शुक्रवार, दिसंबर 26, 2014

फिल्म समीक्षा -‘पीके’ फिल्म - मनोरंजन के साथ सन्देश देने की कला



‘पीके’ फिल्म - मनोरंजन के साथ सन्देश देने की कला
वीरेन्द्र जैन

मुझे हाथरस के प्रोफेसर डा. राम कृपाल पांडे के सौजन्य से एक बार हिन्दी के सबसे प्रमुख आलोचक डा. राम विलास शर्मा से मिलने का सौभाग्य मिला था। उस अवसर पर मैंने उनसे हास्य और व्यंग का फर्क जानना चाहा तो उन्होंने उत्तर में कहा कि जब आदमी दाँत खोल कर हँसता है तो हास्य है और जब दाँत भींच कर हँसता है तो व्यंग्य है।
राज कुमार हीरानी की फिल्म ‘पीके’ एक दाँत भींच कर हँसने वाली फिल्म है। सोद्देश्य कहानी, विषय वस्तु के कुशल सम्पादन के साथ निर्देशन, राजकपूर की परम्परा के अभिनेता आमिर खान का सहज अभिनय, सामाजिक यथार्थ का निर्भीक प्रस्तुतीकरण जबरदस्त कटाक्ष करते हुए अपना सन्देश देने में सफल हैं। प्रत्येक धर्म अपने समय के श्रेष्ठ मनीषियों द्वारा उस समय मानवता के हित में दिये गये सर्वोत्तम सन्देशों का संकलन होता है, जो उस काल की बुराइयों और स्वार्थों से टकरा कर अपना स्थान बनाता है। ये मनीषी अपनी विनम्रतावश उन सन्देशों और कार्यों के परिपालन को सुनिश्चित करने के लिए उसे सुपर पावर द्वारा उनके माध्यम से भेजा गया सन्देश बता कर एक व्यवस्था बनाते आये हैं व उल्लंघन पर अज्ञात के दण्ड का भय भी बताते रहे हैं। इसी कारण उन के वारिस उन सन्देशों को वैसे का वैसा ही रख कर जड़ बना देते हैं। किंतु समय के साथ चुनौतियां भी बदलती है और उनसे टकराने के नये नये कार्य-विचार फिर से सामने आते हैं, जो अपने सन्देशों को वैसा ही धर्म बताते हैं और इसी कारण उनका पिछले धर्मों से टकराव होता है। इतिहास गवाह है कि दुनिया में सर्वाधिक हिंसा धर्मों के आपसी टकराव के कारण ही हुयी है और यह क्रम आज भी जारी है। यह हिंसा दुनिया की सर्वोत्तम उपल्ब्धियों को नुकसान पहुँचा रही है, पर धर्म के अन्धविश्वास से ग्रस्त लोग इस क्षेत्र में न तो विचार करने को तैयार होते हैं और न ही लोगों को अपने अपने विश्वास को स्वतंत्र रूप से मानने की आज़ादी देने को तैयार होते हैं। आज धार्मिक संगठनों के पास अटूट सम्पत्ति है, संगठन की हिंसक शक्ति है, अज्ञात का मनमाना लाभ और दण्ड की भयावह कथायें हैं। इसके साथ वोटों के व्यापारियों और अपराधियों के साथ अपवित्र गठजोड़ भी है। इसके विपरीत धर्मों को जीवंत और प्रगतिशील मानने वाली शक्तियों से टकराने वाले लोग बिखरे हुये हैं, असंगठित हैं, साधन और शक्तिहीन हैं तथा यथास्थिति से लाभान्वित होने वाली सत्ताधारी शक्तियां उनको नुकसान पहुँचाने के लिए तत्पर हैं। प्रत्येक धर्म में सत्य बोलने की बात कही गयी है किंतु आज सबसे अधिक जाने अनजाने झूठ बोलने वाले धार्मिक संस्थान ही हैं। आज हर तरह की अनैतिकताओं और अपराधों के समाचार धार्मिक संगठनों के स्थलों से ही आ रहे हैं। वे केवल विचार भिन्नता के कारण ही अलग अलग नहीं हैं अपितु वे निहित स्वार्थों के कारण अलग अलग हैं।
कोई भी धार्मिक संगठन अपने अलग अलग पंथों की सम्पत्ति, धर्मस्थलों, और भूमि भवनों को अपने धर्म के दूसरे पंथ के साथ तक बाँटने को तैयार नहीं है। प्राकृतिक आपदा ही नहीं अपितु धार्मिक स्थलों पर आयोजित मेलों ठेलों में भी जो हादसे घट जाते हैं उनके पीड़ितों को राहत देने के लिए भी ये संगठन आगे नहीं आते हैं। ईसाई मिशनरियों के प्रभाव और उनसे प्रतियोगिता के तात्कालिक कुछ उदाहरणों को छोड़ कर स्वास्थ और शिक्षा के क्षेत्रों में भी धार्मिक संगठनों की अटूट दौलत उपयोग में नहीं आती रही है। ऐसी स्थिति में धर्मों की बुराइयों से टकराने के लिए समाज के पास कटाक्ष जैसे सीमित और कमजोर कला के साधन ही बचते हैं। एक आम सुशिक्षित व्यक्ति की पाखण्डों से टकराने की जो दबी छुपी आकांक्षाएं हैं उन्हें ‘ओह माई गाड’ और ‘पीके’ जैसी फिल्में नैतिक समर्थन देने का काम करती हैं जिसका पता हाउस फुल सिनेमा घरों में बार बार बजती तालियों और विभिन्न तरह के प्रशंसक स्वरों से मिलता है। ये फिल्में धर्मों के ठेकेदारों द्वारा पैदा कर दी गयी बुराइयों को दूर कर के उनके अच्छे पक्ष को उभारने का काम कर रही हैं, और धर्मों को विवेक के केन्द्र बनाने की कोशिश कर रही हैं। वे वही काम कर रही हैं जो हमारे देश में कभी नानक, कबीर, आर्य समाज, नारायण स्वामी, विवेकानन्द, सहजानन्द सरस्वती, और महापंडित राहुल सांस्कृतायन महर्षि अरविन्द या ओशो जैसे लोगों ने किया था।
उपरोक्त लक्ष्य को पाने के लिए बनायी गयी फिल्म ‘पीके’ ने अपने सन्देश को मनोरंजन की चटनी के साथ प्रस्तुत किया है और उसके लिए जो कथा बुनी गयी है उसकी शुरुआत बर्टेंड रसेल की एक कहानी पर आधारित है। इस कहानी में एक पादरी है जो ज़िन्दगी भर ईसाई धर्म की शिक्षाओं का अक्षरशः पालन करता है और जिसे भरोसा है कि जब मरने के बाद वह स्वर्ग में जायेगा तो ईश्वर खुद ही बाँहें फैलाये उसके स्वागत के लिए दरवाजे पर खड़ा मिलेगा। पर जब वह स्वर्ग के बन्द दरवाजे पर पहुँचता है तो पाता है कि स्वर्ग का बन्द दरवाजा इतना मजबूत और विशाल है कि उसके सामने वह किसी पिस्सू से भी छोटा है। लम्बे समय तक इंतज़ार के बाद जब वह दरवाज़ा खुलता है और वह पादरी अन्दर प्रवेश करने की कोशिश करता है तो द्वारपाल उससे पूछ्ताछ करता है जिसमें वह अपने अनुशासित धर्मिक जीवन के बारे में बताता है। जब वह आने का स्थान पूछता है तो वह बहुत शान से अपने चर्च और गाँव का नाम बताता है। उसके आगे पूछने पर वह बताता है कि उक्त गाँव इंगलेंड में है।
यह इंगलेंड कहाँ है? चौकीदार पूछता है
इंगलेंड पृथ्वी पर है वह उत्तर देता है
कौन सी पृथ्वी? इस ब्रम्हाण्ड में करोड़ों पृथ्वियां हैं
वही जो सूरज के चारों ओर चक्कर लगाती है
कौन सा सूरज? इस ब्रम्हाण्ड में लाखों सूरज हैं, व ब्रम्हाण्ड भी अनेक हैं
यह सुन कर पादरी को चक्कर आ जाता है और उसे अपनी लघुता का अहसास होता है। इस फिल्म का प्रारम्भ भी इसी तरह की सूचना से होता है और किसी अनजान ग्रह से कोई एलियन अपनी प्राकृतिक अवस्था में इस पृथ्वी पर राजस्थान की धरती पर उतरता है। उसके पास उस यान को वापिस बुलाने का रिमोट जैसा दमकता हुआ यंत्र भर है। पहले ही दिन एक चोर उसका यंत्र छीन कर भाग जाता है। इस छीना झपटी में चोर का ट्रांजिस्टर उसके पास छूट जाता है। उस एलियन को हाथ पकड़ कर दूसरे के दिमाग की जानकारी को डाउनलोड करने की क्षमता प्राप्त है। वीराने स्थलों पर खड़ी ‘डांसिंग कारें’ उसके लिए कपड़ों और मुद्राओं का साधन बनती हैं। डासिंग कारें वे कारें हैं जिनमें छुप कर युवा जोड़े कपड़े उतार कर अपनी प्रेम क्रियाओं में खोये रहते हैं और उनकी कारें डांस करती रहती हैं। उस एलियन ने हाथ पकड़ कर खुद में जो भाषा डाउन लोड कर ली है वह भोजपुरी है। उसे न तो झूठ बोलना आता है और न ही किसी दूसरे के कथन को वह झूठ समझता है। यही कारण है कि अपने यंत्र की तलाश में जब वह सबसे यही उत्तर दुनता है कि ‘भगवान जानें’ तो वह सभी तरह के भगवानों के पास जाता है जिस यात्रा में पता चलता है कि भगवानों की कथित दुनिया में सब कुछ झूठ पर ही चल रहा होता है। इसी यात्रा में उसकी मुलाकात प्रेम में धोखा खाकर आयी एक टीवी पत्रकार से हो जाती है जो अपने पिता के गुरु से बदला लेने के लिए उस सच्चे आदमी का स्तेमाल करना चाहती है। इसी में सारे पाखण्ड निरावृत होते जाते हैं और मासूमियत व झूठ के टकराव में मजेदार हास्य पैदा होता रहता है। अंत में गलतफहमियां दूर होती जाती हैं।
ईसा मसीह ने कहा है कि स्वर्ग के दरवाजे उनके लिए खुले हैं जिनके ह्रदय बच्चों की तरह हैं और वह मासूम एलियन भी उसी तरह का मासूम देवता तुल्य है जो चार्ली चेप्लिन और राजकपूर की भूमिकाओं की याद दिलाता रहता है। उसकी उपस्थिति से पता चलता है कि हमारा आज का कथित धार्मिक समाज कितने झूठों और गलत विश्वासों में जीता रहता है और अपनी अन्धभक्ति में कभी विचार कर विवेकपूर्ण उत्तर तलाशने की कोशिश भी नहीं करता। शातिर बाबा इसी का लाभ उठा कर अपना घर भरते रहते हैं। अति महात्वाकांक्षाएं पाल कर भी मेहनत से बचने वाले ईश्वर की कृपा तलाशते तलाशते शार्टकट के चक्कर में निरंतर फँसते और लुटते चले जाते हैं।
फिल्म में शरद जोशी के व्यंग से उठाया गया नर्वसयाना, और कन्यफुजियना भी है तो काका हाथरसी की कविता नाम रूप का भेद भी पढवायी गयी है। बेढब बनारसी की ‘लेफ्टीनेंट पिग सन की डायरी’ में किसी अंग्रेज द्वारा पहली बार बुर्के वाली औरत को देख कर भूत समझने का व्यंग्य भी आया है, तो विभिन्न पूजा पद्धितियां और समाजिक मान्यताओं की विसंगतियां भी हास्य पैदा करती हैं। आज के नगरों, महानगरों की भाषा अंग्रेजी उर्दू मिश्रित खड़ी बोली है किंतु जब इन स्थानों के वासी अपनी देसी बोली में बोलते हैं तो यह विसंगति एक लुत्फ पैदा करती है। एक एलियन द्वारा बनारसी कानपुरी अन्दाज़ में पान खा कर भोजपुरी बोलना भी सहज हास्य को जन्म देता है।        
कुल मिला कर यह एक स्वस्थ सामाजिक सन्देश देकर अपने कामों को ठहर कर देखने का सन्देश देने वाली फिल्म है जिसे टैक्स फ्री कर देना चाहिए था और देश भर के कालेजों में उसके मुफ्त शो आयोजित किये जाने चाहिए थे। उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, त्रिपुरा, उड़ीसा तामिलनाडु की सरकारें तो ऐसा कर ही सकती थीं। इसके बाद भी दर्शक समुदाय ने भरपूर समर्थन देकर अपना सन्देश दे दिया है।
वीरेन्द्र जैन                                                                           
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629
  

गुरुवार, दिसंबर 25, 2014

मुनव्वर राणा - एक सच्चे हिन्दुस्तानी जनप्रिय शायर



मुनव्वर राणा - एक सच्चे हिन्दुस्तानी जनप्रिय शायर
वीरेन्द्र जैन

मुनव्वर राणा को साहित्य अकादमी जैसा सबसे बड़ा सरकारी पुरस्कार मिलने की जितनी खुशी उन्हें हुयी होगी उससे ज्यादा खुशी उनके बेशुमार चाहने वालों को हुयी है। यही खुशी उनकी रचनात्मकता की सबसे बड़ी समालोचना है। भले ही उन्हें यह पुरस्कार उर्दू भाषा में लेखन के नाम पर मिला है पर अगर यह उन्हें हिन्दी श्रेणी में भी मिला होता तो भी किसी को आश्चर्य नहीं होता क्योंकि वे हिन्दुस्तानी के उन लेखकों में से एक हैं जहाँ हिन्दी उर्दू का फर्क मिट जाता है। अपने सम्बन्धों को रिश्तों में पहचानने वाले इस देश में वे इसे माँ और मौसी का रिश्ता बताते हैं।
लिपट जाता हूं माँ से और मौसी मुस्कुराती है
              मैं उर्दू में गजल कहता हूं हिंदी मुस्कुराती है।
मुनव्वर राणा उन कवियों, शायरों में से एक हैं जिनके कारण जनता का रिश्ता कविता से बचा रह गया है। हिन्दी कविता को अंतर्र्राष्ट्रीय कविता के समतुल्य बनाने की कोशिश में पश्चिमी कविता से प्रभावित कुछ कवियों ने सरकारी सम्मानों और विश्वविद्यालयों के सहारे आम जनता से दूर कर दिया था। उनका काम सतही सम्वेदना वाली फूहड़ मंचीय कविता ने और आसान कर दिया, क्योंकि कविता की दुनिया को सीधे सीधे दो हिस्सों में बाँट दिया गया था। पर बच्चन, सुमन, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, बलवीर सिंह ‘रंग’, मुकुट बिहारी सरोज, नीरज, रमानाथ अवस्थी, धूमिल, बाल स्वरूप राही, रामावतार त्यागी,  दुष्यंत कुमार, कृष्ण बिहारी ‘नूर’ अदम गोंडवी आदि ने हिन्दी में और फैज़ अहमद फैज़, अहमद फराज़, कैफी आज़मी, साहिर लुधियानवी, हसरत जयपुरी, बशीर बद्र, वसीम वरेलवी, डा. नवाज देववंदी, मुनव्वर राणा, राहत इन्दौरी आदि ने उर्दू के नाम पर हिन्दुस्तानी में लिख कर जिस भाषायी एकजुटता का परचम लहराया है उससे ही सन्देश जाता है कि किसी देश की जनता के सुख दुख भाषा और लिपियों के भेद से बँट नहीं जाते। राष्ट्रीय एकता की बातें केवल थोथे नारों से ही नहीं की जाती अपितु ये उस दृष्य की स्मृति से सहज रूप से समझी जा सकती हैं जो हर विश्वास को मानने वालों में साझा है। 
हिन्दी में जो काम नवगीत ने किया है वही काम उर्दू में मुनव्वर राणा जैसे लोगों की शायरी ने परम्परागत शायरी की विषय वस्तु और कहन में बदलाव लाकर किया है। उनकी शायरी में बोलचाल की सरल भाषा, आम आदमी की रोजमर्रा ज़िन्दगी से उठाये प्रतीकों से अपनी बात कहने का गुण वैसा ही लुत्फ देता है जैसा कि भाषा वालों को अपनी बोली का मुहावरा आ जाने पर मिलता है। उनकी शायरी में जरा गरीबी की शान देखिए-
अमीरे-शहर को रिश्ते में कोई कुछ नहीं लगता
गरीबी चाँद को भी अपना मामा मान लेती है
भटकती है हवस दिन रात जेवर की दुकानों में
गरीबी कान छिदवाती है तिनका डाल लेती है        
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हर शख्स देखने लगा शक की निगाह से, मैं पाँच-सौ के नोट की सूरत हूँ इन दिनों !
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यूँ भी इक फूस के छप्पर की हक़ीक़त क्या थी
अब उन्हें ख़तरा है जो लोग महल वाले हैं
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राम की बस्ती में जब दंगा होता है
हिन्दू मुस्लिम सब रावन हो जाते हैं      
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अपनी अना को बेच के अक्सर, लुक्म-ए-तरकी चाहत   में
कैसे-कैसे सच्चे शायर दरबारी हो जाते हैं
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तुम्हारी आँखों की तौहीन है जरा सोचो
तुम्हारा चाहने वाला शराब पीता है
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       उनका मुजाहिरनामा हो, माँ पर कहे शे’र हों, सोनिया गाँधी पर कही नज़्म हो, सब अपने आप में इतनी भावपूर्ण हैं कि देश के प्रत्येक नागरिक को अपने देश और देशवासियों से प्यार उफन आता है। वे दुश्मन देश की नादानियों को दुश्मन की तरह नहीं अपितु उसको किसी शैतान बच्चे की तरह बता कर अपने देश का बढप्पन दर्शाते हैं और उसकी तुच्छता दर्शाते हुए उस के सिर चपत लगाते से दिखते हैं-
दिखाता है पड़ोसी मुल्क तो आँखें दिखाने दो
कहीं बच्चे के काटे से भी माँ का गाल कटता है
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कार्यपालिका की नसमझी पर भी वे एक शायर की तरह ही व्यंग्य करके अपनी नाराजी प्रकट करते हैं-
बदन में दौड़ता सारा लहु ईमान वाला है मगर जालिम समझता है कि पाकिस्तान वाला है। बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है हमारे घर के एक बर्तन पर आईएसआई लिक्खा है
       अपनी लम्बी नज़्म मुजाहिरनामा में वे मुजाहिरों का दर्द जिन शब्दों में व्यक्त करते हैं उसका एक नमूना देखिये-
वो जौहर हों, शहीद अशफ़ाक़ हों, चाहे भगत सिंह हों,
हम अपने सब शहीदों को अकेला छोड़ आए हैं। 
       मुनव्वर राणा देशभक्ति के सबसे बड़े शायरों में से एक हैं, जो लिखते हैं कि तेरी गोद में गंगा मैय्या अच्छा लगता है। उनकी देशभक्ति की शायरी नारों और भजन नुमा कविताओं से हट कर अपने वतन की मिट्टी से व उसके लोगों से प्यार की हिलोरें उठाती है। यह सच्चाई उनकी शायरी सुनते हुए चेहरों को पढ कर महसूस की जा सकती है। उन्हें सम्मानित करना देश की सच्ची राष्ट्रभक्ति को सम्मानित करने की तरह है।

वीरेन्द्र जैन                                                                          
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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रविवार, दिसंबर 14, 2014

समीक्षा ज़िन्दगी चैनल का सीरियल- काश में तेरी बेटी न होती



समीक्षा
ज़िन्दगी चैनल का सीरियल- काश में तेरी बेटी न होती

वीरेन्द्र जैन
                जब भी कोई अच्छी फिल्म या किताब देखने पढने में आती है तो मन होता है कि उसके बारे में दूसरों को भी बताया जाये। यही इच्छा कोई अच्छा नाटक देखने या टीवी सीरियल देखने के बाद भी होती है। शायद इसमें किसी दौड़ में प्रथम आने का सुख प्राप्त करने का प्रयास निहित रहता हो। पिछले दिनों जब मैंने ज़ी टीवी ग्रुप पर शुरू हुये ज़िन्दगी चैनल और उस पर चलने वाले सीरियल – काश मैं तेरी बेटी न होती- के बारे में अपने कलात्मक रुचियों वाले मित्रों को बताया तो लगा कि मैं आगे नहीं निकल सका हूं क्योंकि मेरे सभी मित्र इस चैनल पर आने वाले सीरियल न केवल देख रहे थे अपितु मेरी ही तरह उन्हें पसन्द भी कर रहे थे।
       ज़ी ग्रुप से यह चैनल तब शुरू हुआ जब मेरी दिलचस्पी हिन्दी टीवी के मनोरंजक प्रोग्रामों और समाचारों को रबर की तरह खींचते समाचार चैनलों से पूरी तरह से हट चुकी थी किंतु ज़िन्दगी चैनल और एनडीटीवी के प्राइम टाइम ने दुबारा पैदा कर दी। पड़ौसी देशों के टीवी चैनलों पर दिखाये गये सीरियलों और कहानियों के नाम से पाँच महीने पहले शुरू हुये इस ज़िन्दगी चैनल पर अभी पाकिस्तान की कहानियां और सीरियल दिखाये गये जिन्होंने कहानियों की मौलिकता, ज़िन्दगी में घटने वाली घटनाओं के अलग अलग आयाम, चरित्रों का वैविध्य, कलाकारों का भूमिका के अनुसार सटीक चयन व उसी के अनुसार उनका कुशल अभिनय, संगीत आदि  ने शायद लाखों उन टीवी दर्शकों को भी बाँध लिया जो गत बीस साल में आने वाले हिन्दी के सीरियलों से ऊब कर सीरियल देखना छोड़ चुके थे। सीरियलों की भाषा, कहानियों के मध्य व उच्च वर्गीय पात्रों का रहन सहन खान पान, अच्छी बुरी आदतें, सामाजिक दोष, पीढीगत टकराव आदि कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे ऐसा लगता कि हम किसी दूसरे देश के सीरियल देख रहे हैं। इसके विपरीत हमें अपने ही देश के उत्तरपूर्व और दक्षिण के सीरियल या फिल्में हिन्दी जगत से कुछ भिन्न लगते रहे हैं। मैं स्वीकार करता हूं कि ये सीरियल देखने के पहले मुझे पाकिस्तान इतने करीब नहीं लगता रहा। कलाओं से जन्मी संवेदना देशों की दीवारें तोड़ती हैं और लोगों को पास लाने व मित्रता बढाने में सर्वाधिक योगदान कर सकती हैं। इन्हें देख कर जहाँ दूरदर्शन के पुराने सीरियल बुनियाद, हमलोग, तमस, आदि की याद ताज़ा हो गयी, वहीं हमारे यहाँ वर्षों से चलने वाले सास-बहू नुमा सीरियल और ज्यादा कमजोर, नकली, फूहड़ व निरर्थक लगने लगे।
       इस चैनल पर सबसे लम्बा चलने वाला सीरियल -काश मैं तेरी बेटी न होती-  लगभग एक सौ साठ एपीसोडों के बाद समाप्त हुआ है। इस में न केवल सामंती मूल्यों के शेष बच गये लोगों से नये बन रहे समाज के लोगों के साथ होने वाला टकराव ही दिखाया गया है अपितु पाकिस्तान की पुलिस. प्रशासन, न्याय, धर्म और राजनीति भी पुराने सामंतों व धनिकों की इच्छा और निर्देश पर चलती हुयी दिखा कर स्वस्थ राजनीतिक आलोचना करने का साहस किया गया है। पाकिस्तान में भी अखबार बेचने, कारों के शीशे साफ करने और घरेलू नौकर का काम करने वाले का परिवार अपनी दुखद गाथा अखबार में नहीं छपवा सकता भले ही स्टोरी की तलाश में रहने वाला टीवी किसी खबर को कभी कभी दिखा देता हो। सीरियल से पता चलता है कि मासूमों और अबलाओं को दबोचने के लिए आतुर दरिन्दे, पैसों के बदले में अपराध करने वाले मवाली और अपने स्वार्थ के लिए निर्धनों व कमजोरों को पशु से पतित मानने वाले धनिक पाकिस्तान में भी हिन्दुस्तान जैसे ही हैं। वहाँ भी रूढियों और सामाजिक बुराइयों के साथ पढी लिखी युवा पीढी की ज़ंग जारी है। वहाँ भी उच्च और मध्यम वर्ग बाज़ारवाद का शिकार होकर साम्राज्यवादी देशों की चकाचौंध से चौंधिया रहा है।        
       काश मैं तेरी बेटी न होती नामक सीरियल में इतने मोड़ हैं कि सीरियल देखते हुए आगे की कहानी के बारे में लगातार जिज्ञासा बनी रहती थी। एक हाकर के मेहनतकश परिवार में तीन बच्चों समेत पाँच सदस्य हैं जिनमें से तीन की कमाई के बाबजूद भी न घर ठीक से चल पा रहा है और ना ही मकान का किराया समय से चुक पा रहा है। गृहणी खुद को और बच्चों को भूखा रख कर जब मेहनत करने वाले पति को उपलब्ध चावल खिलाने के लिए झूठ बोलती है कि सबने खा लिया तो वह बच्चों के चेहरे पढ लेता है और आँसुओं के नमक के साथ सभी को एक एक कौर चावल खिला कर ही सोता है। किराया चुकाने के लिए गुर्दा बेचता है तो वहाँ भी उसका शोषण होता है और ज़िन्दगी भर के लिए अपंग होकर रह जाता है। पति की बीमारी से और बढ चुके संकट से निबटने के लिए एक शादी कराने वाली औरत गृहणी को उसकी बड़ी बेटी का अस्थायी विवाह एक प्रभावशाली ज़मींदार परिवार में कराने का प्रस्ताव रखती है जिसे बच्चा चाहिए होता है क्योंकि उसकी बहू बच्चा पैदा करने में असमर्थ है। विवाह के सौदे की शर्त यह भी है कि बच्चा होने के बाद वह उसे तलाक दे देगा व इस सौदे के लिए बीस लाख रुपयों का भुगतान होगा। यह विवाह लड़की को सौदे के बारे में अँधेरे में रख कर किया जाता है और उससे कहा जाता है कि बचपन में कभी पड़ोस में रहने वाले लड़के से ही उसकी शादी हो रही है जिससे शादी करने का सपना वह देखती रही थी, पर जिसे उसने पिछले पन्द्रह साल में देखा ही नहीं था। इस पेंचदार कहानी में परिस्थितियां नितप्रति नये नये गुल खिलाती हैं, जिसमें दो दर्ज़न से ज्यादा चरित्र पूरे पाकिस्तान की संस्कृति अर्थ व्यवस्था, सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्था का पोस्टमार्टम करती चलती हैं। उच्च मध्यम वर्ग से लेकर मेहनतकश वर्ग तक के रहन सहन और सोच के दर्शन होते हैं। पुलिस, न्याय व्यवस्था, डाक्टर, से लेकर पागलखाने के इंचार्ज तक पैसों पर बिकते नजर आते हैं। धोखे और पैसे से सरोगेट मदर खरीदी जा सकती है. डाक्टरों से मनचाही रिपोर्टें ली जा सकती हैं, पत्नी की हत्या के मामले को दबाया जा सकता है, किसी को भी पागल ठहराकर उसे शाक दिलाया जा सकता है। वहाँ भी बोगस एनजीओ चलते हैं जो अमीरों के मनरंजन और देश विदेश की यात्राओं का बहाना होते हैं। अमीरों में कुत्ते गरीबों से ज्यादा ध्यान रखने वाले प्राणी होते हैं। अमीरों के लिए बड़े बड़े माल हैं, कारें हैं, बगीचे हैं, अच्छे अच्छे भवन हैं, सड़कें हैं, आज्ञाकारी सेवक हैं। इसके विपरीत गरीबों के लिए अभाव हैं, तनाव हैं और बीमारियां हैं। अशिक्षा है अज्ञान है, रूढियां हैं। बुर्का निम्न वर्ग की महिलाएं ही पहिनती हैं, और उच्च मध्यमवर्ग की महिलाएं अपने पहनावे में आधुनिक हो चुकी हैं। कुल मिलाकर बिना स्थूल शब्दों के प्रयोग के पूरे सीरियल में एक वर्गीय दृष्टि साफ झलकती है।
       कहीं कहीं प्रयुक्त पंजाबी सिन्धी के समझ में आने वाले शब्दो के साथ साथ पूरी भाषा हिन्दुस्तानी है जिसमें बोलचाल की उर्दू का प्रयोग है। पाकिस्तान में हिन्दी फिल्मों के लोकप्रिय गाने वैसे ही रोजाना की बातचीत में मुहावरे की तरह प्रयोग में आते रहते हैं जैसे कि हिन्दोस्तान में। हमारे यहाँ के सीरियलों में जो कहानी खो गयी है वह वहाँ मौजूद है, ऐसा इन सीरियलों को देख कर लगता है। जिन लोगों ने भी पाकिस्तान की फिल्म –खुदा के लिए- और –बोल- देखी है वे इस सीरियल को उन फिल्मों के समकक्ष रख सकते हैं। इस चैनल के दूसरे सीरियलों और कहानियों में भी अलग अलग मुद्दे उभारे गये हैं जैसे कि एक सीरियल में बड़ी उम्र में माँ बनने पर परिवार के बड़े बच्चों पर पड़ने वाले प्रभाव की कहानी कहे गयी है। एक कामेडी सीरियल में बिना महिला वाले परिवार में बड़ी हुयी लड़की और बिना पुरुष वाले परिवार में बड़े हुये लड़के के विवाह के बाद उत्पन्न समस्या का मनोरंजक चित्रण है। यह चैनल हिन्दी चैनलों के घुटन भरे माहौल में ताज़ा हवा के झौंके की तरह आया है। 
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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