गुरुवार, दिसंबर 04, 2014

विवाह समारोहों में भाग लेने की सीमा



विवाह समारोहों में भाग लेने की सीमा
वीरेन्द्र जैन   
       एक विवाह समारोह में भाग लेकर लौटा हूँ। विवाह एक ऐसे रिshshश्ते के परिवार में था कि जाना अनिवार्य था। रिश्ते के विवाह समारोहों में जाने के लिए एक मजबूरी यह भी होती है कि उन्होंने हमारे परिवार की शादी में जो उपहार दिये थे उन्हें लौटाना होता है। न जाने का मतलब बेईमानी माना जाता है। आयोजन दूसरे नगर में था जो बस मार्ग से सीधा नहीं जुड़ा है। दूरी दो सौ किलोमीटर। एक स्टेशन पर जाने के बाद दूसरी लाइन की ट्रेन पकड़नी होती है। पहली ट्रेन लेट हो जाने पर आठ घंटे बाद दूसरी मिलती है। पहली दूरी कुल नब्बे किलोमीटर है जिसके लिए आरक्षण के डिब्बे में बैठना और आरक्षण लेना मॅंहगा पड़ता है व उपलब्ध नहीं होता। नब्बे किलोमीटर जनरल डिब्बे में जानवरों की तरह धॅंस कर जाना पड़ा। बारह चौदह घन्टे की शादी समारोह के लिए ज्यादा कपड़े ले जाना भी उचित नहीं लगा था इसीलिए शादी में पहिने जाने वाले कपड़े ही पहिन कर निकले थे जो भीड़ में रूंध रहे थे और बड़ी कोफ्त हो रही थी। गाड़ी लेट भी थी जिससे उसके छूट जाने की धुकधुकी भी लगातार बनी हुयी थी। बहरहाल दौड़ते भागते गाड़ी मिल गयी। गंतव्य तक पहॅंचने के बाद विवाह स्थल को तलाशने और उस तक पहॅंचने में भी समुचित समय लगा। बारात निकलने की तैयारी में थी। एक एक कमरे में दस दस बीस बीस लोग भरे थे। गनीमत थी कि कमरे के साथ बाथरूम संलग्न था पर दस लोगों के दबाव के आगे वह बेवश था। सोचा तो था हाथ मुँह धो लेंगे पर मेरा नम्बर आने तक पानी समाप्त हो चुका था। धर्मशालानुमा उस होटल का मैनेजर नीचे ही कह रहा था कि उसने पानी कम स्तेमाल करने के बारे में पहले ही बता दिया था। बोर में पानी कम रह गया है और वह कोशिश कर रहा है कि उपलब्ध पानी टंकी में चढ जाये।  जिस परिवार में विवाह था उसका मुखिया बदहवास सा दौड़ भाग कर रहा था, उसे बात करने की फुरसत नहीं थी। मेरे कमरे में रूके दूसरे लड़के बारात निकलने से पहले शराब का सेवन करना चाहते थे जो कि आजकल बारात की एक रस्म जैसी हो गयी है, पर मेरे वहॉं होने से असुविधा सी महसूस कर रहे थे। मैं उठ कर बाहर हाल में बैठ गया। बारात सड़क पर बेतरतीब धमाचौकड़ी मचाती हुयी वैसी ही निकली जैसी कि बारातें कानफोड़ू शोर के साथ निकलती हैं जिनमें गरीबों के छोटे छोटे बच्चे नंगे पैर लाइट के भारी भारी हंडे उठाये चल रहे थे। मैं आगे निकल कर सीधे विवाहस्थल तक पहुँच गया। वहॉं भी विद्युत की समुचित सजावट थी पर तथाकथित संगीत थोड़ा धीमा था। बारात वैसे ही आयी और वही सब कुछ हुआ जैसा कि आम बारातों में होता है। बस दूल्हा दुल्हन नये थे। उनके चेहरों पर कास्मेटिक्स के प्रयोग तो भरपूर थे पर वह पुरानी ललक पुलक का भाव नदारद था। बारातियों का स्वागत धन की चकाचौंध और रेडीमेड खाद्य वस्तुओं से हो रहा था पर उसमें स्वागत भाव अब नहीं होता सो यहॉं भी नहीं था। फिर सारे लोग बफे भोजन पर टूट पड़े। लाइन और अनुशासन का तो सवाल ही नहीं था। अपने अपने भिक्षापात्र लिए सब सरवाइबिल आफ फिटेस्ट का नजारा पेश कर रहे थे। महिलाएं सर्वाधिक अनुशासनहीन थीं व सबसे अधिक भीड़ आइसक्रीम काउन्टर पर थी। ज्यादातर सम्पन्न मध्यमवर्गीय परिवार के लोग थे पर मुफ्त के माल का स्वाद ही कुछ और होता है। अपने उपहार देने का मुख्य कार्यक्रम पूरा कर मैंने मुक्ति की सॉंस ली व सीधे स्टेशन आ गया। राहत सी मिली।
      इस पूरे आयोजन में न मेरा कहीं आनन्द था और न ही मेजबान का। न यात्रा का, न भोजन, न संगीत, और न ही मेहमानी का। आखिर हम इस औपचारिकता को कब तक और क्यों ढोयें? मैंने तय कर लिया है कि भविष्य में जब तक अपना या मेजबान का आनन्द नहीं महसूस करूंगा, मैं किसी दूर के विवाह समारोह में भाग नहीं लूंगा। संचार के साधनों से बधाई देते हुए उपहार की देय राशि में किराये की राशि जोड़ कर भेजना दोनों पक्षों को प्रीतिकर लगेगा।
वीरेन्द्र जैन                                                    
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629
 

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