मंगलवार, मई 02, 2017

ईवीएम पर अविश्वास, दोराहे पर लोकतंत्र

ईवीएम पर अविश्वास, दोराहे पर लोकतंत्र

वीरेन्द्र जैन
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का विशेषण ढोने वाले देश में अबोध लोकतंत्र दोराहे पर खड़ा हो गया है और उसकी प्रचलित प्रणाली अविश्वास के घेरे में है। डाले गये वोटों का बहुमत कुर्सी पर बैठा देता है किंतु वह जन भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता प्रतीत नहीं होता। समाज की नैतिकता का खुले आम उल्लंघन करने वाले, ज्यादातर लोग जन प्रतिनिधि और शासक बन रहे हैं, क्योंकि उन्होंने डाले गये मतों का अधिकतम जुगाड़ लिया है। संविधान ने जिस आदर्श पश्चिमोन्मुख समाज की कल्पना करके लोकतंत्र के नियम बनाये हैं, उस समाज का गठन अभी बहुत दूर है। मीडिया के विश्लेषक भी उसी आदर्श के अनुसार विश्लेषण करते हैं और उनके निष्कर्ष गलत निकलते हैं। विविधिताओं से भरा हमारा देश और समाज विभिन्न तरह के खानों में बँटा हुआ है जिसका बड़ा हिस्सा इतना जड़ है कि वह परिवर्तन पसन्द नहीं करता, भले ही वह कितना भी उसके हित में हो।  
देश में एक बड़ा वर्ग अशिक्षित है। जिनके पास शिक्षा के प्रमाणपत्र हैं वे भी सुशिक्षित नहीं हैं जिनमें से अधिकतर या तो नाकारा सरकारी स्कूलों में पढ कर या नेताओं के प्राईवेट स्कूल कालेजों से डिग्रियां खरीद कर नौकरी की लाइन में लगे हुये हैं। यही कारण है कि समाज में न तो नये प्रयोग हैं न नवोन्मेष है। आज़ादी के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कोई भी बड़ी उपलब्धि हमारे खाते में नहीं आयी है और हम कभी कभी विज्ञान के नोबल पुरस्कारों वाले वैज्ञानिकों में भारतीय मूल तलाश कर खुश हो लेते हैं। जो कुछ लोग सुशिक्षित भी हैं उनमें राजनीतिक सामाजिक चेतना का अभाव है, और जिन में ऐसी चेतना भी है वे इतने अकेले पड़ जाते हैं कि ठगों की भीड़ पंचतंत्र की कथा की तरह बछड़े को बकरे में बदल देती है। जहाँ सारे मत एक समान हैं, सभी को चुनाव में उम्मीदवार बनने का अधिकार हो, और अपेक्षाकृत अधिक मत पाने वाले को विजयी घोषित करने का नियम हो, वहाँ मीडिया विश्लेषण केवल तुक्के भिड़ाने से ज्यादा क्या कर सकता है। जहाँ जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, लिंग, कार्यक्रमों और घोषणापत्रों पर भारी पड़ते हों, जहाँ चेतना सम्पन्न राजनेता पर सस्ते मनोरंजन जगत का कलाकार अधिक समर्थन पाता हो, वहाँ मूलभूत मुद्दे उठाने वालों से सतही उत्तेजना वाले नारे ही भारी पड़ेंगे। जहाँ राजनेताओं पर कोई विश्वास नहीं रह गया हो वहाँ नकदी, कम्बल, साड़ी, शराब, पंखा, टीवी, मिक्सी, जैसी तात्कालिक उपलब्धियां ही भविष्य के दूरगामी वादों से अधिक बड़ी, सार्थक व सच्ची लग सकती हैं, और अधिक मतों के खेल में लोकतंत्र के आदर्शों वाले नेताओं को प्रतिनिधित्व से वंचित कर सकती हैं।
हाल ही में सम्पन्न कुछ राज्यों और नगर निगमों के चुनावों में न जीत पाने वालों को अपनी हार हजम नहीं हुयी, तो उन्होंने प्रणाली पर सवाल नहीं उठाये क्योंकि वे खुद भी इसी प्रणाली से सत्ता सुख भोगते रहे हैं, या पाने की तमन्ना रखते हैं। यही कारण रहा कि उन्होंने ईवीएम मशीनों की प्रणाली पर सन्देह व्यक्त किया। यह सन्देह भी उन्होंने बिना किसी प्रमाण के किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि चुनाव आयुक्त ने उनके आरोपों को निरस्त कर दिया।
ईवीएम मशीनों में धाँधली का पराजित दलों का सन्देह, ईश्वर में आस्था की तरह सामने आया जिसकी उपस्थिति को आस्थावन प्रमाणित तो नहीं कर पाता किंतु उसे उसके अस्तित्व का जबरदस्त भरोसा होता है। ईवीएम में खराबी से सम्बन्धित इन दलों के भरोसे का कारण यह है, क्योंकि वे पाते हैं कि विजयी होने वाला राजनीतिक दल अपने कामों के आधार पर जीतने का सुपात्र नहीं था। ऐसा सोचते हुए वे भूल जाते हैं कि चुनाव और न्यायालय में अंतर होता है और चुनावों में निर्णायक मंडल कितनी विविधिताओं वाली मतदाता सूची से भरा होता है। इस सूची में तर्क कर्म और भावना के बीच, भावना अधिक काम करती है। मुम्बई और दिल्ली के महानगरपालिका निगमों में पूर्ववर्ती लोगों के काम उन्हें फिर से कुर्सी पर बैठाने लायक नहीं थे फिर भी वे चुने गये। मशीन में खराबी भी हो सकती है, और चिप की प्रोग्रामिंग में छेड़छाड़ भी सम्भव है किंतु यह काम सम्बन्धित बूथ के निर्वाचन अधिकारी से मिलीभगत के बाद ही सम्भव है। अब तक ऐसा कोई भी पीठासीन अधिकारी सामने नहीं आया है।
केजरीवाल ने हल्दी की गाँठ पाकर पंसारी बनना चाहा था, उनकी सोच यह थी कि काँग्रेस जिस तेजी से क्षरण की ओर अग्रसर है उसकी खाली की गयी जगह को वे भर सकते हैं, यह प्राकृतिक न्याय पर भरोसा जैसा था। संयोग से दिल्ली विधानसभा चुनाव में उनका तुक्का लग भी चुका था। किंतु किसी पार्टी के गठन में नेतृत्व के प्रति समर्पित संगठन, संसाधन, और जमीनी कार्यकर्ताओं की जो जरूरत होती है वह नदारद था। यह जानते हुए भी उन्होंने देश की सबसे चतुर चालक समर्पित कार्यकर्ताओं से भरी संसाधनों के आधिक्य वाली पार्टी को सीधी चुनौती दे डाली। यह जुआ का दाँव था. क्योंकि उनके सफल हो जाने का मतलब होता कि देश का सारा असंतोष उनके साथ जुड़ जाता। यही कारण रहा कि उनकी आधी अधूरी सरकार के काम में पचास अड़ंगे लगाये गये, उन्हें उनके गर्भ में ही मार देने की योजना तैयार की गयी। उनके विधायकों के कच्चे चिट्ठे खोल कर गिरफ्तारी के गयी। दलबदल कराया गया, और संसाधनों के सहारे चुनाव जीतने के लिए देशव्यापी पोलिंग बूथ वार कार्यकर्ताओं का नेतृत्व को तैयार किया गया। संसाधनों के सहारे ही आमसभाओं में बड़ी भीड़ जुटायी गयी, और चैनलों से लाइव टेलीकास्ट की व्यवस्थाएं की गयीं।
अब जो लोग शासन में हैं, वे सत्ता से दूर होकर नहीं रह सकते, इसके लिए किसी भी बढने वाले दल को साम, भेद, अर्थ, दण्ड, किसी भी तरह से मिटाने की कोशिश करेंगे। अब राष्ट्रीय स्तर पर कोई चुनावी दल पनप नहीं सकता। देशद्रोह, गौहत्या, आतंकवाद, ईशनिन्दा, भ्रष्टाचार, आदि किसी भी बहाने से बदनाम कर मारा जा सकता है। उसको सच प्रकट करने का मौका ही नहीं दिया जायेगा।
अडवाणी जी ने बहुत पहले ही इस आशंका को सूंघ लिया था। 
वीरेन्द्र जैन
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