रविवार, अप्रैल 23, 2017

पुस्तक समीक्षा - भाषा की खोयी ताकत को याद कराती सुगम की गज़लें

बुन्देली भाषा की खोयी ताकत को याद कराती सुगम की गज़लें
वीरेन्द्र जैन

मुझे प्रभु जोशी की हिन्दी पढ कर खुशी मिलती है। वे हिन्दी की ताकत को बतलाते हैं कि वह कितनी सक्षम भाषा है। जिन विषयों पर लिखने में हिन्दी के दूसरे नामी गिरामी विश्वविद्यालयी प्रोफेसर और पत्रकार खिचड़ी भाषा का प्रयोग करने को विवश होते हैं उसी विषय पर प्रभु जोशी के लेख सहज समझ में आने वाले हिन्दी के शब्दों से अपनी बात साफ साफ समझाने में सफल होते हैं। हो सकता है कि कुछ दूसरे हिन्दी लेखक व पत्रकार भी ऐसे ही सक्षम हों, किंतु अपने सीमित अध्य्यन के आधार पर मैं उपरोक्त निष्कर्ष पर पहुँचा हूं। महेश कटारे ‘सुगम’ की गज़लें पढ कर वैसी ही ताकत का आभास बुन्देली भाषा के प्रति होता है। वे अपनी गज़लों में जिन बुन्देली शब्दों उसके परिवेश, स्वभाव, संस्कृति, व प्रवृत्तियों का चित्रण करते हैं उससे बुन्देलखण्ड के मूल निवासियों की स्मृतियां ‘लड़िया’ कर लिपटने लगती हैं।
जो भाषा अपने समय को अभिव्यक्त करने में जितनी सक्षम होगी उसका भविष्य उतना ही दूरगामी  होगा। भाषा को मरने से बचाने की जिम्मेवारी उसके लेखकों व पत्रकारों की होती है। जो लोग अपनी भाषा की ताकत को नहीं जानते वे अपनी अलग पहचान के लिए लोकभाषा में सप्रयास लिखते हुए पौराणिक काल और सामंती युग में चले जाते हैं जहाँ उनके श्याम आज के कानून की परवाह किये बिना पनघट पर राधाओं को छेड़ने लगते हैं, या उनके वीर योद्धा हाथी घोड़ों पर सवार होकर तलवारों से नये दुश्मनों के सिर काटने लगते हैं। अनेक लेखक भले ही अपने मुहल्ले में भी न जाने जाते हों किंतु उनके सपने अखिल भारतीय पहचान बनाने के होते हैं और ऐसी ही महत्वाकांक्षाओं ने लोकभाषाओं का बड़ा नुकसान किया है। लोकभाषा का लेखन सबसे पहले अपनी भाषा के व्यवहार करने वालों की पहुँच में संतुष्ट रहने की शर्त रखता है। आज भले ही हिन्दी गिने चुने नगरों में पैदा हुए बच्चों की भाषा बन गयी हो किंतु आज से तीस- चालीस वर्ष पहले प्रत्येक के दिल में एक लोकभाषा और संस्कृति धड़कती थी, व कहा जाता था कि सरकारी भाषा हिन्दी किसी की मातृभाषा नहीं है। आज भले ही कालेज शिक्षित महानगरों में नौकरी करने वालों के बच्चों ने स्कूली, सिनेमाई और टीवी भाषा से सीख कर एक खिचड़ी हिन्दी को मातृभाषा मान लिया हो किंतु उनके माँ-बाप को अभी भी उनकी लोकभाषा की ध्वनि गुदगुदा देती है।
बीसवीं इक्कीसवीं शताब्दी में बुन्देलखण्ड पर लिखने वालों में कुछ नाम विशिष्ट हैं। सबसे पहले स्पष्ट कर दूं कि खड़ी बोली हिंदी के सबसे महत्वपूर्ण कवि, बुन्देलखण्ड के गौरव, मैथली शरण गुप्त अपने क्षेत्र में सबसे बुन्देली में ही बातचीत करते थे किंतु उन्होंने न तो बुन्देली में कोई यादगार रचना लिखी और न ही उनके विस्तृत लेखन में बुन्देलखण्ड का परिवेश ही झलकता है। वृन्दावन लाल वर्मा ने बुन्देली क्षेत्र की चर्चित इतिहास कथाओं को रचनाबद्ध करने का महत्वपूर्ण काम किया जिसे ऎतिहासिक खाते में डाल दिये जाने के कारण साहित्य में समुचित महत्व नहीं मिला। बुन्देलखण्ड के हरि शंकर परसाई  हिन्दी के बड़े लेखक थे। उनके दृश्य पटल पर राष्ट्रीय राजनीति और विश्व रहता था इसलिए जबलपुर के आसपास के बुन्देलखण्ड का बहुत थोड़ा समाज उनकी रचनाओं में देखने को मिलता है, [पर जो भी है वह बुन्देलखण्ड को अपने असली रंग में जीवंत करता है]। बुन्देलखण्ड का गाँव सबसे पहले ‘राग दरबारी’ उपन्यास में झलका जिसमें लंगड़ अंडरवियर की बत्तियां बनाता हुआ मिलता है। राग दरबारी के नोट्स श्रीलाल शुक्ल ने राठ में पोस्टिंग के दौरान लिये थे जो ठेठ बुन्देलखण्ड है। इस ऎतिहासिक कृति के सारे पात्र आज भी आज़ादी के बाद के बुन्देली गाँवों में देखने को मिल जायेंगे जो अपनी ऎंठ, उपहास की प्रवृत्ति, और निरंतर आलोचना के स्वभाव के साथ मौजूद हैं। इसके बाद दूसरा महत्वपूर्ण उपन्यास वीरेन्द्र जैन [दिल्ली वाले] का ‘डूब’ है जिसमें ललितपुर के आसपास का उजड़ता, साहूकारी शोषण से लुटता, पिटता बुन्देलखण्ड का ग्रामीण है जो कथित विकास का शिकार है। मैत्रेयी पुष्पा का ‘इदन्नमम’  स्मृतियों और कटु यथार्थ के सहारे झांसी से कानपुर के बीच बसे गाँवों के सामाजिक सम्बन्ध व आज़ादी के बाद बदलने में अपना बहुत कुछ खोते जा रहे गाँवों की मार्मिक कथा है। एक और महत्वपूर्ण कृति ज्ञान चतुर्वेदी की ‘बारामासी’ है जिसमें न केवल श्रीलाल शुक्ल वाला व्यंग्य मौजूद है अपितु परम्परा और आधुनिकता के बीच पिसते बुन्देली कस्बों और गाँवों के समाज का चित्रण है जो करुणा भी पैदा करता है। वैसे तो पढी जाने वाली मंचीय कविता में अनेक लोगों ने बुन्देली में लेखन किया है जो किसी भूले बचपन की नादानियों को याद करने की तरह हास्य की ओर मुड़ती चली गयी, किंतु किसी समय चतुरेश जी ने बुन्देली हास्य के सहारे सार्थक रचनाएं दीं थीं। बाद के कवियों में मुझे सीता किशोर खरे का नाम सबसे ऊपर नजर आता है जिन्होंने चम्बल सेंवढा जनपद में डकैत, पुलिस, दबंगई की राजनीति का गठजोड़ असहाय जनता का शोषण करता रहता है। टकसाली बुन्देली गीत रचनाओं का एक और अच्छा नाम मुझे याद आता है, वह जयकुमार जैन का है जो टीकमगढ के निवासी थे व म.प्र. के नापतौल विभाग में अधिकारी थे। कई वर्ष पहले वे किसी गम्भीर बीमारी का शिकार हो गये थे, उन पर कम काम हुआ है। झांसी के लक्ष्मी नारायण ‘वत्स’ ने बुन्देलखण्ड के आदिवासियों के जीवन पर कुछ अच्छे गीत लिखे हैं। छतरपुर के सोशल एक्टविस्ट रामजीलाल चतुर्वेदी ने भी कुछ यादगार रचनाएं दी हैं। बुन्देली में लिखने वाले सैकड़ों समकालीन रचनाकारों में से उपरोक्त वे लोग हैं जिन्होंने अपने समय को चित्रित किया व रचना के नाम पर पुराण कथाएं या इतिहास नहीं लिखा।
महेश कटारे सुगम की पहचान इससे ही है कि उन्होंने इस दौर की सबसे लोकप्रिय विधा गज़ल के माध्यम से टकसाली बुन्देली में ऐसी रचनाएं दी हैं जो अपने समय को अभिव्यक्त करती हैं, और सम्प्रेषणीय हैं। कह सकते हैं कि उन्होंने दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी की परम्परा को बुन्देली में आगे बढाया है। स्थानीय राजनीतिक कुचालों, पुलिस , प्रशासन, भ्रष्टाचार व सामंती समाज के अवशेषों ने किसान मजदूर को निचोड़ कर रख दिया है जिसकी शिकायत को बुन्देली मुहावरे में अभिव्यक्ति मिली है। सुगम की गज़लों में शोषित पीड़ितों की पुकार नकली नहीं लगती। ऐसा लगता है कि पीड़ितों को अपने छुपाये हथियार मिल गये हों।
जो कविता आम आदमी से दूर हो गई थी वह सुगम जैसे कवियों की रचनाओं से वापिस मिल सकती है। बोधि प्रकाशन जयपुर से कटारे जी की बुन्देली गज़लों का नया संग्रह “ अब जीवे कौ एकई चारौ” हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में 92 गज़लें संग्रहीत हैं। इन्हें पढ कर बुन्देली जीवन साकार हो जाता है। उनके कुछ शे’र प्रस्तुत हैं-
डार कान में तेल चिमाने बैठे हैं , पैरा दई नकेल चिमाने बैठे है
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जित्ते चाहे टटा लगा लो , फिंक हैं मनो, मखाने भैया
[ बुन्देलखण्ड में शवयात्रा में शव पर मखाने लुटाये जाते हैं}
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रिश्ते, पके करोंदा जैसे, नेंनू कैसे लोंदा जैसे
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काय लेत उरझेंटा ओजू, बन रये काय जरेंटा ओजू 
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 होते गर भगवान अगर तौ, कभऊं कोऊ खों कितऊं दिखाते

वीरेन्द्र जैन
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