बुधवार, अक्तूबर 30, 2013

फिल्म समीक्षा शाहिद – न्याय के लिए शहीद एक नौजवान राष्ट्रभक्त वकील की सच्ची कहानी

फिल्म समीक्षा
शाहिद – न्याय के लिए शहीद एक नौजवान राष्ट्रभक्त वकील की सच्ची कहानी
वीरेन्द्र जैन

       भोपाल में यह फिल्म केवल माल के मँहगे सिनेमाहालों के कुछ शो तक ही सीमित थी और मैं जब मैंटिनी शो में इसे देखने गया तो फिल्म शुरू होने के समय पूरे सिनेमा हाल में अकेला दर्शक था। बाद में कालेज के छात्र छात्रा के दो जोड़े और आ गये जो सम्भवतयः इस फिल्म को देखने नहीं अपितु कम दर्शकों वाले हाल में साथ बैठने के लिए ही आये थे। यह देश की एक ऎतिहासिक घटना से जुड़ी सच्ची कथा पर आधारित फिल्म है और बिडम्बना यह है कि इस इतनी महत्वपूर्ण घटना पर न तो हमपेशा वकीलों ने सम्वेदनशीलता से ध्यान दिया और न ही हमारी प्रैस और मीडिया ने इसे अपेक्षित स्थान दिया। ऐसी दशा में फिल्म निर्देशक हंशल मेहता ने व्यावसायिक खतरा उठा कर भी इस विषय पर फिल्म बना कर एक बड़ी सामाजिक जिम्मेवारी का काम किया है जिसके लिए उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाये वह कम है।
       एडवोकेट शाहिद आजमी की हत्या की खबर प्रतिदिन कई अखबार पढने वाले मेरे जैसे पाठक ने भी एक पत्रिका में लिखे लेख में पढी थी और जब उसके बारे में अपने अनेक वकील मित्रों से बातचीत की तो उनमें से किसी को भी न तो उस घटना की जानकारी ही थी और न ही उनके किसी संगठन ने शाहिद की हत्या का विरोध करते हुए उसके हत्यारों को पकड़ने के लिए कोई अभियान चलाने की कभी कोई जरूरत ही समझी। बाबरी मस्ज़िद को तोड़े जाने के विरोध में मुम्बई में उत्तेजित मुस्लिमों द्वारा किये गये विरोध के बाद उन पर संगठित हिंसक हमले हुए थे। उन हमलों के प्रत्यक्षदर्शी शाहिद के किशोर मन पर गहरा असर हुआ और वह प्रतिरोध में पाक घुसपैठियों द्वारा संचालित आतंकी प्रशिक्षण शिविर में पहुँच गया था किंतु जब वहाँ भी उसने आतंकियों को वैसा ही जुल्म करते देखा तो वह वहाँ से भाग आता है और लौट कर आने पर पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया जाता है। पुलिस के दमन से टूटकर वह उनके द्वारा बताये गये इकबालिया बयान पर दस्तखत कर देता है जिससे उसे सजा हो जाती है। जेल में जहाँ एक ओर कैदियों को आतंकी बनाने वाले कट्टरवादी सक्रिय हैं तो दूसरी ओर व्यवस्था के विरोध का राजनीतिक पाठ पढाने वाले एक्टविस्ट भी सक्रिय हैं। वह कट्टरवादियों के प्रभाव से बच कर एक्टविस्टों के विचारों से प्रभावित होता है जो उसे जेल में न केवल ऎतिहासिक भौतिकवाद ही पढाते ही हैं अपितु वकील बन कर दूसरों को न्याय दिलाने के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं। उनकी बातों का उस पर गहरा असर होता है और वह जेल से बाहर निकल कर कानून  की पढाई में जुट जाता है। वकील बन कर वह बेसहारा लोगों की मदद के लिए जुटता है जिसके लिए उसे अपने सीनियर से अलग होकर अपना अलग चैम्बर खोलना पड़ता है।
       इस कठोर सच को प्रैस परिषद के अध्यक्ष बनने के बाद न्यायमूर्ति काटजू ने भी बताया था कि किसी भी आतंकी घटना की जिम्मेवारी किसी अज्ञात केन्द्र की सूचना द्वारा किसी कथित मुस्लिम संगठन द्वारा ले ली जाती है जिसे मीडिया उचाल देता है। पुलिस उसी के सहारे कुछ मुस्लिमों को गिरफ्तार कर दमन से मनवांछित स्वीकार करा के उन्हें जेल में सड़ाती रहती है। इसके दुष्परिणाम यह होते हैं कि असली अपराधी सुरक्षित रहते हैं और बेकसूर और उनके परिवारीजन प्रताड़ित होकर व्यवस्था पर भरोसा खोते जाते हैं। ऐसे लोग भावावेश में ध्रुवीकरण की राजनीति करने वाले साम्प्रदायिक दलों का ही हित साधने का साधन बनते हैं, व इससे बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिकता करने वाले दल चुनावी लाभ में रहते हैं। यह शाहिद आज़मी ही था जिसने फीस की चिंता किये बिना ऐसे अनेक निर्दोषों का केस लड़ा और उन्हें ससम्मान मुक्ति दिलायी। इसी कारण से मिली ख्याति के कारण 26/11/08 को हुए मुम्बई हमलों के आरोपियों का केस भी उसके पास आया जिसे उसने इसलिए स्वीकार कर लिया कि उसमें कुछ निर्दोष भारतीय मुसलमानों को आतंकियों का सहयोगी बता कर पुलिस जबरदस्ती फँसा रही थी। शाहिद की पेशागत मेहनत और अकाट्य तर्कों के कारण देश के निर्दोष मुसलमान बाइज्जत बरी हुये व कसाव को फाँसी की सजा मिली। एक वकील के रूप में शाहिद आज़मी न केवल प्रशंसा का ही हकदार था अपितु उसके प्रयासों से देश के अल्पसंख्यकों के मन में न्याय व्यवस्था के प्रति जो भरोसा पैदा हुआ होगा उसका मूल्यांकन भी जरूरी है। किंतु दुर्भाग्य यह है कि उसके इस पवित्र काम के बदले उसे मौत मिली। कुछ अज्ञात लोगों ने देर रात को बुला कर उसे गोली मार दी थी। खेद की बात यह भी रही कि वकीलों के संगठन जो रेल में बिना टिकिट पकड़े गये वकीलों पर की गयी कार्यवाही के खिलाफ रेलवे स्टेशन फूंक देते हैं [जबलपुर 2010] उनमें से किसी ने कभी एक सम्भावनाशील वकील के साथ हुये ऐसे परिणाम के विरोध में कुछ भी नहीं किया और अगर यह फिल्म न बनी होती तो यह घटना तो किसी सामान्य घटना की तरह भुला ही दी गयी होती।
       राष्ट्रभक्ति केवल भारतमाता की जय के नारे या बन्दे मातरम गाने से ही प्रकट नहीं होती है अपितु वे सारे काम जिनसे देश के सारे नागरिकों में देश, संविधान, व संवैधानिक संस्थाओं के प्रति भरोसा पैदा होता हो, राष्ट्रभक्ति की कोटि में आते हैं। शाहिद ने अपनी जान की परवाह किये बिना न्याय दिलाने का काम किया है जिसके लिए वह एक शहीद के गौरव का सच्चा हकदार था। उसकी जीवन गाथा को फिल्म के माध्यम से सामने लाने के लिए हंसल मेहता ने सही काम किया है। हंशल मेहता को इस बात के लिए भी बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने इस कहानी में बहुत सारे तत्वों को सामने लाने या रेखांकित करने का काम किया है। जिस तरह ‘दिल्ली वैली’ में दिल्ली का, ‘कहानी’ में कोलकाता का, ‘रांझणा’ में बनारस का, ‘शुद्ध देसी रोमांस’ में जयपुर के असली शहर और जीवनशैली का चित्रण है, उसी तरह ‘धोबीघाट’ के बाद ‘शाहिद’ में मुम्बई के घने बसे इलाकों का यथार्थवादी चित्रण है। शाहिद के निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार के रहन सहन की कठिन स्थितियां जिनमें बच्चों को पढने के लिए देर रात तक बिजली जलाने की भी सुविधा नहीं है। घने बसे होने और एक स्थान पर सीमित हो जाने के कारण सहजता से साम्प्रदायिक हिंसा का शिकार हो जाना भी प्रदर्शित किया गया है। पुलिस के आम आदमी के साथ व्यवहार और अपराध स्वीकार कराने के लिए किये जाने वाले दमन के दृश्यों के साथ अदालतों द्वारा मुकदमों के लम्बन के कारण निर्दोषों को जेल में रहने की विवशता के दृश्य भी मार्मिक हैं। फिल्म के सारे कलाकारों ने बहुत ही स्वाभाविक अभिनय किया है और कहानी के साथ पूरा न्याय किया है। फिल्म बताती है कि साम्प्रदायिक सोच के लोग ही दुष्प्रचार से प्रभावित हो आरोपियों को अपराधी मान कर उनका मुकदमा लड़ने वाले वकीलों पर हमले नहीं करते, अपितु उनके परिवार के लोग भी घबरा कर उनका साथ छोड़ देते हैं। यह बताता है कि न्याय के पक्ष में लगातार खड़ा होना कितना कठिन होता जा रहा है, और एक साथ कितने स्तरों पर लड़ाइयां लड़ना पड़ती हैं।
       आतंकवाद और कट्टरतावाद से लड़ाई केवल बन्दूक और गोलियों के द्वारा ही नहीं लड़ी जा सकती अपितु उन्हें पैदा करने वाली परिस्थितियों को बदल कर व शीघ्र न्याय से भरोसा दिला कर भी लड़ी जा सकती है। इस सच्ची कथा के नायक की लड़ाई ऐसी ही लड़ाई है जो इसके हत्यारों को सजा दिला कर ही आगे बढाई जा सकती है। ऐसी फिल्मों को न केवल पुरस्कृत व मनोरंजन कर से मुक्त किया जाना चाहिए था अपितु टीवी के लोकप्रिय माध्यमों द्वारा जन जन तक पहुँकाने का काम भी सरकारी स्तर पर किया जाना चाहिए था। 
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629
           


गुरुवार, अक्तूबर 24, 2013

न सुधरने को कृतसंकल्प रामदेव और कानून के हाथ

न सुधरने को कृतसंकल्प रामदेव और कानून के हाथ  
वीरेन्द्र जैन

      इस बात को अभी बहुत दिन नहीं बीते हैं जब रामदेव किसी महिला के कपड़े पहिन कर रामलीला मैदान से भागे थे और उसके बाद जब अनशन करने का दावा किया था तब चौथे दिन ही कोमा में चले गये थे या बचे खुचे सम्मान को बनाये रख कर अनशन तोड़ने के लिए वैसा बहाना किया था। उस समय ऐसा लगता था कि उस भूल से उन्होंने सबक लिया होगा और असत्य को आधार बनाने के भाजपायी हथकण्डे से तौबा कर लेंगे, पर उनकी ताज़ा गतिविधियां ऐसा संकेत नहीं देतीं।
      यह मात्र संयोग ही है कि रामदेव ने अपने योग प्रशिक्षण के लिए उपयुक्त समय पर प्रचार का उपयुक्त माध्यम पाया और उससे अर्जित लोकप्रियता को व्यावसयिकता में बदलवाने वाले सलाहकार भी पाये। भारत की इस प्राचीनतम विद्या के न तो वे अविष्कारक हैं और न ही पहले प्रशिक्षक। देश के विकासक्रम में तेजी से विकसित हुए उच्च मध्यम वर्ग के घर तक पहुँचने के रंगीन टीवी के अनगिनित चैनल जैसे माध्यम जिस काल में फैले उसी दौर में योगसनों की मांग भी सर्वाधिक पैदा हुयी। संयोग से ही रामदेव बाज़ारू उत्पाद के वैसे ही ब्रांड बन गये जो उचित समय पर बाज़ार में आने, और उचित वितरण एजेंसी हाथ लग जाने पर अचानक छा जाता है। जिस तरह अपने समय के लोकप्रिय फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन को वस्तुओं के विज्ञापन करने की सलाह उचित समय पर मिली थी और जब उन्होंने संकोच छोड़ कर उसे अपनाया तो उससे अपने व्यावसायिक नुकसान की पूर्ति ही नहीं की अपितु वे इसके शिखर पर पहुँच गये। अमिताभ बच्चन एक सुशिक्षित और संस्कारवान परिवेश में विकसित हुये थे इसलिए उन्होंने कभी अपने बचपन के मित्र राजीव गान्धी के अनुरोध पर उनकी चुनावी सहायता तो की किंतु इस लोकप्रियता को राजनीतिक जगत के शिखर पर पहुँचने का साधन नहीं माना व उचित समय पर अपने मूल काम को अपना लिया। दूसरी ओर रामदेव को संयोगवश हाथ लगी व्यावसायिक सफलता ने भ्रमित कर दिया और वे अपने आप को जन्मजात दिव्य पुरुष समझने लगे। दुर्भाग्य से सिद्धांतहीन, विचारहीन राजनीति के इस दौर में जब ढेर सारी राजनीतिक पार्टियां किसी भी तरह की लोकप्रियता को अपने पक्ष में भुनाने को उतारू बैठी रहती हैं तब इन पार्टियों के आग्रह के प्रभाव में उनकी अमर्यादित महात्वाकांक्षाओं ने उन्हें स्वतंत्र राजनीतिक दल बनाने की ओर तक प्रेरित किया जिससे न केवल उनकी नासमझदारी ही प्रकट हो गयी अपितु वे उन राजनीतिक दलों की आँख की किरकिरी बन गये। भगवा रंग को थोक में भुनाने का एकाधार चाहने वाली भाजपा को उनका यह विचार सबसे अधिक खला था क्योंकि इस तरह वे अंततः उन्हीं के वोटों में सेंध लगाने वाले थे। स्मरणीय है रामदेव उर्फ राम किशन यादव की लोकप्रियता के विकसित होते समय भाजपा ही नहीं मुलायम सिंह और लालू प्रसाद की यादववादी पार्टियां और कांग्रेस के नारायन दत्त तिवारी और सुबोधकांत सहाय जैसे नेताओं ने भी उनकी मदद की थी, किंतु अलग राजनीतिक दल बनाने के उनके विचार का किसी ने भी समर्थन नहीं किया। अपने अन्दाज़ में आलोचना करते हुए लालू प्रसाद ने तो कहा था कि पेट फुलाने पिचकाने से कोई राजनेता बनने की पात्रता अर्जित नहीं कर लेता।
      भाजपा के नेता, जो उन्हें दवा उद्योग चलाने और सेवादार के नाम से मजदूरों का शोषण कर अनैतिक मुनाफा कमाने में उनकी मदद करते रहे थे, भी उनके आलोचक बन गये थे। उत्तराखण्ड में जिस भाजपा शासन ने उन्हें कौड़ी के मोल कीमती ज़मीनें देकर बदले में चुनाव के लिए समुचित चन्दा भी हस्तगत किया था, अपने सहयोगी हाथ सिकोड़ लिये थे। जब अन्ना हजारे के अनशन के समय वे मंच की ओर बढने जा रहे थे तब अपने आन्दोलन को गैरराजनीतिक मानने वाले अन्ना के समर्थकों ने उन्हें खदेड़ दिया था। सच है कि राजनीतिक दल उनकी लोकप्रियता का लाभ लेना चाहते थे किंतु उन्हें स्वतंत्र रूप से राजनीतिक दल के रूप में मान्यता देने के विचार से सहमत नहीं थे।
      रामदेव किसी विचार या मुद्दे को लेकर राजनीति में नहीं आये थे अपितु राजनीति में प्रवेश करने के लिए उन्होंने मुद्दा आयात किया। वे विदेशों में जमा काले धन के जिस अस्पष्ट  मुद्दे को लेकर सामने आये वह बामपंथी पार्टियों द्वारा बहुत वर्षों से उठाया जाता रहा था व पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान जेडी-यू व भाजपा ने भी उस पर काफी जोर दिया था। मुद्रास्फीति के इस दौर में उन्होंने काले धन को नियंत्रित करने के लिए बड़े नोटों को बन्द करने का अव्यवहारिक विचार दिया जो उनकी अनुभवहीनता का नमूना था। रामदेव के गुरु एक दिन अचानक ही गायब हो गये थे किंतु उन्होंने उनके गायब होने की कोई चिंता नहीं की, अपितु उस घटना पर चर्चा से ही परहेज करते रहे। रामदेव की क्षमता केवल योगासनों के प्रशिक्षक तक तो ठीक थी और तब विचार देने का काम उनके सहयोगी राजीव दीक्षित किया करते थे जिनका अचानक ही संदिग्ध स्थितियों में निधन हो गया जिससे रामदेव का संस्थान विकलांगता महसूस करने लगा। भाजपा के चतुर नेताओं ने उन्हें उनकी हैसियत समझा दी और राजनीतिक दल बनाने का विचार छोड़ देने को विवश करते हुए उन्हें अपना प्रचारक बना लिया।
      एक्टविस्ट और कुशल वक्ता राजीव दीक्षित के निधन के बाद रामदेव के मुँह से जो निजी विचार निकले उसने उनकी कलई खोल दी। न उनके पास विचार हैं, न भाषा, और न ही शिष्टता, विनम्रता, करुणा जैसे गुण ही हैं, जो उन्हें राजनेता और संत दोनों के लिए अयोग्य होने को प्रकट करते हैं। उनका हाल पंचतंत्र की कथा में शेर की खाल ओढ लेने वाले पशु की तरह से हो गया जो जब अपने स्वर में बोलने लगा तो उसकी पहचान हो गयी और उसी अनुरूप में उसने दण्ड भुगता।
      रामदेव ने अपनी लोकप्रियता से जो ब्रांडवैल्यू अर्जित की उससे उन्होंने अपने को जिस व्यापार की दुनिया में उतारा उसमें भी सारी व्यापारिक अनियमितताएं अपनायीं जिसमें मिलावट, श्रम कानूनों के उल्लंघन से लेकर कर वंचना तक के हथकण्डे सम्मलित रहे। योगप्रशिक्षक की अपनी लोकप्रियता को भुनाने के लिए उन्होंने दूसरी कम्पनियों में निर्मित किराना सामग्री से लेकर टूथब्रुश तक सब कुछ बेचना चाहा। सरकारी संस्थानों को गलत जानकारियां देकर अनुचित लाभ उठाया और योग प्रशिक्षण के नाम पर ज़मीन हस्तगत कर उसे उद्योग व व्यापार के लिए उसका स्तेमाल किया। इस पर भी जब वे भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे किसी राजनीतिक दल के प्रचारक बन कर चुनाव वाले राज्यों में योग के बहाने अभद्र भाषा में नैतिकता का पाठ पढाने की कोशिश करने लगे तो सूप और चलनी वाली कहावत चरितार्थ होते देर नहीं लगी। उनके भाषणों के विषय को देखते हुए चुनाव आयोग को उनकी सभाओं के खर्च को भाजपा के चुनाव खर्च में जोड़ने के आदेश देने पड़े। ऐसा लगता है कि वे अपनी अनियमित्ताओं को राजनीतिक विषय के साथ जोड़ कर कार्यवाही से बचने का वैसा ही बहाना ले रहे हैं जिस तरह से सीबीआई की सम्भावित कार्यवाही से सुरक्षा के लिए मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित कर दिया है। पर लालूप्रसाद, जगन्नाथ मिश्र, और आशाराम के खिलाफ चली कार्यवाहियों ने उम्मीद बँधायी है कि न्यायपालिका स्वतंत्र है और वह भले ही देर कर दे पर अपना काम करेगी। बकरी की माँ कब तक खैर मनायेगी!
वीरेन्द्र जैन
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म.प्र. में निर्वाचन आयोग के निर्देशों को नकारती भाजपा

म.प्र. में निर्वाचन आयोग के निर्देशों को नकारती भाजपा
वीरेन्द्र जैन

      किसी भी लोकतंत्र में ईमानदार निर्वाचन के लिए एक स्वतंत्र, सक्षम और समर्थ निर्वाचन आयोग जरूरी होता है जिसकी उपस्थिति ही हमारे देश में लोकतंत्र को बनाये हुये है जबकि हमारे अनेक पड़ोसी देशों में उसकी कमी साफ नजर आती है। खेद की बात है कि येन केन प्रकारेण सत्ता हस्तगत करने को उतावली रहने वाली भाजपा, जिसकी मातृपितृ संस्था पर हिटलर की नीतियों का पूर्ण प्रभाव है और जो उसके निर्देश पर काम करती है, द्वारा निर्वाचन आयोग के नीति निर्देशों को खुली चुनौती दी जा रही है। ऐसी स्थिति में पाँच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में भाजपा शासित राज्यों में स्वतंत्र चुनाव कठिन दिखायी देने लगे हैं।       
      किसी भी चुनाव में जन समर्थन के आधार पर जीत हार होती है जिसे स्वीकारना ही लोकतांत्रिक होना है, पर इतिहास गवाह है कि भाजपा अपनी हार को लोकतांत्रिक तरीके से स्वीकारने में सदैव ही हिचकती रही है और निर्वाचन से जुड़ी व्यवस्था को ही निशाना बनाती रही है। जब 1971 के लोकसभा चुनावों में श्रीमती इन्दिरा गान्धी द्वारा उठाये गये बैंकों के राष्ट्रीयकरण और पूर्व राजाओं के प्रिवीपर्स की समाप्ति जैसे कदमों के कारण उनकी पार्टी को व्यापक समर्थन मिला था, तब भाजपा[जनसंघ] के पूर्व अध्यक्ष बलराज मधोक ने रूस से आयात स्याही द्वारा मतपत्रों में पैदा बदलाव के नाम पर उन परिणामों को नकारा था। यह आरोप हमारे निर्वाचन आयोग की स्वतंत्रता और विश्वसनीयता पर सीधा हमला था जिसे सिर्फ भाजपा[जनसंघ] ने लगाया था। बाद में उस हास्यास्पद आरोप की विश्वव्यापी निन्दा के कारण अटल बिहारी वाजपेयी ने लीपा पोती करने की कोशिश की थी। पिछले लोकसभा चुनावों में भी अपनी पराजय के वाद उन्होंने ईवीएम मशीनों की विश्वसनीयता पर सन्देह प्रकट किया था जबकि इन्हीं मशीनों के आधार पर लगभग आठ विधानसभा चुनावों में उनके दल या गठबन्धन को मिले समर्थन पर उन्हें इन से कोई शिकायत नहीं रही। 2002 में सरकारी संरक्षण में गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार हुआ था व उससे जनित ध्रुवीकरण के चलते सचाई सामने आने से पहले नरेन्द्र मोदी शीघ्र से शीघ्र चुनाव करा लेना चाहते थे, पर जब तत्कालीन चुनाव आयुक्त लिंग्दोह ने राज्य के अधिकारियों से मिली रिपोर्ट के आधार पर चुनाव की तिथियां आगे बढायीं तब इन्हीं मोदी ने, जो आज भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित हैं, उस ईमानदार और निष्पक्ष चुनाव आयुक्त के खिलाफ जैसी भाषा का स्तेमाल किया था वैसी भाषा का प्रयोग देश के किसी अन्य प्रमुख राजनीतिक दल के नेताओं ने कभी नहीं किया।
      गत दिनों मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार के उद्योगमंत्री ने निर्वाचन आयोग को धमकियां देने की नीति का श्रीगणेश कर दिया है। उन्होंने सार्वजनिक मंच से दशहरा के अवसर पर राजपूत समाज के शस्त्र पूजन समारोह में न केवल भाग लिया अपितु कहा कि आचार संहिता की चिंता मैं नहीं करता जो कहती है कि युवतियों को भेंट मत दो, सामाजिक सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यक्रमों का हिस्सा मत बनो, ऐसी आचार संहिता को मैं ठोकर मारता हूं। चुनाव आयोग को मैंने कहा कि अपनी बात मत थोपो, व्यवहारिक बात करो। इससे पहले दिन भी उन्होंने शहर के चौराहे पर उद्योग विभाग का एक बड़ा भवन बनाने और सेंट्रल इंडिया का पावर हाउस बनाने की घोषणा की थी, जिसे सामाजिक सांस्क्रतिक धार्मिक ओट देना सम्भव नहीं है। [दैनिक भास्कर भोपाल 15/10/2013]         
      जहाँ सरकार के उद्योग मंत्री धर्म संस्कृति के नाम पर निर्वाचन आयोग के निर्देशों का उपहास कर रहे हैं तो दूसरी ओर राम किशन यादव उर्फ बाबा रामदेव योग प्रशिक्षण के नाम पर भाजपा के विरोधियों को राक्षस घोषित करके उन्हें ईवीएम मशीन की मदद से नष्ट करने का आवाहन कर रहे हैं। यह संयोग नहीं है कि योग के प्रचार का बुखार उन्हें आगामी आम चुनावों वाले राज्यों में ही लगातार घुमा रहा है। उल्लेखनीय है कि उनकी छत्तीसगढ यात्रा के दौरान उनके वचनों का संज्ञान लेते हुए निर्वाचन आयोग ने उनका राज्य अतिथि का दर्ज़ा खत्म करा दिया था और उनका सारा खर्च भाजपा के चुनाव खर्च में जोड़ने के निर्देश दिये थे, पर इसके बाद भी उन्होंने खजुराहो में स्वयं को निर्वाचन आयोग का ब्रांड एम्बेसडर बताते हुए व्यंजनापूर्ण भाषण दिया।
      मध्यप्रदेश के डबरा कस्बे में ही जब निर्वाचन आयोग के निर्देशों के परिपालन में प्रशासन ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पथ संचालन की वीडियोग्राफी कराना चाही तो स्वयं सेवकों ने वीडियोग्राफर से कैमरा छीन कर उसे क्षतिग्रस्त कर दिया और तहसीलदार को डबरा पुलिस थाने में जिला संघ चालक सहित तीन स्वयं सेवकों के खिलाफ मामला दर्ज़ कराना पड़ा। इसी दिन राजधानी भोपाल में पुलिस ने तलवारें छुरियों के एक ज़खीरे को बरामद किया जिसमें उसे 603 तलवारें और 45 छुरियां मिलीं। इस निर्माण स्थल पर उसे ग्राइन्डर, कटर, छेनी, हथौड़े की मदद से तलवारें छुरियां बनाते छह लोग मौके पर ही मिले। समाचार पत्रों में आरोपियों के नाम धरम विश्वकर्मा,, राम सिंह, तिलक सिंह, बदन सिंह, राजा विश्वकर्मा और जितेन्द्र दांगी बताये हैं, पर सावधानीवश इतने बड़े आर्डर को देने वाले का नाम अभी नहीं बताया गया है। चुनावों के दौरान जब खंडवा जेल से फरार सिमी के खूंखार आतंकियों का अभी तक कोई पता नहीं चल पाया है, ऐसे में हथियारों का यह ज़खीरा पकड़ा जाना स्वतंत्र निर्वाचन में आने वाली बाधाओं के संकेत दे रहा है।
      सरकारी दल, उसके नेता, उसके घोषित-अघोषित प्रचारकों के कारनामे इस बात के संकेत हैं कि भाजपा किसी भी तरह से यह चुनाव जीतना चाहती है जिसके बारे में उसके राष्ट्रीय और प्रादेशिक नेता लगातार एक वर्ष से कहते आ रहे हैं कि पार्टी की जीत सरल नहीं है और प्रदेश के नेता 2004 जैसी गलतफहमी के शिकार हैं। ऐसी ही परिस्तिथियों में ये विचार परवान चढते हैं कि राज्यों के चुनाव राष्ट्रपति शासन के दौरान ही स्वतंत्र और निष्पक्ष हो सकते हैं और ऐसे विचारों के लिए भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सोच व कार्यप्रणाली जिम्मेवार है।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, अक्तूबर 16, 2013

पशुबलि और राजनीति

पशुबलि और राजनीति
 वीरेन्द्र जैन

  वरिष्ठ राजनीतिक चिंतक डा. राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि राजनीति अल्पकालीन धर्म है और धर्म दीर्घकालिक राजनीति है।
 इतिहासकार बताते हैं कि प्राचीनकाल में जब यज्ञ, धर्म और राजनीति का अटूट हिस्सा माने जाते थे तब यज्ञों में पशुओं की बलि दी जाती थीं जिसकी अनेक विधियां पुराणों में वर्णित हैं। अश्वमेघ यज्ञ की विधियों के बारे में आज बहुत कम लोग जानते हैं जो बहुत ही जुगुप्सापूर्ण है। यज्ञों के कई प्रसंग तो ऐसे हैं जिन्हें आज लिखा तक नहीं जा सकता। यद्यपि जैन लोग इसे स्वीकार नहीं करते किंतु इतिहासकार मानते हैं कि जैन धर्म का उद्भव और विकास यज्ञों में पशुओं की बलि के विरोध में ही हुआ था। जिन गौतम बुद्ध का सन्देश पूरी दुनिया में फैला उनकी जीवनी में पहला महत्वपूर्ण प्रसंग उनके भाई द्वारा किसी पक्षी का तीर से शिकार करना और बुद्ध द्वारा उसकी रक्षा करने के सन्दर्भ वाला ही आता है। आज की दुनिया के बहुसंख्यक मांसाहारी किसी पशु को स्वयं मार नहीं सकते और अगर पशु वधग्रह बन्द हो जायें तो मांसाहारियों की संख्या दस प्रतिशत से कम रह जाने का अनुमान है। आज पशुवध का व्यवसाय करने वालों के अलावा यह धर्मान्धता ही है जो अन्य लोगों से भी पशुवध करवाती है। हिन्दुओं में शाक्त लोग देवी के मन्दिर में पशु बलि देते हैं, पूजा में अंडा फोड़ते हैं, तो मुसलमान ईदुज्जुहा के दिन भेड़ बकरी ऊंट आदि की कुर्बानी देते हैं। भारत के अलावा दूसरे देशों के मुसलमान अन्य पशुओं के साथ साथ गायों बैलों आदि की कुर्बानी भी देते हैं, पर हमारे देश में अनेक राज्यों में गौकशी पर प्रतिबन्ध है। शाकाहारी लोग मांसाहारियों से नफरत करते हैं क्योंकि उनके परिवार और परिवेश में उन्हें बचपन से ही मांसाहार और मांसाहारियों से नफरत करना सिखाया जाता है। इस नफरत का स्तेमाल कुछ साम्प्रदायिक राजनीतिक दल साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए करते हैं क्योंकि नफरत का यह तैयार बीज उन्हें परम्परा से सहज ही मिल जाता है। कुटिलता की राजनीति करने वाले मतदाताओं की हर कमजोरी का लाभ लेने की कोशिश करते हैं जिनमें मांसाहार से नफरत भी शामिल है। चुनावी वर्ष में वे इसका भी स्तेमाल कर रहे हैं। पिछले दिनों सम्पन्न हुए ईदुज्जुहा के अवसर पर भाजपा समर्थक सोशल मीडिया के प्रचारकों ने पशुबलि की भयावहता और मानवीय संवेदना को झकझोर देने वाली पोस्टों की जो बाढ पैदा की वह चिंता पैदा करने वाली है। ऐसे प्रचार ही साम्प्रदायिक दंगों की भावभूमि तैयार कर देते हैं जिससे मामूली सी दुर्घटना भी बड़े दंगों का कारण बन जाती है। देश में संस्थागत रूप से साम्प्रदायिकता फैलाने वाली शक्तियों के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष शक्तियां शिथिल हैं। जिन साम्प्रदायिक शक्तियों ने पशु बलि के खिलाफ या कहें कि उसके बहाने नफरत फैलाने का जो अभियान चलाया है, उन्हें उस विषय पर बात करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है, क्योंकि वे स्वयं ही उस धर्म के नाम की राजनीति करते हैं जिसमें पशुबलि की भी परम्परायें हैं। भीष्म साहनी के प्रसिद्ध उपन्यास ‘तमस’, जिस पर एक सफल धारावाहिक भी बन चुका है, में संघ के स्वयं सेवक को मुर्गी काटना सिखा कर हिंसा से उसकी हिचकिचाहट को दूर करते हुए दर्शाया गया है। उल्लेखनीय है कि जब भाजपा नेता और तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने तामिलनाडु से भारत यात्रा का प्रारम्भ किया था तब उसकी सफलता के लिए पशुबलि दिये जाने का समाचार प्रकाश में आया था। हिन्दुओं में शाकाहारियों की संख्या पन्द्रह प्रतिशत से अधिक नहीं है और हिन्दुओं की साम्प्रदायिक पार्टी शाकाहार को आधार नहीं बना सकती इसलिए पशुबलि के नाम से मुसलमानों के त्योहार का विरोध कर रही है। दूसरी ओर अल्पसंख्यक मोर्चा बना कर ये मतदान के लिए मुसलमानों को बरगलाने में कोई कसर नहीं छोड़ते और ईदुज्जहा पर मुसलमानों को बधाई देने में ईदगाह पर सबसे आगे खड़े होने की कोशिश करते हैं। यहाँ सवाल पशुबलि के विरोध या पक्षधरता से ज्यादा एक राजनीतिक पार्टी के रवैये और उसके दुहरे चरित्र का है। ये बहुसंख्यकों का समर्थन पाने के लिए उस हर वस्तु का विरोध करते हैं जो अल्पसंख्यकों की आस्था या पहचान से जुड़ा है, और पशुबलि विरोध भी उनमें से एक है। जरूरत इनकी चाल और चरित्र को पहचानने की है।