गुरुवार, जुलाई 19, 2012

धार्मिक संस्थाओं में संग्रहीत धन पर राष्ट्रीय बहस अपेक्षित



धार्मिक संस्थाओं में संग्रहीत धन पर राष्ट्रीय बहस अपेक्षित
वीरेन्द्र जैन
       आम तौर पर सत्ता की राजनीति करने वाले समाज के दूसरे महत्वपूर्ण पक्षों की उपेक्षा करते रहते हैं पर गत दिनों एनडीए, के अध्यक्ष  श्री शरद यादव ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण और विचारोत्तेजक बयान देते हुए कहा है कि धर्म स्थलों में जमा धन का उपयोग [कम से कम] धार्मिक कार्यों के लिए किया जाना चाहिए। ध्यान देने योग्य ये है कि वे उस गठबन्धन के अध्यक्ष हैं जिसमें धर्म की राजनीति करने वाले दलों ,अकाली, शिवसेना, और भाजपा प्रमुख घटक हैं। उनके इस बेहद महत्वपूर्ण बयान पर अभी तक किसी भी राजनीतिक दल ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है जबकि इस सुझाव पर तुरंत ही राष्ट्रव्यापी बहस छेड़े जाने की जरूरत है। निहित स्वार्थों की शातिर उदासी को तोड़ने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि लोकतंत्र का चौथा खम्भा इस बहस को आगे बढाये और दोहरे चरित्र के नेताओं से अपना पक्ष स्पष्ट करने को कहे।
       स्मरणीय है कि हमारे भक्ति काल के संत कवियों ने धार्मिक ग्रंथों से प्रेरणा लेते हुए कहा है कि-
पानी बाढो नाव में, घर में बाढे दाम
दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानौ काम ,
साँईं इतना दीजिए, जामें कुटुम्ब समाय
मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय
तब यह विचार आना सहज स्वाभाविक ही है कि ऐसी मान्यताओं से जुड़े धर्मस्थलों में योजना विहीन धन का संग्रह किसलिए? क्या यह संग्रह धर्म में निहित करुणा की भावना की मदद कर रहा है या उसे डुबो रहा है? आखिर क्यों प्रतिदिन प्रार्थना-पूजा स्थलों व धार्मिक आश्रमों से हर तरह के अपराध की खबरें आ रही हैं? हर धर्म में अपनी जरूरत से अधिक धन का एक हिस्सा जरूरतमन्दों, अशक्तों, विकलांगों, आदि को देने के निर्देश दिये गये हैं और इसे व्यवस्थित ढंग से करने के लिए ऐसा दान धार्मिक संस्थाओं को देने की परम्परा बनायी गयी ताकि वे उक्त वितरण में एक एजेंसी की भूमिका निभा सकें। दुर्भाग्यवश धर्मस्थलों पर सवार कर्मकाण्डियों ने किसी सामान्य गृहस्थ की तरह धन का संग्रह प्रारम्भ कर दिया तथा कई मामलों में वे किसी कंजूस लालची व्यापारी की तरह व्यवहार करने लगे हैं। वे उसे समाज के हित में लगाने की जगह उसे अपने वंश के वारिसों को सौंप जाना चाहते हैं। मन्दिरों का धन न केवल बैंकों की साविधि जमा योजना के अंतर्गत जमा किया जाने लगा अपितु उसे शेयर बाज़ारों में भी लगाया जा रहा है, पर जरूरतमन्दों के हित में नहीं लगाया जा रहा है। ।  
आइए देखें कि कुछ प्रमुख धर्म संस्थाओं की वार्षिक आय कितनी है-
·         तिरुमला तिरुपति देवस्थानम जिसे हिन्दीभाषी क्षेत्र में तिरुपति बालाजी के नाम से जाना जाता है, वेटिकन चर्च के बाद, दुनिया का सबसे धनी धर्मस्थल है। आज से तीन साल पहले हुयी गणना में इस देवस्थान के पास रत्नों से जड़ित आभूषणों की कीमत 5200 करोड़ है, का सालाना चढावा कई सौ करोढ से अधिक है। .
·         सिद्धि विनायक मन्दिर जो देश की वित्तीय राजधानी मुम्बई में स्थित है देश के फिल्म उद्योग और बड़े बड़े रईसों की आस्था का केन्द्र है , यह पाँच मंजिला मन्दिर अपनी भव्यता के लिए विख्यात है इसकी सालाना आमदनी तीस करोड़ रुपये है।
·         श्री माता वैष्णो देवी मन्दिर, यह मन्दिर जम्मू से करीब 50 किलोमीटर दूर कटरा में त्रिकुटा पर्वत पर स्थित है एक गुफा में है। इस मन्दिर का चढावा करीब सौ करोड़ रुपये है।
·         श्री सबरीमला मन्दिर संस्थान – ईश्वर की अपनी भूमि माने जाने वाले केरल राज्य की सहयाद्रि पर्वत माला में स्थित भगवान अयप्पा का यह मन्दिर मलयालियों का प्रमुख आस्था केन्द्र है, जिसमें नवम्बर से जनवरी तक सालाना दर्शन परिक्रमा चलती है। इसकी भी वार्षिक आमदनी 100 करोड़ से अधिक है।
·         अम्बाजी माता देवस्थान गुजरात के बनासकांठा में स्थित है जिसके ट्रस्ट के पास लगभग 40 करोड़ रुपये की वार्षिक आमदनी है। इस ट्रस्ट के पास विदेशों में बसे गुजरातियों से बहुत चढावा प्राप्त होता है।
·         पालानी देवस्थानम – तामिलनाडु के कोयम्बतूर जिले से 100 किलोमीटर दूर पालानी क्स्बे में स्थित है, इस देवस्थान में भगवान मुरुगन [शिवपुत्र कार्तिकेय] की आराधना होती है। मन्दिर के प्रबन्धन ट्रस्ट को सालाना 150 करोड़ से अधिक की आमदनी होती है। यहाँ भक्त लोग 25000 रुपये जमा करा के उसके ब्याज से प्रतिदिन अन्न दान कर धन्य महसूस करते हैं। 
       देश में सैकड़ों की संख्या में ऐसे धार्मिक स्थल हैं जहाँ प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में लोग अपने परिवारों के साथ एकत्रित होते हैं, जिनमें महिलाएं और बच्चों समेत पकी उम्र के लोग भी बहुतायत में होते हैं। अधिकांश तीर्थ स्थलों में इतने सारे लोगों के एक साथ एकत्रित होने और उस भीड़ को नियंत्रित करते हुए उन्हें अनिवार्य दैनिन्दन सुविधाएं सुनिश्चित करने की कोई व्यवस्था नहीं है, यही कारण है कि इन तीर्थ स्थलों में आये दिन दुर्घटनाएं देखने को मिलती हैं, जिनमें ज्यादातर वयोवृद्ध और महिलाएं व बच्चे मारे जाते हैं। हमारे तरह के लोकतंत्र में विचारधारा व सिद्धांतविहीन राजनैतिक दल हर तरह की भीड़ का वोट झड़वाने में स्तेमाल करना चाहते हैं इसलिए वे हर भीड़ जुटायु प्रथा को प्रोत्साहित करते हैं, पर उसमें सुधार करने की बात कभी नहीं करते। अगर धर्मस्थलों की व्यवस्थाओं और सुविधाओं में ही इस धन का का उपयोग किया जाये तो पिछले दिनों घटित दुर्घटनाओं से बचा जा सकता था जिनमें बड़ी संख्या में लोग मारे गये।
·         इस वर्ष अमरनाथ यात्रा में ही अब तक साठ से अधिक लोग मारे जा चुके हैं
·         1954 में कुम्भ यात्रा के दौरान भगदड़ मच जाने से 800 से अधिक लोग मारे गये थे
·         1989 में हरिद्वार के कुम्भ मेले में हुयी भगदड़ में 350 से अधिक तीर्थयात्री मारे गये थे
·         1999 में केरल के सबरीमाला में वार्षिक मेले के दौरान भगदड़ में 51 लोग मरे थे
·         2003 में नासिक कुम्भ में गोदावरी पर हुयी भगदड़ में लगभग 40 लोग मरे थे और 100 घायल हुए थे
·         2005 में महाराष्ट्र के सतारा में मांढरा देवी मन्दिर में भगदड़ से 350 लोग मरे थे और 200 घायल हुए थे
·         2007 में गुजरात के पावागढ में भगदड़ में 11 लोग मरे थे और 30 सेव अधिक घायल हुए थे
·         अगस्त 2008 में हिमाचल प्रदेश के नैना देवी मन्दिर में भगदड़ से 146 लोगों की म्रत्यु हो गयी थी और 200 से अधिक लोग घायल हुये थे।
·         जुलाई 2008 में पुरी में जगन्नाथ रथयात्रा में भगदड़ से छह लोग मरे थे
·         प्रतिवर्ष तीर्थयात्राओं के दौरान मरने वालों का आंकड़ा बढता ही जा रहा है
       उल्लेखनीय है कि जहाँ पर धर्मस्थलों को प्राप्त आय का समुचित उपयोग हो रहा है वहाँ की व्यवस्थाएं बहुत अच्छी हैं जिनमें तिरुपति बालाजी, स्वर्ण मन्दिर अमृतसर, कामाख्या मन्दिर असम, श्रवणबेलगोला कर्नाटक, सोमनाथ गुजरात, और राजस्थान में अज़मेर शरीफ सम्मलित है। आज से कुछ वर्ष पहले सुप्रसिद्ध लेखक पत्रकार कमलेश्वर ने सवाल उठाया था कि हिन्दुओं को क्या केवल वोटों के लिए ही एकजुट होने का आवाहन किया जाता रहेगा या उनके धर्मस्थलों में जमा धन और उसके नियंत्रण के लिए भी किसी केन्द्रीय संस्थान का विचार भी सामने आयेगा? जो लोग हिन्दुओं या किसी दूसरे धर्म के लोगों की एकजुटता का नारा लगाते हैं वे राष्ट्रीय स्तर पर उनके धर्मस्थलों और धर्म के अनुयायियों के हित में उन धर्मस्थलों में जमा धन को एक केन्द्रीय प्रबन्धन समिति के अंतर्गत लाने और जरूरतमन्दों के हित में लगाने की बात क्यों नहीं करते?
       क्या शरद यादव अपने गठबन्धन के साथियों से इस विषय पर चर्चा करेंगे या केवल बयान देकर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेंगे। स्मरणीय है कि गान्धीजी केवल स्वतंत्रता की लड़ाई ही नहीं लड़ रहे थे अपितु, दलितों की बराबरी, कुष्ट रोगियों की सेवा, नशाबन्दी, साम्प्रदायिक सद्भाव आदि दर्जनों मोर्चों पर भी काम करते थे।
वीरेन्द्र जैन
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