मंगलवार, दिसंबर 24, 2013

मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार में मंत्रिमण्डल अयोग्य, मुख्यमंत्री योग्य

मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार में मंत्रिमण्डल अयोग्य, मुख्यमंत्री योग्य
वीरेन्द्र जैन

एक लोक कथा के अनुसार दूल्हा का एक हाथ टूटा हुआ है, सिर पर बाल नहीं हैं, सुनाई कम देता है, भेंगा है, रंग गहरा काला है पर फिर भी उसे सुन्दर बताया जा रहा है क्योंकि उसका गुणगान करने वाले बहुत वाक्पटु हैं। मध्य प्रदेश की भाजपा की सरकार के तीसरी बार चुने जाने पर ही ऐसा ही गुणगान किया जा रहा है।
      प्रदेश की सरकार को मुख्यमंत्री के नेतृत्व में एक मंत्रि परिषद चलाती है जो लोकतांत्रिक ढंग से अपने फैसले लेती है, जिसे कार्यपालिका लागू करती है। किसी भी सरकार की उपलब्धियां उसके मंत्रिमण्डल के सामूहिक प्रयास का फल माना जाता है और उसी तरह उसके अलोकप्रिय फैसलों के लिए भी पूरी मंत्रिपरिषद जिम्मेवार होती है। किंतु पिछले वर्षों से यह देखा जा रहा है कि प्रदेश की सारी प्रचारित उपलब्धियों का श्रेय मुख्यमंत्री को दिया जाने लगा है जिसके परिणाम स्वरूप जनता के कटु अनुभवों का नुकसान तो सम्बन्धित विभाग के मंत्रियों को उठाना पड़ता है और प्रचार में खर्च किये गये अटूट धन का सारा लाभ मुख्यमंत्री की छवि चमकाने में लग जाता है। गत विधान सभा चुनावों में मंत्रिपरिषद के एक तिहाई वरिष्ठ मंत्रियों की पराजय और नये मंत्रिमण्डल में कुछ पुराने मंत्रियों को स्थान न दिये जाने से जो चित्र उभरता है वह सरकार के पिछले कार्यकाल के बारे में ऐसी कहानी कहता है जो सरकारी प्रचार से भिन्न है।   
1-      प्रदेश के वित्त योजना, आर्थिक और सांख्यकी तथा वाणिज्यिक कर मंत्री श्री राघव जी से एक असामाजिक अपराध के आरोप में त्यागपत्र ले लिया गया था। त्यागपत्र देने के बाद वे गायब हो गये थे और एक मकान से पुलिस ने उन्हें तलाश कर गिरफ्तार किया था। उनके निकटतम कुछ लोग जिन पर कुछ आर्थिक अनियमिताओं के आरोप भी थे, लगातार फरार रहे और चुनावों में अपनी भाजपा सरकार बन जाने के बाद ही आत्म समर्पण किया।
2-      प्रदेश के चिकित्सा शिक्षा मंत्री अनूप मिश्रा अपना चुनाव क्षेत्र बदलने के बाद भी हार गये। उससे पहले भी वे जमीन से जुड़े एक प्रकरण में मंत्रिमण्डल से हटाये जा चुके थे और लम्बे समय तक मंत्रिमण्डल से बाहर रह कर मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की आलोचना करते रहे थे।
3-      उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा एवं कौशल विकास, संस्कृति, जनसम्पर्क, धार्मिक न्यास और धर्मस्व मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा चुनाव हार गये। उनके चुनाव हार जाने के बाद ही करोड़ों रुपयों का व्यापम घोटाला उजागर हुआ जिसके बारे में पुलिस की खोजबीन से बचने के लिए वे अंतर्ध्यान हो गये। पूर्व मुख्यमंत्री उमाभारती ने सार्वजनिक बयान में कहा कि वे मुख्यमंत्री और संग़ठन के प्रिय व्यक्तियों में से एक हैं, मेरे भाई के समान हैं अतः उन्हें फरार न रह कर उपस्थित हो जाना चाहिए।
4-      राजस्व व पुनर्वास मंत्री करण सिंह वर्मा, चुनाव हार गये।
5-      किसान कल्याण एवं कृषि विकास मंत्री राम कृष्ण कुसमारिया खुद तो चुनाव हार ही गये उनके  साथ उनके ही विभाग के राज्य मंत्री बृजेन्द्र प्रताप सिंह भी चुनाव हार गये। स्मरणीय है कि संघ से जुड़े किसान संघ ने चुनावपूर्व वर्ष में हजारों किसानों के ट्रैक्टरों के साथ मुख्यमंत्री बंगला घेर लिया था और लगातार दो दिन तक घेरे रहे थे। उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री स्वय़ं को किसान का बेटा बतलाते हैं।
6-      आदिमजाति और अनुसूचित जाति कल्याण मंत्री हरिशंकर खटीक चुनाव हार गये हैं जो स्रकार के अनुसूचित जाति और जनजातियों के मंत्रालय के काम के बारे में मतदाताओं की प्रतिक्रिया का सूचक है।
7-      पशु पालन, मछुआ कल्याण एवं मत्स्य विभाग, पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक कल्याण, नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा मंत्री अजय विश्नोई भी मतदाताओं द्वारा नकार दिये गये हैं। स्मरणीय है कि इससे पूर्व भी मंत्रिमण्डल से हटाये गये थे व उनके रिश्तेदारों के यहाँ आयकर विभाग की सर्च हो चुकी है। उनके साथ विभाग के राज्य मंत्री दशरथ सिंह भी पराजित हो गये।  
8-      सामान्य प्रशासन, नर्मदा घाटी विकास, और विमानन के राज्यमंत्री के एल अग्रवाल चुनाव हार गये हैं।
9-      किसान ही नहीं श्रमिकों के कल्याण के श्रम मंत्री जगन्नाथ सिंह को भी मतदाताओं ने हरा दिया है।     
10-   लोक निर्माण मंत्री नागेन्द्र सिंह ने तो भविष्य की सम्भावनाएं देखते हुए पहले ही हथियार डाल दिये थे और चुनाव लड़ने से ही इंकार कर दिया था।
11-   परिवहन एवं जेल मंत्री रहे जगदीश देवड़ा चुनाव तो जीत गये किंतु लक्ष्मीकांत शर्मा की तरह शिवराज सिंह का दिल नहीं जीत पाये इसलिए उन्हें नये मंत्रिमण्डल में जगह नहीं मिली।
12-   स्कूल शिक्षा मंत्री रही अर्चना चिटनीस भी नये मंत्रिमण्डल में शामिल होने की योग्यता प्रमाणित नहीं कर सकीं।
13-   महिला एवं बाल विकास मंत्री रंजना बघेल भी लाड़ली लक्ष्मी योजना और कन्यादान योजना के व्यापक प्रचार का श्रेय मुख्यमंत्री से नहीं छीन सकीं और नये मंत्रिमण्डल में जगह नहीं बना सकीं।
14-   पर्यटन, खेल और युवा कल्याण मंत्री तुकोजी राव पंवार जिन्हें पिछली बार महिला निर्वाचन अधिकारी के साथ असंयत व्यवहार के बाद भी मंत्री बना दिया गया था पर इस बार मंत्री के योग्य नहीं पाया गया।
15-   गृह परिवहन और जेल के राज्यमंत्री बार बार यह शिकायत करते रहे कि पुलिस के थानेदार तक उनकी नहीं सुनते इसलिए उन्हें मंत्रिमण्डल में न लेकर अपने रिश्तेदारों की सेवाओं के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया गया।
16-   लोक स्वास्थ और परिवार कल्याण, चिकित्सा शिक्षा, आयुष, तकनीकी शिक्षा एवं कौशल विकास जैसे मंत्रालयों के राज्य मंत्री महेन्द्र हार्डिया अपने केबिनेट मंत्री नरोत्तम मिश्रा का सहयोग नहीं कर सके इसलिए उन्हें मंत्रिमण्डल में स्थान नहीं दिया गया।
17-   वन और राजस्व विभाग में राज्यमंत्री रहे जय सिंह मरावी के मूल्यांकन ने उन्हें पुनः मंत्री बनाये जाने के योग्य नहीं पाया।
18-   नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग के राज्यमंत्री मनोहर ऊँटवाल जिनके विशेष कर्तव्य अधिकारी के व्यवहार के कारण एक व्यक्ति ने ज़हर खा लिया था मंत्रिमण्डल में स्थान नहीं पा सके।
19-   स्कूल शिक्षा मंत्री नानाभाऊ मोहोड़ भी अपनी केबिनेट मंत्री की तरह पुनः पद सुशोभित करने से वंचित रखे गये।     
   पूरे प्रदेश में झाड़ूमार जीत का दावा करने वाली पार्टी ने 51 में से 32 जिलों से कोई मंत्री नहीं बनाया है वहीं नये मंत्रिमण्डल के सात मंत्री ऐसे हैं जिन पर लोकायुक्त में प्रकरण लम्बित हैं। कहा जा रहा है कि लोकसभा चुनावों में अच्छी उपलब्धि दिखाने का चारा डाल कर मंत्रियों के कुछ पद रिक्त रखे गये हैं। देखना होगा कि इस चारे में कितने विधायक फंसते हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629


बुधवार, दिसंबर 18, 2013

आन्दोलन, पार्टी और प्रशासन के भेद व ‘आप’ का असमंजस

आन्दोलन, पार्टी और प्रशासन के भेद व ‘आप’ का असमंजस

वीरेन्द्र जैन
       दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद सरकार बनाने में आया गतिरोध भारतीय लोकतंत्र में नयी घटना है। ये इस बात का संकेत भी है कि अब कुछ ऐसा नया घट रहा है जिसे परम्परागत तरीकों से हल नहीं किया जा सकता। अब तक हमारे राजनीतिक दल किसी तरह चुनाव में वोट हस्तगत करके बहुमत के आधार पर सत्तारूढ हो जाया करते थे और स्पष्ट बहुमत न आने की दशा में भी वांछित संख्या में निर्दलीयों या दूसरे दलों के सदस्यों से समर्थन प्राप्त कर लेते थे। जिन्हें शासन करना नहीं आता था वे भी नौकरशाही के सहारे चार छह महीने खींच कर अपने अपने घर भर लेते थे, पर मौका कोई नहीं छोड़ता था। दलबदल विरोधी कानून आ जाने के बाद भी कई ऐसे छेद थे जिनमें से समर्थन देने वाले आते जाते रहते थे या त्यागपत्र देकर बहुमत की राह आसान कर देते थे। यह पहली बार हुआ है जब त्रिकोणीय मुकाबले में जीत के ऐसे आंकड़े सामने आये हैं कि सैद्धांतिक समझौता किये बिना कोई सरकार बना सकने की स्थिति में नहीं था व समझौते का अर्थ जनता के सामने नग्न हो जाने के बराबर था। आम आदमी पार्टी के सामने मुसीबत यह थी कि उसने सत्तारूढ कांग्रेस को मुख्य प्रतिद्वन्दी बताते हुये चुनाव लड़ा था और उसके प्रमुख नेता ने मुख्यमंत्री के खिलाफ चुनाव लड़ कर उन्हें हराया भी था, इसलिए वे उनके साथ तुरंत सरकार बना नहीं सकते थे व कांग्रेस से तीन गुना अधिक सीटें जीत कर विजयी होने के कारण सरकार में सम्मलित हुए बिना बाहर से समर्थन देना भी सम्भव नहीं था। भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में सामने आया था किंतु उसने अपने साम्प्रदायिक एजेंडे और मोदी जैसे नेताओं को आगे करने के कारण अपनी हालत अछूतों जैसी बना ली है जिसे उनके पुराने सहयोगी जेडी[यू] का इकलौता विधायक भी समर्थन देने पर सहमत नहीं हो सकता। यह दुर्लभ घटना है जब भाजपा सबसे बड़े दल होने के बाद भी गठबन्धन सरकार नहीं बना पायी अन्यथा उनके पास तो खरीद फरोख्त की अच्छी क्षमता और अभ्यास दोनों हैं।
       आम आदमी पार्टी का जन्म एक आन्दोलन से हुआ है, या यह कहना ज्यादा सही होगा कि एक आन्दोलन ने जनता के समर्थन को देखते हुए पार्टी बनाने, चुनाव लड़ कर विधान सभा में अपनी बात रख कर आन्दोलन को आगे बढाने का फैसला किया था। उन्हें शायद यह कल्पना भी नहीं थी कि चुनाव परिणाम उन्हें सरकार बनाने की कगार पर ला पटकेंगे। आन्दोलन करने, चुनाव लड़ने वाली पार्टी बनाने और सरकार चलाने वाली पार्टी के चरित्र में बहुत अंतर होता है। आज की बहुजन समाज पार्टी भी किसी समय एक आन्दोलन हुआ करती थी जो दलित और पिछड़ी जातियों के मानव अधिकारों को पाने, दलित समाज को आत्महीनता से उबार कर आत्म सम्मान बढाने के लक्ष्य को लेकर आगे बढी थी। यही कारण था कि उन्हें दलित समाज का व्यापक समर्थन तुरंत मिला था, पर जैसे ही वह चुनावी और सरकार बनाने वाली पार्टी में बदली तो उसका चरित्र ही बदल गया। बहुजन समाज पार्टी एक आन्दोलन से अपने समर्थन का सौदा करने वाली फर्म में बदल गयी और सत्ता के मायाजाल में उन्हीं तत्वों से सौदा करने के लिए विवश हो गयी जिनके खिलाफ उसने आन्दोलन शुरू किया था। एक राजनीतिक दल बनकर सरकार चलाने के बाद उसने उन लोगों के लिए कुछ भी नहीं किया जिनके हित के नाम पर उन्होंने आन्दोलन शुरू किया था। उनकी पार्टी पर भी उनके शत्रु समुदाय का नियंत्रण हो गया। ताजा चुनावों तक उनका समर्थन छीझ चुका है, उनकी सीटों और वोटों दोनों में गिरावट आयी है। उनके अन्ध समर्थक रहे लोग अब इस सोच के साथ अपने मतों का सौदा करने का अधिकार उन्हें नहीं देना चाहते कि अगर मतों का सौदा ही करना है तो वे स्वयं ही यह काम क्यों न करें।    
       आम आदमी पार्टी का नेतृत्व बहुजन समाज पार्टी की तुलना में अधिक शिक्षित और तकनीकी है। उसके पास दूसरों के अनुभवों से सीखने का अवसर है इसलिए अचानक सरकार बनाने का संयोग आ जाने पर खुशी की जगह उसके हाथ पाँव फूल गये। भविष्य के परिणामों की कल्पना करके उन्होंने सरकार बनाने की जल्दी करने की जगह अपने अन्दोलन को तब तक खींचना ठीक समझा जब तक उन्हें पूर्ण बहुमत मिल जाये या संसद में संतोषजनक प्रतिनिधित्व मिल जाये। विडम्बना यह है कि वे यह सच अपने मतदाताओं को नहीं बता सकते इसलिए उन्हें देर करने के लिए तरह तरह के बहाने बनाने पड़े। ये बहाने उनका पहला राजनीतिक पाठ है या कहें कि आन्दोलन से चुनावी पार्टी में बदलने का पहला कदम है। असम गण परिषद के छात्र आन्दोलन के सरकार में बदलने के बाद के अनुभवों द्वारा वे यह भी जानते हैं कि चुनावों की जीत से केवल मंत्रियों के नाम भर बदलते हैं पर व्यवस्था वही रहती है और उन्हें अपेक्षाकृत अधिक जागरूक शिक्षित मध्यमवर्ग का जो समर्थन मिला है वह व्यवस्था बदलने के लिए मिला है। सबसे बड़ा दल होते हुये भी सरकार न बना पाने से कुंठित भाजपा और पराजय से आहत कांग्रेस उन्हें जल्दी से जल्दी असफल होते देखना चाहेगी इसलिए इन दोनों ही दलों के समर्थन पर उन्हें बिल्कुल भी भरोसा नहीं है।
       आन्दोलन से सरकार बनाने का एक अनुभव कम्युनिष्टों का भी है जो कैडर आधारित संगठन होने के कारण कम से कम क्षति के शिकार हुये किंतु सरकार चलाने के बाद उनके आन्दोलन में कोई बढोत्तरी देखने को नहीं मिली। भले ही उन्होंने भ्रष्टाचार को सहन नहीं किया और चिन्हित व्यक्तियों के खिलाफ उचित समय पर कार्यवाहियां करके आरोपियों को बाहर का रास्ता दिखाया किंतु इन कार्यवाहियों का होना इस बात का प्रमाण भी है कि सरकार में आने के बाद उनके आसपास भी ऐसे लोग पैदा हुये जिन्होंने आन्दोलन को कमजोर किया। डीएमके, एआईडीएमके का आन्दोलन भी सरकार से जुड़ने के बाद समाप्त हुआ है। 
       आदर्श स्तिथि यह होगी जब आन्दोलनकारी, चुनावी पार्टी भी सफलतापूर्वक चलाने और अधिक अच्छी सरकार चला कर दिखा सकेंगे। देखना होगा कि ऐसी स्थिति कब तक निर्मित होती है।
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, दिसंबर 09, 2013

मताभिव्यक्ति और मतदान, सन्दर्भ म.प्र. विधानसभा चुनाव

मताभिव्यक्ति और मतदान, सन्दर्भ म.प्र. विधानसभा चुनाव  
वीरेन्द्र जैन

      लोकतंत्र नागरिक को मत व्यक्त करने की आजादी देता है। यही आज़ादी सरकार चुनने के लिए प्रत्येक नागरिक को आम चुनाव में मत देने का अधिकार देती है। किंतु देखा गया है कि सरकार बना कर सत्ता पर अधिकार करने की वासना पालने वाले तत्व चुनावों को ऎन केन प्रकारेण प्रभावित करने के लिए नागरिकों के स्वतंत्र विचारों को दुष्प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। ऐसे लोग मतदाता की वैचारिक स्वतंत्रता को प्रभावित कर उसे एक सौदागर बनाने के लिए प्रेरित करते हैं और इसी प्रभाव में सरल मतदाता त्वरित ठोस लाभ के लिए अपने मत चन्द रुपयों, कम्बलों, या शराब की बोतलों के बदले बेच कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पथभ्रष्ट कर देते हैं।

      गत दिनों हुये विधानसभा चुनावों में दिल्ली विधानसभा चुनाव के अंतिम दिन भाजपा नेता सुषमा स्वराज ने अपनी प्रैस कांफ्रेंस में कहा कि उन्हें विश्वास है कि दिल्ली के मतदाता आम आदमी पार्टी को वोट देकर अपना वोट व्यर्थ नहीं करेगा। उनका यह कथन अलोकतांत्रिक है क्योंकि मतदान का अर्थ अपने विचार को आकार देने वाले उम्मीदवार को समर्थन देकर अपने मत की अभिव्यक्ति करना होता है। उम्मीदवार का प्रतिनिधि के रूप में चयन तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुसार अधिक मत मिलने का सहज परिणाम होता है। यदि कोई किसी खास उम्मीदवार को जीतने वाला बता कर सरल मतदाता को भ्रमित करने की कोशिश करता है तो वह लोकतांत्रिक भावना को भ्रष्ट करता है। ओपीनियन पोल या प्रीपोल सर्वेक्षण, जो कभी कभी ही संयोग से ठीक निकल आते हैं, भी इसी तरह का भ्रम पैदा कर मतदाता को भटकाने का काम करते हैं।

      उपरोक्त विधानसभा चुनावों में यदि हम नमूने के तौर पर मध्य प्रदेश का उदाहरण लें तो हम देखते हैं कि इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने गत विधानसभा चुनावों में जीती 143 सीटों की तुलना में 22 सीटें अधिक जीतकर यह संख्या 165 तक पहुँचा ली है। दूसरी ओर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सीटें पिछले चुनाव में जीती 71 सीटों से घट कर 58 तक पहुँच गयी हैं। इन चुनावों का विश्लेषण करते हुए हमारे विद्वान समीक्षक भी चुनावी जीत को ही आधार बना कर ही कांग्रेस की नीतियों की समीक्षा कर रहे हैं जबकि चुनावों में जहाँ कोई उम्मीदवार तीस हजार वोट पाकर ही चुनाव जीत जाता है जैसे मेहगाँव से भाजपा प्रत्याशी मुकेश सिंह चौधरी तो कोई अस्सी हजार वोट पाकर भी चुनाव हार जाता है, जैसे मल्हारगढ विधानसभा क्षेत्र से काँग्रेस के श्यामलाल जोकचन्द। ये आँकड़े बताते हैं कि बहुदलीय चुनावों में जीत हार से केवल सरकार बनाने का अधिकार मिलता है। उल्लेखनीय है कि प्रदेश के इन विधानसभा चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को पिछले आम चुनाव से पचास लाख वोट अधिक मिले हैं जो कुल मतदान का 39.3% हैं और 7% अधिक हैं फिर भी उसकी सीटें कम हुयी हैं क्योंकि अधिक मतदान और गैर भाजपा गैर कांग्रेस दलों के मतों में आयी जबरदस्त गिरावट के कारण भाजपा को 48.7% वोट मिले हैं जो पिछले आम चुनावों में मिले मतों से 69 लाख अधिक हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि छह लाख उन्नीस हजार वोट नोटा अर्थात उपरोक्त में से किसी को नहीं को दिये गये हैं जो कुल मतों के लगभग दो प्रतिशत हैं। यह संख्या कम से कम दस विधायकों को औसत विजयी बनाने के बराबर है। चौबीस विधान सभा क्षेत्रों में तो जीत हार का अंतर उन चुनाव क्षेत्रों में नोटा को गये वोटों से भी कम है।

      उल्लेखनीय है कि 2012 में हुये उत्तरप्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ बहुजन समाज पार्टी को गत चुनावों की तुलना में चौंतीस लाख वोट अधिक मिले थे फिर भी वे कम सीटें पाकर सत्ताच्युत हो गये थे। इसी तरह पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनावों में बाम मोर्चा भी नौ लाख वोट अधिक पाकर भी सत्ता से दूर हो गया था।  

      अधिक सीटों की जीत के धूम धड़ाके में यह बात भुला दी जा रही है कि मध्य प्रदेश के दस मंत्री चुनाव में हार गये है ये मंत्री शिवराज मंत्रिमण्डल द्वारा बहु प्रचारित विकास के आंकड़ों के प्रमुख सूत्रधार रहे हैं। इन मंत्रियों में उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा एवं कौशल विकास, संस्कृति, जनसम्पर्क, धार्मिक न्यास और धर्मस्व मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा, चिकित्सा शिक्षा मंत्री अनूप मिश्रा, राजस्व व पुनर्वास मंत्री करण सिंह वर्मा, किसान कल्याण एवं कृषि विकास मंत्री राम कृष्ण कुसमारिया, और इसी विभाग के राज्यमंत्री बृजेन्द्र प्रताप सिंह, आदिमजातिऔर अनुसूचित जाति कल्याण मंत्री हरि शंकर खटीक, पशु पालन, मछुआ कल्याण एवं मत्सय विभाग, पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक कल्याण, नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा मंत्री अजय विश्नोई, सामान्य प्रशासन, नर्मदा घाटी विकास, और विमानन के राज्यमंत्री के.एल अग्रवाल, श्रम मंत्री जगन्नाथ सिंह, और दशरथ सिंह लोधी चुनाव हार गये हैं। लोक निर्माण मंत्री नागेन्द्र सिंह ने चुनाव लड़ने से ही इंकार कर दिया था, और वित्त, योजना, आर्थिक विकास, भोपाल गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास मंत्री राघव जी की कथा तो सब को पता ही है। जीत की संख्याओं के आगे ये मंत्रिपरिषद के सदस्यों की यह पराजय शासन के बारे में कुछ संकेत देती लगती है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।
वीरेन्द्र जैन                                                         
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शुक्रवार, दिसंबर 06, 2013

संस्मरण के. पी. सक्सेना लेखक नहीं लिक्खाड़ थे

संस्मरण
के. पी. सक्सेना लेखक नहीं लिक्खाड़ थे
वीरेन्द्र जैन
के.पी.सक्सेना नहीं रहे। उनके स्वास्थ के बारे में चिंतित कर देने वाली खबरें बहुत दिनों से आ रही थीं। प्रमुख रूप से वे पत्र पत्रिकाओं के व्यंग्य लेखक के रूप में जाने जाते रहे पर उन्होंने जब भी लिखने का जो लक्ष्य बनाया उसमें सफलता पायी। पत्रिकाओं में निरंतर सक्रिय लेखन की ललक मुझे उनके लेखन से ही मिली और इस तरह वे मेरे मार्गदर्शक रहे। उनके लेखन की मात्रा, विषय वैविध्य और निरंतरता को देख कर आश्चर्य और ईर्षा होती थी।
      एक छोटे ‘ए’ क्लास बैंक हिन्दुस्तान कमर्सियल बैंक में नौकरी करते हुये देश के कोने कोने में पन्द्रह साल के दौरान मेरे दस ट्रासफर हुये, क्योंकि इस बैंक में अधिकारियों के ट्रांसफर पूरे देश में कहीं भी हो सकते थे। इसी काल में मुझे एक बार हरदोई जिले के बेनीगंज में पदस्थ होना पड़ा जो लखनऊ के निकट था, अतः मेरी शनिवार की शाम और रविवार लखनऊ में ही गुजरता था। उस दौर के लखनऊ के समकालीन लेखकों में के पी का नाम सर्वाधिक चमकीला नाम था। वे अमीनाबाद के पास गुईन रोड पर किराये से रहते थे। लखौरी ईंटों से बना वह बड़े दरवाजे वाला घर था। उनसे पहली मुलाकात करने से पहले मैंने उन्हें जो पत्र लिखा था उसे न मिलना उन्होंने बताया था, पर उसके बाद भी मेरे नाम और लेखन से परिचित होने की जानकारी देकर उन्होंने थोड़ा सुख दिया था जिससे उनके साथ जल्दी सहज हो सका था। बाद में उन्होंने ही मुझे सूर्य कुमार पान्डेय और अनूप श्रीवास्तव आदि से मिलवाया था जिनसे बाद में लम्बा सम्पर्क और मित्रता रही। अभी बाद के दिनों में वे रामनगर में रहने लगे थे जहाँ उनके पड़ोस में नागरजी के पुत्र का मकान था और कभी कभी नागरजी भी वहाँ आते रहते थे। एक बार वे मुझे नागरजी से मिलवाने भी ले गये थे।
      वे उन दिनों लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर थे और देश के प्रमुख राज्य की राजधानी के प्रमुख स्टेशन पर कार्यरत रहते हुए भी विपुल लेखन करते थे। उन दिनों आरक्षण की आज जैसी सुविधा नहीं थी तथा मुझे ट्रेन में स्थान दिलाने की व्यवस्था उन्होंने दर्ज़नों बार की। वे यह बताना भी नहीं भूलते थे कि उनके कार्यालय की जिस कुर्सी पर मैं बैठा हूं उसी पर परसों कमलापति त्रिपाठी बैठे थे। ऐसी बातें सुन कर गर्व होता था। उन्होंने मुझे यह भी बताया था कि इतना लेखन करने के बाद भी उन्होंने कभी लेखन के लिए नौकरी से छुट्टी नहीं ली। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, नवनीत, माधुरी आदि उस समय की राष्ट्रव्यापी लोकप्रिय पारिवारिक पत्रिकाएं थीं जिनके होली. दिवाली, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, आदि अवसरों पर निकलने वाले विशेषांक के पी की रचनाओं के बिना पूरे नहीं होते थे। वे लखनऊ के दो प्रमुख दैनिक अखबारों में साप्ताहिक स्तम्भ लिखा करते थे, और देश भर की हिन्दी की प्रमुख पत्रिकाओं की माँग को पूरा करते थे। जब दूरदर्शन और इतने सारे प्राईवेट चैनल नहीं थे तब आकाशवाणी के हास्य व्यंग्य के रेडियो नाटक बहुत चाव से सुने जाते थे और के पी उनके प्रमुख लेखकों में से एक थे। बाद में उन्होंने टीवी के लिए भी लिखा। हास्य व्यंग्य के नाटकों के अलावा उन्होंने कुछ गम्भीर नाटक भी लिखे हैं जिनमें से एक पर कभी मेरे अनुजसम मित्र इंजीनियर राजेश श्रीवास्तव ने लघु फिल्म बनानी चाही थी। उनसे अनुमति लेने के लिए हम लोग उनके ग्वालियर प्रवास के दौरान प्रदीप चौबे के निवास पर गये थे पर उन्होंने यह कहते हुए अनुमति देने में असमर्थता व्यक्त की थी क्योंकि उस नाटक पर फिल्मांकन की अनुमति वे पहले ही ओमपुरी को दे चुके थे। उस नाटक के कई भाषाओं में हुए अनुवाद और उसके प्रभाव में घटित घटनाएं भी उन्होंने विस्तार से बतायी थीं जिससे उनके व्यक्तित्व के कुछ अनछुये पहलू ज्ञात हुये थे। शरद जोशी के साथ उन्होंने भी कवि सम्मेलनों में गद्य व्यंग्य पाठ प्रारम्भ किया था और अपने क्षेत्र में वर्षों सक्रिय रहे।
      बाद में वे फिल्म लेखन से जुड़े और लगान जैसी बहुचर्चित और बहुप्रशंसित फिल्म भी लिखी जो अनेक राष्ट्रीय पुरस्कार लेने के साथ आस्कर पुरस्कार तक के लिए नामित हुयी थी। पिछले दिनों में कादम्बिनी के पुराने अंक पलट रहा था तो एक अंक में मुझे केपी सक्सेना का नींबू के गुणों पर लिखा एक लेख मिला। उससे मुझे याद आया कि उन्होंने धर्मयुग में रेलवे गार्डों की चुनौतीपूर्ण कार्यपद्धति से लेकर ‘शरबत का मुहर बन्द गिलास- दशहरी आम’ तक पर मुख्य लेख लिखा था। वे वनस्पति शास्त्र में स्नातकोत्तर थे।
      लखनऊ के दौरान हुयी मुलाकातों के दौर में एक बार उन्होंने कहा था कि वे ऐसे किसी पत्र पत्रिका के लिए नहीं लिखते जो लेखक को पारिश्रमिक नहीं देती। उनका कहना था कि पत्रिका प्रकाशन के क्षेत्र में प्रकाशक को कागज़ वाला मुफ्त में कागज़ नहीं देता, कम्पोज़िंग सैटिंग वाला मुफ्त में काम नहीं करता, मुद्रक अपनी दर से भुगतान लेता है, डाकवाले अपना पूरा शुल्क वसूलते हैं और हाकर अपना कमीशन लेते हैं, तो फिर लेखक ही ऐसा क्यों रहे जो मुफ्त में अपनी रचना दे, और अपना अवमूल्यन कराये। उनके इन विचारों के प्रभाव में मैंने भी कई वर्षों तक ऐसी किसी पत्रिका के लिए नहीं लिखा जिसके परिणाम स्वरूप साहित्यिक [लघु] पत्रिकाओं से कटा रहा।
      एक बार वे अमीनाबाद में एक पत्रिका की दुकान पर अचानक मिल गये और तपाक से बोले कि बहुत दिनों से तुम्हरी कोई रचना नहीं पढी, आजकल कहाँ व्यस्त हो! विडम्बना यह थी कि उस सप्ताह और माह की अनेक प्रमुख पत्रिकाओं में मेरी रचनाएं प्रकाशित थीं जिन्हें मैंने वहीं दिखा भी दीं। फिर हँसते हुए बोले कि बुरा मत मानना मैं लिखने और नौकरी में इतना व्यस्त रहता हूं कि दूसरों की रचनाएं कम ही पढ पाता हूं, अब ये सारी रचनाएं पढूंगा।
      उनकी हस्तलिपि बहुत सुन्दर थी। बिल्कुल टंकित से छोटे सुन्दर और साफ स्पष्ट अक्षरों से उनका लिखा अलग से पहचाना जा सकता था। अपनी व्यस्तताओं के बाद भी वे पत्रों के उत्तर देने का समय निकाल लेते थे। उनके व्यंग्यों में लखनऊ की तहज़ीब उफनती थी जिनमें मिर्ज़ा नामक एक पात्र तो लखनऊ की मिलीजुली संस्कृति और मुहब्बत से सराबोर नौक झोंक का प्रतीक बन गया था। पुरस्कारों सम्मेलनों ने उनके दायित्व को बढाया और पद्मश्री मिलने के बाद उन्होंने लगान जैसी फिल्म लिखी।
      उनकी रचनाओं के संकलनों के पुस्तकाकार प्रकाशन तो बहुत हुये किंतु उन्होंने जो भी लिखा वह फुतकर ही लिखा। किताब के लिए लिखी गयी उनकी किताबें कम ही होंगीं। वे सरल, सहज, बोधगम्य और रोचक लिखते थे। उनकी रचनाएं एक बार में ही पढी जाने वाली संतुलित आकार की होती थीं। हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी और रवीन्द्र नाथ त्यागी, के बाद व्यंग्य लेखन में जो नाम आते हैं उनमें केपी का नाम प्रमुख नामों में एक है।
      श्री से. रा. यात्री की तरह ही वे अपने नाम के संक्षिप्तीकरण से इतने विख्यात थे कि बहुत ही कम लोगों को पता होगा कि के.पी का पूरा नाम कालिका प्रसाद सक्सेना था जो किसी किताब या पत्र पत्रिका में कभी नहीं लिखा गया। जब भी उनका समग्र लेखन रचनावली के रूप में प्रकाशित होगा तो वह आकार में अनेक रचनावलियों को पीछे छोड़ देगा।

वीरेन्द्र जैन
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संस्मरण---- राजेन्द्र यादव, लोकतांत्रिक, निर्भय, साहसी और तार्किक थे

संस्मरण
राजेन्द्र यादव, लोकतांत्रिक, निर्भय, साहसी और तार्किक थे

वीरेन्द्र जैन
      राजेन्द्र जी को निकट से जानने और उनके सम्पर्क में आने वालों की संख्या हजारों में तथा उनके प्रशंसकों, निन्दकों की संख्या लाखों में होगी इसलिए उन पर कुछ बहुत अलग से लिख पाने का सुपात्र मैं नहीं हूं, किंतु मैं जिस गहराई से उन्हें पसन्द करता रहा हूं, उसके आधार पर अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के लिए कुछ लिखने से अपने आप को रोक भी नहीं सकता।
      मैंने जिन तीन लेखकों के सम्पादकीय लेखों को पढ कर अपना मानस गढा है, उनमें प्रेमचन्द, कमलेश्वर, और राजेन्द्र यादव की त्रयी आती है। प्रेमचन्द ने वे सम्पादकीय बीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों के घटनाक्रम पर जागरण में लिखे थे तो कलेश्वर ने इमरजैंसी के खिलाफ बनी सरकारों के दौर में विचारहीन गठबन्धन सरकारों की कार्यप्रणाली पर सारिका में तथा बाद में स्तम्भ के रूप में विभिन्न समाचार पत्रों के लिये लिखे थे। राजेन्द्र यादव के सम्पादकीय लेख 1987 से उनके सम्पादन में पुनर्प्रकाशित हंस में प्रकाशित होते रहे हैं और उनकी धार निरंतर तीव्र से तीव्रतर होती गयी थी। कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव के लेखों का में समकालीन पाठक और प्रशंसक रहा हूं।
      मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शे’र कुछ कुछ ऐसा है-
देखिये तकरीर की लज़्ज़त कि उसने जो कहा
सुनने वाला भी ये समझे ये हमारे दिल में है
राजेन्द्रजी को पढते समय मुझे कई बार ऐसा लगता रहा है कि उन्होंने मेरे विचारों को ही शब्द दे दिये हैं। उनके बहुत कम ऐसे लेख मैंने पढे होंगे जो समझ में न आये हों या उनसे असहमति बनी हो। यही कारण रहा है कि लगातार पच्चीस वर्षों तक उनका सम्पादकीय पढने के लिए हर माह हंस के नये अंक का इंतज़ार बना रहा। सच कहने और सुनने का साहस और समझ रखने वाले वे दुर्लभ व्यक्तियों में से थे, जो अपनी बात को उसी तेवर के साथ अपने पाठकों, श्रोताओं को समझा भी सकता हो। उन्हें अपनी विचारधारा की ताकत और अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर इतना भरोसा था कि वे अपने घोर विरोधियों को उकसाते थे, उगलवाते थे, और बिना उत्तेजित हुये उनकी गलत बात को काट सकते थे। उनको पढ और सुन कर लगता था कि जो दूसरे लोग बहस से बचते हैं, उन्हें या तो अपनी विचारधारा पर भरोसा नहीं होता या उन्हें उसको प्रस्तुत करना नहीं आता है। अनेक नामधारी लोगों को उनकी बात की मार से बिलबिलाते देखा जाता रहा है। उनके सम्पादन के दौर में हंस मे सर्वाधिक बहसें चली हैं और उन बहसों में सभी पक्षों को समान अवसर मिलता रहा है। हंस और जनसत्ता ही ऐसे माध्यम रहे हैं जिनमें उनके सम्पादकों के खिलाफ भी कटुतम लिखा गया है और जो छपा भी है। पाठकों, लेखकों के निर्भीक पत्रों के लिए हंस में समुचित स्थान मिलता रहा है और उन पत्रों में भी रचना का आस्वाद व मौलिक विचारों के तेवर देखने को मिलते रहे हैं। लोकतांत्रिकता का जो प्रयोग हंस में होता रहा है उसके लिए बड़ा आत्मविश्वास चाहिये होता है, जो उनके पास था। कथाकार सत्येन कुमार या शैलेश मटियानी की गालियों को भी उनका बचकानापन सिद्ध करते हुये वे उनका मजाक बना सकते थे। जब सत्येन कुमार ने लिखा था कि जनवादी प्रगतिशील रेवड़ को एक गड़रिया हाँक रहा है तो उन्होंने उत्तर में याद दिलाया था कि वे हिन्दी के ऐसे इकलौते लेखक हैं जिनकी चार पीढियां ग्रेजुएट रही हैं और फिर भी उन्हें उनकी जाति याद दिलायी जा रही है। उन्होंने कहा था कि जिन्हें परम्परा से ऊँची जाति का स्वाभिमान मिला है उनकी प्रतिभा तो उधार की है। यही कारण था कि वे ठाकुर सत्येन कुमार को उधारीलाल कहने लगे थे।
      सचमुच यह कैसी बिडम्बना थी कि जब लोग उनकी प्रतिभा से मुकाबला नहीं कर पाते थे तो इस इक्कीसवीं सदी में भी जाति के आधार पर अपने आहत अहं को सांत्वना देते थे।
      जब शैलेश मटियानी ने अपना एक साम्प्रदायिक विचारों वाला लेख उन्हें भेजा और उसे हंस में छापने की चुनौती दी तो राजेन्द्र जी ने उस लेख को छापते हुये केवल एक टिप्पणी लगा दी थी कि इनका इतिहास मुसलमानों के आने के बाद ही शुरू होता है। इस एक टिप्पणी से शैलेश मटियानी का पूरा लेख ही हास्यास्पद हो गया था। जिन धार्मिक असहिष्णुताओं का अतिरंजित वर्णन उन्होंने उस लेख में किया था वैसी तो मुगलकाल के पूर्व के भारतीय इतिहास में भी भरी पड़ी हैं।
      6 दिसम्बर 92 के बाद जब पूरा देश और दुनिया हिन्दू कट्टरवाद को एक स्वर से गरिया रहा था तब राजेन्द्र जी ने जनवरी 93 के अंक में हंस का सम्पादकीय मुस्लिम कट्टरवाद की आलोचना से प्रारम्भ करते हुये लिखा था कि किसी भी मुल्क में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा उनके साम्प्रदायिक संगठन नहीं कर सकते क्योंकि हिंसक संघर्ष में तो बहुसंख्यकों का जीतना ही तय है। उसके लिए जरूरी है कि अल्पसंख्यक देश में एक धर्मनिरपेक्ष वातावरण को बल दें, और उनका साथ दें। शाहबानो के मामले पर पर बोट क्लब में जुटी पाँच लाख मुसलमानों की भीड़ और ईंट से ईंट बज देने की चेतावनी के प्रभाव में राजीव सरकार द्वारा कानून बदलने को भी उन्होंने 6 दिसम्बर की घटना का बड़ा कारण माना था।
      साहित्य की दुनिया में वे जड़ता नहीं आने देते थे और समय समय पर साहित्य के मठाधीशों को चुनौती देते रहते थे। एक सम्मेलन के अवसर पर उन्होंने बर्र के छत्ते में यह कह कर हाथ डाल दिया था कि ये कालेज के प्रोफेसर केवल आलोचना या कविताएं ही क्यों लिखते हैं, कहानियां क्यों नहीं लिखते क्योंकि कहानियां लिखने में जान लगती है। आलोचना तो लिखे लिखाये को लिखना है। फिर क्या था सारे प्रोफेसर अपनी सफाई देने में निरंतर हास्यास्पद होते गये और राजेन्द्र जी दूर बैठ कर मजे लेते रहे।
      मुझे उन्हें सम्मेलनों, सेमिनारों, भाषण मालाओं, में तो सुनने का मौका मिला ही पर दस पाँच बार छोटे समूहों में भी साथ बैठ कर चर्चाओं में शामिल होने का अवसर भी मिला। एक बार तो शैलेन्द्र शैली स्मृति व्याख्यान माला में मैं उनका मेजबान था और पूरे दिन उनके साथ सीधी लम्बी बातचीत हुयी जो ज़िन्दगी के यादगार अनुभवों में बनी रहेगी। तीन साल तक प्रसार भारती बोर्ड के सदस्य रहने के अलावा उन्होंने कभी किसी सरकारी तंत्र का हिस्सा बनना पसन्द नहीं किया। प्रसार भारती बोर्ड का उनका कार्यकाल भी बहुत प्रभावकारी रहा और बोर्ड के इतिहास में ढेर सारी उपलब्धियों से भरा और निर्मलतम रहा।
      अनैतिकता और दूसरी नैतिकता के भेद को भी उन्होंने जिस साहस के साथ स्पष्ट किया वैसा साहस उनसे पहले कभी किसी ने नहीं दिखाया। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, हो या ‘कामरेड का कोट’ से लेकर उदय प्रकाश की अनेक कहानियों पर महीने दर महीने चली बहसों ने परत दर परत अंधेरे की चादर को जिस तरह चीर कर संवेदनात्मक ज्ञान की जिस लालिमा के दर्शन कराये हैं, उसके लिए कभी धर्मयुग में पढा एक नवगीत याद आता है-
रामदीन अँधियारे की कुछ परतें फाड़ रहे
खुरपी लेकर मरी भैंस की खाल उतार रहे
राजेन्द्रजी ने यह दलित कर्म पूरे मन और क्षमता से किया और साहित्य के सारे कथित सवर्णों को चुनौती देते हुए किया।
      लेनिन ने कहा था कि ‘अच्छा लीडर ज्यादा अनुयायी नहीं बनाता अपितु अपने जैसे ज्यादा लीडर बनाता है।‘ राजेन्द्र जी ने अपने लोकतांत्रिक आचरणों द्वारा अपने जैसे अनेक प्रतिभावान बुद्धिजीवी, लेखक, सम्पादक, पीछे छोड़े हैं। आज हंस की परम्परा में कई पत्रिकाएं निकल रही हैं। ये लोग राजेन्द्र जी की जगह की कमी को पूरा कर रहे हैं और करेंगे। उनका काम उनके बिना भी आगे बढेगा और वे बिना भरे हुये खाली स्थान की तरह नहीं अपितु पीछे आते कारवाँ के कारण लगातार याद किये जायेंगे। इस मामले में भी वे अपने पूर्ववर्तियों और समकालीनों से भिन्न रहेंगे।

वीरेन्द्र जैन
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