रविवार, जून 26, 2022

 

संस्मरण

शाहनाज इमरानी – जिसके बारे में उसकी मौत के बाद जान सका

वीरेन्द्र जैन


मनोज कुलकर्णी का सन्देश व्हाट्स एप्प और फेसबुक पर मिला कि कवि शाहनाज इमरानी नहीं रहीं। पढते ही एक चेहरा तो याद आ गया किंतु उसके व्यक्तित्व और कृतित्व का स्वरूप एकदम से नहीं उभर सका। बाद में लगातार राम प्रकाश त्रिपाठी, राजेश जोशी, शैलेन्द्र कुमार शैली, आदि के सूचनात्मक शोक सन्देश मय फोटो के मिले तो एकदम से याद आ गया कि एक दो साल पहले मेरे फेसबुक पेज पर नियमित रूप से लाइक और कमेंट करने वाली युवती ही शाहनाज इमरानी थी। मेरी उससे इतनी ही जान पहचान थी कि साहित्यिक सांस्कृतिक जगत पर निरंतर हो रहे हमलों के खिलाफ चौराहों और पार्कों आदि में जो विरोध प्रदर्शन होते थे उसमें एक अनिवर्य उपस्थिति शाहनाज की भी होती थी।

वह सुन्दर थी किंतु इतनी सादा थी कि किसी को भी उसे देख कर बहनापा महसूस हो सकता था। सादा कपड़ों में उसका सात्विक भाव श्रद्धा जगाता था। पिछले दशक से मैंने कवि गोष्ठियों में जाना छोड़ दिया था इसलिए उसके कवि रूप को नहीं जान सका था। उसकी मृत्यु के वाद देश के जिन जाने माने कवियों और कला समीक्षकों ने अपने श्रद्धांजलि लेख में जो कविताएं उद्धृत कीं उन्हें पढ कर लगा कि उसकी कविताएं भी उसके जैसी ही सादा थीं और एक अवसाद को बुनती दिखती थीं। [वैसे मैंने कुछ ही कविताएं पढी हैं ] ।

उसकी म्रत्यु के बाद ही पता चला कि उसके पिता कामरेड थे और उसकी माँ की मृत्यु के समय वह कुल दो वर्ष की थी। इसलिए वह मशहूर कवि शायर फज़ल ताबिश के यहाँ पल कर बड़ी हुयी। फज़ल ताबिश बड़े सिर वाले ही नहीं बहुत बड़े दिल वाले इंसान थे और भोपाल के समस्त प्रगतिशील जनवादी साहित्यकारों के यार थे। कविता के संस्कार उसने वहीं पर पाये थे। बताया गया कि उसका विवाह सात साल तक चला जिससे उसकी एक बेटी भी हुयी जो उसके संरक्षण में ही बड़ी हुयी और इन दिनों कालेज में है। ये बात अलग है कि शाहनाज को देख कर लगता था कि जैसे उसकी उम्र रुक सी गयी है। सुन्दर दंतपंक्ति और मुस्कान की मालिक के अन्दर क्या गम थे ये किसी को पता नहीं थे क्योंकि कि वह किसी को अपने दुखों के बारे में कुछ बताती ही नहीं थी, जबकि दूसरों के दुख में मदद करने के लिए वह सबसे आगे रहती थी।

उसे कैंसर हो गया था, उससे पहले उसे कोरोना हो चुक था और एक स्कूटर की टक्कर में अपना पैर भी तुड़वा चुकी थी। शायद परेशानियों ने उसका पीछा कभी नहीं छूटा था। उसकी शोकसभा में भोपाल साहित्य जगत की सभी चुनिन्दा हस्तियां जैसे विजय बहादुर सिंह, राम प्रकाश त्रिपाठी, राजेश जोशी, कुमार अम्बुज, नीलेश रघुवंशी, रमाकांत, सुबोध श्रीवास्तव,बादल सरोज, सन्ध्या शैली, जसविन्दर सिंह, पलाश सुरजन, प्रज्ञा रावत, प्रतिभा गोटेवाले, श्रुति कुशवाहा, वसंत सकरगाये, अवधेश, बालेन्दु परसाई, डा.स्वतंत्र सक्सेना, शैलेन्द्र कुमार शैली, बद्र वास्ती, शायान कुरैशी उसकी बेटी, फज़ल ताबिश का परिवार, शाहनवाज खान, आदि ने अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किये। मुझे यही अफसोस रहा कि अमृता प्रीतम की किसी कथा नायिका जो हम सब के बीच विचरण कर रही थी, मैं उसके बारे में अनजान रहा।

सोशल मीडिया पर भी शरद कोकास और सुरेन्द्र रघुवंशी आदि के संस्मरणात्मक लेख भरपूर देखे गये। उसकी कविता पुस्तक की चर्चा हुयी व अप्रकाशित कविताओं को प्रकाशित करने का संकल्प लिया गया। देखना होगा कि यह संकल्प कब तक पूरा हो पता है।  

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

 

शनिवार, जून 18, 2022

गामा पहलवान के नाम से जुड़ी यादें

 गामा पहलवान के नाम से जुड़ी यादें

वीरेन्द्र जैन


मेरा जन्म 1949 में हुआ था और उसी वर्ष मेरे पिता का ट्रांसफर ललितपुर से दतिया हो गया था अतः मैं अपना जन्म स्थान दतिया ही मानता रहा हूं क्योंकि 1971 में एम.ए. तक की शिक्षा प्राप्त करने तक मैं दतिया में ही रहा हूं। बाहर जाने पर अपने परिचय में दतिया का नाम जोड़ने पर लोग दो बातें ही याद करते थे, एक गामा पहलवान की, दूसरी दतिया को ‘गले का हार’ बताने वाली कहावत की। बचपन में मैं इतना दुबला था कि मुझे गामा की नगरी से जोड़ने के बाद लोग मुस्कराते जरूर थे।
प्रसिद्ध लोगों और विधाओं को अपने राज्य के साथ जोड़ कर राजा लोग सुख पाते थे। गामा पहलवान को दतिया महाराज भवानी सिंह ने राजाश्रय दिया था क्योंकि गामा का ननिहाल दतिया में ही था। कहते हैं कि उनकी खुराक बहुत अधिक थी जिसमें दॆढ पाउंड बादाम, दस सेर दूध, मटन, छ्ह देशी मुर्गे आदि शामिल थे। बड़े लोगों को आश्रय भी उनके अनुकूल चाहिए होता है, इसलिए बाद में पटियाला महाराज ने उन्हें बुलवा लिया था, व बाद में जो जमीन उन्होंने उन्हें दी थी वह बंटवारे के बाद पाकिस्तान में आ गयी थी, इसलिए उन्हें पाकिस्तान गया हुआ मान लिया गया। 1947 के बद भी वे लगातार हिन्दुस्तान आते रहे क्योंकि एकीकृत देश का प्रतिनिधित्व करते हुए उन्होंने जो सम्मान पाया, उसकी स्मृति ने उन्हें कभी विभाजन को स्वीकार नहीं करने दिया।
दतिया के होली पुरा पर इनकी एक हवेली थी। वह हवेली धीरे धीरे ध्वस्त होकर खण्डहर में बदल गयी थी। लोग रात विरात उसमें से निर्माण सामग्री ले जाते थे। उसी मुहल्ले में रहने वाले मेरे पिता के आफिस के एक गार्ड रात्रि में उसमें से कुछ मटेरियल उठाने गये थे कि दीवार और पत्थर गिर गये। उन्हें अस्पताल भिजवाया गया जहाँ उन्हें खून की उल्टी हुयी। डाक्टर समेत सारे लोग घबरा गये। बाद में पता चला कि खून का महत्व समझते हुये उनके सिर से जो खून बह रहा था उसे वे पीते गये थे वही उल्टी में निकला था। गामा के नाम से मेरा यह पहला परिचय था।
एक दो बार गामा और उनके भाई दतिया में आये जिनका अतिथ्य दतिया के नगर सेठ रतन लाल अग्रवाल करते थे जिनके परिवार के अनेक लोगों को पहलवानी का शौक था और उन्होंने अपने बगीचे ‘मोदी का बाग’ में अखाड़ा बनवा रखा था। यह स्थान लगातार कई तरह से चर्चित रहा है। हमारे दौर के युवाओं में से दर्जनों लोग वहाँ जाकर अखाड़ेबाजी और कसरत करते रहे। किवदंति रही है कि उस बाग में गामा कसरत करते रहे थे।
1989 से चले अयोध्या के रामजन्मभूमि अभियान के बाद जो साम्प्रदायिक वातावरण बना उसने मुझे बहुत संवेदनशील कर दिया था। मैं राजेन्द्र यादव, प्रभाष जोशी आदि से प्रेरित हो रहा था। उस समय मैं कई राज्यों में घूम घाम कर दतिया लौट आया था और वहाँ के लीड बैंक आफिस में पदस्थ था। साहित्य के साथ साथ मैं एक स्थानीय दैनिक अखबार में कबीर नाम से एक स्तम्भ भी लिखता था। इस तरह से मैं अपने राजनीतिक सामाजिक विचार भी व्यक्त करता रहता था। यह 1993-94 की बात रही होगी जब मध्य प्रदेश के सभी जिलों में खेल स्टेडियम का निर्माण करवाया गया था। दतिया में भी हुआ और उसके नामकरण का प्रस्ताव भी चर्चा में आया। मैंने अखबार के अपने स्तम्भ में लिखा कि गामा पहलवान का सम्बन्ध दतिया से रहा है इसलिए स्टेडियम का नाम गामा स्टेडियम ही ठीक रहेगा।
दतिया के एक खिलाड़ी और खेल प्रशिक्षक श्री बाबूलाल पटेरिया थे। वे हाकी खिलाड़ी के रूप में बड़े बड़े मैच खेल चुके थे, और ध्यान चन्द आदि के समकालीन थे। उनका उठना बैठना मेरे पिताजी के साथ भी रहा था। अपने योगदान को देखते हुए और उम्र को देखते हुए उनकी इच्छा थी कि स्टेडियम उनके नाम पर हो तो ठीक रहेगा। जब उन्होंने मेरा स्तम्भ पढा तो उन्होंने अखबार के कार्यालय में जाकर मालूम किया कि कबीर कौन हैं। वे चल कर मेरे कार्यालय में आये और अपना परिचय देने लगे। मैंने उठ कर उनके पांव छुये और अपना परिचय दिया कि आप तो मेरे पिताजी के साथियों में से हैं। आप दतिया में दशकों पूर्व लगातार जो हाकी टूर्नामेंट करवाते रहे हैं उसकी ख्याति से कौन परिचित नहीं हैं। नामकरण के बारे में मैंने तो केवल अपना विचार व्यक्त किया था अंतिम निर्णय तो जिलाधीश के नेतृत्व वाली समिति को लेना है।
रोचक यह रहा कि मेरा विचार तत्कालीन जिलाधीश को भी पसन्द आ रहा था। उस समिति में भाजपा के दो नेता भी थे, उनमें से एक ने कहा कि गामा पाकिस्तान चले गये थे इसलिए उनके नाम से स्टेडियम का नाम नहीं रखा जाना चाहिए किंतु उसी बैठक में दूसरे भाजपा नेता जो एक प्रसिद्ध वकील थे और जिनसे अक्सर मेरी नोक झोंक चलती रहती थी ने गामा के नाम का पक्ष लिया और कहा कि अल्लामा इकबाल भी तो पाकिस्तान चले गये थे फिर क्यों उनके ‘सारा जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा को क्यों गाते हो’। बहस आगे बढ गयी तो समिति ने फैसला किया कि स्टेडियम का नाम ‘दतिया स्टेडियम’ ही रख दिया जाये।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023