गुरुवार, अगस्त 28, 2014

धर्मस्थलों के हादसे रुक सकते हैं



धर्मस्थलों के हादसे रुक सकते हैं
वीरेन्द्र जैन 

       धर्मस्थलों पर होने वाले हादसों की सूची में एक और वृद्धि हो गयी है। गत दिनों चित्रकूट के कामतानाथ मन्दिर के पास कामदगिरि में सोमवती अमावस्या के अवसर पर जुटी भीड़ में भगदड़ मच जाने से दस लोगों की मौके पर ही मृत्यु हो गयी और 25 से अधिक लोग गम्भीर रूप से घायल हो गये। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि उक्त घटना भी पिछली अनेक घटनाओं की तरह एक हिन्दू तीर्थ स्थल में  पूजा उपासना के लिए पवित्र मानी जाने वाली तिथि में उसी तरह से घटित हुयी जिस तरह से पिछली अनेक घटनाएं घटी थीं, फिर भी न तो शासन ने और न ही तीर्थस्थल के प्रबन्धकों ने ही कोई सावधानी बरती थी। इन स्थलों पर जाने वाले घटना के लिए जिम्मेवार लोगों ने भी गम्भीर अनुशासन हीनता और स्वार्थ का परिचय दिया जिस कारण से उक्त घटना घटित हुयी। ये सभी बातें गम्भीर चिंतन की माँग करती हैं क्योंकि जिस प्रदेश में ये घटना दुहरायी जा रही हैं वहाँ धर्म विशेष के आधार पर संगठित हुयी पार्टी का शासन है जो अपने राजनीतिक हित के लिए सरकारी खर्च पर वरिष्ठ नागरिकों को तीर्थ यात्रा कराने की ऐसी योजना संचालित करती है जिसकी जनता की ओर से कभी कोई माँग नहीं उठी थी।        
       कहा गया है कि जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते वे उसे दुहराने के लिए अभिशप्त होते हैं। तीर्थस्थलों पर घटने वाली घटनाओं के निरंतर दुहराव से इसकी पुष्टि होती है। इसी साल मध्य प्रदेश के  ही दतिया के रतनगढ माता मन्दिर के हादसे में 117 लोगों की मृत्यु हो गयी थी व इसके पहले-
11 फरवरी, 2013: इलाहाबाद महाकुंभ के समय रेलवे स्टेशन पर भगदड़ 36 लोगों की मौत हो गयी थी व करीब 40 लोग घायल हो गये थे।
20 नवम्बर, 2012: बिहार में भारी भीड़ के दबाव में छठ पूजा के लिए बना अस्थायी पुल टूट गया था जिससे 18 लोगों की मौत हो गयी थी व कई लोग घायल हो गये थे।
09 नवम्बर, 2011: हरिद्वार की हरकी पौड़ी के पार नीलाधरा के निकट भगदड़ मचने से 20 लोगों की मौत हो गयी थी।
14 जनवरी, 2011. केरल के धार्मिक स्थल शबरीमाला के नजदीक पुलमेदु में मची भगदड़ में कम से कम 102 श्रद्धालु मारे गए थे और 50 घायल हुये थे।
4 मार्च, 2010. उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में कृपालुजी महाराज आश्रम में प्रसाद वितरण के दौरान मची भगदड़ में 63 लोग मारे गए थे व 15 घायल हो गये थे।
3 जनवरी, 2008. आंध्र प्रदेश के दुर्गा मल्लेस्वारा मंदिर में भगदड़ मचने से पांच लोगों की जान चली गई थी।
जुलाई 2008.  ओडिशा में पुरी के जगन्नाथ यात्रा के दौरान धकापेल में छह लोग मारे गए और 12 घायल हो गए थे।
3 अगस्त, 2008 हिमाचल प्रदेश में भारी बारिश के कारण नैना देवी मंदिर की एक दीवार ढह गई, व धक्कामुक्की में 160 लोगों की मौत हो गई, जबकि 230 घायल हो गए थे।
30 सितम्बर 2008. जोधपुर में चामुंडा देवी मंदिर में किसी अफवाह से मची भगदड़ में 250 श्रद्धालुओं की मौत हो गयी थी व  60 घायल हो गये थे।
27 मार्च, 2008.  मध्य प्रदेश के करिला गांव में एक मंदिर में भगदड़ मचने से आठ श्रद्धालु मारे गए थे और 10 घायल हो गए.
अक्टूबर
2007. गुजरात के पावागढ़ में धार्मिक कार्यक्रम के दौरान 11 लोगों की जान चली गई थी.
26 जून, 2005. महाराष्ट्र के मंधार देवी मंदिर में मची भगदड़ में 350 लोगों की मौत हो गई थी और 200 घायल हो गए थे.
अगस्त
2003. महाराष्ट्र के नासिक में कुम्भ मेले में मची भगदड़ में 125 लोगों की जान चली गई थी.
       पिछले दिनों तीर्थयात्रा के दौरान वाहनों की दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या भी आश्चर्यजनक रूप से बढी है, जिसके लिए बढते वाहन और दिन प्रतिदिन खराब होती सड़कें ही नहीं अपितु ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन में बढते भ्रष्टाचार से संरक्षित खराब परिवहन व्यवस्था भी जिम्मेवार है।
       जब आगे निकलने की होड़ से जनित ऐसी दुर्घटनाएं धर्मस्थलों, तीर्थस्थलों में बार बार दुहरायी जाती हैं और तीर्थस्थलों व उनके प्रबन्धन संस्थानों के पास समुचित धन व संसाधन मौजूद होते हैं तो वे इनके प्रबन्धन की व्यवस्था क्यों नहीं करते? इन दिनों धार्मिक प्रवचनों का धन्धा भी बहुत बढ गया है और स्थान स्थान पर प्रवचन कर्ताओं की कतारें लगी मिलती हैं तब उन प्रवचनों के श्रोता स्वयं में सहनशीलता, उदारता, और सहयोग की भावना क्यों विकसित नहीं कर पाते? जो पहले आया होता है उसे पहले अपना कार्य करने का अधिकार होना चाहिए, किंतु जब धर्म जैसे कार्यों में बाहुबल के आधार पर दूसरे का अधिकार छीनने की भावना पैदा हो रही हो तो यह इस बात का साफ संकेत है कि धर्म के बीच में कहीं अधर्म पैदा हो चुका है। जिस धर्म में धैर्य, परोपकार, अहिंसा, शांति, परदुखकातरता, और दया की भावना सिखाये जाने की बात हो उनमें दूसरे का अधिकार छीनने, और खून खौलाने की बातें कौन सी राजनीति बो रही है। विश्व बन्धुत्व की भावना को ऐसी आपसी होड़ में कौन बदल रहा है कि लोग दूसरों के शरीर पर पैर रखते हुये पहले धर्मस्थलों तक पहुँच जाना चाहते हैं। किस व्यवस्था ने लोगों के भौतिक जीवन को इतना नारकीय बना दिया है कि उससे मुक्ति पाने के लिए इतने सारे लोग धर्म की अंतिम आशा की ओर दौड़ लगा रहे हैं।
       ये हादसे दैवीय हादसे नहीं हैं अपितु हमारी मानवीय व्यवस्थागत भूलों का परिणाम हैं और व्यवस्था में सुधार करके इन्हें रोका जा सकता है। इन्हें रोका ही जाना चाहिये, बरना कमजोर मनुष्य की अंतिम आशा का सहारा भी टूट जायेगा।
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, अगस्त 19, 2014

हिन्दू राष्ट्र की सुरसरी के पीछे की राजनीति



हिन्दू राष्ट्र की सुरसरी के पीछे की राजनीति

वीरेन्द्र जैन
       यह सच है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लक्ष्यों में भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाने का लक्ष्य उसकी स्थापना के समय से ही रहा है, और यही कारण है कि देश के, भाजपा को छोड़ कर, सभी राजनीतिक दल उनके विचारों से असहमत रहे हैं। इसी कारण से दक्षिणपंथी और क्षेत्रीय दलों के बीच भी भाजपा अछूत रही है और उसका साथ किसी विशेष मजबूरी या सत्ता के लालच में ही अवसरवादी दलों या व्यक्तियों द्वारा लिया या दिया गया है। जब पहली बार केन्द्र में गैर काँग्रेसी सरकार बनने की नौबत आयी थी तब भी उन्हें अपने दल को विलीन कर जनता पार्टी में समाहित होने के लिए कहा गया था और उन्होंने दूरगामी कूटनीति को देखते हुये ऐसा किया भी था। उल्लेखनीय है कि इस दौरान वे जनता पार्टी के साथ भितरघात कर रहे थे जिसे पहचान कर ही राजनारायण और चौधरी चरण सिंह ने जनता पार्टी टूटने और सरकार गिरने की कीमत पर भी उन्हें बहिष्कृत किया था। स्मरणीय है कि मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी ने भी उस समय आपात काल के खिलाफ एकजुट हुयी जनता पार्टी के साथ मिल कर चुनाव लड़ा था किंतु उसमें भाजपा के सम्मलित होने के कारण सरकार में साथ होने से साफ इंकार कर दिया था।
       जब 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की अल्पमत सरकार बनी थी तब उसे बहुमत के लिए मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी और भाजपा दोनों के ही समर्थन की जरूरत थी तब माकपा ने इसी शर्त पर समर्थन दिया था कि भाजपा को सरकार में न शामिल किया जाये। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनते समय भी बाइस दलों के समर्थन की जरूरत पड़ी थी और सभी ने संघ के एजेंडे को ही नहीं अपितु भाजपा के भी तीनों विवादास्पद मुद्दे छोड़ने की शर्त के साथ ही अपना समर्थन दिया था। लोकसभा में उस समय के बड़े दल तेलगुदेशम ने तो स्पष्ट कहा था कि वे काँग्रेस को सरकार बनाने से रोकने के लिए ही समर्थन दे रहे हैं पर वे सरकार में सम्मलित नहीं होंगे। बाद में अटल बिहारी वाजपेयी के विशेष अनुरोध पर उन्होंने अपने सांसद बालयोगी को लोकसभा के अध्यक्ष पद को स्वीकारने की अनुमति दी थी और उनके असामायिक निधन के बाद दूसरे किसी सदस्य को न तो अध्यक्ष बनाना स्वीकारा था और न ही सरकार में सम्मलित हुये थे।
       यह आंकड़ागत विडम्बना ही है कि इकतीस प्रतिशत मत पाकर भाजपा को इस लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत मिल गया है, पर देश के उक्त मूलभूत प्रश्नों पर अभी भी उनहत्तर प्रतिशत लोग उनके साथ नहीं हैं और कभी भी नहीं होंगे। देश के सभी समाचार पत्र जिस बात को चुनाव परिणामों के बाद से ही कहते आ रहे थे उसे हाल ही में भाजपा के सबसे वरिष्ठ नेता श्री लाल कृष्ण अडवानी ने भी कहा है कि भाजपा की यह विजय नकारात्मक है और यूपीए सरकार के विरोध में पड़े मतों के कारण है। उनकी इस बात का मतलब साफ है कि संघ परिवार को इस गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए कि उन्हें उनके मुद्दों पर देश की जनता ने समर्थन दिया है। उल्लेखनीय यह भी है कि भाजपा के दो सौ बयासी सांसदों में से एक सौ सोलह काँग्रेस या गैरसंघ की पृष्ठभूमि के लोग हैं और वे उस तरह से नहीं सोचते जिस तरह से संघ से निकले लोग सोचते हैं। 
       विचारणीय है कि श्री भागवत जो बहुत ही चतुर और सूचनासम्पन्न व्यक्ति माने जाते हैं. ने अचानक ही यह हिन्दू राष्ट्र का राग क्यों छेड़ दिया। सच तो यह है कि भाजपा को गत लोकसभा चुनावों में ऐसी सफलता मिल गयी जो उनके लिए भी अप्रत्याशित थी। वे पूर्ण समर्थन न होने के बहाने से अपने अनेक वादे टालने की रणनीति अपनाते रहे हैं, और इस बार भी ऐसी ही उम्मीद में उन्होंने अनेक न पूरे हो सकने वाले वादे कर दिये थे, जैसे कि उमा भारती ने ही कह रखा था कि पूर्ण बहुमत की सरकार बनते ही तीन महीने के अन्दर बुन्देलखण्ड राज्य की घोषणा हो जायेगी। इस बहुमत ने उन्हें धर्म संकट में ला छोड़ा है इसलिए वे देश में तेजी से मुद्दे बदलने के षड़यंत्र में जुट गये हैं। सरकार बनने के बाद समस्याएं दूर होना तो दूर की बात है पर जनता की समस्याएं और बढ गयी हैं और अपेक्षाकृत विकसित राजनीतिक चेतना व सूचना माध्यमों के प्रसार के कारण गत दो महीनें में ही जबरदस्त निराशा फैली है। हिन्दू राष्ट्र के नाम पर न केवल मुसलमान और ईसाई ही सशंकित होते हैं अपितु सिख, जैन, बौद्ध, समेत धर्मनिरपेक्षता के सभी पक्षधर भी चौंकने लगते हैं। ऐसे संवेदनशील समय में एक छोटी सी चिनगारी भी साम्प्रदायिक टकराव में बदल जाती है। यह अनायास नहीं है कि केन्द्र में भाजपा सरकार आने और जन समस्याओं के बढने के बाद दो महीने में ही साम्प्रदायिक टकराव की छह सौ से अधिक घटनाएं घट चुकी हैं।
       हिन्दू राष्ट्र जैसे नारे देश में न केवल वर्गीय चेतना को ही कमजोर करते हैं अपितु सरकार के जनविरोधी कदमों के खिलाफ जनता के राजनीतिक प्रतिरोध की दिशा को भी भटकाते हैं। उल्लेखनीय है कि कभी नोबुल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमृत्य सेन ने हिन्दू राष्ट्र की बात करने वालों से कहा था कि भारत इतिहास के किसी भी काल में हिन्दू राष्ट्र नहीं रहा और यहाँ इतिहास में एक भी हिन्दू सम्राट नहीं हुआ।
       हिन्दू को हिन्दुस्तानियों का पर्यायवाची नहीं माना जा सकता और इसे भारतीय या इंडियन की जगह प्रयोग में नहीं लाया जा सकता क्योंकि व्यवहार में इस शब्द का प्रयोग एक धर्म विशेष के लिए किया जाता है। यह बात श्री भागवत अच्छी तरह जानते हैं और पिछले चुनावों में जिस तरह से संघ ने राजनीति में खुलकर भाग लिया उससे कहा जा सकता है कि इस मामले में भी वे राजनीति ही कर रहे हैं।
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, अगस्त 16, 2014

खाने और न खाने देने के मध्य म.प्र. सरकार



खाने और न खाने देने के मध्य म.प्र. सरकार
वीरेन्द्र जैन

       श्री नरेन्द्र मोदी सिर्फ देश के प्रधानमंत्री पद पर ही पदारूढ नहीं हैं, अपितु वे सत्तारूढ दल भाजपा के भी सर्वेसर्वा बन गये हैं। उन्होंने मुख्यमंत्री काल में अपने कनिष्ठ मंत्री रहे अमित शाह को पार्टी के अध्यक्ष पद पर पदासीन करवा दिया है, और इस तरह पूरी पार्टी भी उनकी मुट्ठी में है। उल्लेखनीय है कि अनेक गम्भीर आरोपों से घिरे श्री शाह को अध्यक्ष पर बैठाने के फैसले का विरोध करने का साहस भी किसी भाजपा नेता ने नहीं किया जबकि उनके पूज्य श्री मोदी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बनाये जाने तक का विरोध श्री लाल कृष्ण अडवाणी, और सुषमा स्वराज जैसे वरिष्ठ नेताओं ने किया था और वे मुम्बई अधिवेशन से आमसभा को सम्बोधित किये बिना ही दिल्ली लौट आये थे। यह जानकारी चौंकाने वाली है कि देश के सबसे मुखर नेता रहे श्री अडवाणी ने इस लोकसभा में एक बार भी मुँह नहीं खोला, और यही दशा दूसरे वरिष्ठ नेता श्री मुरली मनोहर जोशी की भी है। ऐसा लगता है जैसे कि भाजपा में आपातकाल लागू कर दिया गया है।
       दो महीने के लम्बे मौन के बाद नरेन्द्र मोदी ने पिछले दिनों अपना मुँह खोला तो चुनावी घोषणाओं की तरह दहाड़ भरी कि वे न खायेंगे और न खाने देंगे। प्रधानमंत्री कार्यालय के भरेपूरे स्टाफ से सुसज्जित श्री मोदी ने अपना वक्तव्य अनौपचारिक ढंग से दिया जिस कारण उनके शब्द किसी प्रधानमंत्री की कार्यालयीन भाषा की तरह न होकर एक राजनेता की भाषा की तरह बाहर आये। उनकी भाषा के अभ्यस्त लोग समझ गये कि यह वक्तव्य पद का दुरुपयोग कर भ्रष्टाचार करने वालों को सावधान करने वाला वक्तव्य है और विशेष रूप से सत्तारूढ दल के लोगों के लिए दिया गया है। उल्लेखनीय है कि श्री मोदी ने बाराबंकी की सांसद द्वारा अपने पिता को सांसद प्रतिनिधि बनाये जाने और दिल्ली के सांसद मनोज तिवारी द्वारा अपने मौसेरे भाई को अपने पर्सनल स्टाफ में लेने के खिलाफ अपना असंतोष प्रकट किया था। दिल्ली में आगामी चुनावों को देखते हुए ऐसे तेवर उनकी राजनीतिक जरूरतों में भी शामिल हैं क्योंकि दिल्ली में उनका मुख्य मुकाबला आम आदमी पार्टी से है जिसका गठन ही प्रशासनिक सुधार और लोकतंत्र के स्तम्भों में ईमानदारी लाने हेतु लोकपाल की स्थापना के नाम पर हुआ है। श्री मोदी के इस वक्तव्य का समय भी इसी बात की ओर इशारा करता है, क्योंकि यह किसी घटना, व्यक्ति, या दल विशेष से सम्बन्धित न होकर एक आम घोषणा जैसा है, और प्रत्येक पदासीन व्यक्ति के कर्तव्य का हिस्सा है। भ्रष्टाचार के खिलाफ देश में कुछ कानून है और राज्यों में लोकायुक्त हैं और घोषित रूप से कोई भी पदासीन नहीं कहता कि वह खा रहा है या किसी को खाने दे रहा है। जहाँ जहाँ भी भ्रष्टाचार प्रकट हुये हैं वहाँ वहाँ उस क्षेत्र विशेष की सरकारों को कार्यवाही करनी पड़ी है। दूसरे राज्यों के मुकाबले मोदी शासित गुजरात राज्य में ही लोकायुक्त की नियुक्ति में विलम्ब हुआ है और बाबूलाल बुखारिया जैसे मंत्रियों को निचली अदालत से दोषी पाये जाने के बाद भी मंत्री बना कर रखा गया। अच्छा होता कि वे अपने इस नये वक्तव्य के समय पिछली भूलों के बारे में भी स्पष्ट करते ताकि लोगों में आशा बँधती।
       भाजपा शासित एक राज्य मध्य प्रदेश भी है जो आकंठ भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। कोई सप्ताह ऐसा नहीं जाता जब आयकर, सीबीआई, या लोकायुक्त द्वारा कहीं न कहीं छापा न मारा जाता हो और इन छापों में करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति, गहने, या नगदी न बरामद होती हो। अधिकारियों, बाबुओं, पटवारियों से लेकर नेताओं के रिश्तेदारों के यहाँ ही ये छापे डाले जा रहे हैं और जनप्रतिनिधियों के प्रति सावधानी बरती जा रही है। शासन और प्रशासन से जुड़े लोगों का कहना है कि यह सम्भव ही नहीं है कि सम्बन्धित मंत्रियों की जानकारी और जुड़ाव के बिना इतने लम्बे समय तक इतनी बड़ी बड़ी राशियों के भ्रष्टाचार होते रहें। यदि ऐसा होता भी हो तो भी सम्बन्धित विभाग के मंत्रियों की नैतिक जिम्मेवारी तो बनती ही है और उन्हें उस पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं होता है। उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश सरकार के जो पूर्व वरिष्ठ मंत्री इन दिनों जेल में हैं वे मुख्य मंत्री के इतने विश्वसनीय और कृपापात्र थे कि उनके पास संस्कृति, जनसम्पर्क, उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और कौशल विकास, धार्मिक न्यास और धर्मस्व, विभाग की जिम्मेवारी एक साथ थी। पूर्व में उनके पास खनिज विभाग भी रहा है। व्यापम के भ्रष्टाचार प्रगट हो जाने और उनकी संलिप्तता के संकेत मिल जाने के बाद भी उन्हें टिकिट दिया गया था और मामले की उच्च न्यायालय की निगरानी में चले जाने के बाद ही उन्हें गिरफ्तार किया गया। अपनी गिरफ्तारी के समय उक्त मंत्री ने बयान दिया था कि बड़े लोगों को बचाने के लिए उनका गिरफ्तार हो जाना ही ठीक है। अब क्या यह बताने की जरूरत है कि बड़े लोग कौन हैं और उनके पद पर जमे रहते हुए भी क्या उनके मातहत अधिकारी जाँच के साथ न्याय कर सकते है! क्या यह सीबीआई की जाँच के लिए उपयुक्त मामला नहीं है! गुड़ न खाने का उपदेश देने वाले बाबाजी ने पहले खुद गुड़ खाना छोड़ा था तब उन्होंने खुद को दूसरों को सलाह देने का पात्र माना था। इस पारदर्शी समय में ओखली में गुड़ फोड़ते रहना सम्भव नहीं है इसलिए जरूरी हो जाता है कि ऐसे आदर्श सन्देशों को देने के साथ साथ स्वयं के दल को साफ सुथरा करके सन्देश देने की पात्रता अर्जित करें। मोदीजी यह जरूरी क्यों नहीं समझते कि व्यापम की जाँच के परिणाम आने तक वे उन राजनेताओं को पद से अलग होने को कहें जिनके ऊपर सन्देह बना हुआ है! विडम्बना यह है कि जब भाजपा के ही विधायक प्रदेश के मंत्री के खिलाफ सार्वजनिक आरोप लगाते हैं तो उन्हें ही चुप रहने की सलाह दी जाती है।
       इसमें कोई सन्देह नहीं कि लोकसभा चुनाव के दौरान जनता के बीच जो उम्मीदें बोयी गयी थीं वे सूखती जा रही हैं और अभी तक केवक ज़ुबानी जमा खर्च चल रहा है। आम लोगों और मीडिया में अच्छे दिन आने की बात फील-गुड की तरह मजाक में बदल चुकी है और न खाने व न खाने देने की बात भी इसी निराशा की भावना से देखी जा सकती है। मध्य प्रदेश समेत सभी भाजपा शासित राज्यों में एक कामराज योजना जैसी योजना लाने की जरूरत है तब ही सही रूप में यह सन्देश जायेगा।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, अगस्त 01, 2014

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की हिंसा के पीछे की राजनीति

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की हिंसा के पीछे की राजनीति                
वीरेन्द्र जैन

       वोटों की राजनीति में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हमेशा बहुसंख्यकों के नाम से बने दल को लाभ पहुँचाता है। यही कारण है कि बहुसंख्यकों की पक्षधरता करने वाले राजनीतिक दल न केवल ऐसे अवसर तलाशते हैं अपितु साम्प्रदायिक तनाव के बीज बोने की निरंतर कोशिश करते हैं। ऐसे दलों ने विधिवत संगठन बना कर साम्प्रदायिकता को बढावा देने का अभियान चला रखा है। दिखावे के लिए वे राष्ट्रवाद और समाजसेवा का चोगा पहिन लेते हैं क्योंकि अपने मूल स्वरूप की बदसूरती से वे खुद भी परिचित होते हैं। अपने मूल स्वरूप में आने में उन्हें खुद भी लज्जा आती है। आखिर क्या कारण है कि राष्ट्रवाद के नाम पर गठित संगठन जिसमें विभिन्न पद और दर्जे होते हैं, अलग गणवेश होता है, जो संगठित होकर सुरक्षा की बात करता है, वह अपने सदस्यों की कोई सूची न रखने का दावा करता है? क्या कारण है कि वह अपना संगठन चलाने के लिए लोगों से जो आर्थिक सहयोग लेता है उसकी आवक का कोई हिसाब न रखने के लिए उसे बन्द लिफाफों में लेता है। इस सहयोग में विभिन्न तरह के आर्थिक अपराधियों, भ्रष्ट अफसरों, और विदेशी एजेंसियों की हिस्सेदारी भी सम्भव हो सकती है और इस तरह से गलत सहयोग की ज़िम्मेवारियों से अनजान बन कर बचा जा सकता है। आखिर क्यों ऐसे संगठन अलग से अपने आनुषांगिक संगठन गठित करते हैं और यह अलगाव काम के बँटवारे के कारण नहीं अपितु समय समय पर इनके कामों की जिम्मेवारियों से मुकर जाने के लिए होते हैं। यह ऐसे संगठनों की प्रवृत्ति ही होती है और यही कारण है कि आज से अस्सी साल पहले भी सुप्रसिद्ध साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द ने अपने एक लेख में लिखा था कि साप्रदायिकता हमेशा ही संस्कृति और राष्ट्रवाद का मुखौटा पहिन कर प्रकट होती है। क्या यही कारण नहीं है कि जब जब देश में गहरा साम्प्रदायिक तनाव का वातावरण बना तो ऐसे ही एक संगठन पर सबसे पहल्रे प्रतिबन्ध लगाना ही व्यवस्था को ठीक लगा है, या सन्युक्त विपक्षी दल इनके साथ जुड़ाव के कारण ही भंग हुये हैं।
       जब दो व्यक्तियों और परिवारों के बीच कोई झगड़ा होता है तो वह समाज या पुलिस के हस्तक्षेप से कुछ ही समय में नियंत्रण में आ जाता है पर जब ऐसा झगड़ा दो समुदायों के बीच के झगड़े में बदल दिया जाता है तो पूरे क्षेत्र में दंगे होने लगते हैं और समाज का तेज ध्रुवीकरण होता है जिसे चतुर राजनीतिज्ञ वोटों में बदल लेते हैं। 2014 के लोकसभा चुनावों में आये परिवर्तन की पृष्ठभूमि में जाकर इसे समझा जा सकता है। 2014 के लोकसभा चुनावों के पूर्व सामने आये विश्लेशणों में यह साफ कहा गया था कि भाजपा का केन्द्र में सरकार बनाने का रास्ता उत्तर प्रदेश और विशेष रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रास्ते जाता है। मुज़फ्फरनगर में दंगों की शुरुआत भले ही किसी घटना से हुयी हो किंतु ऐसे किसी भी झगड़े को दो समुदायों के बीच के झगड़े में बदल देने का काम बहुत पहले से शुरू हो गया था। दो समुदाय के युवाओं के बीच पनपने वाले प्रेम को लव ज़ेहाद बताने का काम संघ परिवार के संगठन पहले ही शुरू कर चुके थे। जब किसी क्षेत्र को सम्वेदनशील क्षेत्र में बदल दिया जाता है तो इस बात का अधिक महत्व नहीं रह जाता कि चिनगारी किस की गलती से फूटी थी। इन दंगों के बारे में बहुत विस्तार से लिखा जा चुका है पर याद रखने की बात यह है कि जिन व्यक्तियों ने नकली वीडियो को नेट पर अपलोड कर के दंगों में आहुति दी उन्हें न केवल टिकिट दिया गया, अपितु सार्वजनिक आमसभा में उनका अभिनन्दन भी किया गया। उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिकता और जातिवाद दोनों ही चुनावों में गहरा असर डालते रहे हैं और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम मत निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि मुज़फ्फरनगर के दंगों से न केवल जाट वोटों का ध्रुवीकरण ही हुआ अपितु मुस्लिम वोटों का भी ध्रुवीकरण हुआ और समाजवादी पार्टी के वोटों की संख्या भी इसी कारण से बढी। उल्लेखनीय है कि समाजवादी पार्टी को प्रदेश में 2009 के मुकाबले पचास लाख वोट अधिक मिले हैं। चुनावों के दौरान भाजपा नेता अमित शाह द्वारा खुले आम बदला लेने का आवाहन किया था।
                                                                          [वोट हजार में]
क्षेत्र
भाजपा
2009
भाजपा
2014
सपा
2009
सपा
2014
बसपा
2009
बसपा
2014

आरलडी
2009

आरएलडी
2014
काँग्रेस
2009

काँग्रेस
2014
अलीगढ
126
514
176
226
192
227
--
---
165
062
आगरा
202
583
141
134
193
283
--
--
093
034
अमरोहा
----
528
191
370
170
162
282
009
016
----
बागपत
------
423
045
213
175
141
238
199
136
----
बिजनौर
------
486
051
281
216
230

024
085
-----
बुलन्द शहर
170
604
236
128
182
142
-----
059
100
-----
गौतम बुद्धनगर
229
599
118
319
245
198
------
------
116
012
गाज़िया बाद
359
758
----
106
180
173
-----
------
268
191
हाथरस
------
544
115
180
217
115
247
086
057
----
कैराना
260
565
124
329
283
160
-----
042
037
----
मथुरा
----
574
-----
036
210
173
379
243
085
----
मेरठ
232
532
183
211
184
300
-------
----
060
042
मोरादा बाद
251
485
027
397
147
160
------
----
073
012
मुज़फ्फर नगर
----
653
106
160
275
252
254
-----
073
012
नगीना
-----
367
234
275
175
245
-----

031

रामपुर
061
358
230
335
095
081
-----
----
199
156
सहारन पुर
099
472
269
052
354
253
------
----
062
407
सम्भल
231
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[नोट- 2009 में आरएलडी का चुनावी समझौता भाजपा के साथ था और 2014 में काँग्रेस के साथ था]
       उत्तेजना की उम्र लम्बी नहीं होती इसलिए उसे जल्दी से जल्दी भुना लेना होता है। स्मरणीय है कि गुजरात में 2002 में जो हादसे हुए थे तब नरेन्द्र मोदी जल्दी से जल्दी चुनाव करा लेना चाहते थे पर सामाजिक तनाव को देखते हुए तत्कालीन चुनाव आयुक्त लिंग्दोह ने चुनावों की तिथि आगे बढा दी थी तब नरेन्द्र मोदी ने लगातार असंसदीय भाषा का प्रयोग करते हुए उनकी आलोचना की थी। अब भी भाजपा का यह प्रयास है कि नवगठित सरकार के तेजी से अलोकप्रिय होने से पहले उत्तरप्रदेश में चुनाव करा ले। काँठ में बिना बात के तनाव की शुरुआत और सहारनपुर आदि में दंगों का प्रसार और उसमें भाजपा के जनप्रतिनिधियों द्वारा बढावा देने के प्रयासों को गहराई से देखने की जरूरत है। उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था की स्थिति पहले से ही खराब थी पर ताज़ा घटनाओं को चयनित करके उत्तर प्रदेश के कमजोर नेतृत्व को लक्षित करना तथा दूसरे भाजपा शासित राज्यों की वैसी ही गम्भीर घटनाओं पर ध्यान न देने से स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि ये सारी कसरत चुनावी तिकड़म का हिस्सा हैं।      
       आज केन्द्र की सरकार कहने को तो बढती मँहगाई, भ्रष्टाचार के विरोध और विकास की सम्भावनाओं के नाम पर सत्ता में आयी प्रचारित की गयी है पर उनके सत्तारूढ होने तक पहुँचने के लिए बढत की नींव साम्प्रदायिक तनाव से जनित ध्रुवीकरण पर ही टिकी है। 
वीरेन्द्र जैन
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