बुधवार, अक्तूबर 30, 2013

फिल्म समीक्षा शाहिद – न्याय के लिए शहीद एक नौजवान राष्ट्रभक्त वकील की सच्ची कहानी

फिल्म समीक्षा
शाहिद – न्याय के लिए शहीद एक नौजवान राष्ट्रभक्त वकील की सच्ची कहानी
वीरेन्द्र जैन

       भोपाल में यह फिल्म केवल माल के मँहगे सिनेमाहालों के कुछ शो तक ही सीमित थी और मैं जब मैंटिनी शो में इसे देखने गया तो फिल्म शुरू होने के समय पूरे सिनेमा हाल में अकेला दर्शक था। बाद में कालेज के छात्र छात्रा के दो जोड़े और आ गये जो सम्भवतयः इस फिल्म को देखने नहीं अपितु कम दर्शकों वाले हाल में साथ बैठने के लिए ही आये थे। यह देश की एक ऎतिहासिक घटना से जुड़ी सच्ची कथा पर आधारित फिल्म है और बिडम्बना यह है कि इस इतनी महत्वपूर्ण घटना पर न तो हमपेशा वकीलों ने सम्वेदनशीलता से ध्यान दिया और न ही हमारी प्रैस और मीडिया ने इसे अपेक्षित स्थान दिया। ऐसी दशा में फिल्म निर्देशक हंशल मेहता ने व्यावसायिक खतरा उठा कर भी इस विषय पर फिल्म बना कर एक बड़ी सामाजिक जिम्मेवारी का काम किया है जिसके लिए उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाये वह कम है।
       एडवोकेट शाहिद आजमी की हत्या की खबर प्रतिदिन कई अखबार पढने वाले मेरे जैसे पाठक ने भी एक पत्रिका में लिखे लेख में पढी थी और जब उसके बारे में अपने अनेक वकील मित्रों से बातचीत की तो उनमें से किसी को भी न तो उस घटना की जानकारी ही थी और न ही उनके किसी संगठन ने शाहिद की हत्या का विरोध करते हुए उसके हत्यारों को पकड़ने के लिए कोई अभियान चलाने की कभी कोई जरूरत ही समझी। बाबरी मस्ज़िद को तोड़े जाने के विरोध में मुम्बई में उत्तेजित मुस्लिमों द्वारा किये गये विरोध के बाद उन पर संगठित हिंसक हमले हुए थे। उन हमलों के प्रत्यक्षदर्शी शाहिद के किशोर मन पर गहरा असर हुआ और वह प्रतिरोध में पाक घुसपैठियों द्वारा संचालित आतंकी प्रशिक्षण शिविर में पहुँच गया था किंतु जब वहाँ भी उसने आतंकियों को वैसा ही जुल्म करते देखा तो वह वहाँ से भाग आता है और लौट कर आने पर पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया जाता है। पुलिस के दमन से टूटकर वह उनके द्वारा बताये गये इकबालिया बयान पर दस्तखत कर देता है जिससे उसे सजा हो जाती है। जेल में जहाँ एक ओर कैदियों को आतंकी बनाने वाले कट्टरवादी सक्रिय हैं तो दूसरी ओर व्यवस्था के विरोध का राजनीतिक पाठ पढाने वाले एक्टविस्ट भी सक्रिय हैं। वह कट्टरवादियों के प्रभाव से बच कर एक्टविस्टों के विचारों से प्रभावित होता है जो उसे जेल में न केवल ऎतिहासिक भौतिकवाद ही पढाते ही हैं अपितु वकील बन कर दूसरों को न्याय दिलाने के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं। उनकी बातों का उस पर गहरा असर होता है और वह जेल से बाहर निकल कर कानून  की पढाई में जुट जाता है। वकील बन कर वह बेसहारा लोगों की मदद के लिए जुटता है जिसके लिए उसे अपने सीनियर से अलग होकर अपना अलग चैम्बर खोलना पड़ता है।
       इस कठोर सच को प्रैस परिषद के अध्यक्ष बनने के बाद न्यायमूर्ति काटजू ने भी बताया था कि किसी भी आतंकी घटना की जिम्मेवारी किसी अज्ञात केन्द्र की सूचना द्वारा किसी कथित मुस्लिम संगठन द्वारा ले ली जाती है जिसे मीडिया उचाल देता है। पुलिस उसी के सहारे कुछ मुस्लिमों को गिरफ्तार कर दमन से मनवांछित स्वीकार करा के उन्हें जेल में सड़ाती रहती है। इसके दुष्परिणाम यह होते हैं कि असली अपराधी सुरक्षित रहते हैं और बेकसूर और उनके परिवारीजन प्रताड़ित होकर व्यवस्था पर भरोसा खोते जाते हैं। ऐसे लोग भावावेश में ध्रुवीकरण की राजनीति करने वाले साम्प्रदायिक दलों का ही हित साधने का साधन बनते हैं, व इससे बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिकता करने वाले दल चुनावी लाभ में रहते हैं। यह शाहिद आज़मी ही था जिसने फीस की चिंता किये बिना ऐसे अनेक निर्दोषों का केस लड़ा और उन्हें ससम्मान मुक्ति दिलायी। इसी कारण से मिली ख्याति के कारण 26/11/08 को हुए मुम्बई हमलों के आरोपियों का केस भी उसके पास आया जिसे उसने इसलिए स्वीकार कर लिया कि उसमें कुछ निर्दोष भारतीय मुसलमानों को आतंकियों का सहयोगी बता कर पुलिस जबरदस्ती फँसा रही थी। शाहिद की पेशागत मेहनत और अकाट्य तर्कों के कारण देश के निर्दोष मुसलमान बाइज्जत बरी हुये व कसाव को फाँसी की सजा मिली। एक वकील के रूप में शाहिद आज़मी न केवल प्रशंसा का ही हकदार था अपितु उसके प्रयासों से देश के अल्पसंख्यकों के मन में न्याय व्यवस्था के प्रति जो भरोसा पैदा हुआ होगा उसका मूल्यांकन भी जरूरी है। किंतु दुर्भाग्य यह है कि उसके इस पवित्र काम के बदले उसे मौत मिली। कुछ अज्ञात लोगों ने देर रात को बुला कर उसे गोली मार दी थी। खेद की बात यह भी रही कि वकीलों के संगठन जो रेल में बिना टिकिट पकड़े गये वकीलों पर की गयी कार्यवाही के खिलाफ रेलवे स्टेशन फूंक देते हैं [जबलपुर 2010] उनमें से किसी ने कभी एक सम्भावनाशील वकील के साथ हुये ऐसे परिणाम के विरोध में कुछ भी नहीं किया और अगर यह फिल्म न बनी होती तो यह घटना तो किसी सामान्य घटना की तरह भुला ही दी गयी होती।
       राष्ट्रभक्ति केवल भारतमाता की जय के नारे या बन्दे मातरम गाने से ही प्रकट नहीं होती है अपितु वे सारे काम जिनसे देश के सारे नागरिकों में देश, संविधान, व संवैधानिक संस्थाओं के प्रति भरोसा पैदा होता हो, राष्ट्रभक्ति की कोटि में आते हैं। शाहिद ने अपनी जान की परवाह किये बिना न्याय दिलाने का काम किया है जिसके लिए वह एक शहीद के गौरव का सच्चा हकदार था। उसकी जीवन गाथा को फिल्म के माध्यम से सामने लाने के लिए हंसल मेहता ने सही काम किया है। हंशल मेहता को इस बात के लिए भी बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने इस कहानी में बहुत सारे तत्वों को सामने लाने या रेखांकित करने का काम किया है। जिस तरह ‘दिल्ली वैली’ में दिल्ली का, ‘कहानी’ में कोलकाता का, ‘रांझणा’ में बनारस का, ‘शुद्ध देसी रोमांस’ में जयपुर के असली शहर और जीवनशैली का चित्रण है, उसी तरह ‘धोबीघाट’ के बाद ‘शाहिद’ में मुम्बई के घने बसे इलाकों का यथार्थवादी चित्रण है। शाहिद के निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार के रहन सहन की कठिन स्थितियां जिनमें बच्चों को पढने के लिए देर रात तक बिजली जलाने की भी सुविधा नहीं है। घने बसे होने और एक स्थान पर सीमित हो जाने के कारण सहजता से साम्प्रदायिक हिंसा का शिकार हो जाना भी प्रदर्शित किया गया है। पुलिस के आम आदमी के साथ व्यवहार और अपराध स्वीकार कराने के लिए किये जाने वाले दमन के दृश्यों के साथ अदालतों द्वारा मुकदमों के लम्बन के कारण निर्दोषों को जेल में रहने की विवशता के दृश्य भी मार्मिक हैं। फिल्म के सारे कलाकारों ने बहुत ही स्वाभाविक अभिनय किया है और कहानी के साथ पूरा न्याय किया है। फिल्म बताती है कि साम्प्रदायिक सोच के लोग ही दुष्प्रचार से प्रभावित हो आरोपियों को अपराधी मान कर उनका मुकदमा लड़ने वाले वकीलों पर हमले नहीं करते, अपितु उनके परिवार के लोग भी घबरा कर उनका साथ छोड़ देते हैं। यह बताता है कि न्याय के पक्ष में लगातार खड़ा होना कितना कठिन होता जा रहा है, और एक साथ कितने स्तरों पर लड़ाइयां लड़ना पड़ती हैं।
       आतंकवाद और कट्टरतावाद से लड़ाई केवल बन्दूक और गोलियों के द्वारा ही नहीं लड़ी जा सकती अपितु उन्हें पैदा करने वाली परिस्थितियों को बदल कर व शीघ्र न्याय से भरोसा दिला कर भी लड़ी जा सकती है। इस सच्ची कथा के नायक की लड़ाई ऐसी ही लड़ाई है जो इसके हत्यारों को सजा दिला कर ही आगे बढाई जा सकती है। ऐसी फिल्मों को न केवल पुरस्कृत व मनोरंजन कर से मुक्त किया जाना चाहिए था अपितु टीवी के लोकप्रिय माध्यमों द्वारा जन जन तक पहुँकाने का काम भी सरकारी स्तर पर किया जाना चाहिए था। 
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629
           


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