बुधवार, जून 24, 2015

सम्भावना की बात नहीं इमरजैंसी लग चुकी है



सम्भावना की बात नहीं इमरजैंसी लग चुकी है
वीरेन्द्र जैन

पिछले दिनों भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण अडवाणी के इस कथन पर बहुत फूं फाँ हुयी जिसमें उन्होंने  इंडियन एक्सप्रेस से खास बातचीत में कहा था कि भारतीय राजनीतिक प्रणाली अब भी आपातकाल की शब्दावली से मुक्त नहीं हुई है और उसी तरह भविष्य में नागरिक स्वतंत्रता के हनन की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। आडवाणी ने कहा था कि  इस समयबिंदु पर संवैधानिक और कानूनी संरक्षण के बावजूद, जनतंत्र को कुचल सकने वाली ताकतें ज्यादा ताकतवर हैं। पर सच तो यह है कि अब बात केवल आशंका तक नहीं रह गयी है अपितु इस देश के नागरिकों की नागरिक स्वतंत्रता का हनन लगातार हो रहा है भले ही उसका स्वरूप पिछली इमरजैंसी से भिन्न हो, और दबाव अघोषित ढंग से काम कर रहा हो।
       यह 21वीं सदी का भारत है और इसमें अब जरूरी नहीं कि इमरजैंसी अचानक किसी रात को घोषित कर दी जाये और विपक्ष के नेताओं को सुबह होते होते गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जाये। लोगों की स्वतंत्रता उनके बोलने की आज़ादी को प्रतिबन्धित करके ही सीमित नहीं की जाती अपितु वे जिन्हें सम्बोधित कर रहे हैं उनके ध्यन और रुचि को विकृत व भ्रमित करके भी सीमित की जा सकती है। मुँह केवल दबोच कर ही बन्द नहीं किया जाता अपितु कुछ स्वादिष्ट टुकड़े डाल कर भी बन्द किया जाता है। अगर प्रचार की तुलना में दुष्प्रचार अधिक जोर शोर से किया जाने लगे तो भी जरूरी अभिव्यक्ति निष्प्रभावी हो जाती है। सत्ता का केन्द्रीकरण, व्यक्ति का अतिरंजित महिमा मण्डन , और निरंकुशता इमरजैंसी के दूसरे लक्षण हैं। परिदृश्य वैसा ही है जिसमे जब लोगों से झुकने के लिए कहा गया था तो वे लेट गये थे। आज भी सरकार के सारे महत्वपूर्ण फैसले संसदीय दल तो क्या केन्द्रीय मंत्रीपरिषद की भी आम राय से नहीं किये जाते। केवल प्रधान मंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री जो फैसले ले लें उस पर मुहर लगती रहती है।
इमरजैंसी के बीज तो उसी दिन बो दिये गये थे जब भाजपा के प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के रूप में संघ की ओर से नरेन्द्र मोदी का नाम थोप दिया गया था और विरोध की सारी आवाजों का गला घोंट दिया गया था। स्मरणीय है इस घोषणा के पहले तक तो बहुत सारी आवाजें उठ रही थीं जिनके बारे में अरुण जैटली ने कहा था कि भाजपा में दस से अधिक लोग प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के योग्य हैं। आडवाणीजी ने त्यागपत्र दे दिया था और वे तय कार्यक्रम के विपरीत सुषमा स्वराज के साथ मुम्बई से बिना भाषण दिये चले आये थे। बाल ठाकरे ने अडवाणीजी का नाम न होने की दशा में सुषमा स्वराज के नाम का समर्थन किया था। संघ परिवार के अन्दर लग चुकी इमरजैंसी के कारण ही संजय जोशी को प्रवक्ता और उत्तर प्रदेश के प्रभारी के पद से बिना ठोस कारण प्रकट किये मुक्त कर दिया गया था, और आतंकित लोगों ने कहीं कोई सवाल तक नहीं किया था। बहुत बोलने वाले शत्रुघ्न सिन्हा ने अपने अभिनेता वाले स्वरूप पर लौटते हुए मुँह पर उंगली रख ली थी और खामोश हो गये थे। पुराने कार्यकर्ताओं को दरकिनार करते हुए दूसरे दलों के सांसदों को सीधे भाजपा प्रत्याशी के रूप में भरती कर लिया गया था और टिकिट का वादा निभाया भी गया था। कुछ ने तो पहले टिकिट ले लिया था तब भाजपा में सम्मलित हुये थे पर सब वरिष्ठों को मुँह सिल लेना पड़ा था। काँग्रेस से तो सीधे केन्द्रीय मंत्री ही भरती कर लिये गये थे जो आज अपने मुँह में दही जमा कर बैठे फिरसे मंत्री पद की सुविधाएं भोगते हुए नई इमरजैंसी को सफल कर रहे हैं। सेना के जनरल, वरिष्ठ आईएएस और आईपीएस अधिकारी जब पार्टी के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की जगह बैठा दिये गये हों जो कार्यकर्ताओं की कमजोरियों के बारे में बहुत कुछ जानते हों तो चुप्पियां अपने आप ही छा जाती हैं। जब कार्पोरेट घरानों ने पूरे मीडिया को खरीद लिया हो और वे सरकार के साथ सौदा कर रहे हों तो किसी विरोध की जगह कहाँ रह जाती है। पिछले दिनों अस्सी से अधिक पत्रकारों की हत्याएं हो चुकी हैं और अधिकांश समर्थ पत्रकारों को लखटकिया पुरस्कारों से सम्मानित कर उपकृत किया जा चुका है तो मीडिया पर प्रतिबन्ध की जरूरत ही क्या है। सच के जुगुनू यदा कदा कभी सोशल मीडिया पर दिख जाते हों तो उनके टिमटिमाने की सीमा होती है।
वरिष्ठों को मार्गदर्शक का नाम दे मूकदर्शक बना दिया गया। मंत्रीमण्डल के सदस्यों को क्या सांसदों तक को अपनी मर्जी का निजी सचिव रखने का अधिकार नहीं है। विदेशमंत्री शोपीस बना कर बैठा दिया गया है और उनको प्रधानमंत्री के साथ विदेश यात्रा पर नहीं ले जाया जाता। उनके साथ कुछ चुने हुए उद्योगपति जाते हैं जो उसी होटल में रुकते हैं जिसमें प्रधानमंत्री को ठहराया जाता है। मंत्रीमण्डल के गठन में अनुभव और प्रतिभा से अधिक समर्पण भाव महत्वपूर्ण रहा। प्रत्येक विभाग के प्रमुख सचिवों को पहले दिन ही समझा दिया गया था कि वे प्रधानमंत्री से सीधे बात कर सकते हैं जिसका परोक्ष में मतलब यही था कि नौकरशाही सीधे प्रधानमंत्री के नीचे रहेगी। मंत्रियों के पहनावे से लेकर किस मंत्री की बैठक किस उद्योगपति से किस होटल में चल रही है इसकी जानकारी प्रधानमंत्री कार्यालय को रहती है, अर्थात सबके पीछे जासूस लगे हैं। पिछले दिनों मोदीजी ने कहा भी था कि सरकारी इंटैलीजेंस से उनकी अपनी इंटेलीजेंस ज्यादा सक्रिय है। प्रशासनिक सुधार के नाम पर धड़ाधड़ 1300 कानूनों को समाप्त करने की तैयारी है। संसद का सामना करने की जगह अध्यादेशों में भरोसा किया जा रहा है। रक्षामंत्री को लग रहा है कि बहुत दिनों से कोई युद्ध न लड़े जाने के कारण सैनिकों का सम्मान घट रहा है। इंस्पेक्टर राज खत्म करने के दावे के साथ श्रम हितैषी बहुत सारे नियमों कानूनों को हटाया जा चुका है। किसानों की भूमि हड़पने की पूरी तैयारी चल रही है। विदेशी पूंजी निवेश के लिए सारे रास्ते खोले जा चुके हैं। विरोध का स्वर मिमियाहट में बदल चुका है, क्योंकि पुराने सत्ताधीशों को उनकी फाइलें खुल जाने के संकेत दिये जा चुके हैं। छगन भुजबल से लेकर वीर भद्र सिंह तक जाँचें शुरू हो चुकी हैं, शरद पवार पहले ही शरणागत होने को तड़फ रहे हैं।
संगठन के स्तर पर पूरी पार्टी को अपने सबसे निकट और समर्पित उस व्यक्ति की जेब में अध्यक्ष पद रख दिया है जो नैतिक और लोकप्रियता की दृष्टि से सबसे अधिक अपात्र था पर कहीं से कोई आवाज नहीं निकली। जिस व्यक्ति को गुजरात उच्च न्यायालय ने प्रदेश बदर करने का आदेश सुनाया था उसे पूरे देश पर थोप दिया गया पर पार्टी सदस्य चुप रहे। गुजरात 2002 के आरोपियों समेत सारे आरोपी जमानत का लाभ ले रहे हैं और कमजोर अभियोजन के कारण छूटने लगे हैं।  
मानव संसाधन मंत्री के रूप में केवल प्रतीक स्वरूप स्मृति ईरानी को ही नहीं बैठाया गया अपितु अकादमिक संस्थाओं में पूरी तरह से मनमानी की जा रही है। शिक्षा, अनुसंधान के क्षेत्र में जिस तरह से नियुक्तियां की गयी हैं वह इसका पर्याप्त आधार प्रस्तुत करता है कि सुप्रसिद्ध साहित्यकार अनंतमूर्ति ने क्यों कहा था कि मोदी सरकार में रहने की जगह मैं देश छोड़ना ज्यादा पसन्द करूंगा , और कुछ ही महीनों बाद उन्होंने प्राण त्याग दिये। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष पद पर वाय सुदर्शन राव की नियुक्ति की गयी है जिनकी एकमात्र योग्यता संघ परिवार से उनका जुड़ाव है। उस परिषद के एक कार्यकाल पूरा करने वाले पुराने सदस्यों को मुक्त कर दिया गया है जबकि आम तौर पर दो कार्यकाल दिये जाने की परम्परा रही है। श्री राव के विचारों और इस नई इमरजैंसी का साम्य देखिये कि उन्होंने लिखा है जाति व्यवस्था प्राचीन काल में बहुत अच्छे से चल रही थी और हमें किसी कोने से इसकी शिकायत नहीं मिलती। शिकायतें इमरजैंसी में भी कहाँ मिलती हैं! शिक्षा के क्षेत्र में हरियाणा सरकार के मार्गदर्शक बनाये गये दीना नाथ बत्रा के बारे में तो पूरा देश खूब जान चुका है और संघ परिवार को छोड़ कर पूरा बुद्धिजीवी जगत उनके विचारों पर शर्मिन्दिगी महसूस कर चुका है। नैशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष पद पर पाँचजन्य के पूर्व सम्पादक बल्देव भाई शर्मा को बिठा दिया गया है जिन्होंने अभी तक कोई पुस्तक नहीं लिखी है। राष्ट्रीय संग्रहालय और ललित कला अकादमी के अध्यक्ष को हटा दिया गया है जिनके कार्यों की सर्वत्र प्रशंसा हुयी है। इतना ही नहीं अब ट्रस्ट की पुस्तकों में से मेधा पाटकर वाला अध्याय हटा दिया गया है जबकि चुनाव लड़ने को  आधार बना कर किये गये इस कर्म से किरन बेदी को मुक्त रखा गया है। फिल्म सेंसर बोर्ड हो या एफटीटीआई हो सब जगह कम योग्य लोगों को तरजीह दी जा रही है और विरोध का स्वर कमजोर किया जा रहा है। न्याय व्यवस्था के बारे में मोदी के सबसे बड़े समर्थक राम जेठमलानी की यह टिप्पणी ही पर्याप्त है जिसमें उन्होंने कहा है कि केन्द्र न्यायिक नियुक्तियों का राजनीतिकरण कर रही है और एक भ्रष्ट सरकार को ही भ्रष्ट जजों की जरूरत होती है। सरकार लोकपाल संस्था में नियुक्तियों के प्रति लगातार उदासीन रही है। तीन सदस्यीय चुनाव आयोग को एक सदस्य चला रहा है। केन्द्रीय सतर्कता आयोग और सीबीआई में नियुक्तियों को लम्बे समय तक नियुक्तियां नहीं की गयीं क्योंकि सरकार को अपने ऊपर कोई संस्था पसन्द नहीं। इमरजैंसी इससे भिन्न नहीं होती है। इसकी जो प्रवृत्तियां हैं वे इस शासन में साफ नजर आती हैं।    
       संयोग से इस नई इमरजैंसी के लिए परिस्तिथियां भी अनुकूल मिलीं। डीएमके और एआईडीएमके समेत तृणमूल काँग्रेस, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, राजद, अकाली दल, आदि के नेता इतने अपराधबोध से ग्रस्त हैं कि उनके मुँह से वह ताकतवर आवाज नहीं निकल सकती जो एक संघर्षशील विपक्ष की होती है। काँग्रेस संगठन निर्माण का काम तो बहुत पहले ही छोड़ चुकी है, व सारे कमजोर चूहे जहाज को डूबता जानकर इधर उधर कूद गये हैं या तैयारी कर रहे हैं। इस मुख्य विपक्षी दल के एक दो नेताओं को छोड़ कर कोई आवाज ही नहीं निकलती। वामपंथियों की संख्या कम होने के कारण उनकी आवाज तूती की आवाज बन कर रह जाती है। आंकड़ों के कुशल प्रबन्धन द्वारा कुल इकतीस प्रतिशत वोट पाकर भी लोकसभा में मिला पूर्ण बहुमत और होंठ सिले दल के साथ जब बाहर के सांसद खुद ही चुप्पी लगा लिये हों तो इमरजैंसी को पुरानी तरह से घोषित करने की जरूरत ही क्या है। अडवाणी की सफाई भी अपने आप में इस प्रवृत्ति का समर्थन करती है। उनके साक्षात्कार के समय मुख्य विषय इमरजैंसी की प्रवृत्तियां थीं और उन्होंने कहीं नहीं कहा कि इस सरकार में वे प्रवृत्तियां नहीं हैं।

वीरेन्द्र जैन                                                                          
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गुरुवार, जून 11, 2015

सोचिये कि योग का विरोध क्यों ?

सोचिये कि योग का विरोध क्यों ?
वीरेन्द्र जैन

प्रथम दृष्ट्या उस योग के राष्ट्रीय कार्यक्रम का विरोध करना हास्यास्पद लग सकता है जो योग हमारे देश की पहचान है और जिसके महत्व को हमने पूरे विश्व से स्वीकार करा लिया है। योग के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ के लिए उपयोगी होने से भी किसी की असहमति नहीं है और जो बिना व्यय के अनेक रोग दूर करने की क्षमता रखता है। पर फिर भी अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के दिन सामूहिक योग करने का व इसके ही एक आसन सूर्यनमस्कार के बहाने कुछ मुस्लिम  नेता इसका विरोध कर रहे हैं। यह समझना जरूरी है कि इस विरोध के मूल में योग नहीं अपितु वे लोग व उनका चरित्र है, जो इस कार्यक्रम का आवाहन कर रहे हैं। यदि समाज में साम्प्रदायिकता और जातिवाद का ज़हर फैला होता है तो अपने प्रतिद्वन्दी का अच्छे से अच्छा प्रस्ताव भी बुरा लगता है या उस पर सन्देह होता है। विपरीत पक्ष पहले विरोध का कोई तर्क तलाशता है और फिर उसे अपने समाज की व्यापक सहमति वाले विचार से जोड़ कर उस पर कठोर होता जाता है। योग के कार्यक्रम के साथ भी यही स्थिति है।
भाजपा का जो मूल जनाधार है और अतीत में उसके जो आचरण रहे हैं उसे देखते हुए मुसलमान उन पर भरोसा नहीं कर सकते। शत्रु अगर दवा भी दे तो सन्देह होता है। विडम्बना यह है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में डाले गये मतों का बहुमत प्राप्त करने वाला दल सत्ता प्राप्त कर सकता है किंतु जिस बिखरे बहुमत ने उसका विरोध किया होता है उसकी सहमति पाने की कोई व्यवस्था नहीं है और इस तरह अल्पमत का विचार बहुमत पर थोपने के प्रयास में संघर्ष पैदा होता है। भाजपा का एक बड़ा जनाधार कट्टरवादी दुष्प्रचार से प्रभावित उन लोगों से बनता है जो इस्लामिक और ईसाई धर्म संस्कृति को देश से निर्मूल करने के विचार को ठीक समझने लगे हैं और दूसरों को भी हिंसा में भाग लेने के लिए उकसाते रहते हैं। इसी पार्टी के इतिहास में अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों के खिलाफ निर्मम हिंसा की घटनाएं दर्ज हैं जिस पर उन्होंने कभी दुख व्यक्त नहीं किया और न ही भूल स्वीकार कर के क्षमा मांगी। अभी भी हिंसा के अपराधियों के खिलाफ जो कमजोर से मुकदमे लम्बित हैं उनमें आरोपियों के खिलाफ गवाही देने वालों को भयभीत किया जाता है व प्रकरण को कमजोर और लम्बित कराने में भाजपा के नेता सक्रिय हैं। आतंकवादी हिंसा करके उनका दोष मुसलमानों पर मढने के आरोपी जब पकड़े जाते हैं तो भाजपा के वरिष्ठ नेता जेल में उनसे मिलने जाते हैं। प्रज्ञा सिंह से जेल में मिलने के लिए तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष और भगवाभेष धारण करने वाली राजनेता उमा भारती गयी थी, तथा आसाराम आदि भी उससे भेंट करने वालों में से रहे हैं।   
       योग दिवस पर मुस्लिम नेताओं के विरोध को योग की उपयोगिता या संयुक्त राष्ट्र संघ में मुस्लिम देशों से मिले औपचारिक समर्थन के आधार पर नहीं तौला जा सकता है। भाजपा शासित राज्यों में स्कूल एडमीशन के समय बच्चों को तिलक लगाने की सलाह को मष्तिष्क के ज्ञान बिन्दु को जाग्रत करने की अवधारणा से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता। सारी दुनिया के बच्चे बिना तिलक लगाये स्कूल प्रवेश कर के भी अच्छी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं और दुनिया में अपेक्षाकृत बेहतर कर रहे हैं, जिनकी हम नकल करते हैं। जो तिलक न लगवाना चाहें उनको उसकी स्वतंत्रता देकर ये प्राथमिक शिक्षा में ही भेद पैदा करने का षड़यंत्र कर रहे हैं। इसी तरह भोजन मंत्र का पाठ या मिड डे मील में अंडा देने या न देने के विवाद भी इसी भेद पैदा करने की योजना का हिस्सा हैं। इससे हिन्दू मुस्लिम बच्चों में बचपन से ही भेद पैदा होने लगता है। कहा जाता है कि ऐसी सैकड़ों योजनाओं पर उनके यहाँ निरंतर काम हो रहा है, व समय समय पर उन्हें सामने लाकर भेद के बीज बोये जाते रहते हैं और बहुत मासूमियत से असहमति व्यक्त करने वालों को ही अच्छे कामों में अवरोध पैदा करने वाला प्रचारित किया जाता है। मैंने एक भाजपा नेता से पूछा था कि जैसे ही राम मन्दिर का निर्माण पूरा हो जायेगा तब आप लोगों की राजनीति का क्या होगा। उत्तर में उसने कहा था कि अभी न केवल काशी मथुरा बाकी है अपितु साढे ती सौ ऐसी इमारतें सूची बद्ध हैं जिनके सहारे अपनी राजनीति करते रहेंगे। धर्म परिवर्तन, घर-वापिसी, रामसेतु, बंगलादेशी शरणार्थियों लेकर हजारों विभाजनकारी योजनाएं उनके बस्ते में हैं। अल्पसंख्यकों द्वाराउनके किसी प्रस्ताव को स्वीकार लेने से समस्याओं का अंत नहीं होगा अपितु उनकी अपेक्षाएं और बढ जायेंगीं। यही कारण है कि अल्पसंख्यक किसी उस ज़िद्दी बच्चे की तरह व्यवहार करने को मजबूर होते हैं जो गुस्से में मिठाई को भी फैंक देता है।
       इमरजैंसी में उभरे धीरेन्द्र ब्रम्हचारी उस दौरान नियमित रूप से टीवी पर योग प्रशिक्षण देते थे जिसे टीवी की कम व्याप्ति के बाबजूद बहुत लोग देखते थे। यद्यपि इमरजैंसी में श्रीमती गाँधी का साथ देने के कारण बहुत लोग उनसे नाराज थे पर उस नाराजी में योग कभी निशाना नहीं बना। जैसे ही भाजपा ने योग की लोकप्रियता से अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना शुरू कीं तो समाज के एक हिस्से को योग से भी अरुचि होने लगी। यदि भाजपा से अलग योग के कार्यक्रमों का आयोजन होता है तो बड़ी संख्या में वे लोग भी भाग लेंगे जो अभी नाक भों सिकोड़ रहे हैं और अपनी मजहबी आस्थाओं में से तर्क तलाश रहे हैं।
       ईसाई धर्म को मानने वाले देशों में छात्रों को धार्मिक पाठ सिखाने के लिए संडे स्कूल चलते हैं। एक बोधकथा के अनुसार यूरोप के किसी देश में शैतान बच्चों की एक कक्षा को स्वर्ग नर्क से सम्बन्धित कई पाठ पढाने के बाद जब पादरी ने कक्षा के बच्चों से पूछा कि बताओ स्वर्ग कौन कौन कौन जाना चाहता है, तो एक बच्चे को छोड़ कर सभी ने अपने हाथ खड़े कर दिये।
क्या तुम स्वर्ग नहीं जाना चाहते? पादरी ने आश्चर्य से उससे पूछा।
जाना तो चाहता हूं, पर इन बच्चों के साथ नहीं उसका उत्तर था। शायद भाजपा के साथ योग करना भी बहुत सारे लोगों को पसन्द नहीं होगा। यदि कोई गैरभाजपा संस्था तय तिथि से एक दो दिन पहले योग का कार्यक्रम करती है तो योग और भाजपा के बारे में पूरी दुनिया को एक बेहतर सन्देश जा सकता है।    
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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मंगलवार, जून 09, 2015

भारत-बंगलादेश समझौता और राजनीतिक दलों की पहचान



भारत-बंगलादेश समझौता और राजनीतिक दलों की पहचान
वीरेन्द्र जैन
      













 अगर आप हिन्दी कवि सम्मेलनों के किसी पुराने गीतकार से परिचित हों और उससे वर्तमान में मंच पर गीत कविता की दशा और दिशा के बारे में पूछें तो उसके कथन में उसके गीतों से भी ज्यादा दर्द मिलेगा। वह कहता मिलेगा कि इन चुटकलेबाज हास्य कवियों ने हिन्दी गीत को नष्ट कर दिया है। आज मर्मस्पर्शी भावों से भरे गीतों की जगह सतही सम्वेदना वाली तुकबन्दियों और फूहड़ता ने ले ली है। जो गीतकार अब भी मंच पर जा रहे हैं वे उक्त चुटकलेबाजों से कम पारिश्रमिक पाकर अपमान का घूंट पी हिन्दी गीत की वाचिक परम्परा को जीवित रखे हुये हैं। रोचक यह है कि इन्हीं फूहड़ हास्य कवियों की कविताओं और चुटकलों से आधार लेकर जो कामेडी शो होने लगे हैं उनसे अब मंच के हास्य कवि भी परेशान हैं क्योंकि उनके क्षेत्र पर भी अतिक्रमण हो गया है।
       गत दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ढाका यात्रा के दौरान उन्होंने बंगबन्धु हाल ढाका में उपस्थित प्रमुख लोगों को जब सम्बोधित किया तो लगातार बजती तालियों के आधार पर कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने ढेरों चुटीले ज़ुमलों से मंच लूट लिया। उनका भाषण किसी समय के अटलबिहारी वाजपेयी की आमसभाओं की याद दिला गया जिनमें व्यक्त चुटीले सम्वादों का आनन्द आमसभा के बाद कई सप्ताह तक लोग लेते रहते थे। मोदी ने टूरिज्म और टैरिरिज्म की तुक मिलाते हुए टैरिरिज्म को समाप्त करने व टूरिज्म को बढावा देने की बात की। इसी क्रम में उन्होंने धार्मिक पर्यटन का एक बुद्ध सर्किट बनाने की बात उठाते हुए तुक जोड़ी कि जहाँ बुद्ध होंगे तो युद्ध नहीं होगा। उन्होंने कहा कि अब विस्तारवाद का युग नहीं है अपितु विकासवाद का युग है और भारत ने कभी विस्तारवाद का समर्थन नहीं किया। जिस तरह से मंच के कलाकार अपनी प्रस्तुति के पूर्व स्थानीय श्रोताओं की भावनाओं को छूने की कोशिश में उस क्षेत्र के लोगों की क्षेत्रीयता को जगाते हैं और उस धरती का गौरवगान करते हैं, उसी तरह मोदी ने पहला वाक्य बंगला भाषा में बोल कर तालियों के बीच कहा कि सबसे पहले सूरज यहाँ निकलता है फिर भारत में रोशनी आती है। वस्त्र निर्माण के क्षेत्र में आपका देश दुनिया में दूसरे नम्बर पर है और छह प्रतिशत की शानदार विकास दर बनाये हुये है। बंगलादेश के निर्माण में भारत की भूमिका की चर्चा करते हुए उन्होंने भारतीय सैनिकों के बलिदान और पाकिस्तान के नब्बे हजार सैनिकों की वापिसी की चर्चा करते हुए अपनी शांतिप्रियता की नीति की याद दिलायी। वे यह याद दिलाना भी नहीं भूले कि भारत और बंगलादेश दोनों ही देशों की सबसे 65 प्रतिशत आबादी 35 साल से कम उम्र की है और दोनों ही देशों में युवा शक्ति का भण्डार है।
       उल्लेखनीय है कि भारत और बंगलादेश के बीच हुआ भूमि स्थानांतरण का समझौता बहुत व्यवहारिक समझौता है इससे दोनों देशों के बीच 161 एनक्लेवों का आदान-प्रदान किया गया है। बांग्लादेश को 111 सीमाई एनक्लेव हस्तांतरित किये जायेंगे जबकि 51 एनक्लेव भारत का हिस्सा बनेंगे। इस समझौते के तहत भारत को 500 एकड़ भूमि प्राप्त होगी जबकि बांग्लादेश को 10 हजार एकड़ जमीन मिलेगी। इस समझौते से 50 हजार लोगों की नागरिकता का सवाल भी सुलझ जायेगा। उल्लेखनीय है कि भारत और बांग्लादेश के बीच 4,096 किलोमीटर लम्बी सीमा लगती है और यह मुद्दा दोनों देशों के संबंधों में एक बड़ा अड़चन बना हुआ था। अब  भारत-बांग्लादेश के बीच 41 साल पुराने सीमा विवाद पर समझौता हुआ। भारत करीब 17 हजार एकड़ जमीन बांग्लादेश को देगा। बांग्लादेश करीब 7 हजार एकड़ जमीन भारत को देगा। दोनों देशों के बीच जमीन अदला-बदली पर सहमति बनी। इस ऎतिहसिक समझौते की पृष्ठभूमि पिछली सरकार ने ही तैयार कर ली थी किंतु अपने चुनावी लाभ के लिए देश के हित की चिंता न करने वाली भाजपा इसका मुखर विरोध कर रही थी, लोकसभा में विपक्ष की नेता के रूप में सुषमा स्वराज ने कहा था कि उनकी पार्टी यह समझौता नहीं होने देगी। आज जिस भाषा में नरेन्द्र मोदी ने बंगलादेश के लोगों की भावनाओं को जाग्रत किया उसी भावुकता के सहारे उनकी पार्टी अपनी वोटों की राजनीति के लिए भावनाएं भड़का कर इसका विरोध कर रही थी। अपनी सरकार के लिए भाजपा का यह बदला स्वरूप जो अब देश के हित में है, बताता है कि उनका देश हित सत्ता के हिसाब से बदलता रहता है। राजनीतिक रूप से यह समय भाजपा की अवसरवादी राष्ट्रीयता को पहचानने का भी समय है।
       यही समय है जब ममता बनर्जी की राजनीति को भी पहचाना जाना चाहिए। बंगाल राज्य की राजनीति में वे बामपंथी शासन का विकल्प बन कर उभरी थीं व अपनी सादगी से ईमानदारी का मुखौटा ओढ कर एक समझौताहीन दृढ नेता मानी जाती थीं। उन्होंने भी पिछली बार इसी समझौते पर अपना विरोध दर्शा कर और बंगलादेश जाने से खुल इंकार करके देश के बाहर सरकार की किरकिरी करवायी थी। जबसे उनकी पार्टी के बड़े बड़े नेता शारदा कांड में गले गले तक फँस गये हैं तब से मोदी सरकार के आगे वे शरणागत हो गयी हैं और अपनी सारी अकड़ भूल गयी हैं। उनका विनम्र होना स्वागत योग्य माना जाना चाहिए किंतु विनम्रता के इस प्रदर्शन का जो कारण है उससे पता चलता है कि वे कागज़ी शेरनी हैं और उनकी पेंटिंग्स का बाज़ार कुछ दागी संस्थानों तक ही सीमित है।
       बंगलादेश दौरे के समय मन्दिरों मठों की राजनीति करने वाले नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषणों में अटलबिहारी की उस दुर्गा का कहीं उल्लेख नहीं किया जिसके दुस्साहस पूर्ण फैसले से बंगलादेश अस्तित्व में आया और न ही उन्होंने उस पिछली सरकार का उल्लेख करने की जरूरत समझी जिसने इस समझौते की भूमिका तैयार की थी किंतु इसे लागू करवाने के लिए भारत जैसे लोकतंत्र में जिस कूटनीति की जरूरत होती है वह उन नौकरशाह नेताओं के पास नहीं थी। इस समझौते का स्वागत करते समय विभिन्न दलों के चरित्रों को पहचानने में भूल नहीं करना चाहिए।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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