शनिवार, जुलाई 28, 2012

आस्था के प्रतीकों के रहस्यपूर्ण अपमान


आस्था के प्रतीकों के रहस्यपूर्ण अपमान
वीरेन्द्र जैन
       विविध धर्मों और संस्कृतियों वाले हमारे विशाल देश में सद्भाव, सह-अस्तित्व और सहिष्णुता का वातावरण सदियों से रहा है। राज्यों के लिए होने वाले युद्धों में भी प्रत्येक सेना में हर जाति और सम्प्रदाय के सिपाही हुआ करते थे। साम्प्रदायिकता हमारे देशवासियों के मूल चरित्र में नहीं है इसलिए निहित स्वार्थों को झूठ पर झूठ बोल कर उसे पैदा करना पड़ता है। हर धर्म में सत्य बोलना प्रमुख सन्देश होता है फिर भी हर तरह की साम्प्रदायिकता को अपने धर्म के अनुयायियों को गलत बयानी करके उकसाना पड़ता है तब भोले-भाले सरल लोग उत्तेजित होकर भटकते हैं और हिंसा पर उतर आते हैं, जिसकी प्रतिक्रिया होती है और इस क्रिया प्रतिक्रिया की एक श्रंखला शुरू हो जाती है। साम्प्रदायिकता से लाभ उठाने वाले कुछ राजनीतिक दल ऎतिहासिक घटनाओं को बदलकर और तात्कालिक घटनाओं के बारे में निरंतर झूठ बोल कर एक स्थायी तनाव बनाने की कोशिश करते रहते हैं त्ताकि वे कभी भी चोरी छुपे कोई हरकत करके उस तनाव को साम्प्रदायिक दंगे में बदल सकें। साम्प्रदायिक संगठन दुष्प्रचार की संस्थाएं चलाते हैं जिसमें विशेष रूप से कोमल दिमाग  बच्चों को घेरने की कोशिश की जाती है, और उनके मन में दूसरे समुदायों से भय और उनके प्रति निरंतर नफरत बोते रहते हैं।   
       देखा गया है कि दंगे फैलाने वाले चोरी छुपे अपने समुदाय की आस्था के प्रतीकों को ही अपमानित कर देते हैं और दूसरे समुदाय के लोगों पर आरोप लगा कर उत्तेजना फैलाते हैं जिसे पूर्व से ही प्रदूषित किया हुआ दिमाग सहजता से ग्रहण कर लेता है, और दंगा हो जाता है। सरकारी एजेंसियां भी आग लगने के बाद कुँआ खोदने वाले अन्दाज में कार्यवाही करती हैं, पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। जबकि समाज को साम्प्रदायिकता से राजनीतिक लाभ उठाने वाली शक्तियों की पहचान कराने का काम उसी तरह दैनिन्दिन आधार पर किया जाना चाहिये जिस तरह से वह प्रति दिन फैलायी जा रही है। उनके मंसूबों को ही नहीं अपितु उनकी कार्यप्रणाली को भी सार्वजनिक जानकारी का विषय बनाया जाना चाहिये। किसी समय कुछ राज्यों में राष्ट्रीय एकता परिषदें बनायी गयी थीं किंतु साम्प्रदायिक दलों के हाथों में सत्ता आने के बाद या तो उन्हें समाप्त कर दिया गया या निष्क्रिय कर दिया गया। 
       आज के समय में कोई भी धर्म या समाज चोरी छुपे किसी दूसरे धर्म के आस्था के प्रतीकों को नुकसान पहुँचा कर अपने धर्म और समाज का भला नहीं कर सकता है और न ही उसका विस्तार ही कर सकता है, इसलिए किसी धर्म का सच्चा प्रचारक भी किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल या उस धर्म की पवित्र पुस्तक को चोरी छुपे  नुकसान पहुँचाने की भूल नहीं करेगा। अगर वह ऐसा करता है तो घटना से आहत समुदाय के लोग और अधिक संगठित होने लगेंगे जिससे खुद उस प्रचारक का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकेगा और पहचान लिए जाने के बाद उसके समुदाय को नुकसान ही पहुँचेगा। इतिहास में भी जिन पर अपना धर्म विस्तारित करने की कोशिश का आरोप लगाया जाता है उन्होंने कभी भी चोरी से किसी दूसरे धर्म के प्रतीकों को नुकसान पहुँचाने की कोशिश नहीं की। इसलिए आज अगर कोई चोरी से किसी धर्मस्थल, किसी पवित्र पुस्तक, किसी मूर्ति, किसी पवित्र पशु, या अन्य प्रतीकों को नुकसान पहुँचाता है तो वह निश्चित रूप से उसी समुदाय का व्यक्ति होता है जिस समुदाय के प्रतीकों को अपमानित किया गया है। यह काम वह अपने समुदाय को भयजनित उत्तेजना पैदा करके एकजुट करने और उस एकजुटता को राजनीतिक समर्थन में बदलने के लिए करता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था की अपरिपक्वता और विचार की जगह हथकण्डों की राजनीति फैलने के बाद इस तरह के काम अधिक होने लगे हैं। पाया गया है कि आम तौर पर इस तरह रात्रि में तोड़फोड़ करने वाले ही दिन में उत्तेजित भीड़ का नेतृत्व करने लगते हैं।
       साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण उस क्षेत्र विशेष के बहुसंख्यकों को लाभ पहुँचाता है इसलिए जिस चुनाव क्षेत्र में जो बहुसंख्यक होता है, उस समुदाय के राजनेताओं द्वारा ऐसी घटनाएं उनके लिए राजनीतिक लाभ का कारण बनती हैं। पिछले दिनों कर्नाटक में सरकारी कार्यालयों पर चोरी से पाकिस्तानी झंडा फहराये जाने का जोर शोर से विरोध करने वाले ही उस कार्य में लिप्त पाये गये थे। कई जगह अम्बेडकर की मूर्ति को चोरी से नुकसान पहुँचाने वाले दलित समुदाय का नेतृत्व हथियाने वाले लोग ही पाये गये हैं। हिन्दुओं के मन्दिरों को, या मुसलमानों की मस्जिदों को चोरी से नुकसान पहुँचाने वाले उसी समुदाय से जुड़े लोग पकड़े जाने की अनेक घटनाओं के बाद लगभग यह तय हो गया है कि ऐसी घटनाओं का लक्ष्य आस्था के प्रतीकों का अपमान करना नहीं अपितु लोगों को अपने स्वार्थ हल करने के लिए भड़काना अधिक होता है। इसलिए जरूरी है कि इस सच को सीधे सरल आस्थावान लोगों तक पहुँचाया जाये कि जब तक ऐसी किसी घटना के दोषियों की पहचान नहीं हो जाती तब तक अफवाहों के आधार पर कोई निष्कर्ष न निकालें।
       आजकल जगह जगह विभिन्न धर्मों, जातियों के आस्था के प्रतीक बहुतायत में स्थापित किये जाने लगे हैं जिनमें से ज्यादातर के संरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं होती है और निहित स्वार्थों द्वारा हजारों की संख्या में तो ऐसे धर्मस्थल स्थापित कर दिये गये हैं जिनमें धार्मिक कर्मकांड करने वाला भी कोई नहीं जाता। ऐसे सारे स्थलों ने संवेदनशीलता के बटनों की जगह ले ली है जिनका कभी भी दुरुपयोग सम्भव हो सकता है। इनमें से बहुत सारे तो सरकारी भूमि पर अतिक्रमण करके बनाये गये हैं और सड़कों के चौड़ीकरण या मार्गों के विस्तार में वाधा बन रहे हैं। जब भी इस अतिक्रमण को हटाया जाता है तब धर्मान्ध लोग इस कार्यवाही का विरोध करके कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा कर देते हैं। गत दिनों हर राज्य में यह समस्या सामने आयी है और कई मामलों में सुरक्षा बलों के साथ टकराहट भी हुयी है। अपनी धार्मिक आस्था के कारण ही सरकारी कर्मचारी/ अधिकारी इनके निर्माण के समय आँखें मूंदे रहते हैं। इसलिए जरूरी हो गया है कि हम सारे अस्थावान लोगों को इस बात के लिए तैयार करें कि किसी आस्था के प्रतीक को चोरी चुपके पहुँचायी गयी क्षति से उनके आदर्शों का कुछ नहीं बिगड़ता। मूर्तियां और धर्मस्थल पुनः बनाये जा सकते हैं, तथा धर्मग्रंथों की लाखों प्रतियां दुनिया में उपलब्ध हैं और वे कभी भी एक दिन के अन्दर पुनः प्रकाशित हो सकती हैं। जो इनको तोड़ने जलाने का काम चुपके चुपके कर रहा है वह स्वयं ही डरपोक है तथा जरूरी नहीं कि वह किसी दूसरे समुदाय का हो।  
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, जुलाई 19, 2012

धार्मिक संस्थाओं में संग्रहीत धन पर राष्ट्रीय बहस अपेक्षित



धार्मिक संस्थाओं में संग्रहीत धन पर राष्ट्रीय बहस अपेक्षित
वीरेन्द्र जैन
       आम तौर पर सत्ता की राजनीति करने वाले समाज के दूसरे महत्वपूर्ण पक्षों की उपेक्षा करते रहते हैं पर गत दिनों एनडीए, के अध्यक्ष  श्री शरद यादव ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण और विचारोत्तेजक बयान देते हुए कहा है कि धर्म स्थलों में जमा धन का उपयोग [कम से कम] धार्मिक कार्यों के लिए किया जाना चाहिए। ध्यान देने योग्य ये है कि वे उस गठबन्धन के अध्यक्ष हैं जिसमें धर्म की राजनीति करने वाले दलों ,अकाली, शिवसेना, और भाजपा प्रमुख घटक हैं। उनके इस बेहद महत्वपूर्ण बयान पर अभी तक किसी भी राजनीतिक दल ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है जबकि इस सुझाव पर तुरंत ही राष्ट्रव्यापी बहस छेड़े जाने की जरूरत है। निहित स्वार्थों की शातिर उदासी को तोड़ने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि लोकतंत्र का चौथा खम्भा इस बहस को आगे बढाये और दोहरे चरित्र के नेताओं से अपना पक्ष स्पष्ट करने को कहे।
       स्मरणीय है कि हमारे भक्ति काल के संत कवियों ने धार्मिक ग्रंथों से प्रेरणा लेते हुए कहा है कि-
पानी बाढो नाव में, घर में बाढे दाम
दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानौ काम ,
साँईं इतना दीजिए, जामें कुटुम्ब समाय
मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय
तब यह विचार आना सहज स्वाभाविक ही है कि ऐसी मान्यताओं से जुड़े धर्मस्थलों में योजना विहीन धन का संग्रह किसलिए? क्या यह संग्रह धर्म में निहित करुणा की भावना की मदद कर रहा है या उसे डुबो रहा है? आखिर क्यों प्रतिदिन प्रार्थना-पूजा स्थलों व धार्मिक आश्रमों से हर तरह के अपराध की खबरें आ रही हैं? हर धर्म में अपनी जरूरत से अधिक धन का एक हिस्सा जरूरतमन्दों, अशक्तों, विकलांगों, आदि को देने के निर्देश दिये गये हैं और इसे व्यवस्थित ढंग से करने के लिए ऐसा दान धार्मिक संस्थाओं को देने की परम्परा बनायी गयी ताकि वे उक्त वितरण में एक एजेंसी की भूमिका निभा सकें। दुर्भाग्यवश धर्मस्थलों पर सवार कर्मकाण्डियों ने किसी सामान्य गृहस्थ की तरह धन का संग्रह प्रारम्भ कर दिया तथा कई मामलों में वे किसी कंजूस लालची व्यापारी की तरह व्यवहार करने लगे हैं। वे उसे समाज के हित में लगाने की जगह उसे अपने वंश के वारिसों को सौंप जाना चाहते हैं। मन्दिरों का धन न केवल बैंकों की साविधि जमा योजना के अंतर्गत जमा किया जाने लगा अपितु उसे शेयर बाज़ारों में भी लगाया जा रहा है, पर जरूरतमन्दों के हित में नहीं लगाया जा रहा है। ।  
आइए देखें कि कुछ प्रमुख धर्म संस्थाओं की वार्षिक आय कितनी है-
·         तिरुमला तिरुपति देवस्थानम जिसे हिन्दीभाषी क्षेत्र में तिरुपति बालाजी के नाम से जाना जाता है, वेटिकन चर्च के बाद, दुनिया का सबसे धनी धर्मस्थल है। आज से तीन साल पहले हुयी गणना में इस देवस्थान के पास रत्नों से जड़ित आभूषणों की कीमत 5200 करोड़ है, का सालाना चढावा कई सौ करोढ से अधिक है। .
·         सिद्धि विनायक मन्दिर जो देश की वित्तीय राजधानी मुम्बई में स्थित है देश के फिल्म उद्योग और बड़े बड़े रईसों की आस्था का केन्द्र है , यह पाँच मंजिला मन्दिर अपनी भव्यता के लिए विख्यात है इसकी सालाना आमदनी तीस करोड़ रुपये है।
·         श्री माता वैष्णो देवी मन्दिर, यह मन्दिर जम्मू से करीब 50 किलोमीटर दूर कटरा में त्रिकुटा पर्वत पर स्थित है एक गुफा में है। इस मन्दिर का चढावा करीब सौ करोड़ रुपये है।
·         श्री सबरीमला मन्दिर संस्थान – ईश्वर की अपनी भूमि माने जाने वाले केरल राज्य की सहयाद्रि पर्वत माला में स्थित भगवान अयप्पा का यह मन्दिर मलयालियों का प्रमुख आस्था केन्द्र है, जिसमें नवम्बर से जनवरी तक सालाना दर्शन परिक्रमा चलती है। इसकी भी वार्षिक आमदनी 100 करोड़ से अधिक है।
·         अम्बाजी माता देवस्थान गुजरात के बनासकांठा में स्थित है जिसके ट्रस्ट के पास लगभग 40 करोड़ रुपये की वार्षिक आमदनी है। इस ट्रस्ट के पास विदेशों में बसे गुजरातियों से बहुत चढावा प्राप्त होता है।
·         पालानी देवस्थानम – तामिलनाडु के कोयम्बतूर जिले से 100 किलोमीटर दूर पालानी क्स्बे में स्थित है, इस देवस्थान में भगवान मुरुगन [शिवपुत्र कार्तिकेय] की आराधना होती है। मन्दिर के प्रबन्धन ट्रस्ट को सालाना 150 करोड़ से अधिक की आमदनी होती है। यहाँ भक्त लोग 25000 रुपये जमा करा के उसके ब्याज से प्रतिदिन अन्न दान कर धन्य महसूस करते हैं। 
       देश में सैकड़ों की संख्या में ऐसे धार्मिक स्थल हैं जहाँ प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में लोग अपने परिवारों के साथ एकत्रित होते हैं, जिनमें महिलाएं और बच्चों समेत पकी उम्र के लोग भी बहुतायत में होते हैं। अधिकांश तीर्थ स्थलों में इतने सारे लोगों के एक साथ एकत्रित होने और उस भीड़ को नियंत्रित करते हुए उन्हें अनिवार्य दैनिन्दन सुविधाएं सुनिश्चित करने की कोई व्यवस्था नहीं है, यही कारण है कि इन तीर्थ स्थलों में आये दिन दुर्घटनाएं देखने को मिलती हैं, जिनमें ज्यादातर वयोवृद्ध और महिलाएं व बच्चे मारे जाते हैं। हमारे तरह के लोकतंत्र में विचारधारा व सिद्धांतविहीन राजनैतिक दल हर तरह की भीड़ का वोट झड़वाने में स्तेमाल करना चाहते हैं इसलिए वे हर भीड़ जुटायु प्रथा को प्रोत्साहित करते हैं, पर उसमें सुधार करने की बात कभी नहीं करते। अगर धर्मस्थलों की व्यवस्थाओं और सुविधाओं में ही इस धन का का उपयोग किया जाये तो पिछले दिनों घटित दुर्घटनाओं से बचा जा सकता था जिनमें बड़ी संख्या में लोग मारे गये।
·         इस वर्ष अमरनाथ यात्रा में ही अब तक साठ से अधिक लोग मारे जा चुके हैं
·         1954 में कुम्भ यात्रा के दौरान भगदड़ मच जाने से 800 से अधिक लोग मारे गये थे
·         1989 में हरिद्वार के कुम्भ मेले में हुयी भगदड़ में 350 से अधिक तीर्थयात्री मारे गये थे
·         1999 में केरल के सबरीमाला में वार्षिक मेले के दौरान भगदड़ में 51 लोग मरे थे
·         2003 में नासिक कुम्भ में गोदावरी पर हुयी भगदड़ में लगभग 40 लोग मरे थे और 100 घायल हुए थे
·         2005 में महाराष्ट्र के सतारा में मांढरा देवी मन्दिर में भगदड़ से 350 लोग मरे थे और 200 घायल हुए थे
·         2007 में गुजरात के पावागढ में भगदड़ में 11 लोग मरे थे और 30 सेव अधिक घायल हुए थे
·         अगस्त 2008 में हिमाचल प्रदेश के नैना देवी मन्दिर में भगदड़ से 146 लोगों की म्रत्यु हो गयी थी और 200 से अधिक लोग घायल हुये थे।
·         जुलाई 2008 में पुरी में जगन्नाथ रथयात्रा में भगदड़ से छह लोग मरे थे
·         प्रतिवर्ष तीर्थयात्राओं के दौरान मरने वालों का आंकड़ा बढता ही जा रहा है
       उल्लेखनीय है कि जहाँ पर धर्मस्थलों को प्राप्त आय का समुचित उपयोग हो रहा है वहाँ की व्यवस्थाएं बहुत अच्छी हैं जिनमें तिरुपति बालाजी, स्वर्ण मन्दिर अमृतसर, कामाख्या मन्दिर असम, श्रवणबेलगोला कर्नाटक, सोमनाथ गुजरात, और राजस्थान में अज़मेर शरीफ सम्मलित है। आज से कुछ वर्ष पहले सुप्रसिद्ध लेखक पत्रकार कमलेश्वर ने सवाल उठाया था कि हिन्दुओं को क्या केवल वोटों के लिए ही एकजुट होने का आवाहन किया जाता रहेगा या उनके धर्मस्थलों में जमा धन और उसके नियंत्रण के लिए भी किसी केन्द्रीय संस्थान का विचार भी सामने आयेगा? जो लोग हिन्दुओं या किसी दूसरे धर्म के लोगों की एकजुटता का नारा लगाते हैं वे राष्ट्रीय स्तर पर उनके धर्मस्थलों और धर्म के अनुयायियों के हित में उन धर्मस्थलों में जमा धन को एक केन्द्रीय प्रबन्धन समिति के अंतर्गत लाने और जरूरतमन्दों के हित में लगाने की बात क्यों नहीं करते?
       क्या शरद यादव अपने गठबन्धन के साथियों से इस विषय पर चर्चा करेंगे या केवल बयान देकर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेंगे। स्मरणीय है कि गान्धीजी केवल स्वतंत्रता की लड़ाई ही नहीं लड़ रहे थे अपितु, दलितों की बराबरी, कुष्ट रोगियों की सेवा, नशाबन्दी, साम्प्रदायिक सद्भाव आदि दर्जनों मोर्चों पर भी काम करते थे।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, जुलाई 11, 2012

आपका कथन सच नहीं है अडवाणीजी


आपका कथन सच नहीं है अडवाणीजी 

वीरेन्द्र जैन
       

 आदरणीय अडवाणीजी देश के सवसे चतुर नेताओं में से एक हैं और बहुत ही सही समय पर कूटनीतिक कदम उठाते हैं. वे कई बार ऐसे मुद्दे छेड़्ते हैं जिस पर आयी तीव्र प्रतिक्रिया का वार उनके प्रतिद्वन्दी को झेलना पड़्ता है. पिछले दिनों अडवाणीजी ने भाजपा में प्रधानमंत्री पद के अपने प्रतिद्वन्दी नरेन्द्र मोदी के पक्ष में बयान देते हुए गोलमाल तरीके से कहा कि जितना गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को बदनाम किया गया उतना इतिहास में किसी को नहीं किया गया. वैसे तो यह बयान उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की किताब की चर्चा करते हुए कहा है कि श्री कलाम का यह कथन गलत है कि मोदी 2002 में गुजरात में हुई हत्याओं के बाद उनकी यात्रा के पक्ष नें नहीं थे, क्योंकि वे उनको लेने एयरपोर्ट पर गये और जहाँ जहाँ वे गये उनका साथ दिया और सहयोग भी किया.  अडवाणीजी खुद जानते हैं कि यह तर्क कितना लचर है क्योंकि राष्ट्रपति की यात्रा के समय सम्बन्धित प्रदेश के मुख्यमन्त्री का एयरपोर्ट पर जाना और उनके सरकारी कार्यक्रमों में साथ रहना प्रोटोकाल के अंतर्गत अनिवार्य है. उस तरह साथ रहने से मोदी के किये काम धुल नहीं जाते.
       गुजरात के गान्धीनगर से संसद में पहुँचने वाले अडवाणीजी का यह कहना कि सोची समझी साजिश और राजनीति के तहत मोदी पर हमला किया जा रहा है, एक चतुराई भरा बयान है जिसे चालाकी भरा बयान भी कहा जा सकता है. सब जानते हैं कि गुजरात के गोधरा में साबरमती एक्सप्रैस की बोगी संख्या 6 में लगी आग और उसमें दो कारसेवकों समेत 59 व्यक्तियों के जल जाने के बाद पूरे गुजरात में सरकारी संरक्षण में मुसलमानों का नरसंहार हुआ था, उस समय प्रधान मंत्री तो छोड़ दीजिए, नरेन्द्र मोदी पूरी तौर पर गुजरात के मुख्यमंत्री कद के नेता भी नहीं बने थे. जब अक्टूबर 2001 में सीधे मुख्यमंत्री पद पर श्री मोदी अवतरित हुये तब विधानसभा चुनावों के लिए कुल एक वर्ष का समय शेष था और उस समय गुजरात में भाजपा की लोकप्रियता का ग्राफ बहुत नीचे जा चुका था. यही कारण था कि केशुभाई पटेल को मुख्यमंत्री पद से हटा कर संघ के कुशल प्रचारक व समाज में ध्रुवीकरण पैदा करने में कुशल श्री नरेन्द्र मोदी को किसी भी तरह चुनाव जीतने के लिए आजमाया गया था. उस समय भाजपा की लोकप्रियता का हाल यह था कि विधायकों के रिक्त पद भरने के लिए चार विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव हुये थे जिनमें से तीन में कांग्रेस उम्मीदवार जीते थे और चौथे में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जीते थे. यह जानना रोचक होगा कि मुख्यमन्त्री रहते हुए भी मोदी की जीत उस विधायक की जीत से आधे से भी कम मतों से हुयी थी जिससे मोदी के लिए सीट खाली करवाई गयी थी. कहने का अर्थ यह है कि मोदी को जानबूझ कर बदनाम करने का कोई कारण नहीं था, क्योंकि उनके प्रधानमंत्री तो क्या अगला मुख्यमंत्री बनने के बारे में भी कोई सोच भी नहीं सकता था, सच तो यह है कि श्री अडवाणीजी की रथयात्रा के दौरान भी जो हिंसा की घटनाएं हुयीं वे किसी भी तरह से कम भयावह नहीं थीं तथा बाबरी मस्ज़िद को तोड़ने के बाद मुम्बई में जो बम विस्फोट और दंगे हुए वे भी उतने ही भयंकर थे और उनका क्षेत्र अनेक राज्यों तक फैला हुआ था, ऐसा लगता है कि श्री अडवाणी. अपने प्रधानमंत्री पद प्रतियोगी के गुजरात में घटित नरसंहार को बड़ा बता कर अपने कारनामों को घटाने का खेल खेल रहे हैं, जबकि धर्मनिरपेक्ष शक्तियों ने हमेशा ही साम्प्रदायिकता का विरोध किया है चाहे वह 1992 की हो या 1984 की।
       स्मरणीय है कि मुख्यमंत्री बनने और गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार घटित होने देने के बाद भी मोदी का व्यवहार किसी की बात पर ध्यान न देने वाले बजरंग दल के बाहुबली की तरह रहा है. उल्लेखनीय है कि संघ परिवार में संघ प्रचारक, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंगदल, भारतीय मजदूर संघ आदि 62 से अधिक संगठनों के लिए जो चयन किया जाता है उसमें बौद्धिक स्तर की विशेष भूमिका होती है. उक्त सभी संगठनों में काम लर चुके श्री मोदी ने घटनाओं के बाद मृतकों के परिवारों हेतु जो मुआवजा घोषित किया उसमें साबरमती एक्सप्रैस की बोगी नम्बर 6 में मारे गये लोगों लिए दो लाख और शेष गुजरात में मरने वालों में जिनकी लाशें मिल गयीं उनको एक एक लाख का मुआवजा घोषित किया जबकि दोनों ही मामलों में गर्वीले गुजरात के निर्दोष लोग ही मारे गये थे, अंतर केवल इतना था कि वे लोग जिस परिवार में जन्म लेने को विवश हुए थे उसी के धर्म को अपने नाम के साथ जोड़्ने लगे थे. उसी दौरान जब भारत ने ट्वेन्टी-ट्वेन्टी में विश्व कप जीता तथा राज्य सरकारों ने खिलाड़ियों को करोड़ों रूपयों के धन से पुरस्कृत कर अपनी राष्ट्रीय भावना को व्यक्त किया तब मोदी जी ने अपने भरे पूरे क्रिकेट प्रेमी राज्य के खिलाड़ियों को कुल एक एक लाख रूपये देने की घोषणा की क्योंकि उनके राज्य से खेलने वाले खिलाड़ियों के नाम इरफान पठान और यूसुफ पठान थे।
       नरेन्द्र मोदी ने हत्यारों के पक्ष नें खड़े होते हुए कहा था कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है जबकि यह स्पष्ट था कि शेष गुजरात में मारे गये और दूसरे दूसरे रूप में प्रताड़ित लोगों का गोधरा में घटित घटना से कोई सम्बन्ध नहीं था. जब इस तरह निर्मित ध्रुवीकरण का लाभ उठाने के लिए मोदी तुरंत चुनाव कराने के पक्षधर थे और चुनाव आयोग कानून और व्यवस्था के अनुसार चुनाव की तिथि को आगे बढाना चाहता था तब श्री मोदी तत्कालीन चुनाव आयुक्त लिंग्दोह के खिलाफ अनर्गल और अश्लील बयान देने पर उतर आये अपितु यह भी कहा कि यह सब कुछ वे सोनिया गान्धी के इशारे पर कर रहे हैं जिनसे शायद वे चर्च में मिलते होंगे. इतना ही नहीं  अडवाणी ने इसी दौरान उन्हें पिछले पचास साल का सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री बतलाया और अपने कारनामों पर उन जैसे नेता से शह पा अपनी चुनावी यात्राओं में श्रीमती सोनिया गान्धी और राहुल गान्धी को जर्सी गाय और बछड़ा कह कर सम्वोधित किया. उन्होंने मुसलमानों पर पाँच पत्नियाँ रखने और पच्चीस बच्चे पैदा करने का आरोप भी लगाया. सच तो यह है कि जब इस मामले पर राजधर्म पालने की सलाह देने वाले अटलजी त्यागपत्र देने वाले थे तब जसवंत सिंह ने उन्हें हाथ पकड़ कर रोका था. क्या अडवाणीजी अटलजी को भी मोदी की बदनामी करने वालों में सम्मलित करना चाहेंगे. इन घटनाओं के बाद ही एनडीए का पतन शुरू हो गया था और रामविलास पासवान, ममता बनर्जी, चन्द्रबाबू नायडू, फारूख अब्दुल्ला समेत उनके तमाम सहयोगी दलों के लोगों ने खुली आलोचना की थी व जनतादल(यू) बीजू जनता दल आदि भी खुल कर साथ नहीं दे पा रहे थे। आइ ए एस अधिकारी शर्म के मारे अपने पद से स्तीफा देने लगे थे व सारी दुनिया में थू थू हो रही थी। यह बदनामी नहीं सबकी सच्ची भावना थी.
       अडवाणीजी जिसे ऐतिहासिक बदनामी कह कर उस बदनामी को उकेरना चाहते हैं वह एक कटु सच्चाई है, जिसे अमेरिका और इंगलेंड जैसे देशों ने वीसा देने से इंकार करके संकेत दिया था. वे यह भूल रहे हैं कि मोदी ने सारे बड़े नेताओं के कहने के बाद भी अपने मंत्रि मण्डल के सदस्य रहे हरेन पंड्या को टिकिट नहीं दिया था, और बाद में उनकी हत्या हो गयी थी. उनके शोक में घर गये अडवाणीजी के सामने ही हरेन पंड्या के पिता ने चीख चीख कर मोदी को हत्या के लिए जिम्मेवार ठहराया था, क्या यह बदनामी के लिए था. मोदी के मंत्रिमण्डल को सुशोभित करने वाली महिला मंत्री को जेल जाना पड़ा और केबिनेट मंत्री को प्रदेश से बाहर होना पड़ा क्या ये भी अदालत ने उनकी बदनामी के लिए किया था? मोदी के सबसे विश्वस्त पुलिस अधिकारी को इशरत हत्याकांड में जेल भेजा जाना क्या किसी षड़यंत्र का हिस्सा है जबकि एक आईपीएस अधिकारी अपनी नौकरी और जान का खतरा मोल लेकर भी कह रहा है कि उसे 2002 में हत्यारों और लुटेरों के प्रति नरमी बरतने के निर्देश बैठक में दिये गये थे.
       महिला आयोग, अल्पसंख्यक आयोग, मानव अधिकार आयोग आदि आदि सैकड़ों संगठनों, जाँच समितियों समाचार पत्रों, सूचना माध्यमों, राजनीतिक दलों की रिपोर्टों की बात तो छोड़ ही दीजिए उनके अपने संजय जोशी और तोगड़िया भी क्या मोदी को बदनाम करना चाहते हैं या दरी के नीचे बहुत सारी गन्दगी दबी है. एक बार यह मान भी लिया जाये कि मोदी  और उनके लोग कोई जिम्मेवार नहीं थे तो एक प्रदेश के मुख्यमंत्री होने के नाते क्या अपने प्रदेश के निर्दोष लोगों के मारे जाने, घर उजाड़े जाने, धन सम्पत्ति और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को लूट कर बरबाद कर देने के बारे में आपको चिंता क्यों नहीं हुयी? इसके विपरीत कमजोर अभियोजन के कारण आरोपियों के छूट जाने पर खुशियाँ क्यों मनायी गयीं? 
       नीतीश कुमार और शिव सेना का बयान एक बार को हथकण्डा भी हो सकता है पर, क्या केशुभाई पटेल, काशीराम राणा, सुरेश मेह्ता, गोरधन झड़पिया आदि सभी गलत हैं जो कह रहे हैं कि मोदी के शासन काल में एक लाख करोड़ से अधिक के 17 घोटाले हुए हैं.               
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, जुलाई 07, 2012

पी. ए. संगमा से सहानिभूति


              पी ए संगमा जी से सहानिभूति
                                                                                   वीरेन्द्र जैन
       कुल चौबीस वर्ष की उम्र से राजनीति करने वाले श्री पी ए संगमा जी को जब लोकसभा के अध्यक्ष [1996-98]का महत्वपूर्ण पद मिला तब उनकी उम्र 49 वर्ष थी और वे इससे पहले मेघालय के मुख्यमंत्री समेत केन्द्र सरकार में उद्योग मंत्रालय[1080], वाणिज्य[1982] वाणिज्य और आपूर्ति मंत्रालय[1984], गृह मंत्रालय[1984], श्रम मंत्रालय[1986], कोयला मंत्रालय[1991-93], में राज्य मंत्री व बाद में श्रम मंत्रालय[1995], सूचना और प्रसारण मंत्रालय[1995-96] में केबिनिट मंत्री का पद सुशोभित कर चुके थे। वे 1988 में मेघालय के मुख्य मंत्री और 1990 में मेघालय विधानसभा में विपक्ष के नेता पद पर भी रह चुके हैं। डिब्रूगढ विश्वविद्यालय से  अंतर्राष्ट्रीय समबन्धों में स्नातकोत्तर श्री संगमा कानून के स्नातक भी हैं। 1973 में मेघालय प्रदेश युवा कांग्रेस के उपाध्यक्ष पद पर पहुंचे संगमा 1975 से 1980 तक प्रदेश कांग्रेस के उपाध्यक्ष पद पर रहे। 1980 से लगातार सांसद या विधायक बने रहने वाले संगमा अनेक संसदीय समितियों के सदस्य रहे हैं। वे उत्तरपूर्व के उन राज्यों से संसद में प्रतिनिधित्व करते रहे हैं जहाँ की राजनीति शेष भारत की राजनीति से कुछ भिन्न है तथा जहाँ उग्रवाद और अलगाववाद को नियंत्रित करने के लिए भारतीय सेना कुछ विशेष अधिकारों के साथ नियुक्त है। अनुसूचित जाति जनजाति की सूची में से जनजाति में आने वाले संगमा धर्म से ईसाई हैं।
       सांस्कृतिक, धार्मिक, क्षेत्रीय, और भाषायी विविधिता वाले इस देश में जब केन्द्रीय सरकार मंत्रिमण्डल में प्रतिनिधित्व देती है तो उसकी कोशिश रहती है कि सभी क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व हो ताकि राष्ट्रीय एकता को बल मिले।  मेघालय जैसे सीमांत प्रदेश से प्रतिनिधित्व करने वाले श्री संगमा को केन्द्रीय राजनीति में उपरोक्त पदों पर प्रतिष्ठित होने में उनके आरक्षित जनजाति के होने और धर्म से ईसाई होने के कारण भी अतिरिक्त प्रोत्साहन मिलना सहज स्वाभाविक है। यही कारण है कि चौबीस वर्ष की उम्र से राजनीति में प्रवेश करने के बाद उन्होंने सदैव ही किसी न किसी पद को सुशोभित किया है। गैर कांग्रेसी सरकारों के दौरान भी वे संसदीय समितियों के सम्मानीय सदस्य रहे हैं। पद पर बने रहने की आदत भी दूसरी आदतों की तरह वैसी ही होती है जिसे गलिब के शब्दों में कहें तो ‘छुटती नहीं है गालिब ये मुँह को लगी हुयी यही कारण रहा कि कांग्रेस के सत्ता से बाहर होते ही श्री संगमा ने 1999 में सोनिया गान्धी को विदेशी मूल का होने का गैर राजनीतिक भाजपाई मुद्दा उठा दिया और ऐसा ही मुद्दा उठा रहे शरद पवार के साथ मिल कर एनसीपी का गठन कर लिया, पर जब श्री पवार को चुनावों में अपेक्षित सफलता नहीं मिली तो उन्होंने श्रीमती गान्धी का नेतृत्व स्वीकारते हुए कांग्रेस के साथ गठबन्धन कर लिया। तब उनसे असहमत श्री संगमा ने स्वयं को एनसीपी का असली अध्यक्ष मानते हुए शरद पवार के साथ चुनाव चिन्ह का मुकदमा लड़ा जिसे हार जाने के बाद वे ममता बनर्जी के साथ मिल गये और नैशनल तृणमूल कांग्रेस का गठन किया। 2004 के लोकसभा चुनाव में इस पार्टी के कुल दो सदस्य जीते जिसमें से एक वे स्वयं थे। बाद में उन्होंने उसे भी छोड़ दिया और फिर से एनसीपी में सम्मलित हो गये।  2009 में उन्होंने अपनी बेटी को लोकसभा में भेजा और यूपीए में मंत्री बनवाया। दूसरी ओर यह भी सच है कि अनेक पदों पर रहने और दो वर्ष तक लोकसभा अध्यक्ष पद को सुशोभित करने के बाद भी उनकी छवि एक राष्ट्रीय नेता की नहीं बन सकी भले ही उनकी महात्वाकांक्षाएं किसी भी सीमा को मानने के लिए तैयार नहीं हुयीं।
       पिछले दिनों जब श्री संगमा ने स्वयं को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित करने का हल्का काम किया था तो उसे बहुत प्रशंसा नहीं मिली थी क्योंकि उनके अपने तत्कालीन दल एनसीपी ने उन्हें अपना उम्मीदवार नहीं बनाया था और बाद में तो एनसीपी अध्यक्ष ने सार्वजनिक रूप से बयान भी दिया कि वे यूपीए में हैं और यूपीए द्वारा चयनित उम्मीदवार का ही समर्थन करेंगे। इस घोषणा के बाद भी उनका अपनी उम्मीदवारी को वापिस न लेना तब तक हास्यास्पद सा ही रहा जब तक कि एक कूटनीतिक कदम के रूप में बीजू जनता दल के नवीन पटनायक और एआईडीएमके की जयललिता ने उनके समर्थन पर विचार करने की घोषणा न कर दी थी। संयोग से एनडीए में सहमति न बनने और जीत सुनिश्चित न होने के कारण ममता बनर्जी और भाजपा द्वार प्रस्तावित पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब ने उम्मीदवार बनने से इंकार नहीं कर दिया, और विपक्ष प्रतीकात्मक चुनावी लड़ाई लड़ने लायक भी नहीं बचा, तब स्वयं उम्मीदवार बने घूम रहे श्री संगमा पर ध्यान गया और इन दिनों भाजपा को संचालित करने वाले चतुर चालाक सुब्रम्यम स्वामी की सलाह पर विभाजित एनडीए ने संगमा का समर्थन करने का फैसला ले लिया। इस मामले में राजनीति के चाणक्य और भाजपा के पूर्व प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी श्री लाल कृष्ण अडवाणी ने साफ कहा कि इस समर्थन के पीछे बीजू जनता दल और एआईडीएमके के साथ रिश्ते बनेंगे जिससे 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए अपने गठबन्धन की जमीन बढाने में मदद मिलेगी। उनके कथन से साफ है कि वे चुनाव परिणाम की असलियत को जानते हैं और श्री संगमा की हार के बारे में आश्वस्त हैं, पर इस हार से भी वे अगली 2014 की सम्भावनाओं का रास्ता बना रहे हैं। सुब्रम्यम स्वामी एक वकील हैं और देश की लोकतांत्रिक राजनीति को कानून की बारीकियों या उसके छिद्रों से चलाना चाहते हैं। यूपीए उम्मीदवार श्री प्रणव मुखर्जी के लाभ के पद पर होने की तकनीकी सम्भावना से चुनाव को विचलित करने का दाँव उन जैसों की सलाह पर ही लगाया गया होगा।
       जब आंकड़े साथ नहीं देते तो महात्वाकांक्षाओं से घिरा व्यक्ति यथार्थवाद से दूर होकर भाग्यवादी बन जाता है यही कारण रहा होगा कि आदिवासी राष्ट्रपति के नाम पर चुनाव लड़ने वाले, धर्म से ईसाई श्री संगमा किसी हिन्दू ज्योतिषी से तीन बज कर इकतीस मिनिट का महूर्त निकलवा कर फार्म भरते हैं और मतदाताओं से आत्मा की आवाज पर वोट देने की अपील करते हैं। पत्रकारों द्वारा जीत का आधार पूछे जाने पर कहते हैं कि कोई चमत्कार होगा। दूसरी ओर आंकड़ों के आधार पर जीत के प्रति आश्वस्त प्रणव मुखर्जी कहते हैं कि उन्हें चमत्कारों पर विश्वास नहीं है।  
       सब अपनी अपनी रोटियां सेंक रहे हैं ऐसे में संगमाजी से सहानिभूति ही प्रकट की जा सकती है।
वीरेन्द्र जैन
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