण भी हो गया और सर्विस में ब्रेक नहीं माना गया। पूरी तनख्वाह मिलने लगी, पिछला बकाया भी कुछ मिला, वरिष्ठता भी मिली। बड़े बेटे ने अपने आप इंजीनियरिंग छोड़ कर मीडिया की पढाई शुरू कर दी। हरीश फिर मुझ से कट गया। कई साल बाद उसका रिटायरमेंट आ गया तो वह सेवानिवृत्ति पर मिला पैसा शाही तरीकों से बच्चों पर खर्च करने लगा। एकाध बार मैंने उसे टोका भी किंतु वह हमेशा की तरह मेरी मितव्यता पर हँस दिया। मैं बुझ गया। सलाहों से बचने के लिए उसने मिलना जुलना और बात करना भी बन्द कर दिया था।

शायद उसके साथ फिर ऐसा हो गया था जिसे वह मुझे तक बताना नहीं चाहता था। वह डिप्रेशन में चला गया था। घर से बाहर निकलना बन्द कर दिया था और घुलता जा रहा था। एक दिन साधना का फोन आया कि मैं उन्हें समझाऊं। वह कभी घर पर नहीं बुलाता था, इसलिए मैंने उसे यूनीवर्सिटी में बुलाया जिसके सामने के भवन में वह रहता था। उसने कुछ नहीं बताया किसी सवाल का जबाब नहीं दिया। उसकी काया बिल्कुल जर्जर हो चुकी थी। वह केवल इतना कह रहा था कि सब कुछ बर्बाद हो गया। समझ में आ गया कि उसमें अब जीने की कोई इच्छा बाकी नहीं है। बिना पूरा सन्दर्भ जाने मैंने उसे कुछ सलाहें सी दीं और चला आया। मैं जानता था कि जब वह मुझ से ही कुछ बात नहीं करना चाहता तो और किसी से क्या बात करेगा! वही हुआ, 28 अक्टूबर 2018 के दिन उसके ना रहने की प्रत्याशित खबर भर आयी। उसकी मृत्यु को मैं पहले ही जी चुका था, और निरुपाय था।

उसने खुद कई बार मेरे आक्रोश में लिये फैसलों पर मुझे सम्हाला था और बताया था कि अपने जैसे मध्यमवर्गीय परिवारों में ऐसे दुख सुख आते रहते हैं। मैं उसका अहसानमन्द था किंतु उसके लिए कुछ भी कर सकने की स्थिति में नहीं था। इस स्मृति को मैंने हरीश की सामाजिक परिस्तिथियों तक ही सीमित रखा है, उसके निजी जीवन, रचनात्मक योगदान, और उसके विश्लेषणों पर लिखना बाकी है।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

                 

गुरुवार, अक्तूबर 08, 2020

रिया को जमानत के बड़े परिप्रेक्ष्य

 

रिया को जमानत के बड़े परिप्रेक्ष्य


वीरेन्द्र जैन

कुछ टीवी चैनलों, और लगभग भोंकने काटने के अन्दाज में चिल्लाने वाले टीवी एंकरों ने सुशांत सिंह की दुखद मृत्यु को जानबूझ कर सनसनीखेज बनाया था। यह कहना सही नहीं होगा कि रिया चक्रवर्ती को मिली जमानत ने उसका पटाक्षेप कर दिया है। सच तो यह है कि कहानी यहाँ से शुरू होना चाहिए। इस कहानी ने पूरे देश की राजनीति, अर्थव्यवस्था, कानून व्य्वस्था, संचार व्यवस्था, धर्म, संस्कृति आदि में छुपी सड़ांध को उघाड़ कर रख दिया है।

सबसे पहले तो बता दूं कि किसी भी स्वनिर्मित, सम्भावनाशील, लोकप्रिय, युवा कलाकार के असामायिक निधन पर किसी भी परिचित, अपरिचित मनुष्य को दुख होना स्वाभाविक है। यह दुख मुझे भी हुआ था, किंतु साथ ही साथ बाबा भारती की कहानी की तरह दुख और करुणा के नाम पर ठगने वालों के षड़यंत्र पर गुस्सा आना भी स्वाभाविक है, ऐसे लोगों को सबक सिखाने का तरीका भी अपनी क्षमताओं और परिवेश के अनुसार ही खोजना होगा। रिया और उसके वकील ने बिना उत्तेजित हुये इतने बड़े षड़यंत्र का सामना करने में जिस धैर्य और विवेक का प्रदर्शन करते हुये नियमों का पालन किया व न्याय का सम्मान किया उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए।

सबसे पहले टीवी चैनलों को लें। नई तकनीक आने के बाद इस बात का पता लगना आसान हो गया है कि कौन सा चैनल किस समय में कितना देखा जा रहा है। इसी टीआरपी के आधार पर विज्ञापन कम्पनियां अपने विज्ञापन देती हैं जो उनकी आय का मुख्य स्रोत है। दूसरे सत्ता पर अधिकार करने के लिए राजनीतिक दल और अपने पसन्द के नेता और दल को सत्तारूढ कराने को उत्सुक कार्पोरेट घराने, उनके नेताओं और दल के साथ साथ उनकी सरकार की छवि को बनाने के लिए निरंतर प्रचार कार्य कराते हैं, जिसके लिए टीवी जैसा दृश्य [विजुअल] मीडिया सर्वोत्तम साधन है। यही कारण है कि बहुत सारे समाचार चैनल समाचारों के नाम पर राजनीतिक नेताओं या दलों का विज्ञापन करने लगे हैं। बहसों के नाम पर तयशुदा निष्कर्ष निकालने को ड्रामा रचते हैं। इसी क्रम में वे साम्प्रदायिकता के प्रसार और विरोधियों की चरित्र हत्या की सुपारी भी लेते हैं। अपनी टीआरपी के लिए वे सामान्य घटनाओं को सनसनीखेज बनाने में भी नहीं हिचकते। जिस सामान्यजन में राजनीतिक चेतना के संचार का काम करना चाहिए था, उसे और अधिक कूपमंडूक, अन्धविश्वासी, और पोंगापंथी बनाने का काम वे लोग करा रहे हैं, जो यथास्थिति से लाभान्वित हैं। रिया के मामले में कुछ टीवी चैनलों ने यही काम किया और टीआरपी को देखते हुए लगातार तीन महीने तक जारी रखा। इस क्रम में इन चैनलों ने उसे लुटेरी, हत्यारी, चरित्रहीन, ड्रग व्यापारी, साबित करने के लिए किसी भी झूठ या अतिरंजना से गुरेज नहीं किया। उसकी अनुमति के बिना उसके निजी जीवन के फोटोग्राफ अपनी सुविधा के अनुसार संशोधित करके प्रसारित किये, जिनका खबर से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था। नैतिकता का तकाजा है कि समाचार को समाचार की तरह और विचार को विचार की तरह उचित जगह पर विचारक के नाम के साथ देना चाहिए। अनुमानों और सम्भावनाओं को समाचार के साथ नहीं मिलाना चाहिए। जरूरत पड़ने पर हर समाचार और विचार की जिम्मेवारी लेने वाला, और भूल के लिए खेद प्रकट करने वाला कोई होना चाहिए। ऐसा खेदप्रकाश, उसी समय पर व उतने ही विस्तार के साथ दिया जाना चाहिए जितने में गलत समाचार दिया गया हो। जिनकी लोकप्रियता से उनका व्यवसाय जुड़ा है, उनके बारे में समाचार देते समय विशेष सतर्कता बरती जाना चाहिए और क्षति के अनुसार ही दण्ड मिलना चाहिए।

विचार विहीन संगठनों को गिरोह तो कह सकते हैं, पर उन्हें राजनीतिक दल नहीं कहा जा सकता। लोकतांत्रिक घोषित हमारे देश में व्यक्तियों या वंशों के नेतृत्व में गठित गिरोह राजनीतिक दलों के रूप में पहचान बनाये हुये हैं, जिन्हें कार्पोरेट घरानों की पूंजी पोषित करती रहती है। जनता को भ्रमित करने के लिए ये कभी पूर्व राजपरिवारों के वंशजों, कभी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के वंशजों, कभी फिल्मों व टीवी के कलाकारों, लोकप्रिय प्रशासनिक अधिकारियों, सेना व पुलिस में रहे अधिकारियों, धार्मिक वेषभूषा वाले व्यक्तियों, खिलाडियों, साहित्यकारों, गायकों, आदि आदि लोकप्रिय व्यक्तियों को आगे रख, पूंजीपतियों से प्राप्त धन को बांट कर सत्ता पर अधिकार कर लेते हैं। इसके बाद भी उन्हें दलबदल कराने और तरह तरह के हथकंडों का सहारा लेना पड़ता है। कभी 1984 में दो सीटों पर सिमटी भाजपा आज केन्द्र व 19 राज्यों में ऐसे ही हथकण्डों से सत्तारूढ हो चुकी है, और इस सत्ता को भी बनाये रखने के लिए उसे कभी राज्यपाल की मदद से रात के अँधेरे में शपथ ग्रहण कराना होता है तो कभी होटलों में बन्धक बना कर विधायकों की व्यापक खरीद करनी पड़ती है। आगामी बिहार विधानसभा के चुनावों को देखते हुए, भाजपा ने सुशांत सिंह के मामले को ‘आपदा में अवसर’ की तरह लपका व बिहार को छोड़ कर आये उस कलाकार को, बिहार का सपूत और शहीद बनाना चाहा जिसने बिहार के नाम पर ना तो शिव सेना की ज्याद्तियों का विरोध किया ना लाकडाउन में प्रवासी मजदूरों की वापिसी में मदद की। इस योजना के लिए उसे सुशांत सिंह की लगभग स्पष्ट आत्महत्या को हत्या बताना पड़ा, मुम्बई की सबसे अच्छी मानी जाने वाली पुलिस को षड़यंत्रकारी बताना पड़ा व ऐसा करने का कारण गढने के लिए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के पुत्र का नाम घसीटना पड़ा। और यह सब उन्होंने बिहार के चुनावों में भावनाओं का छोंक लगाने के लिए रचा। इससे बात नहीं बनी तो मृतक के पिता से बिहार में इस आधार पर रिपोर्ट दर्ज करा दी कि मुम्बई पुलिस ठीक से जाँच नहीं कर रही। फिर इसी बहाने बिहार सरकार ने सीबीआई की जाँच का अनुरोध किया जिससे सीधे केन्द्र सरकार के नियंत्रण में मामला चला गया। आजकल सीबीआई की कार्यप्रणाली से सब परिचित हैं। एक कहानी यह भी गढी गयी कि सुशांत की लिव इन पार्टनर रही रिया ने उसके सत्तरह करोड़ रुपये हड़प लिये हैं, इस बहाने से केन्द्र सरकार की एक और जाँच एजेंसी ईडी [एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट] को दखल का मौका मिल गया जिसने सूत्र तलाशने की कोशिश की, और पाया कि लिव इन पार्टनर जो कि लगभग पत्नी का दर्जा रखता है के बाबजूद रिया ने सुशांत के पैसे का कोई दुरुपयोग नहीं किया। अगर उसने कुछ पाया भी होगा तो वह सुशांत के हिस्से की ही अनियमितताएं पायी होंगीं, जो किसी भी कला के व्यवसाय के अनिश्चित आय वाले व्यक्ति के खातों में देखी ही जा सकती हैं। इतना ही नहीं उन्होंने नार्कोटिक्स वालों का प्रवेश भी इसमें करा दिया क्योंकि सुशांत सिंह ड्रग एडिक्ट था और लाकडाउन के दौरान अपने मित्र की आदत को पूरा करने के लिए रिया ने अपने भाई से मदद करने के लिए कहा था और अपने पास से पैसे दिये थे।

अपने राजनीतिक लक्ष्यों को पाने के लिए किसी भी हद तक गिरने वाले इन लोगों ने बालीवुड जैसी साम्प्रदायिक सौहार्द वाली जगह में साम्प्रदायिकता का प्रवेश कराने की कोशिश की और भाईभतीजावाद जैसा हास्यास्पद आरोप लगाया। कोई पक्षपात कराके अपने रिश्तेदार को एक बार मौका तो दिला सकता है किंतु कला की दुनिया में सफलता प्रतिभा से ही मिलती है। इन्होंने अधकचरे कलाकारों द्वारा बेढंगे आरोप ही नहीं लगवाये अपितु नोएडा में हिन्दी फिल्म उद्योग स्थापित करने जैसा हास्यास्पद विचार भी सामने ले आये। यह स्पष्ट संकेत था कि भाजपा और उसकी केन्द्र सरकार इन सारी घटनाओं में एक पक्ष की तरह काम कर रही हैं।

रिया को भले ही जमानत बहुत सारे किंतु परंतुओं के बाद ही मिली है और कई शर्तें लगायी गयी हैं किंतु उसकी जमानत के फैसले ने यह स्पष्ट कर दिया है कि देश भर में फैले ड्रग के जाल के प्रति आँखें मूंद लेने वाली केन्द्र सरकार किसी थानेदार की तरह किसी निर्दोष को गिरफ्तार करने के लिए गांजे की पुड़ियां सुरक्षित रखती है।

इस तरह यह मामला केवल एक रिटायर्ड सैन्य अधिकारी की स्वतंत्र विचारों वाली माडल बेटी का ही मामला नहीं है अपितु राजनीति के लिए किसी भी स्तर तक गिरने का मामला भी है। आज जो दल चुनावों में पराजित हो कर विपक्ष में बैठे हैं, उन्हें समझना चाहिए कि किसी चुनावी प्रबन्धक को पार्टी अध्यक्ष पद तक पहुंचाने वाले इस दल की गतिविधियों को समय पूर्व पहचानने और षड़यंत्रों को निर्मूल कर देने पर ही उनकी सुरक्षा है। कभी आगे बढ कर हमला कर के भी सम्भावित हमले के नुकसानों को रोका जा सकता है। काश तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने गणेशजी को दूध पिलाने वाली अफवाहों की जाँच करा ली होती या दो हजार के नोट में चिप बताने वाले टीवी चैनलों के झूठ बोलने को उजागर कर दिया होता तो झूठ की इतनी व्यापक एजेंसियां नहीं खुल पातीं। अभी भी समय है। सवाल पूछा जाना चाहिए कि तीन महीने तक हैडलाइन बनने वाली रिया को जमानत मिलने की खबर पिछले पृष्ठों पर कम जगह में क्यों छपी है?

 वीरेन्द्र जैन

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