मंगलवार, अप्रैल 18, 2017

फिल्म समीक्षा- बेगमजान

फिल्म समीक्षा- बेगमजान
यह बेगम जान बेजान है
वीरेन्द्र जैन

यह वह कहानी है, जो कही नहीं जा सकी। यह वह फिल्म है जो बनायी नहीं जा सकी। एक बुन्देली कहावत को संशोधित कर फिल्म ‘वो सात दिन’ में एक गीत था- अनाड़ी का खेलना, खेल का सत्यानाश। लगता है इस फिल्म के साथ भी कुछ कुछ ऐसा ही हुआ है। जिन दर्शकों ने विभाजन पर सीरियल ‘तमस’ ‘बुनियाद’ या हबीब तनवीर के निर्देशन वाला असगर वज़ाहत का नाटक – जिन लाहौर नहिं देख्या- देखा है, वे इस फिल्म को थोड़ा भी पसन्द नहीं कर सकते।
फिल्म निर्माण एक उद्योग है और ज्यादा लागत के कारण इसे व्यावसायिक स्तर पर सफल बनाने के लिए बहुत सारे निर्माता निर्देशक उसमें सतही सम्वेदनाओं वाले इतने मसाले डालने की कोशिश करते हैं कि फिल्म से सामाजिक सोद्देश्यता और कलात्मकता से सारे रिश्ते टूट जाते हैं। यह विधा पवित्र दाम्पत्य सम्बन्धों की जगह सेक्स वर्कर और ग्राहक के रिश्ते में बदल कर रह जाती है। राजकपूर और आमिर खान जैसे फिल्मकार कम ही होते हैं जो सामाजिक चेतना की फिल्में भी इतनी रोचक और कलात्मक गहराइयों के साथ बनाते हैं कि वे व्यावसायिक स्तर पर भी सफल होती हैं, समालोचकों की प्रशंसा भी पाती हैं, व राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त करती हैं।
बेगम जान, एक नायिका प्रधान फिल्म है, जिसे विभाजन की पृष्ठभूमि से जन्मी घटना के नाम पर बनाया गया है। किंतु फिल्मकार अपनी फिल्म कला के माध्यम से विभाजन के विभीषका को प्रकट करने में असमर्थ है इसलिए बहुत कुछ नरेटर से कहलवा कर बतलाता है, जिसके लिए अमिताभ बच्चन जैसे लोकप्रिय अभिनेता की आवाज का प्रयोग भी किया गया है। विद्या बालन ने कुछ फिल्मों में अच्छी भूमिकाएं निभायी हैं, किंतु इस फिल्म की नायिका के रूप में उनका चयन उपयुक्त नहीं था। पूरी फिल्म में वे ओवरएक्टिंग करती नजर आती हैं। शेष कलाकारों के लिए अपने अभिनय से चरित्र को प्रकट करने की कोई चुनौती ही नहीं थी।
फिल्म की ऎतिहासिकता इसलिए सन्दिग्ध हो जाती है कि विभाजन रेखा खींचने में गाँव और खेत तो बँट गये थे किंतु किसी मकान के बीच से बँट जाने की स्थिति आने पर उसे कठोरता पूर्वक दो हिस्सों में बाँटने की मूर्खतापूर्ण नौबत नहीं आयी थी। पूर्व पाकिस्तान में कुछ वीरान गाँव के बीच में से रास्ता निकालने की दो एक घटनाएं हुयीं थीं जिन पर बंगला में फिल्म भी बनी है। फिल्म में ऐसा भी कुछ नहीं है जो उसके समय को प्रकट करता हो। बेगमजान और उनके कोठे की लड़कियां देह प्रकट करने के लिए आज के समय के चौड़े गले के ब्लाउज पहिने नजर आती हैं, जैसे उस दौर में नहीं पहिने जाते थे। देह व्यापार करने वाली महिलाओं की देह और चेहरे पर एक विशेष तरह की मांसलता आ जाती है, जिससे उनका प्रोफेसन प्रकट होता है, जो इस फिल्म के मेकअप मैन नहीं ला सके। याद दिलाने की जरूरत नहीं कि गज़नी और दंगल के लिए आमिरखान ने अपने शरीर पर कितनी मेहनत की थी। पीके में भी कान खड़े करने के लिए उसके पीछे जो उपकरण लगाने पड़ते थे उससे उनके कान में घाव तक हो जाते थे। कलात्मक अभिव्यक्ति भी तपस्या की तरह होती है। अच्छे कलाकार अपनी भूमिका में इतने डूब जाते हैं कि उससे बाहर आने के लिए लम्बा समय छुट्टियों के रूप में बिताते हैं, तब बाहर आ पाते हैं। नसीरुद्दीन शाह, आशीष विद्यार्थी, और रजित कपूर को अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के अलावा करने के लिए इस फिल्म में कुछ नहीं था।
फिल्म में अध्यापक, सामाजिक कार्यकर्ता की भूमिका, उसका बेगमजान से इकतरफा प्रेम और उस बेमेल प्रेम के नकारे जाने पर तुरंत ही किस सीमा तक बदला लेने पर उतारू हो जाना, कहानी में ठूंसा हुआ सा लगता है। केवल हुक्का पीने के कारण विद्या बालन का कोठे की बेगम होना भी स्वाभाविक नहीं लगता। यही भूमिका मंडी फिल्म में शबाना आज़मी द्वारा कितनी परिपक्वता से निभायी गयी थी। फिल्म की लगभग हर भूमिका को कह कर बताना पड़ता है, वह प्रकट नहीं होती। विभाजन के दौर में अधिकतर राजा घोड़ा छोड़ कर कारों में चलने लगे थे। फिल्म के अंत में की गयी बन्दूकबाजी, आगजनी, लड़ाई का एकपक्षीय स्वरूप सब कुछ चालू बम्बइया फिल्मों जैसा लगता है। अगर यही सब कुछ प्रस्तुत करना था तो अच्छा होता कि वैसी ही फिल्म बना डालते। व्यावसायिक दृष्टि से ही कुछ बोल्ड सीन, कुछ बोल्ड डायलाग, और कुछ गालियां चिपकायी गयी हैं, किंतु किसी पात्र का इकलौता चुनिन्दा डायलाग भी उसकी भूमिका के साथ न्याय नहीं करता।
अंत तक आप तय नहीं कर सकते कि फिल्म निर्माता व निर्देशक सृजित मुखर्जी अपना व्यवसाय करने के अलावा क्या कहना चाहते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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