रविवार, अप्रैल 23, 2017

पुस्तक समीक्षा - भाषा की खोयी ताकत को याद कराती सुगम की गज़लें

बुन्देली भाषा की खोयी ताकत को याद कराती सुगम की गज़लें
वीरेन्द्र जैन

मुझे प्रभु जोशी की हिन्दी पढ कर खुशी मिलती है। वे हिन्दी की ताकत को बतलाते हैं कि वह कितनी सक्षम भाषा है। जिन विषयों पर लिखने में हिन्दी के दूसरे नामी गिरामी विश्वविद्यालयी प्रोफेसर और पत्रकार खिचड़ी भाषा का प्रयोग करने को विवश होते हैं उसी विषय पर प्रभु जोशी के लेख सहज समझ में आने वाले हिन्दी के शब्दों से अपनी बात साफ साफ समझाने में सफल होते हैं। हो सकता है कि कुछ दूसरे हिन्दी लेखक व पत्रकार भी ऐसे ही सक्षम हों, किंतु अपने सीमित अध्य्यन के आधार पर मैं उपरोक्त निष्कर्ष पर पहुँचा हूं। महेश कटारे ‘सुगम’ की गज़लें पढ कर वैसी ही ताकत का आभास बुन्देली भाषा के प्रति होता है। वे अपनी गज़लों में जिन बुन्देली शब्दों उसके परिवेश, स्वभाव, संस्कृति, व प्रवृत्तियों का चित्रण करते हैं उससे बुन्देलखण्ड के मूल निवासियों की स्मृतियां ‘लड़िया’ कर लिपटने लगती हैं।
जो भाषा अपने समय को अभिव्यक्त करने में जितनी सक्षम होगी उसका भविष्य उतना ही दूरगामी  होगा। भाषा को मरने से बचाने की जिम्मेवारी उसके लेखकों व पत्रकारों की होती है। जो लोग अपनी भाषा की ताकत को नहीं जानते वे अपनी अलग पहचान के लिए लोकभाषा में सप्रयास लिखते हुए पौराणिक काल और सामंती युग में चले जाते हैं जहाँ उनके श्याम आज के कानून की परवाह किये बिना पनघट पर राधाओं को छेड़ने लगते हैं, या उनके वीर योद्धा हाथी घोड़ों पर सवार होकर तलवारों से नये दुश्मनों के सिर काटने लगते हैं। अनेक लेखक भले ही अपने मुहल्ले में भी न जाने जाते हों किंतु उनके सपने अखिल भारतीय पहचान बनाने के होते हैं और ऐसी ही महत्वाकांक्षाओं ने लोकभाषाओं का बड़ा नुकसान किया है। लोकभाषा का लेखन सबसे पहले अपनी भाषा के व्यवहार करने वालों की पहुँच में संतुष्ट रहने की शर्त रखता है। आज भले ही हिन्दी गिने चुने नगरों में पैदा हुए बच्चों की भाषा बन गयी हो किंतु आज से तीस- चालीस वर्ष पहले प्रत्येक के दिल में एक लोकभाषा और संस्कृति धड़कती थी, व कहा जाता था कि सरकारी भाषा हिन्दी किसी की मातृभाषा नहीं है। आज भले ही कालेज शिक्षित महानगरों में नौकरी करने वालों के बच्चों ने स्कूली, सिनेमाई और टीवी भाषा से सीख कर एक खिचड़ी हिन्दी को मातृभाषा मान लिया हो किंतु उनके माँ-बाप को अभी भी उनकी लोकभाषा की ध्वनि गुदगुदा देती है।
बीसवीं इक्कीसवीं शताब्दी में बुन्देलखण्ड पर लिखने वालों में कुछ नाम विशिष्ट हैं। सबसे पहले स्पष्ट कर दूं कि खड़ी बोली हिंदी के सबसे महत्वपूर्ण कवि, बुन्देलखण्ड के गौरव, मैथली शरण गुप्त अपने क्षेत्र में सबसे बुन्देली में ही बातचीत करते थे किंतु उन्होंने न तो बुन्देली में कोई यादगार रचना लिखी और न ही उनके विस्तृत लेखन में बुन्देलखण्ड का परिवेश ही झलकता है। वृन्दावन लाल वर्मा ने बुन्देली क्षेत्र की चर्चित इतिहास कथाओं को रचनाबद्ध करने का महत्वपूर्ण काम किया जिसे ऎतिहासिक खाते में डाल दिये जाने के कारण साहित्य में समुचित महत्व नहीं मिला। बुन्देलखण्ड के हरि शंकर परसाई  हिन्दी के बड़े लेखक थे। उनके दृश्य पटल पर राष्ट्रीय राजनीति और विश्व रहता था इसलिए जबलपुर के आसपास के बुन्देलखण्ड का बहुत थोड़ा समाज उनकी रचनाओं में देखने को मिलता है, [पर जो भी है वह बुन्देलखण्ड को अपने असली रंग में जीवंत करता है]। बुन्देलखण्ड का गाँव सबसे पहले ‘राग दरबारी’ उपन्यास में झलका जिसमें लंगड़ अंडरवियर की बत्तियां बनाता हुआ मिलता है। राग दरबारी के नोट्स श्रीलाल शुक्ल ने राठ में पोस्टिंग के दौरान लिये थे जो ठेठ बुन्देलखण्ड है। इस ऎतिहासिक कृति के सारे पात्र आज भी आज़ादी के बाद के बुन्देली गाँवों में देखने को मिल जायेंगे जो अपनी ऎंठ, उपहास की प्रवृत्ति, और निरंतर आलोचना के स्वभाव के साथ मौजूद हैं। इसके बाद दूसरा महत्वपूर्ण उपन्यास वीरेन्द्र जैन [दिल्ली वाले] का ‘डूब’ है जिसमें ललितपुर के आसपास का उजड़ता, साहूकारी शोषण से लुटता, पिटता बुन्देलखण्ड का ग्रामीण है जो कथित विकास का शिकार है। मैत्रेयी पुष्पा का ‘इदन्नमम’  स्मृतियों और कटु यथार्थ के सहारे झांसी से कानपुर के बीच बसे गाँवों के सामाजिक सम्बन्ध व आज़ादी के बाद बदलने में अपना बहुत कुछ खोते जा रहे गाँवों की मार्मिक कथा है। एक और महत्वपूर्ण कृति ज्ञान चतुर्वेदी की ‘बारामासी’ है जिसमें न केवल श्रीलाल शुक्ल वाला व्यंग्य मौजूद है अपितु परम्परा और आधुनिकता के बीच पिसते बुन्देली कस्बों और गाँवों के समाज का चित्रण है जो करुणा भी पैदा करता है। वैसे तो पढी जाने वाली मंचीय कविता में अनेक लोगों ने बुन्देली में लेखन किया है जो किसी भूले बचपन की नादानियों को याद करने की तरह हास्य की ओर मुड़ती चली गयी, किंतु किसी समय चतुरेश जी ने बुन्देली हास्य के सहारे सार्थक रचनाएं दीं थीं। बाद के कवियों में मुझे सीता किशोर खरे का नाम सबसे ऊपर नजर आता है जिन्होंने चम्बल सेंवढा जनपद में डकैत, पुलिस, दबंगई की राजनीति का गठजोड़ असहाय जनता का शोषण करता रहता है। टकसाली बुन्देली गीत रचनाओं का एक और अच्छा नाम मुझे याद आता है, वह जयकुमार जैन का है जो टीकमगढ के निवासी थे व म.प्र. के नापतौल विभाग में अधिकारी थे। कई वर्ष पहले वे किसी गम्भीर बीमारी का शिकार हो गये थे, उन पर कम काम हुआ है। झांसी के लक्ष्मी नारायण ‘वत्स’ ने बुन्देलखण्ड के आदिवासियों के जीवन पर कुछ अच्छे गीत लिखे हैं। छतरपुर के सोशल एक्टविस्ट रामजीलाल चतुर्वेदी ने भी कुछ यादगार रचनाएं दी हैं। बुन्देली में लिखने वाले सैकड़ों समकालीन रचनाकारों में से उपरोक्त वे लोग हैं जिन्होंने अपने समय को चित्रित किया व रचना के नाम पर पुराण कथाएं या इतिहास नहीं लिखा।
महेश कटारे सुगम की पहचान इससे ही है कि उन्होंने इस दौर की सबसे लोकप्रिय विधा गज़ल के माध्यम से टकसाली बुन्देली में ऐसी रचनाएं दी हैं जो अपने समय को अभिव्यक्त करती हैं, और सम्प्रेषणीय हैं। कह सकते हैं कि उन्होंने दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी की परम्परा को बुन्देली में आगे बढाया है। स्थानीय राजनीतिक कुचालों, पुलिस , प्रशासन, भ्रष्टाचार व सामंती समाज के अवशेषों ने किसान मजदूर को निचोड़ कर रख दिया है जिसकी शिकायत को बुन्देली मुहावरे में अभिव्यक्ति मिली है। सुगम की गज़लों में शोषित पीड़ितों की पुकार नकली नहीं लगती। ऐसा लगता है कि पीड़ितों को अपने छुपाये हथियार मिल गये हों।
जो कविता आम आदमी से दूर हो गई थी वह सुगम जैसे कवियों की रचनाओं से वापिस मिल सकती है। बोधि प्रकाशन जयपुर से कटारे जी की बुन्देली गज़लों का नया संग्रह “ अब जीवे कौ एकई चारौ” हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में 92 गज़लें संग्रहीत हैं। इन्हें पढ कर बुन्देली जीवन साकार हो जाता है। उनके कुछ शे’र प्रस्तुत हैं-
डार कान में तेल चिमाने बैठे हैं , पैरा दई नकेल चिमाने बैठे है
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जित्ते चाहे टटा लगा लो , फिंक हैं मनो, मखाने भैया
[ बुन्देलखण्ड में शवयात्रा में शव पर मखाने लुटाये जाते हैं}
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रिश्ते, पके करोंदा जैसे, नेंनू कैसे लोंदा जैसे
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काय लेत उरझेंटा ओजू, बन रये काय जरेंटा ओजू 
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 होते गर भगवान अगर तौ, कभऊं कोऊ खों कितऊं दिखाते

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629

      

मंगलवार, अप्रैल 18, 2017

फिल्म समीक्षा- बेगमजान

फिल्म समीक्षा- बेगमजान
यह बेगम जान बेजान है
वीरेन्द्र जैन

यह वह कहानी है, जो कही नहीं जा सकी। यह वह फिल्म है जो बनायी नहीं जा सकी। एक बुन्देली कहावत को संशोधित कर फिल्म ‘वो सात दिन’ में एक गीत था- अनाड़ी का खेलना, खेल का सत्यानाश। लगता है इस फिल्म के साथ भी कुछ कुछ ऐसा ही हुआ है। जिन दर्शकों ने विभाजन पर सीरियल ‘तमस’ ‘बुनियाद’ या हबीब तनवीर के निर्देशन वाला असगर वज़ाहत का नाटक – जिन लाहौर नहिं देख्या- देखा है, वे इस फिल्म को थोड़ा भी पसन्द नहीं कर सकते।
फिल्म निर्माण एक उद्योग है और ज्यादा लागत के कारण इसे व्यावसायिक स्तर पर सफल बनाने के लिए बहुत सारे निर्माता निर्देशक उसमें सतही सम्वेदनाओं वाले इतने मसाले डालने की कोशिश करते हैं कि फिल्म से सामाजिक सोद्देश्यता और कलात्मकता से सारे रिश्ते टूट जाते हैं। यह विधा पवित्र दाम्पत्य सम्बन्धों की जगह सेक्स वर्कर और ग्राहक के रिश्ते में बदल कर रह जाती है। राजकपूर और आमिर खान जैसे फिल्मकार कम ही होते हैं जो सामाजिक चेतना की फिल्में भी इतनी रोचक और कलात्मक गहराइयों के साथ बनाते हैं कि वे व्यावसायिक स्तर पर भी सफल होती हैं, समालोचकों की प्रशंसा भी पाती हैं, व राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त करती हैं।
बेगम जान, एक नायिका प्रधान फिल्म है, जिसे विभाजन की पृष्ठभूमि से जन्मी घटना के नाम पर बनाया गया है। किंतु फिल्मकार अपनी फिल्म कला के माध्यम से विभाजन के विभीषका को प्रकट करने में असमर्थ है इसलिए बहुत कुछ नरेटर से कहलवा कर बतलाता है, जिसके लिए अमिताभ बच्चन जैसे लोकप्रिय अभिनेता की आवाज का प्रयोग भी किया गया है। विद्या बालन ने कुछ फिल्मों में अच्छी भूमिकाएं निभायी हैं, किंतु इस फिल्म की नायिका के रूप में उनका चयन उपयुक्त नहीं था। पूरी फिल्म में वे ओवरएक्टिंग करती नजर आती हैं। शेष कलाकारों के लिए अपने अभिनय से चरित्र को प्रकट करने की कोई चुनौती ही नहीं थी।
फिल्म की ऎतिहासिकता इसलिए सन्दिग्ध हो जाती है कि विभाजन रेखा खींचने में गाँव और खेत तो बँट गये थे किंतु किसी मकान के बीच से बँट जाने की स्थिति आने पर उसे कठोरता पूर्वक दो हिस्सों में बाँटने की मूर्खतापूर्ण नौबत नहीं आयी थी। पूर्व पाकिस्तान में कुछ वीरान गाँव के बीच में से रास्ता निकालने की दो एक घटनाएं हुयीं थीं जिन पर बंगला में फिल्म भी बनी है। फिल्म में ऐसा भी कुछ नहीं है जो उसके समय को प्रकट करता हो। बेगमजान और उनके कोठे की लड़कियां देह प्रकट करने के लिए आज के समय के चौड़े गले के ब्लाउज पहिने नजर आती हैं, जैसे उस दौर में नहीं पहिने जाते थे। देह व्यापार करने वाली महिलाओं की देह और चेहरे पर एक विशेष तरह की मांसलता आ जाती है, जिससे उनका प्रोफेसन प्रकट होता है, जो इस फिल्म के मेकअप मैन नहीं ला सके। याद दिलाने की जरूरत नहीं कि गज़नी और दंगल के लिए आमिरखान ने अपने शरीर पर कितनी मेहनत की थी। पीके में भी कान खड़े करने के लिए उसके पीछे जो उपकरण लगाने पड़ते थे उससे उनके कान में घाव तक हो जाते थे। कलात्मक अभिव्यक्ति भी तपस्या की तरह होती है। अच्छे कलाकार अपनी भूमिका में इतने डूब जाते हैं कि उससे बाहर आने के लिए लम्बा समय छुट्टियों के रूप में बिताते हैं, तब बाहर आ पाते हैं। नसीरुद्दीन शाह, आशीष विद्यार्थी, और रजित कपूर को अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के अलावा करने के लिए इस फिल्म में कुछ नहीं था।
फिल्म में अध्यापक, सामाजिक कार्यकर्ता की भूमिका, उसका बेगमजान से इकतरफा प्रेम और उस बेमेल प्रेम के नकारे जाने पर तुरंत ही किस सीमा तक बदला लेने पर उतारू हो जाना, कहानी में ठूंसा हुआ सा लगता है। केवल हुक्का पीने के कारण विद्या बालन का कोठे की बेगम होना भी स्वाभाविक नहीं लगता। यही भूमिका मंडी फिल्म में शबाना आज़मी द्वारा कितनी परिपक्वता से निभायी गयी थी। फिल्म की लगभग हर भूमिका को कह कर बताना पड़ता है, वह प्रकट नहीं होती। विभाजन के दौर में अधिकतर राजा घोड़ा छोड़ कर कारों में चलने लगे थे। फिल्म के अंत में की गयी बन्दूकबाजी, आगजनी, लड़ाई का एकपक्षीय स्वरूप सब कुछ चालू बम्बइया फिल्मों जैसा लगता है। अगर यही सब कुछ प्रस्तुत करना था तो अच्छा होता कि वैसी ही फिल्म बना डालते। व्यावसायिक दृष्टि से ही कुछ बोल्ड सीन, कुछ बोल्ड डायलाग, और कुछ गालियां चिपकायी गयी हैं, किंतु किसी पात्र का इकलौता चुनिन्दा डायलाग भी उसकी भूमिका के साथ न्याय नहीं करता।
अंत तक आप तय नहीं कर सकते कि फिल्म निर्माता व निर्देशक सृजित मुखर्जी अपना व्यवसाय करने के अलावा क्या कहना चाहते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, अप्रैल 11, 2017

मुल्जिम और मुंसिफ का भेद मिटाती बयानबाजी

मुल्जिम और मुंसिफ का भेद मिटाती बयानबाजी  

वीरेन्द्र जैन
जब से मोदी सरकार द्वारा अपनी लोकप्रियता की कमी को दूसरे संवेदनशील मुद्दों से दबाये जाने की कोशिशें हुयीं हैं तब से राम जन्मभूमि वाले मामले को दुबारा से उभार दिया गया है। शायद यह संयोग ही हो कि सीबीआई द्वारा बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के आरोपियों के खिलाफ अपील पर माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुनः सुनवाई का आदेश दिया है। इसी दौरान उत्तर प्रदेश में राम जन्मभूमि अभियान से जुड़े योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बन जाने से इसका विवाद नया रूप ले चुका है। सुब्रम्यम स्वामी की जल्दी सुनवाई की अपील पर तो सुप्रीम कोर्ट ने पूछ ही लिया है कि- आप कौन? यह बात अलग है कि अदालत के बाहर मामले को सुलटा लेने की सलाह पर इस बड़ी अदालत की मीडिया में बहुत आलोचना हुयी है।
बाबरी मस्जिद ध्वंस के मामले की पुनर्सुनवाई पर जहाँ प्रमुख अभियुक्तों में से लालकृष्ण अडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे पार्टी के मार्गदर्शक लोग चुप हैं वहीं उमा भारती बेचैन हैं और उस बेचैनी में बेतरतीब बयानबाजी कर रही हैं। उन्होंने कहा है कि राम मन्दिर के लिए मैं फाँसी पर चढने के लिए तैयार हूं। यह बयान भले ही भक्त किस्म के भावुक लोगों में कुछ साम्प्रदायिक उत्तेजना पैदा करे किंतु तथ्यात्मक रूप से बहुत असंगत है। किसी भी आरोप पर सजा तय करने का अधिकार आरोपी को नहीं होता है अपितु आरोप साबित हो जाने पर कानून के अनुसार उसकी सजा अदालत ही तय करती है, और उसे स्वीकार करने, न करने जैसा कोई विकल्प नहीं होता। राम मन्दिर का निर्माण कोई अपराध नहीं है और उसके लिए फाँसी तो क्या किसी भी तरह की सजा का कोई कानून नहीं है। देश और अयोध्या में हजारों राम या जानकी मन्दिर हैं। राम मन्दिर निर्माण का कोई मुकदमा भी किसी अदालत में नहीं चल रहा है। जो मुकदमा चल रहा है वह भूमि के स्वामित्व का मुकदमा है। उल्लेखनीय है कि जिस स्थान पर 6 दिसम्बर 92 को तोड़ी गयी मस्जिद स्थित थी उस पर ही एक वर्ग का कभी राम जन्मभूमि मन्दिर होने का विश्वास रहा है। उनका मानना है कि उक्त मन्दिर को तोड़ कर ही बाबर ने मस्जिद बनायी थी। कई सौ साल के इस विवाद में आजादी के बाद 1949 में एक रामभक्त कलैक्टर नायर ने रात्रि में मूर्ति रखवा दी। उल्लेखनीय है कि यह कलैक्टर बाद में भारतीय जनसंघ से चुनाव लड़ कर सांसद बने थे तथा उनके निधन के बाद उनकी पत्नी सांसद बनीं। तब से ही उस सम्पत्ति पर अधिपत्य का मुकदमा चलता रहा है। उस स्थल का ताला खोलने का आदेश भी उस न्यायाधीश ने दिया था जिसकी रामभक्ति की चर्चा यह थी कि अयोध्या भूमि में प्रवेश करते ही वे कार ही में अपने जूते उतार लेते थे और अयोध्या नगर में नंगे पैर चलते थे, क्योंकि वे राम की नगरी में जूते पहिन कर चलने को पाप समझते थे। इस सब के बीच में भाजपा ने रथयात्राएं निकाल कर उस इमारत को ध्वंस के लिए धर्मभीरुओं को भावुक किया और भीड़ एकत्रित कर उसे तोड़ दिया। इस उकसावे में भाजपा के सभी नेताओं की भूमिका रही जिसमें प्रमुख भूमिका अडवाणी, उमाभारती, मुरली मनोहर जोशी, गोविन्दाचार्य, [दिवंगत] विजया राजे सिन्धिया आदि की मानी गयी। उत्तेजक नारों वाली इस यात्रा के परिणाम स्वरूप देश भर में दंगे हुये, जिससे उपजे ध्रुवीकरण का लाभ भाजपा को मिला और वे संसद में दो से दो सौ तक पहुँच गये। इस ध्रुवीकरण का सीधा लाभ काँग्रेस और समाजवादी पार्टी ने भी उठाया और बिना किसी राजनीतिक कार्य के उन्हें आतंकित और क्रुद्ध मुसलमानों के वोट थोक में मिलने लगे व जनता की समस्याएं चुनावी एजेंडों से बाहर होती गयीं। मस्जिद ध्वंस की जाँच के नाम पर लिब्राहन आयोग बैठाया गया जिसने उठने की जरूरत ही नहीं समझी और जिसे लगभग तीस बार समय विस्तार दिया गया।
लिब्राहन आयोग ने जब जाँच के दौरान सम्मन भेजे तो लम्बे समय तक उन्हें टाला गया, और जब उपस्थिति दी तो उमा भारती के उत्तरों का नमूना ही पूरी कहानी अपने आप कह देता है। जब आयोग ने पूछा कि 6 दिसम्बर के दिन क्या हुआ था तो बचपन में ही राम चरित मानस कंठस्थ कर लेने की प्रतिभा वाली उमा भारती का उत्तर था कि उन्हें कुछ याद नहीं है कि क्या हुआ था। दूसरी बार जब आयोग ने उनसे पूछा कि मस्जिद किसने तोड़ी तो उनका उत्तर था कि भगवान ने तोड़ी। जब आयोग की समझ में आ गया कि कोई नहीं चाहता कि वह अपनी रिपोर्ट दे तो उसने भी इस संवेदनशील मुद्दे को कोर्ट की तरह समय देकर समाधान वाला रास्ता अपनाना जरूरी समझा।
अब उमा भारती बाबरी मस्जिद के नाम से खड़े विवादास्पद ढाँचे को तोड़े जाने की सुनवाई को राम मन्दिर निर्माण से बदल कर बता रही हैं व कृत्य के लिए संभावित सजा को फाँसी की सजा बता कर भावुक भक्तों पर भावनात्मक दबाव बना रही हैं। वे भाजपा की राजनीति में सबसे अलग और दुस्साहसी महिला हैं, जो भाजपा की संरक्षक विजया राजे सिन्धिया द्वारा आग्रह कर पार्टी में लायी गयीं थीं। उन्हें औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने का अवसर नहीं मिला किंतु उन्होंने अपने प्रयास से कई भाषाएं और राजनीति सीखी। कभी भाजपा के थिंकटैंक माने जाने वाले गोबिन्दाचार्य को गुरु बना कर उन्होंने राजनीतिक ज्ञान प्राप्त किया। स्वभाव से मुखर और ज़िद्दी होने के कारण उन्हें चापलूसी करना सख्त नापसन्द है। यही कारण है कि भाजपा में न तो कोई कद्दावर उनका मित्र है और न ही वे किसी कद्दावर की मित्र है। सुषमा स्वराज से उनकी प्रतिद्वन्दिता को सब जानते हैं। अरुण जैटली के कारण ही उन्होंने अटल- अडवाणी को प्रैस के सामने ही खरी खोटी सुनायी थीं, और बाद में नई पार्टी बनायी थी। वैंक्य्या नायडू को उन्हीं के कारण राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देना पड़ा था। सुन्दरलाल पटवा से उनकी दुश्मनी जग जाहिर रही है, यही कारण रहा कि पटवा जी के पट-शिष्य शिवराज सिंह से उनकी कभी नहीं पटी। बाबूलाल गौर को उन्होंने ही यह सोच कर मुख्यमंत्री बनवाया था कि समय आने पर कुर्सी छोड़ देंगे पर जब उन्होंने उनके कहने पर त्यागपत्र नहीं दिया तो वे उनके विरुद्ध हो गयीं व बार बार वादा तोड़ने वाली पार्टी से निराश हो गयीं।  कैलाश जोशी का टिकिट कटवा कर उन्होंने भोपाल से लोकसभा सीट का टिकिट प्राप्त किया था। कभी नरेन्द्र मोदी को विकास पुरुष की जगह विनाश पुरुष बतलाया था। संघ के सुरेश सोनी जैसे कुछ वरिष्ठ पदाधिकारी भी उनसे खुश नहीं रहते क्योंकि दूसरे नेताओं की तरह उन्होंने खुश रखने की राजनीति नहीं की। दिग्विजय सिंह के मानहानि वाले प्रकरण में उन्हें छोड़ कर शेष नेता समझौता कर गये हैं, किंतु उन्होंने अपने स्वाभिमान को बचा कर रखा।
शायद उन्हें फिर खतरा लग रहा होगा कि भाजपा नेतृत्व उन्हें अकेला छोड़ कर कहीं अपनी अपनी मुक्ति का रास्ता न तलाश ले। हो सकता है कि ऐसी दशा में वे फिर वैसा ही बयान देकर सबको कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करें जैसा कि उन्होंने दिग्विजय सिंह मानहानि वाले मामले में दूसरे नेताओं के समझौते के बाद दिये बयान में किया था। भले ही लक्ष्मीकांत शर्मा वरिष्ठों को बचाने के अपने बयान से आगे नहीं गये हों, किंतु साध्वी वेष में रहने वाली उमा भारती शायद चुप न रहें। आखिर शिवराज सिंह चौहान के तेज विरोध के बाद भी भाजपा को उन्हें वापिस लेना पड़ा था, और मोदी को  कैबिनेट मंत्री भी बनाना पड़ा।
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, अप्रैल 04, 2017

राष्ट्रीय पार्टी और प्रादेशिक नीतियां

राष्ट्रीय पार्टी और प्रादेशिक नीतियां
वीरेन्द्र जैन

किसी राष्ट्रीय पार्टी की एक पहचान, पूरे देश में एक सी नीतियों की पक्षधरता भी होती है। उसका यही गुण उसे क्षेत्रीय पार्टियों से अलग करता है। हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन से पैदा हुयी भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस पार्टी इसी कारण से राष्ट्रीय बनी क्योंकि उसने स्वतंत्रता के बाद भी लम्बे समय तक स्वतंत्रता आन्दोलन वाले मूल्य बना कर रखे जो पूरे देश में निर्विवादित थे। सोनिया गाँधी के नेतृत्व के सवाल पर काँग्रेस से टूट कर ही एनसीपी को कई राज्यों में विभाजित हिस्सों का समर्थन मिलने के कारण राष्ट्रीय होने का दर्जा मिल गया। काँग्रेस के बाद राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा कम्युनिष्ट पार्टी को मिलता है जो अपने सिद्धांतों व आन्दोलनों में बिना जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, लिंग का भेद किये मेहनतकश वर्ग की पक्षधरता के मूल्यों पर गठित है और इस पक्षधरता में वह देश की सीमाएं को भी बाधा न मान कर दुनिया के मजदूरों को एक करने की बात करती है। सरकारी कर्मचारियों, सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों, विभिन्न भूमि सुधार आन्दोलनों से जुड़े होने के कारण इस पार्टी का चरित्र राष्ट्रीय रहा, जो दो चुनावी दलों में विभाजित होने के बाद भी जारी रहा। भले ही संसदीय चुनाव में जीती उनकी सीटों की संख्या कम रही हो किंतु उनके सदस्य और जनसंगठन कश्मीर से केरल और त्रिपुरा से राजस्थान तक एक ही एजेंडे पर काम करते हुए देखे जाते हैं। बहुजन समाज पार्टी एक आन्दोलन से शुरू हुयी थी। इसका बीज सरकारी नौकरियों में आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों की सुनिश्चित उपस्थिति से पड़ा। पहले से प्रशासन पर अधिकार जमाये सवर्णों द्वारा इस वर्ग के अधिकारों को सहन करने में विलम्ब हुआ। उनके साथ किये गये उपेक्षापूर्ण व्यवहार ने उन्हें एकजुट कर दिया, जिसने क्रमशः आगे चल कर एक राजनीतिक दल का रूप लिया किंतु सत्ता में उलझ जाने व हल्दी की गांठ पाकर पंसारी बन जाने की जल्दी ने उसे एक राज्य व एक जाति तक सीमित कर दिया। अब वे केवल तकनीकी रूप से राष्ट्रीय दल हैं। यदि वे आन्दोलन को पुनर्गठित करके पार्टी में लोकतंत्र स्थापित कर सकें तो वे फिरे से खड़े हो सकते हैं।   
इन सब के विपरीत भाजपा ऐसी पार्टी है जो राष्ट्रीय दल की मान्यता होते हुए भी ऐसी नीतियां रखती है जो राज्यवार बदलती रहती हैं। यह पार्टी एक अस्पष्ट सा राष्ट्रवाद, अव्याख्यायित हिन्दुत्व, के नाम पर हिडेन एजेंडा रख कर सत्ता के लिए किसी भी तरह के सिद्धांतहीन समझौते करने, चुनावी कूटनीतियां गढने के लिए सदैव ही तत्पर रहने वाले दल की तरह पहचानी जाती है। इस दल का उदय और विकास दूसरे संगठनों से  आयतित नेताओं और संविद सरकारों के भग्नावेषों को जोड़ने से बना है। संसद में कमजोर पड़ने पर उन्होंने एक अस्पष्ट इतिहास की घटना से उत्तेजना पैदा कर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को आधार बनाया। यही कारण रहा कि उनका विकास उन हिन्दीभाषी राज्यों में प्रमुख रूप से हुआ जहाँ राम की पूजा होती है। संकीर्णता से लाभान्वित होने की उनकी प्रवृत्ति ने कभी हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान के नारे का समर्थन किया था, जिस कारण उन्हें दक्षिण तक पहुँचने में समय लगा। उनकी ताज़ा सफलता इस बात में है कि उसके चमत्कारी नेता ने वर्षों से वंचित रहे अपने अनुयायिओं को सत्ता सुख दिला कर इतना आज्ञाकारी और भयभीत बना लिया है कि कहीं से भी कोई असहमति का स्वर सुनाई नहीं देता जबकि इन्हीं नेताओं में पहले अनुशासन की ऐसी वृत्ति देखने को नहीं मिलती थी। यह प्रवृत्ति भले ही नेताओं के हित में हो किंतु लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह है।
विधानसभा चुनावों में पूर्ण बहुमत से विजयी होने के बाद भी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चयन में भाजपा नेतृत्व को लम्बा समय लगा। ये चुनाव मुद्दा विहीन चुनाव थे व भाजपा द्वारा किसी को मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित किये बिना लड़े गये थे। स्पष्ट कार्यक्रम के अभाव में कोई नेतृत्व स्वाभाविक रूप से उभर कर सामने नहीं आया व इस दौरान लगातार कई तरह के कयास लगाये जाते रहे। कौन् नहीं जानता कि सत्तारूढ काँग्रेस का विरोध, भ्रष्टाचार के मामले में मोदी की बेदाग छवि, उग्र हिन्दुत्व का प्रदर्शन, कार्पोरेट सहयोग, कुशल चुनाव प्रबन्धन, दलबदल को भरपूर प्रोत्साहन, और अवसरवादी चुनावी समझौतों के सहारे भाजपा लोकसभा चुनाव जीती थी। किंतु यह जीत भी उसे देश की पश्चिम मध्य क्षेत्र की पार्टी से अखिल भारतीय पार्टी नहीं बना सकी थी। उत्तर-पूर्व के सात राज्यों में इसकी उपस्थिति नाममात्र की थी, बंगाल, त्रिपुरा, उड़ीसा, तामिलनाडु, केरल, कर्नाटक, व महाराष्ट्र के बड़े हिस्से में वे सफल नहीं हुये। कश्मीर में उन्होंने सत्ता के लालच में बहुत गैरसैद्धांतिक समझौता किया। बाद में असम में काँग्रेसी नेता से दलबदल करा कर वे वहाँ सरकार बना सके। यही हाल नागालेंड और मणिपुर ही नहीं गोआ और उत्तराखण्ड में भी अपनाया। उनके नेतृत्व का दबदबा इससे प्रकट हुआ कि वे सभी जगह वे केन्द्रीय नेतृत्व द्वारा तय किये गये नाम पर मुहर लगवाने में सफल रहे।
उत्तर प्रदेश में नये मुख्यमंत्री द्वारा बिना मंत्रिमण्डल की बैठक बुलाये पुरानी व्यवस्था के अनुरूप बने नियमों की ओट में नये थानेदार जैसा आतंक का प्रयास शुरू कर दिया गया है। चुनाव प्रचार के दौरान वादा किया गया था कि पहले दिन ही किसानों का सारा कर्ज माफ कर दिया जायेगा, जिसे बाद में धीरे से लघु और सीमांत किसानों तक सीमित कर दिया। यह फैसला अभी तक लागू नहीं किया जा सका है क्योंकि उनके गठबन्धन के सदस्य शिवसेना ने सवाल उठा दिया है कि किसानों की कर्ज़माफी केवल उत्तर प्रदेश तक ही क्यों, जबकि कर्ज़ से परेशान किसानों की आत्महत्या की खबरें तो महाराष्ट्र से अधिक आ रही हैं? दूसरी ओर बैंकों ने भी कर्ज़माफी से होने वाले नुकसान पर इशारा किया है। प्रश्न बहुत सही भी है, क्योंकि ऐसी घोषणाएं बिना सोचे समझे सतही जुमलेबाजियों का परिणाम होती हैं, जो यह नहीं देखतीं कि दूसरे क्षेत्रों पर इनका क्या प्रभाव पड़ेगा। इसी बीच देश के कृषि मंत्री बोल गये कि ऋण माफी का खर्च केन्द्र सरकार देगी, पर वित्त मंत्री ने कहा कि यह खर्च राज्य ही देगा
शपथ ग्रहण के ही दिन सारे बूचड़खाने बन्द करने की चुनावी गर्जना करने वाले पहले दिन केवल तीन बूचड़खानों पर ताला लगा सके जो पहले से ही बन्द थे। जिस गौहत्या की उत्तेजना के सहारे उन्होंने दूसरे राज्यों के चुनाव प्रभावित किये वहीं उनके द्वारा शासित गोआ और उत्तरपूर्व आदि राज्यों में प्रतिबन्धित तक नहीं है। यदि अवैध बूचड़खानों की बन्दी जरूरी थी तो राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात आदि के लिए भी उतनी ही जरूरी क्यों नहीं थी? वीआईपी संस्कृति का निषेध लालबत्ती की बन्दी मध्यप्रदेश में भी उतनी ही जरूरी है जहाँ भाजपा की ही सरकार है और सत्ता के दुरुपयोग की गाथाएं मीडिया घरानों का मुँह बन्द करके ही प्रकट नहीं होने दी जातीं।
जब भाजपा जेडीयू के साथ बिहार में भागीदार थी तब उन्होंने विधायक निधि समाप्त करने का महत्वपूर्ण फैसला लिया था जिसमें भाजपा की सहमति थी, किंतु इसे उन्होंने दूसरे राज्यों में लागू करने की कोशिश भी नहीं की। पंजाब में उन्होंने आतंकवादियों को सम्मानित करने वाले अकालियों का साथ दिया व राजोआना की फांसी रोकने में अकालियों के साथ खड़े रहे। इससे आतंक के खिलाफ उनके दोहरेपन के उदाहरण मिलते हैं। महाराष्ट्र के लिए इनके मानदण्ड दूसरे हैं तो गुजरात के लिए दूसरे। मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार के अलग मानदण्ड हैं, तो वरिष्ठता के लिए एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में चुनावी सम्भावनाओं के अनुरूप नियम बदलते रहते हैं।
क्या चुनाव आयोग नीतियों के आधार पर राष्ट्रीय दल की मान्यता देने के कुछ नियम बना सकता है जिसमें संविधान के उद्देश्यों और नीति निर्देशक तत्वों को ध्यान में रखा जा सके।
वीरेन्द्र जैन
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