बुधवार, अगस्त 31, 2011

राजनीतिक दलों के सदस्यों की आचारसंहिता जरूरी


राजनीतिक दलों के सदस्यों की आचार संहिता होनी चाहिए

वीरेन्द्र जैन

गत दो दशकों के दौरान चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों और उनके परिवारीजनों के लिए कुछ उद्घोषणाओं को अनिवार्य करके बहुत अच्छा काम किया है जो हमारे लोकतंत्र की मूल भावनाओं को कार्यांवित करने की दिशा में मददगार हो रहा है। चुनाव आयोग ने उम्मीदवारों को निर्वाचन फार्म भरते समय अपनी व अपने परिवार की कुल सम्पत्ति और देयताओं का विवरण देना तथा उन पर लम्बित आपराधिक प्रकरणों की जानकारी देना अनिवार्य किया है। इससे उम्मीदवार का चरित्र तो स्पष्ट हो ही जाता है, उसे टिकिट देने वाले दल का चरित्र भी उससे पता चल जाता है।

किसी राजनीतिक दल के टिकिट पर चुनाव लड़ने वाला कोई भी उम्मीदवार उस चुनाव क्षेत्र में अपने दल का प्रतिनिधित्व करता है तथा उसे जिताने में उसके दल के सदस्यों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसलिए क्या यह जरूरी नहीं है कि प्रत्येक मान्यता प्राप्त दल के चुनाव में सक्रिय सदस्यों की भी वैसी ही पारदर्शिता हो जैसी कि उम्मीदवार के लिए जरूरी होती है। देखा गया है कि बामपंथी दलों को छोड़कर अधिकांश राजनीतिक दलों में सदस्यों के लिए कोई भी आचार संहिता घोषित नहीं है, व जहाँ घोषित है वहाँ वह व्यवहार में नहीं लायी जाती। भूखे को रोटी की तरह जो भी आकर सदस्यता माँगता उसे ये राजनीतिक दल लपक लेते हैं और सेवक बनाने की कोशिश करते हैं पर इन्हीं में से कोई कोई गुरू निकल आता है और चूना लगा देता है। जो उम्मीदवार किसी मामले में बंगारू लक्षमण जैसा बहुत बदनाम हो जाता है तो उसकी पत्नी या बेटे-बेटी को टिकिट दे दिया जाता है। ऐसे में बदनाम व्यक्ति के ऊपर चल रहे प्रकरणों की घोषणा जरूरी नहीं होती। अब जब महिला आरक्षण विधेयक और गम्भीर अपराधों के आरोपियों को चुनाव लड़ने से रोकने का कानून पास होने वाला है तो ऐसे मामले और अधिक संख्या में सामने आयेंगे। मध्य प्रदेश में तो कई पार्टियों में रहे एक बदनाम सामंत की जगह भाजपा ने उसकी पत्नी को टिकिट दे दिया, बाद में जाँच में वह भी हत्या के आरोप में सहयोगी पायी गयी जो कुछ दिन फरार रही और कुछ दिन जेल में, पर विधायकपति अभी भी जेल में है, और विधायक अभी भी पार्टी में है।

यह बात बार बार सामने आ रही है कि चुनावों में असामाजिक तत्व अपनी भूमिका से जन भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति को भटका देते हैं और अवैध ढंग से धन कमाने वाले चुनाव में धन के प्रवाह से चुनाव परिणामों की दिशा को बदल देते हैं। ये ही लोग चुनाव के बाद अपनी भूमिका के पारश्रमिक के रूप में सरकार से अनुचित लाभ लेने का दबाव बनाते हैं और नियम कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए सत्ता पक्ष के नेताओं को भ्रष्ट बनाते हैं। इसलिए भी यह जरूरी है कि जो भी चुनाव प्रक्रिया से जुड़े हों उनका चरित्र और उन्हें अपने साथ रखने वालों का चरित्र नेट पर उपलब्ध हो। परोक्ष में कह सकते हैं कि लोकतंत्र में जो राजनीतिक दल सरकार बनाते हैं और देश चलाने की जिम्मेवारी निभाते हैं उनके सदस्यों के चरित्र और आचरण की जिम्मेवारी लेने वाला भी कोई होना चाहिए, अर्थात सारे राजनीतिक दल केडर आधारित होना चाहिए।

यह खेद का विषय है कि केन्द्र में कई सरकारें बदल जाने के बाद भी 5 दिसम्बर 1993 को पूर्व गृह सचिव एन एन व्होरा की अध्यक्षता में गठित व्होरा कमेटी की रिपोर्ट लोकपाल बिल की तरह ही कई दशकों से धूल खा रही है। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि-

देश में अपराधी गिरोहों, हथियार बन्द सेनाओं, नशीली दबावों का व्यापार करने वालों, तस्कर गिरोहों, आर्थिक अपराधों में सक्रिय लाबियों का बड़ी तेजी से प्रसार हुआ है। इन लोगों ने विगत वर्षों के दौरान स्थानीय स्तर पर नौकरशाहों, सरकारी पदों पर आसीन व्यक्तियों, राजनेताओं, मीडिया से जुड़े व्यक्तियों तथा गैर-सरकारी क्षेत्रों के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन व्यक्तियों के साथ व्यापक सम्पर्क विकसित किये हैं। इनमें से कुछ सिंडीकेटों की विदेशी सूचना एजेंसियों के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रिय संबन्ध भी हैं। बिहार हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में इन गिरोहों को स्थानीय स्तर पर राजनीतिक दलों के नेताओं और सरकारी पदों पर आसीन व्यक्तियों का संरक्षण हासिल है।

गत दिनों भोपाल में सीबीआई ने छापा मारकर एक बिल्डर के यहाँ से कुछ कागजात जब्त किये हैं, इन से पता चलता है कि उक्त बिल्डर ने एक बैंक के मैनेजर से मिलकर छद्म ऋणी और काल्पनिक प्लाट के झूठे कागज तैयार करके करोड़ों रुपयों के लोन ले लिये। आरोपी दो सत्तारूढ विधायकों के बहुत निकट था और मौके बेमौके उन्हीं के साथ देखा जाता था। विश्व हिन्दू परिषद के नेताओं के साथ इस आरोपी का सत्तारूढ पार्टी के अध्यक्ष और एक विधायक ने पिछले दिनों ही एक समारोह में सम्मान किया था। यह एक अकेला मामला नहीं है सत्तारूढ दल के अधिकांश नेता अपने साथ जो समर्थकों की फौज रखते हैं, जिन्हें आम बोलचाल में उनके चमचे कहा जाता है, वे भी नेता के यहाँ चौबीस घंटे के बँधुआ होते हैं और उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता। इसके बदले में उन्हें जहाँ से भी बन पड़े मुँह मारने की छूट दे दी जाती है। किसी सरकारी कर्मचारी द्वारा उनके काम में बाधा उपस्थित करने पर नेताजी अपने प्रभाव का स्तेमाल करके उस पर दबाव बना देते हैं। सत्तारूढ नेताजी के जन्मदिन पर अखबारों में उनके फोटो के साथ जो विज्ञापन छपते हैं और उसमें विज्ञापन दाता की फर्म के नाम सहित उसका फोन नम्बर भी दिया रहता है वह परोक्ष में उसके दलाल होने की सूचना होती है और सम्पर्क के लिए नम्बर छपवाया जाता है। जो नेता सत्ता से बाहर हो जाता है उसके जन्मदिन की शुभकामनाओं के विज्ञापन भी अखबारों में नहीं छपते। यह किया जा सकता है कि नेताओं, मंत्रियों के साथ रहने वाले यदि किसी अपराध में सम्मलित पाये जाते हैं तो उनका दल अपनी मान्यता बचाने के लिए उन पर नैतिक जिम्मेवारी डाले और एक सुनिश्चित समय तक उनको कोई पद न देने की कार्यवाही करे।

पिछले दिनों भ्रष्टाचार के विरोध में अन्ना हजारे के अनशन, और मीडिया द्वारा उसके व्यापक कवरेज से जो माहौल बना है वह जिन्दा बना रहना चाहिए और ऐसी सभी संस्थाओं में पल रही विकृतियों को निशाने पर लिया जाना चाहिए जिनसे भ्रष्टाचार जन्म लेता है। चुनाव सुधारों से भी पहले सर्वसम्मति से राजनीतिक दलों के सदस्यों की आचार संहिता बनाना जरूरी होना चाहिए। यह कितना बिडम्बना पूर्ण है कि सारे ही दलों ने भ्रष्टाचार के विरोध का समर्थन किया किंतु इस दौरान किसी ने भी अपने दल के अन्दर पल रहे भ्रष्टों को तलाशने की कोशिश नहीं की और निकल बाहर करने की प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं की। ऐसे दल संसद में चाहे जितना शोर करें और संसद की कार्यवाही को कितनी भी वाधित करें, पर उनसे किसी सकारात्मक कार्यवाही की उम्मीद बेकार होगी।

वीरेन्द्र जैन

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सोमवार, अगस्त 22, 2011

अन्ना का आन्दोलन आकार लेता जा रहा है


अन्ना का आन्दोलन एक आकार लेता जा रहा है

वीरेन्द्र जैन

पिछले दिनों से विभिन्न सूचना माध्यमों और राजनीतिक व गैरराजनीतिक सम्वादों में अन्ना हजारे का आन्दोलन छाया रहा है। हमारा समाज अवतारवाद में विश्वास करने वाले लोगों का समाज है जो अपनी समस्याओं के हल किसी अतिमानवीय किस्म की शक्ति में देखते हैं और किसी विशिष्ट जन के अवतरण की प्रतीक्षा करते रहते हैं। इस प्रतीक्षा में हम कई बार भ्रम के शिकार भी हो जाते हैं और हर आहट को उद्धारक के आगमन से जोड़ लेते हैं, जिससे कई बार धोखे भी हो जाते हैं। पूरे देश में सत्तारूढ से लेकर विपक्षी दलों तक सब इस बात से सहमत हैं कि भ्रष्टाचार असहनीय स्थिति तक बढ और फैल गया है और इसने सभी हिस्सों को दुष्प्रभावित करना शुरू कर दिया है। इस विश्वास को पुष्ट करने के रूप में अभी हाल ही मैं इतने बड़े बड़े भ्रष्टाचार सामने आये हैं कि प्रमुख पदों पर बैठे लोगों के बारे में कहे गये किसी भी झूठ को भी अधिकांश लोग आसानी से सच मानने लगे हैं। एक हजार करोड़ से बड़े कुछ भ्रष्टाचार इस तरह से हैं-
स्विस बैंक में मौजूद काला धन 210000 करोड़

टूजी घोटाला 176000 करोड़

स्टाम्प घोटाला 20000 करोड़,

हसन अली टैक्स व हवाला घोटाला 39120 करोड़

स्कार्पियन पनडुब्बी घोटाला 18978 करोड़

टीक प्लांटेशन घोताला 8000 करोड़

सुखराम टेलेकाम घोटाला 1500 करोड़

प्रीफेंशियल एलोटमेंट घोटाला 5000 करोड़

सत्यम घोटाला 8000 करोड़

उड़ीसा खदान घोटाला 7000 करोड़

झारखण्ड खदान घोटाला 4000 करोड़

उर्वरक आयात घोटाला 1300 करोड़

हर्षद मेहता [शेयर घोटाला] 5000 करोड़

काबलर घोटाला 1000 करोड़

इसी व्याधि का विरोध करने के लिए जब आवाज उठी और जिसका नेतृत्व एक ऐसे सहज सरल सादगी पसन्द, भूतपूर्व सैनिक व्यक्ति के हाथ में दे दिया गया, जिसके सामाजिक सेवाओं का निष्कलंक इतिहास जुड़ा है व इसके लिए उसने विवाह तक नहीं किया, तो लोगों ने उसे अवतार जैसा मान लिया। वे बिना किसी पूछ परख के उसमें वांछित बदलाव का हल देखने लगे।

अन्ना हजारे का आन्दोलन भावुकता से काम लेने वाले आम लोगों को बहुत भाया किन्तु दूरदर्शी बुद्धिजीवियों ने उसे सन्देह मिश्रित श्रद्धा की दृष्टि से ही देखा। इसका कारण यह था कि यह आन्दोलन केवल बीमारी के लक्षण दूर करने वाला तो नजर आता था पर बीमारी दूर करने वाला नहीं। अर्थात भ्रष्टाचार को दण्डित करने तक सीमित नजर आता था पर भ्रष्टाचार के लिए अनुकूलता पैदा करने वाली व्यवस्था, आर्थिक नीतियों, कमजोर न्यायिक प्रणाली, दोषपूर्ण चुनावी व्यवस्था व सामाजिक बुराइयों के बारे में मौन था। वे राजनीतिक दलों से दूरी बना कर चल रहे थे जो सामाजिक बदलाव की मुख्य संस्था हैं तथा कानून बनाने के लिए सक्षम संसद में बैठते हैं। किंतु फिर भी वे भ्रष्टाचार दूर करने के लिए इसी कानून और संविधान में ही आस्था प्रकट कर रहे थे। उनके द्वारा बनाये गये ड्राफ्ट पर संसद में बैठने वाले किसी भी राजनीतिक दल ने सहमति नहीं दी थी पर फिर भी वे अपने लोकपाल बिल के ड्राफ्ट के अनुसार ही कानून बनाने की जिद ठाने आन्दोलन कर रहे थे एवं जिसके लिए आमरण अनशन का सहारा ले रहे थे।

प्रत्येक लोकप्रिय व्यक्ति, संस्था या घटना से अपने को जोड़ कर उसका राजनीतिक लाभ उठाने के लिए उत्सुक रहने वाला संघ परिवार उनके आन्दोलन को मिले समर्थन का लाभ लेने हेतु आगे बढ कर उनका साथ दे रहा था, यही कारण था कि देश की दूसरी संस्थाएं अन्ना के आन्दोलन को भी शंका की दृष्टि से देखने लगी थीं।

यह अच्छी बात है कि अन्ना के आन्दोलन से जुड़े नेतृत्वकारी साथियों में एक लोकतांत्रिक भावना जिन्दा है इसलिए उन्होंने बुद्धिजीवियों और आमजन से मिले सुझावों को ध्यान पूर्वक सुना और उस पर अमल किया। सबसे पहले तो उन्होंने अपने आन्दोलन का आर एस एस से सम्बन्ध होने का जोरदार और मुखर खण्डन करते हुए कहा कि जो हमारे आन्दोलन को आर एस एस से जोड़ते हैं उन्हें पागल खाने भेजना चाहिए। यह वक्तव्य बताता है के संघ परिवार के बारे में उनके विचार देश के व्यापक जनमानस की भावनाओं से अलग नहीं हैं। इससे पहले जेल में रहते हुए उन्होंने मिलने के लिए आये बाबा रामदेव से मिलने से इंकार करके स्पष्ट संकेत दिया था कि संघ के साथ रहने वालों से दूरी बना के रहना चाहते हैं। अन्ना हजारे की टीम द्वारा गत रविवार को यह भी कहा गया कि यह लड़ाई केवल लोकपाल पर ही खत्म नहीं होगी बल्कि चुनाव व्यवस्था में सुधार तक जायेगी। उन्होंने अपने समर्थन में उतरे जन समुदाय से कहा कि वे अपने सांसद के घरों के बाहर धरना दें और उन्हें जनलोकपाल बिल के पक्ष में समर्थन देने के लिए कहें। भविष्य़ में इस आन्दोलन को किसानों आदिवासियों की भूमि अधिग्रहण से जोड़ने की बात कह कर कृषकों और ग्रामीण क्षेत्रों तक आन्दोलन के विस्तार की भूमिका तैयार की।

इसका परिणाम यह हुआ कि उज्जैन में चल रही संघ के कोर ग्रुप के बैठक को फैसला लेना पड़ा कि जनता के रुख को देखते हुए भाजपा अन्ना हजारे के आन्दोलन को समर्थन तो देगी पर उसमें शामिल नहीं होगी। दूसरी ओर अन्ना के आन्दोलन के समानांतर उन्होंने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में एक ग्रुप का गठन किया हुआ है जिसका नाम अन्ना के आन्दोलन इंडिया अगैंस्ट करप्शन से मिलता जुलता यूथ अगेंस्ट करप्शन रखा गया है। यह ग्रुप अन्ना के आन्दोलन को समर्थन देगा। सदैव दुहरेपन में जीने वाले संघ परिवार का यह एक और वैसा ही कदम है जिसके अनुसार वे एक ओर तो साथ देते नजर आते हैं और दूसरी ओर अलग भी हैं।

अन्ना टीम और सरकार के बीच कुछ समझौते के आसार भी बन रहे हैं जिसके अनुसार वे न्याय व्यवस्था को लोकपाल के नियंत्रण में लाने की मांग छोड़ सकते हैं, और सरकार प्रधानमंत्री को लोकपाल के अंतर्गत लाने की बात पर स्वीकृत हो सकती है, जो विपक्ष भी चाहता है। यह एक शुभ लक्षण है। अभी तक अन्ना का आन्दोलन एक अमूर्तन में चल रहा था जो अब एक आकार लेता जा रहा है जिसके आधार पर उसके गुण दोषों का मूल्यांकन सम्भव हो सकता है। इस पारदर्शिता के युग में अन्ना के आन्दोलन को मिले आर्थिक सहयोग की सूची सामने आयी है, इसलिए जरूरी हो जाता है कि देश का प्रत्येक आन्दोलन और गैर सरकारी संगठनों समेत सभी जन संगठन अपने धन प्राप्ति के श्रोतों की जानकारी दें। आर एस एस को भी स्पष्ट करना चाहिए कि जब वह अपने आप को एक सांस्कृतिक संगठन कहता है तो सहयोग राशि को गुरु दक्षिणा का नाम देकर गुप्त तरीके से क्यों लेता है?

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

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गुरुवार, अगस्त 18, 2011

अन्ना हजारे के नाम खुला खत


अन्ना हजारे के नाम खुला खत

वीरेन्द्र जैन

आदरणीय हजारेजी

सादर प्रणाम

दरअसल यह खत आपकी टीम के नाम है जिनकी सलाह से आपके वक्तव्य सामने आते हैं, किंतु किसी भी संस्था को जब कोई पत्र दिया जाता है तो वह संस्था के प्रमुख को सम्बोधित किया जाता है जैसे कि ठेकों के टेंडर तक सम्बन्धित बाबू को नहीं अपितु राष्ट्रपति भारत सरकार को सम्बोधित होते हैं।

आपके अभियान के समांतर चलने वाले मायावान बाबा रामदेव के आचरण के विपरीत आपने अपने निश्चय और आचरण में जो दृड़ता दिखायी है उसके लिए देश में उन लोगों ने भी आपकी सराहना की है जो आपके जनलोकपाल से असहमत हैं। वैसे भी आपके जनलोकपाल से तो पूरी तरह कोई भी सहमत नहीं है, यहाँ तक कि इसे तैयार करने वालों ने भी इसे इसी तरह तैयार किया है ताकि सरकार से टकराव के अवसर आयें। वे इसमें सफल रहे हैं। इससे जनता के पास यह सन्देश पहुँचा है कि आपकी टीम देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाना चाहती है और देश की चुनी हुयी सरकार ऐसा नहीं चाहती। देश के विपक्षी दल भी सरकार की विकृत छवि के और विकृत होने से प्रसन्न हैं और आपके जनलोकपाल बिल के समर्थन में न होते हुए भी वे सरकार की छवि बिगाड़ने के अभियान में समानधर्मी महसूस करते हैं। आपके समर्थन में जो भीड़ उमड़ती दिख रही है वह भी विपक्षी दलों को सम्भावनाओं से भरी हुयी दिख रही है क्योंकि वह सतारूढ दल के विरोध में खड़ी नजर आ रही है। इन्हीं दिनों उज्जैन में चल रही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चिंतन व समंवय बैठक ने अपने संगठनों को सन्देश दिया है कि भले ही अन्ना हजारे भाजपा और संघ से दूरी बना कर चल रहे हैं, लेकिन उनकी गिरफ्तारी और आन्दोलन से बने माहौल का फायदा उठाया जाना चाहिए। भाजपा अध्यक्ष गडकरी को बैठक में आने के बजाय अन्ना की गिरफ्तारी के खिलाफ आन्दोलन आदि का नेतृत्व करने को कह दिया गया है। विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय नेत्तृत्व ने भी यूथ अगैंस्ट करप्शन फोरम के आन्दोलन में कूदने को कहा है [दैनिक भास्कर भोपाल दिनांक 18 अगस्त 2011 में उज्जैन से मनोज जोशी की रिपोर्ट] टालस्टाय के एक उपन्यास में नायक कहता है कि- वो मुझे चाहती है या नहीं चाहती यह जरूरी नहीं पर मैं उसे चाहता हूं यह मेरे लिए काफी है। इसी तरह आप भले ही राजनीतिक दलों से दूरी बनाये रखने की बात करते हों पर राजनीतिक दल तो भीड़ पर भिनभिनाने से नहीं चूक सकते क्योंकि यह गुड़ और मक्खियों जैसा रिश्ता है। श्रीमती इन्दिरा गान्धी ने प्रेमधवन को दिये अपने आखिरी साक्षात्कार में विभिन्न धर्मस्थलों पर जाने का यही कारण बताया था कि वे जनता के आस्था स्थल हैं और बड़ी संख्या में जनता वहाँ पर जाती है।

राजनीतिक दलों ने आपकी बात का लिहाज रखा है इसलिए वे अपनी पार्टी के झंडे बैनर लेकर आपके आन्दोलन में सम्मलित नहीं हुए किंतु सब ने अपने अपने झंडे बैनरों के साथ आपकी गिरफ्तारी पर विरोध किया। रिन्द के रिन्द रहे हाथ से जन्नत न गयी।

आइए उस भीड़ का विश्लेषण करें जो 15 अगस्त को सड़कों पर नाबालिग बाल मजदूरों द्वारा बेचे गये झंडे लेकर आपके समर्थन में उतरी। इस भीड़ में बहुत बड़ी संख्या युवाओं की थी जो कालेजों में पढते हैं, या पढने के बाद नौकरी की तलाश में हैं। कुछ संख्या उन वकीलों की थी जो युवा हैं और जिनकी प्रैक्टिस नहीं चलती। आपकी टीम का आवाहन था कि पूरा देश 16 अगस्त से एक सप्ताह की छुट्टी ले और तिरंगा लेकर सड़कों गलियों में घूमे व अपने अपने मन से चयनित भ्रष्टाचारियों का विरोध करे। मुझे प्राप्त जानकारी के अनुसार 16 अगस्त को कहीं किसी ने छुट्टी नहीं ली, सारे दफ्तर सारे स्कूल भरे रहे यहाँ तक कि दुकानें भी खुली रहीं। जो युवा अलग अलग पार्कों, फास्ट फूड सेंटरों, या पिकनिक स्पाटों पर जेंडर मुक्त मित्रों के साथ मौसम का मजा लेते थे वे यही काम कुछ चौराहों या तयशुदा प्रदर्शन स्थलों पर कर रहे थे। उनके साथ कई जगह पैंट पर कुर्ता पहिनकर गान्धी थैला लटकाने वाले कुछ एनजियो नुमा लड़के और वैसी ही खिलखिलाती बिन्दास लड़कियां थीं। सारा माहौल एक उत्सव की तरह आल्हाद से भरा हुआ था, कहीं कोई गुस्सा नहीं था। कृप्या इसे अपने अहिंसा के सन्देश की शांति समझने की भूल न करें, क्योंकि इसमें एक रूमान छलक रहा था। हाथ उठा कर नारे लगाने में नृत्य था गीत था, आनन्द था।

इन लड़कों में से अधिकांश गरीब परिवारों से नहीं आये थे क्योंकि जो जितना गरीब है वह उतना ही प्रत्यक्ष भ्रष्टाचार से कम पीड़ित है। इनमें पिछड़े परिवारों के बच्चे भी नहीं थे क्योंकि वे बड़ी नौकरी न मिलने पर कोई छोटी नौकरी भी कर लेते हैं। इनमें अधिकांश उन परिवारों से आये बच्चे थे जिन परिवारों के मुखिया कहीं न कहीं स्वयं तो भ्रष्टाचार करते हैं किंतु उनके साथ दूसरे जो भ्रष्टाचार करते हैं उसको दूर करना चाहते हैं। इन्हें सत्ता पर बैठे व्यक्ति को गाली देने में और सरकार पलटने में अपनी भूमिका की कल्पना में एडवेंचर महसूस होता है। इनके पास भी आपकी टीम की तरह वैकल्पिक व्यवस्था का कोई ढांचा [विजन] नहीं है। ये कारों, मोटर साइकिलों वाले हैं, इनको पर्याप्त जेबखर्च मिलता है।

आदरणीय,

इसका मतलब यह नहीं कि मैं आपको अनशन न करने देने वाली और आपको गिरफ्तार करने वाली सरकार के पक्ष में हूं। मैं तो केवल यह बताना चाह रहा हूं कि आप जिनके सहारे बड़े परिवर्तन की उम्मीद कर रहे हैं वे वही लोग हैं जिनके खिलाफ लड़ाई लड़ी जानी है। आपसे उम्मीद पाले जो निरीह लोग आशा से तक रहे हैं उनके वोट लूटने के लिए स्थापित राजनीतिक दलों ने कमर कस ली है, इसलिए जरूरी है कि आप स्पष्ट करें कि भ्रष्टाचार के लिए आप जिस व्यवस्था को जिम्मेवार मानते हैं उसको हटाने के बाद नई व्यवस्था का आपका अगला खाका क्या है? क्या आपने अपने समर्थकों के लिए कुछ न्यूनतम पात्रताएं और आचार संहिताएं बनायी हैं, जिनके बिना किसी परिवर्तन की दशा में जार्ज की जगह जमुनाप्रसाद आ जायेंगे। यदि आप दल की सीमाओं में नहीं बँधना चाहते तो क्या उम्मीदवारों में कुछ न्यूनतम पात्रताएं, और कुछ न्यूनतम नकार बताना चाहेंगे, कि ये गुण होने चाहिए और ये अवगुण नहीं होने चाहिए। क्या आप चाहेंगे कि चयनित जन प्रतिनिधि पर लम्बित प्रकरणों की सुनवाई विशेष अदालतें दिन-प्रतिदिन के आधार पर करें और निश्चित समय में फैसला सुनाएं। क्या आप चाहेंगे कि एक बार चयनित होने के बाद विधायक, सांसद पेंशन पाकर सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित कर चुका जनप्रतिनिधि अपनी सारी चल अचल सम्पत्ति त्याग दे तब शपथ ग्रहण करे।

आदरणीय, भ्रष्टाचार दोषयुक्त व्यवस्था की पैदाइश होता है और इसे दूर करने के लिए व्यवस्था को बदलना ही होगा। कृपा करके इस सम्बन्ध में आपने जो सपना देखा होगा उससे देश को परिचित कराइए अन्यथा यह सब एक तमाशा होकर रह जायेगा।

आपका एक प्रशंसक

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गुरुवार, अगस्त 04, 2011

क्या येदुरप्पा की कुर्बानी से भाजपा के पाप धुल जायेंगे ?


क्या येदुरप्पा की कुर्बानी से भाजपा के पाप धुल जायेंगे

वीरेन्द्र जैन

श्री येदुरप्पाजी के जीवनवृत्त पर निगाह डालने के बाद उनके प्रति पहले श्रद्धा और फिर सहानिभूति ही पैदा होती है। पिछले दिनों पूरी दुनिया ने देखा कि कैसे लोकायुक्त की रिपोर्ट में वे दोषी पाये गये और उनकी पार्टी ने शरीर में पैदा हो गये गेंगरीन के जग जाहिर होते ही रोगग्रस्त अंग की तरह उनको काट कर फेंक देना चाहा। उन्होंने अनुशासन बनाये हुए सार्वजनिक रूप से ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे पार्टी की छवि और ज्यादा खराब होती हो पर पार्टी के अन्दर वे बराबर त्यागपत्र न देने के लिए सम्वादरत रहे। आखिर वे क्या तर्क थे जिनके आधार पर वे ऐसे मुद्दे पर त्यागपत्र न देने के लिए जिद कर रहे थे जिसके कारण पूरे देश में उनकी थू थू हो रही थी, तथा सत्तारूढ पार्टी को घेरने के अभियान की हवा निकल रही थी। भाजपा की विरोधी पार्टियां ही नहीं अपितु पार्टी के नेता भी एक मन से यह चाहते थे कि येदुरप्पा तुरंत वैसे ही स्तीफा दे दें जैसे कि हवाला कांड में नाम आ जाने के बाद लाल कृष्ण अडवाणी या मदन लाल खुराना ने दे दिया था, ताकि पार्टी की छवि का मेकअप किया जा सके। किंतु वे जाते जाते पार्टी की बची खुची इज्जत भी लेते गये।

येदुरप्पा को राजनीति विरासत में नहीं मिली थी, वे 1943 में एक साधारण से परिवार में पैदा हुये। उनके पिता सिद्धलिंगप्पा लिंगायत समुदाय से थे। उनके नाम में बूकानाकेरे उस जगह का नाम है जहाँ वे पैदा हुये थे और सिद्धलिंगप्पा उनके पिता के नाम से आया है। संत सिद्ध्लिंगेश्वर ने येदुयर नामक स्थान पर एक शैव्य मन्दिर बनवाया है जिसके नाम पर उनका नाम येदुरप्पा रखा गया। कुल मिलाकर उनके नाम में उनके परिवार की आस्था का स्थान, उनका जन्म स्थान और जन्म देने वाले पिता का नाम सम्मलित है। उनकी माता पुत्ताथायम्मा का जब निधन हुआ तो वे कुल चार वर्ष के थे। ऐसी परिस्तिथि में भी उन्होंने बीए पास किया और 1965 में राज्य सरकार के समाज कल्याण विभाग में प्रथम श्रेणी क्लर्क नियुक्त हो गये। पर सरकारी नौकरी उन्हें रास नहीं आयी और उसे छोड़ कर शिकारीपुर की वीरभद्र शास्त्री की चावल मिल में क्लर्क हो गये। दो साल के अन्दर ही उन्होंने फिल्मी कथाओं की तरह अपने मिल मालिक वीरभद्र शास्त्री की कन्या मैत्रा देवी से ही विवाह रचा लिया, तथा शिमोगा आकर हार्डवेयर की दुकान खोल ली। उनके दो पुत्र और तीन पुत्रियों समेत पाँच संतानें हुयीं। पूजापाठ तंत्र-मंत्र में अगाध आस्था रखने वाले येदुरप्पा की पत्नी आज से सात वर्ष पूर्व अपने घर के पास वाले कुँएं में गिरकर मर गयीं। इस दुर्घटना के बारे में कहीं कोई प्रकरण दर्ज नहीं हुआ। वे उस समय विधानसभा सदस्य थे।

शिमोगा आकर ही वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े थे और 1970 में संघ की शिकारीपुर इकाई के सचिव नियुक्त हुये। 1972 में वे जनसंघ [भाजपा] की तालुक इकाई के अध्यक्ष चुन लिये गये। 1975 में वे शिकारीपुर की नगरपालिका के पार्षद और 1977 में चेयरमेन चुने गये थे। एक बार निरीक्षण के दौरान उन पर घातक हमला किया गया था। 1975 से 1977 के दौरान लगी इमरजैंसी में वे 45 दिन तक बेल्लारी और शिमोगा की जेलों में रहे। 1980 में शिकारीपुर तालुका के भाजपा अध्यक्ष के रूप में चुने जाने की बाद 1985 में वे शिमोगा के जिला अध्यक्ष बना दिये गये। अगले तीन साल के अन्दर ही वे भाजपा की कर्नाटक राज्य भाजपा के अध्यक्ष चुन लिये गये। 1983 में पहली बार शिकारीपुर से विधायक चुने जाने के बाद वे छह बार इसी क्षेत्र से चुने गये। वे तब भी जीते जब 1985 में उनकी पार्टी के कुल दो सदस्य विजयी हो सके थे। बीच में कुल एक बार चुनाव हार जाने के कारण उन्हें विधान परिषद में जाना पड़ा। 1999 में वे विपक्ष के नेता रहे।

आज देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी भाजपा तब कर्नाटक में बहुत ही कमजोर थी जब येदुरप्पा ने उसका झण्डा थामा था और सारे झंझावातों के बाद भी ईमानदारी से थामे रहे थे। जनता दल में विलीन होने और उससे बाहर निकलकर भाजपा हो जाने के बाद ही इसका विकास हुआ और इसके साथ ही साथ येदुरप्पा का भी उत्थान हुआ। 1980 में उन्होंने काम के लिए अनाज योजना में घटित भ्रष्टाचार का खुलासा करके जाँच बैठवायी, इसी दौरान उन्होंने बँधुआ मजदूरों को मुक्त करवाया और 1700 ऐसे ही मुक्त मजदूरों के साथ जिला कलेक्टर कार्यालय पर प्रदर्शन किया। उन्होंने अनाधिकृत खेती के खिलाफ सफल आन्दोलन चलाया और 1987 में सूखा पीड़ित पूरे शिकारीपुर तालुका में साइकिल से यात्रा कर किसानों से सीधे उनका हाल जाना। वही येदुरप्पा आज बेल्लारी खनन घोटाले और अपने रिश्तेदारों के पक्ष में करोड़ों रुपयों के भूमि आवंटन घोटाले में आरोपित होकर अपने पद से हटाये गये हैं तो उनके इस पतन की पूरी कहानी की तह में जाना जरूरी है, ताकि राजनीतिकों की फिसलनों के नेपथ्य को जाना जा सके।

येदुरप्पा को हटाकर भाजपा का हाथ झाड़ लेना बहुत आसान है किंतु इस पूरे काण्ड में अकेले येदुरप्पा नहीं अपितु इसके पीछे सत्ता लोलुपता की शिकार पूरी पार्टी है जो किसी भी तरह से सत्ता में जमे रहकर संघ परिवार के लिए धन और सम्पत्ति को अधिक से अधिक लूट लेना चाहती है। दूसरी पार्टियों में नेता भ्रष्ट होते हैं किंतु भाजपा पार्टी के स्तर पर भ्रष्टाचार करती है और संघ परिवार के विभिन्न संगठनों को अवैध ढंग से भूमि भवन आवंटित करने में सबसे आगे है। अपनी सरकारों वाली पार्टी इकाइयों पर वह धन संग्रह के लिए जो दबाव बनाती है वह भ्रष्टाचार को जन्म देता है। यह धन दलबदल कराने और सेलिब्रिटीज को पार्टी से जोड़ने में झौंका जाता है। अल्पमत सरकारों के लिए समर्थन खरीदने में ये सबसे आगे रहते रहे हैं। पार्टी कोष के लिए धन संग्रह का काम संगठन का होना चाहिए किंतु सबसे अधिक धन संग्रह मंत्रियों, विधायकों और सांसदों से कराया जाता है। वे जो धन संग्रह करते हैं उसकी कोई रसीद जारी नहीं करते और ना ही हिसाब रखते हैं। आरएसएस ने तो गुरु दक्षिणा के नाम पर बन्द लिफाफे लेने का जो चलन बनाया है वह काले और अवैध धन लेने के बाद अपनी जिम्मेवारी से बचने का तरीका है। अनुमान तो यह भी है कि इस तरह विदेशी शक्तियां भी अपने निहित स्वार्थों के लिए उसे मजबूत करती हैं, विकीलीक्स में हुये खुलासे बताते हैं कि अमेरिकन राजदूतों से भाजपा नेता निरंतर भेंट करते रहते हैं और किसी आज्ञाकारी कर्मचारी की तरह उन्हें संतुष्ट करने की कोशिश करते रहते हैं। बेल्लारी में अवैध खनन करने वाले रेड्डी बन्धु भाजपा के सम्पर्क में तभी आये जब बेल्लारी से सुषमा स्वराज को सोनिया गान्धी के खिलाफ चुनाव लड़वाया गया। उस चुनाव का बड़ा खर्च इन उद्योगपतियों ने ही वहन किया था तथा भाजपा को उस चुनाव में 41% वोट मिले थे। व्यापारियों उद्योगपतियों के लिए चुनाव में धन लगाना उनकी राजनीति नहीं होती अपितु यह उनका निवेश होता है। जब इस अहसान का उन्होंने बदला माँगा तो कैसे इंकार किया जा सकता था। भाजपा ने पूर्ण बहुमत पाये बिना ही सरकार बनायी। वर्तमान में स्वच्छ हाथों से कोई अल्पमत सरकार नहीं चलायी जा सकती। जिन विधायकों से समर्थन जुटाया गया उनके लिए जो कुछ भी करना पड़ा होगा, वो रेड्डी बन्धुओं ने ही किया। जब केन्द्र के नेता रेड्डी बन्धुओं को मंत्री बनाये जाने के लिए दबाव बनाने की जिम्मेवारी एक दूसरे पर डाल रहे थे, तब येदुरप्पा ने उस को अपने ऊपर लेते हुए कहा था कि उन्हें मैंने अपने विवेक से मंत्री बनाया था। उनका यह कथन सच नहीं था, क्योंकि संघ परिवार में पूरे मंत्रिमण्डल की मंजूरी न केवल भाजपा हाई कमान अपितु संघ के पदाधिकारियों से भी लेनी होती है। यदि भाजपा इस काम को गलत मानती थी और येदुरप्पा ने यह गलत काम किया था तो भाजपा हाईकमान ने उन्हें इससे रोका क्यों नहीं। इसके विपरीत जब रेड्डी बन्धु संघ की समर्पित कार्यकर्ता शोभा कलिंजिद्रे को हटाने या सरकार गिराने की धमकी दे रहे थे तब सरकार बचाने के लिए शोभा को मंत्रिमण्डल से हटाने के निर्देश किसने दिये थे। स्मरणीय है कि तब येदुरप्पा इस सैद्धांतिक मामले पर सरकार को कुर्बान करने के लिए तैयार थे। दूसरी बार जब विधायकों के एक गुट ने विद्रोह कर दिया था और कुछ विधायकों ने त्यागपत्र दे दिया था तब उसका प्रबन्धन किसने किया था। केन्द्रीय नेताओं ने किसके बूते यह कहा था कि येदि को कोई ताकत हटा नहीं सकती और वे पूरे कार्यकाल तक मुख्यमंत्री बने रहेंगे।

अपनी सत्ता लोलुपता के लिए किसी नेता के हाथों से जब निरंतर काले कारनामे करवाये जाते हैं तो यह बहुत सम्भव है कि इस बह्ती गंगा में वह स्वयं या उसके रिश्तेदार भी हाथ धो लें। येदुरप्पा को यही शिकायत रही कि उनके पूरे जीवन की सेवा के बाद उन्हें जबरन कुर्बान करवाया गया है और बदनाम करके निकाला गया है जबकि असली जिम्मेवार कोई और हैं। इस कुर्बानी के रास्ते पर वे अकेले नहीं हैं अपितु वसुन्धरा राजे के खिलाफ भूमि आवंटन की जाँच चल रही है व मध्यप्रदेश हिमाचल, उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ, व झारखण्ड में जो अवैध भूमि आवंटन हुये हैं उनका विस्फोट कभी भी हो सकता है और यह विस्फोट करने वाले भी उन्हीं के मंत्रिमंडल के सदस्य ही होंगे। इस सत्र के पहले जब प्रधानमंत्री ने कहा कि उनके पास भी विपक्ष के काले कारनामे हैं तो भाजपा के किसी भी नेता ने उनके दावे को चुनौती नहीं दी, अपितु उनके बयान की निन्दा भर की। शांता कुमार जैसे वरिष्ठ नेताओं की सलाहों को दरकिनार करते हुए येदुरप्पा को तब तक रखा गया जब तक कि लोकायुक्त की 2500 पेज की रिपोर्ट जारी नहीं हो गयी। गम्भीर आरोपों में हटाये जाने के बाद भी उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के चयन में पूरा हस्तक्षेप किया और इस हस्तक्षेप को मानकर भाजपा ने सन्देश दिया कि वे भ्रष्टाचार को तब तक बनाये रखना चाहते हैं जब तक कि कोई कानूनी अड़चन न पैदा हो जाये।

पद से हटकर पार्टी से असंतुष्ट होने वाले येदुरप्पा अकेले नहीं हैं अपितु इस सूची में मदनलाल खुराना, कल्याण सिंह, उमा भारती हों, या कोई चिमन भाई मेहता कोई खुश नहीं रहता, और पार्टी छोड़ने की स्तिथि तक जा पहुँचते हैं। येदुरप्पा उनके ताजा शिकार हैं, जो अभी दावा कर रहे हैं कि वे छह महीने में फिर आयेंगे। क्या उनका भविष्य भी दूसरे ऐसे मुख्यमंत्रियों की तरह होगा या वे सबकी पोल खोलेंगे।

वीरेन्द्र जैन

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