बुधवार, अप्रैल 28, 2010

संस्मरण- स्मृति शेष मुनीन्द्रजी

संस्मरण

स्मृति शेष मुनीन्द्रजी-
जो पौधों को सींचना जानते थे
वीरेन्द्र जैन
दक्षिण समाचार के ताज़ा अंक से ही मालूम हो सका के गत 16 अप्रैल को मुनीन्द्रजी नहीं रहे।
मेरे मन में बचपन से ही एक साहित्यकार-पत्रकार बनने का सपना पलता रहा था किंतु इस काम के व्यवहारिक पक्ष से भी मैं अनभिज्ञ नहीं था जिस कारण से अपनी रोज़ी रोटी के लिए बैंक में नौकरी की और उसे लगातार 29 साल तक खींचता रहा जब तक कि बैंक में स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति योजना नहीं आ गयी। नौकरी के काम के बोझ में इस बीच साहित्य और पत्रकारिता जगत में काम करने का सपना मुर्झा गया होता अगर उसे सींचने वाले कुछ लोग नहीं मिले होते। मुनीन्द्रजी भी उनमें से एक थे।
1980 में जब गाजियाबाद में पदस्थ रहते हुये मैं अपने बैंक के सर्वोच्च अधिकारी से पंगा ले बैठा जो नियमों और कानून कायदों से मेरे खिलाफ कोई कार्यावाही करने की स्थिति में नहीं था तो उसने अपना अंतिम ब्रम्हास्त्र चलाया जो कि टांसफर का था और मेरा ट्रांस्फर लगभग 1500 किलोमीटर दूर गाज़ियाबाद से हैदराबाद कर दिया, आम भाषा में इसे फैंका जाना कहा जाता है। यह उसका अधिकार था और मुझे तथा मेरे बच्चों को होने वाली तक़लीफों से नियमों का कोई उल्लंघन नहीं होता था। अपना फोल्डिंग सामान समेटने से पहले मैंने इतना भर काम किया कि अपने साहित्यिक मित्रों को पत्र लिख कर हैदराबाद के उनके परिचितों के पते देने और उन्हें मेरे बारे मैं पत्र लिखने का अनुरोध किया।
इस दिशा में मुझे सबने सहयोग किया और बिना किसी तैयारी के मय सामान और बाल बच्चों के इतनी दूर सीधे पहुँचने का दुस्साहस करने पर भी असुविधाओं की जगह मुझे जो प्रेम और सम्मान मिला वह दिल को छू लेने वाला था। हैदराबाद गैर हिन्दी भाषी प्रदेश की राजधानी जहाँ मैं इससे पहले कभी नहीं गया था और व्यक्तिगत रूप से किसी को नहीं जानता था। संयोग से मेरा कार्यालय और जहाँ मुझे मकान मिला वह मुनीन्द्र जी के निवास के पास था, तथा परिचितों के एक दो पत्र उनके पास भी आये थे।
मैं तब तक मुनीन्द्रजी के व्यक्तित्व और कृतित्व से ना के बराबर परिचित था किंतु मेरा परिचय देने वालों ने मेरे बारे में ज़रूर अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से लिखा होगा जिसके परिणाम स्वरूप पहले ही माह में मुझे हिन्दी लेखक संघ की मासिक गोष्ठी की अध्यक्षता करने का अवसर मिला और अगली गोष्टी का आयोजन मेरे एकल काव्य पाठ का हुआ। कभी वे वहाँ त्रिवेणी नामक एक संस्था चलाते थे जिसमें हिन्दी उर्दू और तेलगु के साहित्यकार एक साथ रचना पाठ करते थे जो बन्द हो गयी थी। उन्होंने उसे दुबारा शुरू किया और पहले तीन कवियों में से हिन्दी के कवि के रूप में मेरा नाम रखा जिस्की अध्यक्षता बद्री विशाल पित्ती को करना थी, जिससे म्मैं बेहद नर्वस था। सन्योग से पित्तीजी नहीं आ सके किंतु उस दिन की नर्वसनैस मुझे आज भी याद है। मुझे दक्षिण समाचार जो तब हैदराबाद समाचार के नाम से निकलता था के अंक मिलने शुरू हो गये जिनमें समाचार और हिन्दी साहित्य के अलावा वहाँ के हिन्दी भाषी समाज के प्रमुख लोगों के दुख सुख के समाचार भी प्रकाशित होते थे। उल्लेखंनीय है कि हैदराबाद में समुचित संख्या में राजस्थान का मारवाड़ी समाज कई पीढियों से व्यापार करता है और एक अल्पसंख्यक या कहें कि प्रवासी मानसिकता की तरह बेगम बाज़ार के आस पास ही केन्द्रित था और एकजुट होकर हिन्दी का झंडा उठाये हुये था। ये लोग् हिन्दी साहित्य के आयोजनों को सहयोग भी करते थे। हैदराबाद समाचार ऐसे सभी हिन्दी भाषियों के घरों का आवश्यक अंग था, जिसके परिणाम स्वरूप उसमें छपने के बाद कोई भी सूचना पूरे हिन्दी समाज की जानकारी में आ जाती थी। मेरे बारे में भी मुनीन्द्रजी को प्राप्त जानकारी सूचना की तरह प्रकाशित हुयी जिससे साहित्य में रुचि रखने वाले सभी लोग मुझे पहचानने लगे। उस दौरान होने वाली प्रत्येक सरकारी-गैरसरकारी गोष्ठी में मैं पहले दस कवियों में बुलाया जाने लगा था। उस समय तक मैं हल्की-फुल्की व्यंग्य कविताओं, क्षणिकाओं, या लघुकथाओं के अलावा मंच पर पढी जाने वाली मंचीय कविताएं ही लिखता आया था। कभी दो चार व्यंग्य लेख छपे थे। मुनीन्द्रजी ने मुझसे बड़ी गद्य रचना मांगी तो लिखना पड़ी। मैं उस रचना के प्रति बेहद सजग था और किसी परीक्षार्थी की तरह पूरी ऊर्ज़ा से लिखी ताकि उनके द्वारा मेरे परिचय में लिखे शब्द झूठे न पड़ जायें। रचना ने व्यापक प्रतिक्रिया अर्जित की । वह परसाईजी का ज़माना था और मैं परसाईजी से बुरी तरह प्रभावित था सो साम्प्रदायिकता के खिलाफ भी वैसे ही तेवर थे जबकि हैदराबाद समाचार जिन लोगों के बीच पढा जाता था उनमें से अधिकांश कई कारणों से हिन्दू साम्प्रदायिकता के पक्षधर थे। उन्होंने विरोध में पत्र भी लिखे किंतु समाजवादी मुनीन्द्रजी ने कोई परवाह नहीं की और मेरे लिखे को लगातार छाप कर मुझे प्रोत्साहित करते रहे। इसी प्रोत्साहन ने मेरे व्यंग्य को धार देने का काम किया। एक बार तो हैदराबाद समाचार की 25वीं जयंती पर वहाँ के ज़ू में एक विचार गोष्ठी और दावत का आयोजन किया गया तो एक सज्जन से झगड़े की नौबत तक आ गयी किंतु बाद में वेणु गोपाल और मुनीन्द्र जी ने मेरा पक्ष लेकर मुझे कमजोर नहीं पड़ने दिया।
मुनीन्द्रजी का योगदान हिन्दी साहित्य में इसलिए स्मरणीय रहेगा कि उन्होंने जिस ‘कल्पना’ का सम्पादन किया उसने उस दौर के हिन्दी के सारे मूर्धन्य साहित्यकारों को मंच दिया या कह सकते हैं कि कल्पना में छपने के बाद ही वे अपनी प्रतिभा को अखिल भारतीय कर सके, क्योंकि यह पत्रिका लम्बे समय तक हिन्दी साहित्य की इकलौती प्रमुख पत्रिका रही। मुनीन्द्रजी के साथ रघुवीर सहाय, ओम प्रकाश निर्मल, प्रयाग शुक्ल, भवानी प्रसाद मिश्र, राजा दुबे, आदि समय समय पर सहयोगी रहे किंतु लगातार काम करने वालों में मुनीन्द्रजी ही थे और उन्हें ही प्रमुख माना जाता था। एम.एफ हुसैन भी उसी समय बद्री विशाल पित्ती जी के लिए रामायण पर अपनी पेंटिंग्स बना रहे थे। हिन्दी साहित्य की मुक्तिबोध की ऐतिहासिक कविता “अन्धेरे में” सबसे पहले उन्होंने ही कल्पना में छापी थी और तब उसका शीर्षक था “सम्भावनाओं के दीप अन्धेरे में”। उन दिनों हरि शंकर परसाईजी का स्तम्भ “और अंत में” भी उन्हीं के कार्यकाल में छपा जिसने परसाईजी की प्रतिभा की पहचान पूरे देश को करवाई। ऐसे ढेर सारे उदाहरण मौजूद हैं, यदि ऐसा काम किसी दूसरे ने किया होता तो वह ज़िन्दगी भर इसी को गाता और इसी की खाता रहता किंतु ये बातें मुझे कभी भी उनके मुँह से सुनने को नहीं मिलीं अपितु मुझे ओम प्रकाश निर्मलजी के द्वारा मालूम हुयी थीं। उनकी विनम्रता का नमूना यह था कि गुजरात के नर संहार के दौरान में बहुत व्यथित था और मैंने ढेर सारे लेख लिखे थे जिनमें से कुछ उन्होंने दक्षिण समाचार में छापे किंतु जब किसी का एक लेख गुजरात सरकार के पक्ष में छपा देखा तो मैंने उस पर एक लम्बी प्रतिक्रिया लिखी जो नहीं छपी तो मैंने एक तीखा शिकायती पत्र लिखा। इसके उत्तर में उनका एक बहुत ही विनम्र उत्तर आया जिसमें लिखा था कि आप चिंतक हैं और मैं तो आपका फेन हूं, आपके इस विषय पर लेख छपे हैं, मैं आपके विचारों का स्वागत करता हूं किंतु दक्षिण समाचार छोटा सा अखबार है उसमें जगह की सीमा है ...........आदि। उनकी इस विनम्रता ने मुझे पानी पानी कर दिया, और मैंने एक क्षमा याचना का पत्र लिखा, पर वे यथावत वैसे ही विनम्र होकर उत्तर देते रहे।
वे केवल विचारों में ही नहीं अपितु कार्य में भी प्रगतिशील गान्धीवादी समाजवादी थे उन्होंने अपने बच्चों की शादी में जाति धर्म को आड़े नहीं आने दिया और उनके परिवार में अनेक धर्म जातियों में पैदा हुये परिवारीजन मिल जाते हैं। एक बार वे बोले कि मेरे मुनीन्द्र नाम से बहुत सारे लोग तो मुझे जैन समझते हैं, [ दरअसल उनकी सादगी से यह भ्रम होना स्वाभाविक भी था] किंतु इसी दौरान उन्होंने बताया कि वैसे अपने परिवार में मैं अकेला शाकाहारी हूं अर्थात वे अपने विचार किसी पर लादने के पक्षधर भी नहीं थे। बद्री विशाल पित्तीजी का घर लोहियाजी का दूसरा घर कहलाता था और उनके साथ उनके ढेरों संसमरण रहे हैं। इमरजैंसी के दिनों में लाड़ली मोहन निगम ने उनके यहाँ रह कर ही फरारी काटी थी।
उनके सहयोग और प्रोत्साहन से कितने बीज पल्लवित पुष्पित हुये हैं कोई नहीं कह सकता क्योंकि उन्हें अहसान जताना नहीं आता था। यही भूमिका माता पिता की भूमिका होती है। उनके लिए मन में ऐसे ही भाव जन्मते हैं। श्रद्धांजलि शब्द बहुत औपचारिक हो गया है उनके लिए उससे बढकर आत्मीय भाव हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

शुक्रवार, अप्रैल 23, 2010

दो यादवों का किस्सा- राम किशन और लालू यादव्

दो यादवों का किस्सा- रामकिशन यादव और लालू यादव
वीरेन्द्र जैन
जब तक बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार के खिलाफ डंका नहीं बोला था और एक अलग पार्टी बनाने की घोषणा नहीं की थी तब तक श्री लालू प्रसाद यादवजी और योगगुरू बाबा रामदेव, दो जिस्म एक जान थे, किंतु अब वे एक दूसरे के आमने सामने हैं।
बाबा रामदेव टीवी कार्यक्रमों से मिली अपनी लोकप्रियता को भुनाने के लिए एक आयुर्वेदिक दवाओं की फैक्ट्री चलाते हैं जिसमें काम करने वाले मजदूरों के अपने मालिकों और प्रबन्धकों के साथ वैसे ही सम्बन्ध हैं जैसे कि किसी भी दूसरे फैक्ट्री मालिक और मजदूर के बीच होते हैं, अर्थात फैक्ट्री मालिक मजदूर से ज्यादा से ज्यादा काम लेकर कम से कम भुगतान करना चाहता है और मजदूर अपने व अपने परिवार के जीवन यापन के लिए तत्कालीन समय में होने वाले व्यय के अनुसार उद्योग जगत की दूसरी इकाइयों के अनुरूप वेतन व भत्ते चाहता है। यह स्थिति ही मालिकों और मजदूरों के बीच टकराव को जन्म देती है। अपने हक़ को पाने के लिए मजदूर यूनियन बनाता है, माँगें रखता है, धरना प्रदर्शन करता है व ज़रूरत पर हड़ताल भी करता है। यह नौबत बाबा रामदेव की फैक्ट्री में भी आयी थी और वहाँ काम करने वाले मज़दूरों ने अपनी माँगें मनवाने के लिए यूनियन बनायी जिसकी सम्बद्धत्ता सीपीएम के मज़दूर संगठन सीटू से बनायी। जब उनकी माँगें नहीं मानी गयीं तब उन्होंने हड़ताल की और मजदूरों को सम्बोधित करने के लिए सीपीएम नेता वृन्दा करात को आमंत्रित किया। इसी दौरान मज़दूरों द्वारा कामरेड वृन्दा करात को बताया गया कि यहाँ बनने वाली औषधियों में से एक में मानव अस्थियों का चूर्ण भी मिलाया जाता है, जबकि उसकी पैकिंग पर ऐसा कोई उल्लेख नहीं होता। राज्य सभा सदस्य वृन्दा करात ने उक्त औषधि खरीदी उसकी पक्की रसीद ली और फिर उसे सम्बन्धित प्रयोगशाला को जाँच के लिए भेज दिया। किंतु जब उसकी रिपोर्ट आयी और उसमें मानव अस्थियों के ऊतकों की पुष्टि की गयी तो न केवल बाबा रामदेव ने हंगामा कर दिया अपितु संघ वालों और अपने प्रशंसकों को टीवी पर उत्तेजित भाषा में उकसा कर सीपीएम के मुख्यालय पर हमला करवा दिया।
जो संघ परिवार के संगठन शाकाहार आदि विषय पर लोगों की भावनाओं को भड़काने में सबसे आगे रहते है वही दवाओं में बिना बताये हुये मानव अस्थियों के ऊतकों की विधिवत रिपोर्ट आ जाने के बाद भी बाबा रामदेव के पक्ष में एक राजनीतिक दल के मुख्यालय पर हिंसा करवा रहे थे।
उस दौरान संघ परिवार के विरोधी दिख कर अपनी राजनीति चलाने वाले लालू प्रसाद यादव भी बाबा राम देव के समर्थन में उतर आये थे जबकि वे सी पी एम के साथ राजनीतिक गठबन्धन में रहे थे और जब उनकी प्रदेश सरकार भंग की जा रही थी तो सीपीएम के हस्तक्षेप से ही बची थी। आश्चर्य से भरे प्रेक्षक जब मामले की तह में गये तो पता चला कि उस समय लालू प्रसाद का जाति प्रेम उमढ पड़ा था। बाबा राम देव का असली नाम राम किशन यादव है तथा इसी आधार पर उन्होंने लालू प्रसाद और मुलायम सिंह जैसे बड़े यादव नेताओं को उनके राजनीतिक गठबन्धन के विपरीत जाने को प्रेरित कर लिया था। उन्होंने रामदेव के समर्थन में उतरते हुये कहा था कि चाहे मानव की हड्डियाँ मिली हों या दानव की मिली हों किंतु रोग ठीक होना चाहिये। लालू जी के इस समर्थन के पीछे प्रमुख कारण ही यह था कि वे यादव हैं, और इस समय लोकप्रिय हैं। चुनावी नेता उनके साथ इसलिए लगे हैं ताकि फिल्म स्टार क्रिकेट खिलाड़ियों की तरह उनकी लोकप्रियता का लाभ उठा सकें। इस अभियान के दौरान रामकिशन यादव जी ने मध्य प्रदेश समेत सभी राज्यों के नेताओं का सहारा लेकर अपने अभियान को बढाया, जिनमें भ्रष्टाचार के आरोपित और आयकर के छापों में सप्रमाण रेखांकित नेता भी सम्मलित है, और प्रचार प्रभावित लोगों को अपनी आयुर्वेदिक दवाओं का ग्राहक बनाया है। जो दवाएं बाज़ार में अपेक्षाकृत सस्ती मिलती हैं वे ही रामदेव जी की फैक्ट्री में मँहगी मिलती हैं, किंतु टीवी कार्यक्रम से सम्मोहित लोग उन्हें ही खरीदते हैं। आज उनके आश्रम से जुड़ी संस्थाओं की सम्पत्ति 750 करोड़ के आस पास तक पहुँच गयी बताई जाती है। देश और विदेश में उनके आश्रम ने ज़मीनों में निवेश किया हुआ है।
राजनीतिज्ञों द्वारा महत्व दिये जाने से उत्साहित बाबा रामदेव स्वयं ही राजनीति में सक्रिय होने को व्याकुल हो उठे और उन्होंने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाना चाहा, जिसके प्रति पीड़ित जनता सबसे अधिक संवेदनशील है। जहाँ एक ओर उनकी बात का असर हुआ वहीं दूसरी ओर जो लोग उनके समर्थन की सम्भावना से अपनी राजनीति का लाभ देख रहे थे, वे बौखला उठे। एक सभा में लालूप्रसाद् बोले कि “यह ठीक नहीं कि अपने को सही साबित करने के लिए रामदेव प्रत्येक नेता की आलोचना करें, हक़ीक़त यह है कि बाबा बौरा गये हैं, हमने उनसे कहा था कि वे कोई राजनीतिक दल खड़ा न करें। उनके कैंसर को ठीक करने के दावे की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि रिसर्च के इस युग में यह ठीक नहीं है, इस युग में ऐसा करना न केवल धोखाधड़ी है अपितु लोगों को बेबकूफ बनाना है।“
भाजपा के नवनियुक्त राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने भी कहा कि मैं बाबा से निवेदन करता हूं कि वे राजनीतिक दल न बनाएं उनकी मांगों को हम भाजपा द्वारा पूरी करवायेंगे।
बाबा रामदेव की यह बात लोगों को हज़म नहीं हो रही है कि बाबा एक ओर तो भ्रष्टाचार के खिलाफ पार्टी बनाने का दावा करें और दूसरी ओर भ्रष्टाचार के प्रामाणिक आरोपों वाले मंत्रियों से सुसज्जित मध्य प्रदेश राज्य जैसे मंत्रिमण्डल के मुख्यमंत्री के साथ गलबहियां करें। वे एक ओर तो अपने आरोपों को हवाई बना कर जनता का भावनात्मक समर्थन पा लेना चाहते हैं वहीं दूसरी ओर किसी व्यक्ति विशेष पर उंगली न उठा कर अपने लक्ष्य को सुविधानुसार घुमाने की नीति अपनाये हुये हैं। इससे ज्यादा अच्छा काम तो पत्रकार कर रहे हैं नाम और प्रमाण के साथ आरोप लगा रहे हैं और स्टिंग आपरेशन कर रहे हैं। बाबा ने अभी तक यह नहीं बताया कि भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए वे वैधानिक तरीका अपनाएंगे या देश के कानून तोड़कर काम करेंगे, और यदि वैधानिक तरीके पर चले तो भ्रष्टाचार का पता लगाने के लिए, प्रमाण जुटाने के लिए और उनके आधार पर इसी न्याय व्यवस्था में शीघ्र और सुनिश्चित दण्ड की व्यवस्था के लिये वे क्या करेंगे। उनके द्वारा इस काम के लिये नियुक्त लोग भारतीय पुलिस, प्रशासनिक अधिकारी, या आयकर अधिकारी की तरह व्यवहार नहीं करने लगेंगे इस बात की क्या गारण्टी होगी?
उनकी इन महात्वाकांक्षाओं से सर्वाधिक नुकसान उस योग का होगा जो अभी उन पर विश्वास होने के कारण लोकप्रिय होता जा रहा था। वे योग गुरू की तरह लोकप्रिय हुये हैं तो उसी काम को बेहतर ढंग से करें यही ज्यादा अच्छा है फिल्म स्टारों और क्रिकेट खिलाड़ियों की तरह लोकप्रियता को उपभोक्ता सामग्री बेचने जैसे कामों में लगाने जैसा काम न करें। उंसे पहले भी कुछ लोग अपनी लोकप्रियता को राजनीति से भुनाने की कोशिश में असफल हो चुके हैं जिनमें फणेशवर नाथ रेणु, गोपाल दास नीरज, नबाब पटौदी, प्रकाश झा, आदि सैकड़ों नाम हैं। भ्रष्टाचार किसी व्यक्ति के बूते का काम नहीं है उसे पूरी व्यवस्था का साथ मिल रहा है और भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए पूरी व्यवस्था बदलनी पड़ेगी जो एक समर्पित संगठन और कार्यक्रम के बिना सम्भव नहीं। यह संगठन और कार्यक्रम तब बनेगा जब उसके लिए ईमानदार इरादा हो और कोई निहित स्वार्थ न हो। बेहतर तो यह होगा कि वे पूरे देश की जगह किसी एक नेता और किसी एक क्षेत्र से शुरुआत करें। दूसरा सन्देश यह भी मिलता है कि नेताओं के बीच जातिवादी प्रेम तभी तक रहता है जब तक वह उसे लाभ दिला रहा हो। समय बतायेगा कि बाबा की महात्वाकाँक्षाएं उन्हें सफल करती हैं या असफल करती हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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मंगलवार, अप्रैल 20, 2010

भाजपा में मोदी विकल्पहीन क्यों?

भाजपा में मोदी विकल्पहीन क्यों?
वीरेन्द्र जैन
विचारधारा पर आधारित किसी भी संगठन में यदि किसी व्यक्ति विशेष पर निर्भरता बनी रहती है तो उसके वैचारिक संगठन होने पर संदेह होना स्वाभाविक होता है। गुजरात में भाजपा की नरेन्द्र मोदी पर निर्भरता उसके वैचारिक संगठन होने के दावे की पोल खोलता है।गत वर्षों में घटे घटनाक्रमों में ऐसे समुचित आधार थे जब उनके कारण एन डी ए और भाजपा की छवि को लगातार क्षति पहुँची तब नरेन्द्र मोदी को हटा दिया जाना चाहिये था।
नरेन्द्रमोदी स्वाभाविक नेता के रूप में उभरकर मुख्यमंत्री नहीं बने थे अपितु उन्हें ऊपर से थोपा गया था। यह पद उन्होंने दिल्ली में पार्टी प्रवक्ता के रूप में कर्य करते हुए और गोबिन्दाचार्य के साथ रहते हुये जुगाड़ जमा कर पाया था। यह पद पाने के लिए उन्होंने भाजपा के ही विधिवत चुने हुये मुख्यमंत्री को विस्थापित किया था। वे उस समय विधायक भी नहीं थे तथा जब उन्होंने उपचुनाव लड़ कर विधानसभा की सदस्यता प्राप्त की उस समय विधानसभा की चार सीटों के लिए उपचुनाव हुये थे जिनमें से तीन पर भाजपा हार गयी थी व मुख्यमंत्री रहते हुये नरेन्दमोदी जिस सीट से जीते थे उसे उससे पूर्व जीते भाजपा प्रत्याशी ने उन से दुगने मतों से जीता था। यह नरेन्द्रमोदी की 'लोकप्रियता' का नमूना था कि उस सीट पर भाजपा की जीत आधी रह गयी थी।

भाजपा ने यह कभी सार्वजनिक नहीं किया कि उन्होंने केशूभाई पटेल् को किस आधार पर हटा कर नरेन्द्र मोदी को ताज सोंपा था। पर गोधरा में साबरमती एक्सप्रैस की बोगी नम्बर छह में लगी आग और उसमें अयोध्या जाने वाले दो कारसेवकों समेत 59 लोगों के जल जाने के आधार पर मुख्यमंत्री मोदी ने सरकारी मदद से निर्दोष गुजराती मुसलमान नागरिकों के खिलाफ जो नरसंहार करवाया था उससे उनको मुख्यमंत्री पद पर प्रतिष्ठित करने के कारणों को अनुमानित किया जा सकता है। उनके बाद के कदमों से भी स्पष्ट हो चुका है कि गोधरा घटनाक्रम के बाद घटी हिंसा अचानक भड़की हिंसा नहीं थी अपितु पूर्व नियोजित थी और उसके आधार भी नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में तैयार हुये थे।यदि उक्त आगज़नी में राम जन्म भूमि मन्दिर में कार सेवा का कारण रहा होता तो अयोध्या से गुजरात तक तीन राज्यों से गुजरने वाली ट्रेन में यह घटना गुजरात के गोधरा पहुँचने पर ही क्यों घटती जबकि वहाँ नरेन्द्र मोदी के मुख्यमंत्रित्व वाला भाजपा का शासन था। इस बात को जानबूझकर दबा दिया जाता रहा है कि उस एक डिब्बे बोगी नम्बर 6 में लगी आग में मरने वालों में अयोध्या गये त्रिशूलधारी कुल दो कारसेवक थे। उसके बाद पूरे गुजरात में जो हिंसा लूटपाट बलात्कार आगजनी फैलायी गयी उससे जन धन का नुकसान उठाने वालों में गोधरा की घटना का कोई आरोपी नहीं था। यह सुनियोजित हिंसा केवल अगले विधानसभा चुनाव में साम्प्रदायिक ध्रुवी करण का लाभ उठाने के लिए ही फैलायी गयी थी।
इन मौतों के साथ भी साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले मोदी ने भेदभाव को पुष्ट करते हुये गोधरा में मरने वालों को दो लाख और शेष गुजरात में मरने वालों को एक लाख रूपये मुआवजे की घोषणा की थी। जब भारत ने ट्वेन्टी-ट्वेन्टी में विश्व कप जीता तथा राज्य सरकारों ने खिलाड़ियों को करोड़ों रूपयों के धन से पुरस्कृत कर अपनी राष्ट्रीय भावना को व्यक्त किया तब मोदी जी ने अपने भरे पूरे क्रिकेट प्रेमी राज्य के खिलाड़ियों को कुल एक एक लाख रूपये देने की घोषणा की क्योंकि उनके राज्य से खेलने वाले खिलाड़ियों के नाम इरफान पठान और यूसुफ पठान थे।

गोधरा घटनाक्रम के बाद हुयी हिंसा में जो कुछ हुआ वह अल्पसंख्यक आयोग, मानव अधिकार आयोग, महिलाआयोग, समेत सैकड़ों जनसंगठनों की जॉच समितियों, राजनीतिक दलों के प्रतिनिधिमंडलों समेत समाचार माघ्यमों द्वारा सामने लाया गया था और बाद में तो तहलका के खुलासे के बाद स्वयं आरोपियों ने कैमरे के सामने भी सच स्वीकार कर लिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी को पार्टी के तमाम दबावों के बाबजूद भी राजधर्म का पालन करने जैसे गोलमोल वाक्य बोलने को विवश होना पड़ा था क्योंकि रामविलास पासवान, ममता बनर्जी, चन्द्रबाबू नायडू, फारूख अब्दुल्ला समेत उनके तमाम सहयोगी दलों के लोगों ने खुली आलोचना की थी व जनतादल(यू) बीजू जनता दल आदि भी खुल कर साथ नहीं दे पा रहे थे। अभी हाल ही में जसवंत सिंह जैसे वरिष्ठ नेता ने खुलासा कर ही दिया है कि अटलजी स्तीफा दे रहे थे तो उन्होंने उनका हाथ पकड़ लिया था। आइ ए एस अधिकारी शर्म के मारे अपने पद से स्तीफा देने लगे थे व सारी दुनिया में थू थू हो रही थी। भाजपा के नेता केवल कुतर्क और मुंहजोरी भर कर रहे थे पर अन्दर से वे भी अपने पक्ष को कमजोर मान रहे थे। मोदी को हटा देने का वह उपयुक्त समय था। बाद में भाजपा सरकार के केन्द्र से हटने में मोदी को न हटाये जाने ने बड़ी भूमिका अदा की थी।

अवसर उसके बाद भी बहुत सारे आये। नरेन्द्रमोदी के मंत्रिमंडल में मंत्री रहे हरेनपंडया की सरे आम हत्या हुयी और उनके पिता ने सार्वजनिक रूप से नरेन्द्र मोदी को ही हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया। यह वह परिवार था जिसने सारा जीवन संघ परिवार के लिए लगाया था। केशूभाई के समर्थन में उनके साथ विधायकों के बड़े बहुमत ने भाजपा हाई कमान से गुहार की कि उन्हें बदल देना चाहिये पर उन्हें चुप बैठने को विवश कर दिया गया। राज्यपाल रहे व भाजपा के विश्वसनीय भंडारी ने अपने अंतिम दिनों से कुछ दिनों पहले ही गुजरात घटनाक्रम पर गहरा अफसोस व्यक्त किया था।
केन्द्र में मंत्री रहे काशीराम राणा मोदी के कारनामों से गहरे असंतुष्ट रहे और उन्होंने विधानसभा चुनावों के दौरान अपने को अलग रखा था। चुनाव से ठीक पहले भाजपा के पचास साल पुराने सदस्य और भाजपा की ओर से गुजरात के मुख्यमंत्री रहे सुरेश मेहता ने पार्टी से स्तीफा दे दिया था। संयुक्त राज्य अमेरिका ने मोदी को वीसा देने से इंकार करके न केवल मोदी अपितु पूरे देश का अपमान किया पर भाजपा के नेताओं के कानों पर जूं भी नहीं रेंगी। विश्व हिंदू परिषद के प्रवीण तोगड़िया ने मोदी के लिए काम करने से साफ इंकार कर दिया था। उसके बाद हुये विधान सभा और लोक सभा के टिकिट बांटने का काम भी मोदी की मरजी से हुआ था जिसमें लोकसभा सदस्य तो कबूतरबाजी आदि में पकड़े ही गये अपितु यह सत्य भी सामने आया कि मोदी द्वारा बांटे गये टिकिटों में सत्ताइस विधायकों की एक से अधिक पत्नियाँ हैं। माना जाता रहा कि भाजपा के संगठन सचिव संजयजोशी की सीडी भी मोदी ने ही तैयार करायी थी।

सोहराबुद्दीन के हत्याकांड को खुले आम स्वीकारने और गौरव प्रर्दशन का जो दंभ मोदी ने प्रकट किया उसका उदाहरण तो रावण के चरित्र में भी नहीं मिलता। इस पर मोदी के स्वयं के वकील को भी शर्म आयी और पीढियों से संघ परिवार से जुड़े उस वकील ने त्यागपत्र देना ज्यादा ठीक समझा था।
इतने सब ही नहीं और भी बहुत कुछ के बाबजूद भी भाजपा इतनी विवश क्यों है कि वह मोदी को नेतृत्व नहीं बदलना चाहती? कहीं ऐसा तो नहीं कि मोदी के पास और भी सीडियाँ दबी पड़ी हों और वे संजयजोशी से भी ऊपर के नेताओं की हों क्योंकि नाराजी की दशा में मदन लाल खुराना ने भी एक महीने का समय देकर ऐसी पोल खोल देने की धमकी दी थी। जहाँ तक औद्योगिक विकास का सवाल तो है वह गुजरात के इतिहास में सदैव से ही रहा है चाहे जिस पार्टी या नेता का शासन रहा हो।


वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, अप्रैल 16, 2010

अफगानिस्तान में भारत फंस सकता है

सावधान, अफगानिस्तान में भारत फँस सकता है
वीरेन्द्र जैन
अमेरिका ने अपने पाँसे बहुत ही चतुराई से चले हैं, और अगर हमने उसी समान चतुराई और कूटनीति से काम नहीं लिया तो अमरीका की बन्दूक हमारे कन्धों पर होगी और हम उसके पापों की सज़ा भुगतते हुये अपने किये पर पछता रहे होंगे। अमरीका ओसामा बिन लादेन को खोजने के बहाने अफगानिस्तान आया था। यद्यपि पहले भी वह चाहता था कि उसकी लड़ाई को हमारे सैनिक लड़ें जिसके लिए उसने हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी के सामने कुछ आकर्षक प्रस्ताव रखे थे और तत्कालीन सरकार उसमें फँसती जा रही थी, किंतु विपक्षी दलों की असहमतियों और विरोध के कारण हमने अपने सैनिक वहाँ न भेजने का समझदारी पूर्ण कार्य किया था, जिससे मजबूरन अमेरिका को वहाँ अपने सैनिक भेजने पड़े थे। किंतु बाद में उसने धीरे धीरे हमें अपने चंगुल में फाँस लिया। हमको अफगानिस्तान में विकास योजनाएं संचालित करने के नाम बुलाया गया और हम उस लालच में फँसते चले गये।
आज अफगानिस्तान में हमारी छह हज़ार करोड़ की परियोजनाएं चल रही हैं जिससे अच्छी खासी कमाई हो रही है। हमें उक्त कमाई तो दिख रही है किंतु यह नहीं दिख रहा है अमेरिका वहाँ तालिबानों को खत्म करने के लिए आया था किंतु उसने अभी तक भी तालिबानों को कमजोर नहीं कर पाया है। वे पाकिस्तान के एक हिस्से में स्वतंत्रता पूर्वक रह रहे हैं और पाकिस्तान में बड़ी ताकत की तरह उभरते जा रहे हैं। अभी भी पकिस्तान में सत्ता नागरिकों के प्रतिनिधियों के हाथों में नहीं है अपितु असली सत्ता फौज़ और आई एस आई के हाथों में है जिसमें से कुछ अमेरिका के इशारे पर काम करने वाले लोग हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने घोषित कर दिया है कि जुलाई 2011 तक वे अपनी फौज़ें अफगानिस्तान से वापिस बुला लेंगे। ऐसा करते ही तैय्यारी से ताक लगाये बैठे तालिबान अफगानिस्तान पर कब्ज़ा करने की लड़ाई छेड़ देंगे। अमेरिका तो बाहर हो चुका होगा किंतु हमारा पैसा और लोग फँसे होने के कारण हमें वहीं रहना होगा। इसका परिणाम यह निकलेगा कि अगली लड़ाई या तो हमारे और तालिबानों के बीच होगी जिसमें हमें अपनी ताकत झोंकनी होगी। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो ना तो हमारी पूंजी सुरक्षित रहेगी और ना ही काम करने वाले लोग। हमारे पास केवल दो ही विकल्प बचेंगे कि या तो हम अपनी लागत छोड़, अपने लोगों को सुरक्षित निकाल कर वापिस हो लें या अपनी फौज़ भेजकर उनसे मुक़ाबला करें। परोक्ष में कहा जा सकता है कि हम वहाँ फँस चुके हैं। हमें याद रखना चाहिए कि पिछले तालिबान शासन के समय हम अपने दूतावास को बन्द करके चले आये थे।
दूसरी ओर अफगानिस्तान से अमेरिका के विदा होते ही पाकिस्तान की अस्थिरता और बढ जायेगी अभी वहाँ की पुलिस तो आतंकवादियों के आगे हथियार डाल चुकी है और उनसे लड़ने का काम फौज़ के हाथ में है फिर भी लगातार वहाँ आतंकी घटनाएं घट रही हैं। अमेरिका के जाने के बाद यदि हमने अपनी फौज़ अफगानिस्तान् नहीं भेजी तो या तो फिर से तालिबानों का कब्जा हो जायेगा या अफगानिस्तान पाकिस्तान के साथ हो जायेगा। ये दोनों ही सम्भावनाएं खतरनाक हैं। हमारे प्रधानमंत्री की ताज़ा अमेरिका यात्रा से भी कोई परिणाम नहीं निकला है। अमेरिका बिल्ली और बन्दर की कहानी दुहरा है कभी इस पलड़े को झुका देता तो कभी उस पलड़े को। ज़रूरत इस बात की है कि भारत और पाकिस्तान की अपनी दुश्मनी खत्म हो और दोनों मिलकर आतंकियों से लड़ें तब ना तो भारत को अपनी परियोजनाएं समेटना पड़ेंगीं और ना ही आतंकी अपना कारनामे कर पायेंगे। किंतु पाकिस्तान और हमारे यहाँ भी एक लाबी ऐसी है जो पाकिस्तान् और हिन्दुस्तान को सहयोगी होते नहीं देखना चाहती। जबतक यह लाबी पस्त नहीं होगी हम कोई कूटनीतिक कदम नहीं उठा सकेंगे इसलिए बेहतर है कि हम या तो अमेरिका को कुछ दिन वहाँ और रुकने के लिए राज़ी कर लें या जुलाई 2011 तक अपनी परियोजनाएं पूरी करके अमेरिका के साथ ही वापिस निकलने की तैय्यारी कर लें।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

बुधवार, अप्रैल 14, 2010

समीक्षा-हम्माम के बाहर भी- शंकर पुंताम्बेकर्

समीक्षा हम्माम के बाहर भी
शंकर पुंताम्बेकर
'हम्माम के बाहर' भी वीरेन्द्र जैन लिखित छोटीबड़ी रचनाओं का एक ऐसा व्यंग्य संग्रह है जिसे सुधी पाठक बारबार पढ़ना चाहेगा। हरीश नवल, रामविलास जांगिड़, अरविन्दर निपारी, जवाहर चौधरी जैसे कुछ लेखक इधर व्यंग्य में ऐसा कुछ लिख रहे हैं जिसे पढ़कर ऐसा लगता है कि व्यंग्य पक्की सड़क पर है। वीरेन्द्र जैन भी ऐसे ही लेखकों में सें हैं। इनका पहला व्यंग्य संग्रह था 'एक लुहार की' जो बीस वर्ष पूर्व छपा था। जैन इस बीच यदि धीमी गति से न लिखते, मैदान में कलम के साथ कमर कसे डंटे रहते तो इस लंबे अवकाश में उनके अवश्य ही चारपाँच संग्रह प्रकाशित हो जाते। इस दशा में वे औरों के संग्रहों के लिए फ्लैप मैटर लिखते, स्वयं अपने संग्रह के लिए इसकी खातिर मुहताज न होते। हाँ, जैन की कलम में ऐसी ही धार है जो ग्रंथ संरचना के अभाव में लोगों तक पहुंच नहीं पायी। कुछकुछ यही स्थिति जवाहर चौधरी के साथ है। दुख की बात है कि गुणात्मकता के आधार पर जैन और चौधरी को व्यंग्यजगत् ठीक से जानता ही नहीं।
व्यंग्य विषय में भयानक और वीभत्स है तो कथन में अद्भुत। प्रभाव में इसका सम्बन्ध रौद्र और करुण से है। सामान्यत: व्यंग्य कथन में मार खा जाता है। अंदाजे बयाँ व्यंग्य का प्राण है। ऐसा प्राण जिस तक पहुंच न पाने वालों ने व्यंग्य को मात्र शैली कह दिया। भयानक वीभत्स विषय भला कभी विचारात्मक हो सकते हैं यदि इन्हें इस ढंग से प्रस्तुत न किया जाये
• 'न्यूमेटिक पेन पढ़ेलिखे वृद्धों को होता है। जबकि गठिया गंवार बूढ़ों को!
• गर्भपात कराने में जो अपराध बोध है वह एबोर्शन कराने में विधि सम्मत नज़र आता है।
• देश में जब से सामंती व्यवस्था का नाम लोकतंत्र रख दिया गया है, तब से कई गिरोहों ने अपना नाम राजनैतिक दल के रूप में पंजीकृत करवा लिया है।
• कॉलोनी में पलने वाले कुत्ते भी ऐसे ही कुत्ते होते हैं जो किसी माँबाप, भाईबहन या गर्भ में गिरा दिये गये बच्चे के स्थान पर पलते हैं।
• मैं भी पिछले दिनों से अपने अंदर पूरा परिवर्तन महसूस कर रहा हूँ और मुझे विश्वास होने लगा है कि कुछ ही दिनों में मैं नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव की तरह किसी भी बात को किसी भी तरह सिद्ध करने में समर्थ हो जाने वाला हूँ।
• हम प्रतीक्षा कर रहे हैं रविवार फिर आयेगा और खुशियां लायेगा। अभी तो झटपट उठ, कसरत कर, दफ्तर चल, अफसर चमचा बन, फाइल रखे।
• आप दान करेंगे तो आपका स्थान स्वर्ग में सुरक्षित हो जायेगा। पर होना यह है कि मेरे पैसे पर आप स्वर्ग में अपना आरक्षण कराते हैं और मेरे लिए जीते जी नरक तैयार करते हैं।
• विवादास्पद स्थानों पर झंडा फहराने या सामर्थ्य ठोंकने से हमारी राष्ट्रीयता और धार्मिकता अधिक मजबूत होती है।
• देश बढ़ाने के नाम पर दूध वाला दूध में पानी बढ़ा रहा है। डॉक्टर फीस बढ़ा रहा है। अदालतें तारीख बढ़ा रही है और नेता आश्वासन।''
ये चतुर कथन संदर्भ के साथ और अधिक मारक बन जाते हैं। एक सामान्य शब्द की शब्दावली भी संदर्भ के अन्तर्गत पैनी छुरी का काम करती हैं। इसके अतिरिक्त लेखक मारक प्रसंगों की विषयानुकूल कल्पना करता है। कल्पना जिसकी पतंग की डोर यथार्थ के हाथों में होती है।
'मूत्रालय' रचना के पहले वाक्य में लेखक कहता है, ''मुझे मौलिकता से प्रेम है। पिटी पिटाई विषय वस्तु पर लिखना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है।'' लेखक की रचनाओं के जो शीर्षक हैं उनसे सचमुच उसकी मौलिकता का परिचय मिलता है यथा, ‘’बीमारी की भाषा की बीमारी’’, ‘’मकान न खरीदने का आत्म संतोष’’, ‘’किराये की कोख’’, ‘’मुन्ना नमक लेने जा रहा है’’, ‘’कबीर और विजुअल मीडिया’’, ‘’क्या जूते भी सांस लेते हैं’’, ‘’बड़े आदमी का बूढ़ा’’, ‘’वसंत में बीमारी’’, ‘’देश बढ़ाने वाले’’ आदि।
वास्तव में लेखक साम्प्रदायिक, पुरस्कार, पड़ोसी, पत्नी, प्लॉट, दहेज, विमोचन, कुत्ते, चंदा, समाज सेवा, विध्याध्यन, न्याय, मेहमान, शोकसभा, चरित्र हत्या, राजनेता, बाजार, पुलिस, दफ्तर आदि पिटे-पिटाये विषयों पर भी कलम चलाता है। युग के कटु यथार्थ को देखते हुए वह इनसे कैसे बच सकता है। व्यंग्यकार के तो ये विषय ऑक्सीजन हैं। पर लेखक इन विषयों को अपनी शैली से ताजगी प्रदान करता है, इन्हें पठनीय और विचारोत्तेजक बना देता है। व्यंग्यकार के कथन किसी बहाने से बहुत कुछ कह जाते हैं-
''हमारे देश में मूत्रालय वे केन्द्रीय स्थान होते हैं जिनके चारों ओर दस मीटर दूरी तक पेशाब की जा सकती है, एवं जहां वास्तव में पेशाब करनी चाहिए वहां पाखाना किया होता है।'' लेखक का यह वीभत्स चित्र क्या केवल मूत्रालय तक सीमित है।
चिकित्सालय में आदमी उलटी करता है जो बदबू का झटका छोड़ती है। जबकि हॉस्पिटल में की गई वोमिटिंग की बात ही कुछ और है। कहां पेशाब कहां यूरीन और कहां टट्टी कहां स्टूल। जमीन-आसमान का फर्क। यह स्थिति उन बदबूदार लोगों की भी है जो सुगंधों में जीते हैं।
वे ईद के दिन मुसलमानों से गले मिलकर साम्प्रदायिक सद्भाव मजबूत करते हैं या धार्मिक आस्था, क्योंकि साम्प्रदायिक सद्भाव मजबूत करना होता है तो ईद के अलावा किसी और दिन में गले मिला जा सकता है। यह स्थिति धर्मनिरपेक्षतावादी दुर्जनों की है जो सज्जनता के पहरेदार हैं।
मशीनरी को ठीक करने के लिए मिस्त्री की जरूरत होती है पर मिस्त्री को ठीक करने के लिए किस चीज की जरूरत होती है, यह मेरी समझ में आज तक नहीं आया’’। यहां मशीनरी क्या व्यवस्था या अंटीवाला नहीं है और मिस्त्री व्यवस्था के लोग दोनों सूरतों में?
शोषक और शोषित इन दोनों पक्षों के बीच के संघर्ष में जो निरपेक्ष दिखने की कोशिश करता है वह दरअसल शोषकों के साथ है। देश के बुद्धिजीवी क्या ऐसे ही निरपेक्ष नहीं दीख पड़ते हैं?
समाज और व्यवस्था की कितनी ही विकृतियों रचनाओं में से उभरकर सामने आती हैं।
• आज के आश्रम देखिए कैसे होते हैं। वे आश्रम बनाते हैं पर भीतर ही भीतर घर बनाते रहते हैं। आश्रम में (आ)श्रम हो, पर वह श्रम से नहीं दान से चलता है।
• दलाल न हो तो कोई पुरस्कार हमको प्राप्त नहीं हो सकता। चाहे वह साहित्यिक ही क्यों न हो। पुरस्कार भी अब गली के कुत्तों की तरह बेमानी हो गये हैं।
• देश के मानसिक अध:पतन का यह हाल है कि हमारे महापुरुष जितने महत्वहीन होते जा रहे हैं। उसी अनुपात में अमरीका का महत्व बढ़ रहा है। सो गीता को भी महत्वपूर्ण होने के लिए अमरीकी मान्यता के बिना कहीं ठौर नहीं।
• हमारा विकास बिल्डिंगों में है। जैसेजैसे मनुष्यता का पतन होता जा रहा है वैसे-वैसे बिल्डिंगें और ऊँची होती जा रही हैं।
• राजनीति में कितनी नाजायज बातें आवश्यक होती हैं। इनमें सर्वोपरि है चरित्र हत्या। नगर में प्लाट होना बड़ी से बड़ी प्रतिष्ठा की बात है। बंगला हो या गाड़ी हो, पर यदि प्लाट नहीं तो बेकार है। बंगला और गाड़ी तो उपयोगी चीजें हैं, बड़ा आदमी होने के लिए तो उसे और बड़ी चीज चाहिए।
• बाराती बड़े प्रतिष्ठित लुटेरे होते हैं। बल्कि आमंत्रित लुटेरों द्वारा दो दिन की अल्पावधि में अपने नश्वर शरीर में अधिक ग्रहण करने के लिए इनका पगला जाना कोई बड़ी बात नहीं।
• समाज में राजनीति में कितनी ही शबनम मौसियां अपने छद्म नामों से व्याप्त हैं। पर एक शबनम मौसी ने अपने वास्तविक नाम से आगे आकर इनकी कलई खोल दी है।
• आप विद्वान हों न हों, एक बार आपका नाम श्री के स्थान पर डॉक्टर के साथ लिख गया कि आप अधिक श्री को प्राप्त हो जाते हैं। अब तो यह खिताब विशिष्ट बाजार से उसकी कीमत अदाकर सहज ही आम हो जाता है।
• प्रतिष्ठा उपकरणों में निवास करती है। तभी संरक्षक कहता है राजकीय अतिथि ग्रह पहुंचने पर रिसेप्सनिस्ट ने मेरी ओर ध्यान नहीं दिया। क्योंकि मैं रिक्शे से उतरा था।
• समय के अनुरूप नारे बन गये हैं 'तुम मुझे खून दो' मैं तुम्हें आजादी दूंगा' नारा अब बासी बल्कि कहैं कि बेकार हो गया है। अब नारा है 'तुम मुझे रिश्वत दो, मैं तुम्हें परमिट दूंगा।' वैसे रिश्वत में देने वाले का खून ही होता है और परमिट तो ऐसी आजादी है जो स्वाद आजादी में नहीं है।
• न्याय के बारे में क्या कहा जाये। न्यायालय की अवमानना के डर से उचित है न्याय के बारे में चुप ही रहें।
• कौन नहीं इस बात से सहमत होगा कि नौकरशाह दीमक की तरह देश को चट करने में लगे हुए हैं। हाँ साहब निवृत्त नौकरशाह भी इस बात को स्वीकार करते हैं।
• और समाज सेवक आज ऐसे कि उसे किसी पद पर पहुंचकर सेवा करने की घोषणा करनी होती है। यद्यपि होती उसके बाद भी नहीं है
• और अंत में नेता की बात करें। नेता शायद भूखे पेट देश का नक्शा देख लेते होंगे तभी उसे खाने लगते हैं, देश को।
संग्रह की विशेष उल्लेखनीय रचनाएं हैं भावना को ठेस, कबीर और विजुअल मीडिया, शोकमग्नता, कॉलोनी का कुत्ता, दो दिन का मेहमान, देश बढ़ाने वाले।
समीक्षा के उपसंहार में
चलतेचलते कुछ बातें
युग के यथार्थ को तीक्ष्णता के साथ पकड़ना आज के व्यंग्य लेखन समय की मांग है और पाठक उसे बड़ी रुचि से पढ़ता है। इस रुचि में से पाठक की जागरूकता का परिचय मिलता है। व्यंग्य में वह समय का प्रतिबिम्ब पाता है। साथ ही इसमें वह वे शब्द पाता है जो वह खुद कहना चाहता है। इस मायने में व्यंग्य समाज का सच्चा प्रतिनिधि है। निर्भीक और निरपेक्ष आवाज का प्रतिनिधि। तथा कथित प्रतिनिधि पर तीखा प्रहार करने वाला
प्रतिनिधि। खेद की बात है कि इस प्रतिनिधि का साहित्य की संसद में कोई सवाल नहीं।
बड़ा विचित्र युग है। वीर क्रिकेट में जा बैठा है, श्रृंगार फिल्म में अठखेलियां कर रहा है, हास्य मंच पर विदूषक की भूमिका में देखा जाता है। तो करुण साहित्य में जी रहा है। राजनीति, चिकित्सा, बाज़ार, आदि वीभत्सता के अड्डे हैं। वह सरकार में रौद्र, शेष शांत कहाँ है? ये शांत है क्स्बों में, महफिलों में, टीवी में! कितना वीभत्स कि शांत क्लबों, महफिलों, टीवी में चौथा स्तम्भ कहते हैं, उसी को भूल गया!
पत्रकारिता आज राजनीति की भांति बड़ी धूर्त बन गयी है। राजनीति की ही भांति जनता कम बाजार अधिक। वह भयानक है, वीभत्स है इसका फैसला तो सुधीजन करें। हाँ, अपनी ओर से मैं यह कहना चाहूंगा कि पत्रकारिता को रौद्र होना चाहिए।
व्यंग्य ने युग की जैसी चीरफाड़ की है, साहित्य की अन्य विधाएं उस मुस्तैदी से नहीं कर सकी है। मैं वीरेन्द्र जैन, जवाहर चौधरी जैसे व्यंग्यकारों से उम्मीद करता हूँ कि वे अपनी लेखनी को मुस्तैद बनाये रखेंगे।
2ए मायादेवी नगर, जलगांव-2 (महाराष्ट्र)
[समीक्षित कृति- हम्माम के बाहर भी..., लेखक- वीरेन्द्र जैन, प्रकाशक- आलेख प्रकाशन, वी-8 नवीन शाहदरा दिल्ली-110032 मूल्य- रु.130/-]

मंगलवार, अप्रैल 13, 2010

धार्मिक स्वतंत्रता के प्रतीक पुरुष डा. अम्बेडेकर्

धार्मिक स्वतंत्रता के प्रतीक पुरुष हैं डा. अम्बेडकर
वीरेन्द्र जैन
डा. अम्बेडकर के जन्म दिन पर केन्द्र सरकार ने अवकाश घोषित कर दिया है। सरकारों के पास महापुरुषों से प्रेरणा दिलाने का कोई दूसरा तरीका है भी नहीं। इस दिन माल्यार्पण, पुष्पांजलि श्रद्धांजलि, आदि लोक दिखावे के अनेक पाखण्ड भी किये जायेंगे। यह काम उन राज्य सरकारों के नेता भी करेंगे जिन्होंने अपने यहाँ धर्मांतरण निषेध विधेयक का प्रस्ताव भी रखा हुआ है। यह अम्बेडकर और उनकी विचारधारा का सीधा अपमान है, किंतु जिन नेताओं के मन और वचनों में
संविधान की धारा 25 में साफ साफ लिखा है कि नागरिकों को अपनी इच्छा से किसी भी धर्म को चुनने, मानने, और उसके प्रचार प्रसार करने की स्वतंत्रता है, जबकि धर्मांतरण निषेध का प्रस्ताव पास करने वालों के अनुसार धर्मांतरण कराने वाले व्यक्ति को इसकी पूर्व सूचना ज़िला मजिस्ट्रेट को देनी होगी। यह संविधान 25 के अंतर्गत दिये अधिकार की भावना का सीधा सीधा उल्लंघन है। यदि ऐसा ही रहा तो कल के दिन सरकार यह भी कहने लगेगी कि विवाह करने से पहले या बच्चा पैदा करंने से पहले सरकार को सूचना देनी होगी।
सोनिया गान्धी के राजनीति में सक्रिय होते ही संघ परिवार ने उन पर निशाना साधने के लिए अपने पिटारे में से जो भावनात्मक मुद्दा तलाशा तो वह धर्मांतरण का निकला। सैकड़ों वर्षों से कार्यरत और दीन दुखियों की सेवा में संलग्न ईसाई मिशनिरियाँ धार्मिक शिक्षा भी देती रही हैं व वह शोषित पीड़ित दलित व्यक्ति जिसका धर्मों से कुछ ज्यादा लेना देना नहीं होता, ईसाई धर्म अपना कर अपने प्रति उपकार करने वालों का अहसान चुकाने की कोशिश करता है। उनके इस प्रयास के प्रति भारतीय समाज ने लम्बे समय तक निरपेक्ष भाव अपनाया है। किंतु साम्प्रदायिक राजनीति के प्रसार के बाद जब संघ परिवार को आंकड़ा गत चुनावी नुकसान महसूस हुआ तो 1984 के राम जन्म भूमि मन्दिर की तरह धर्म परिवर्तन को भी भावना भड़काने के लिए अपने कार्यक्रम में शामिल कर लिया गया। ईसाई मिशनिरियों पर आरोप लगाये जाने लगे कि वे लालच देकर ज़ोर ज़बरदस्ती से धर्म परिवर्तन करा रहे हैं, जबकि सच यह है कि ईसाई मिशनरियाँ शिक्षा, सेवा और समता की भावना के आधार पर स्वैच्छिक ढंग से धर्म परिवर्तन करा रही हैं।
गुजरात की नरेन्द्र मोदी सरकार ने तो एक कदम आगे बढकर धार्मिक स्वतंत्रता विधेयक उस दिन आनन फानन में पास करा लिया था जब हरेन पण्डया की हत्या के विरोध में विपक्ष ने हंगामा कर दिया था और वे सदन से बाहर चले गये थे। इस विधेयक में तो प्रावधान है कि धर्म परिवर्तन से पूर्व ज़िला अधिकारी की पूर्व अनुमति अनिवार्य है।
स्मरणीय है कि गोधरा काण्ड से पहले गुजरात में व्यापक पैमाने पर गिरिजा घरों में आगजनी की जा रही थी जो गोधरा काण्ड जैसा दूसरा हथकण्डा मिलते ही बन्द हो गये थे। इस बहाने को लेकर यदि इतना व्यापक साम्प्रदायिक विभाजन नहीं हुआ होता तो गुजरात के साम्प्रदायिक तत्व कुछ और गिरिज़ाघरों में आग लगवा कर, वोट की खातिर धार्मिक भावनाएं भड़काते।
यदि आज अम्बेडकर होते तो उन्हें भी धर्म परिवर्तन नहीं करने दिया जाता।
संविधान में डा. अम्बेडकर द्वारा लिखित एवम व्यव्हृत यह अधिकार अब खटाई में पड़ता जा रहा है। मध्य प्रदेश और उड़ीसा में आज से तीस-पैंतीस वर्ष पूर्व ऐसा ही कानून लागू होने के बाबजूद आज तक धर्म परिवर्तन का कोई भी ऐसा प्रकरण प्रकाश में नहीं आया है, जबकि प्रत्येक कलेक्टर को प्रतिमाह इस आशय की रिपोर्ट भेजनी पड़ती है। किंतु इस आधार पर अल्पसंख्यक ईसाई समुदाय पर हमले होने प्रारम्भ हो चुके हैं।
धर्मांतरण केवल धर्म परिवर्तन का ही हिस्सा नहीं है अपितु यह समाज के निर्धन तबकों को शिक्षित करने व उन्हें शोषण उतपीड़न का शिकार बनाने वालों के खिलाफ संघर्ष करने का भी मुद्दा है। देखा गया है कि धर्म परिवर्तन करने वालों में लगभग शतप्रतिशत लोग दलित और शोषित समुदायों से सम्बद्ध होते हैं। अशिक्षित होना भी दलित होने का ही अभिशाप होता है। धर्म परिवर्तन करने वालों का न तो अपने पिछले धर्म से कुछ लेना देना होता है और ना ही नये धर्म से ही कुछ लेना देना होता है। यह तो शोषण से मुक्ति एवं अपनी निर्धनता को दूर करने का उपचार भर होता है। इस गैर क्रांतिकारी उपचार के अनेक रूप हो सकते हैं और धर्म परिवर्तन भी उनमें से एक है। इस उपचार में कम से कम इतना लाभ अवश्य ही होता है कि दलितों के सामाजिक सम्मान में कुछ धनात्मक परिवर्तन आता है। इसी सामाजिक सम्मान प्राप्त करने का एक नाम “हरिजनों[दलितों] का मन्दिर प्रवेश” भी रहा है। गौर से देखने पर जो धर्म परिवर्तन जैसा ही कुछ होता है। गाँव छोड़कर नगरों में बसने के प्रति आतुर लोगों में ग्रामीण रोजगारों का अभाव ही नहीं अपितु जातिगत अपमान की भावना से मुक्ति की आकाँछा भी कार्य करती है।
“मैं हिन्दू धर्म में पैदा ज़रूर हुआ हूं किंतु हिन्दू के रूप में मरूंगा नहीं” कहने वाले डा. अम्बेडकर ने सात लाख दलितों के साथ 14 अक्टूबर 1956 के दिन जब बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी तब उनकी और उन सात लाख दलितों की मुख्य भावना बौद्ध धर्म ग्रहण करने की न होकर भेदभाव बरतने वाले हिन्दू धर्म को त्यागने की अधिक थी। इस्लाम की जगह बौद्ध धर्म का चुनाव इसलिए किया गया था ताकि इस परिवर्तन में कम प्रतिरोधों का सामना करना पड़े।
दलित जब तक वोटर के रूप में अपनी पहचान नहीं बना पाया था तब तक उसके धर्म परिवर्तन पर किसी को आपत्ति नहीं थी किंतु जब सम्प्रदाय के आधार पर सत्ता के रास्ते खुलने लगे तो हिन्दूवादी दलों को धर्म परिवर्तन को सीधे तौर पर सत्ता के दरवाजे बन्द करने जैसा लगने लगा और आपत्तिजनक महसूस होने लगा। आस्ट्रेलिया से भारत में कुष्ट रोगियों की सेवा करने के लिए रह रहे मिशनरी स्टेंस की उसके दो बच्चों समेत ज़िन्दा जला कर हत्या कर दिये जाने पर दुनिया भर में थू-थू हुयी थी व कई देशों से सम्बन्ध बिगड़ने की सम्भावनाएं पैदा हो गयी थीं। इस स्तिथि पर पर्दा डालने के लिए प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सम्बन्धित व्यक्तियों और संगठनों की आलोचना करने के स्थान पर बयान दिया था कि धर्म परिवर्तन पर राष्ट्रीय बहस होना चाहिए। इस घटना के आरोपी का खुलकर पक्ष लेने वाले और उसे विधिक सहायता देने वाले सांसद दिलीप सिंह जू देव को पुरस्कृत कर मंत्री बना दिया गया था। इस घटना पर संघ परिवार से सम्बद्ध संस्थाओं के सीधे सीधे बयान और भाजपा की दबी छुपी हरकतें भी इतिहास में दर्ज़ हो चुकी हैं। तीन आस्तिक और तीन नास्तिक दर्शनों वाले भारतीय समाज में धर्म अतीत काल से व्यक्तिगत जीवन का सांस्कृतिक हिस्सा रहा है। यह केवल राजनीतिक आवश्यकता ही थी कि जिसने धर्म को समूह में बदल कर साम्प्रदायिकता की ओर उन्मुख किया है। प्राचीन काल में धर्म परिवर्तन की लम्बी परम्पराएं रही हैं। अपनी पुरानी मान्यताओं से बौद्ध, जैन, ईसाई, सिख, आर्य समाज, आदि की ओर उन्मुख लोगों के प्रति उस दौर के प्रचलित धर्म समाज द्वारा विरोध किये जाने का कोई इतिहास नहीं मिलता। जिसको जो रास्ता ठीक लगता था उसे चुनने का अधिकार होता था। आज जब अपने सामाजिक अपमान से मुक्त होने के लिए धर्म परिवर्तन किया जा रहा है व सामाजिक भेदभाव को यथावत रखने वाली हिन्दू संस्कृति के आधार पर राजनीति करने वालों को इससे अपनी राजनीति पर आघात लगता नज़र आ रहा है तो प्रलोभन का झूठा बहाना गढा जा रहा है।
डा. अम्बेडकर के जन्म दिवस को धार्मिक स्वतंत्रता दिवस के रूप में भी मनाया जाना चाहिये।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

गुरुवार, अप्रैल 08, 2010

अनुमान से अधिक गम्भीर स्थिति

दंतेवाड़ा में 76 सैनिकों की मौत
स्तिथि हमारे अनुमान से कहीं अधिक गम्भीर है
वीरेन्द्र जैन
किसी ने कहा है और सच ही कहा है कि जब छठे चौमासे कभी चोरी हो जाती है तो चोर की तलाश की जाती है किंतु जब चोरियाँ आये दिन होने लगें तो चोर को नहीं अपितु राजा को तलाशना होता है।
बस्तर में हमारे देश के 76 बहुमूल्य सैनिक किन्हीं निहत्थे ग्रामीणों की तरह मार दिये गये। ऐसा तब हुआ जब देश का गृहमंत्री नक्सलियों के सफाये के लिए आपरेशन ग्रीन हंट चलाने की चेतावनी देकर उन्हें बातचीत के लिए मौका दे रहा था तथा उसी बातचीत के लिए दबाव बनाने के लिए उन्हें अर्ध सैनिक बलों द्वारा घेरा जा रहा था। ऐसा उसी समय हुआ जब देश का प्रधानमंत्री और गृह मंत्री बार बार उग्रबामपंथ को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बतला रहे थे जिसका कि उन्हें आभास था। खेद है कि उनकी बात की गम्भीरता को अर्धसैनिक बलों के कमांडरों ने नहीं समझा और हमारे 76 सैनिक बिना लड़े ही मौत के मुँह में समा गये। इससे ये भी संकेत मिलता है कि जंगलों में लड़ी जाने वाली लड़ाइयों की दृष्टि से वे उग्रबामपंथी अधिक प्रशिक्षित हैं और उनके पास अपेक्षाकृत अधिक मारक हथियार हैं या वे पुराने हथियारों से ही मोर्चा सम्हाल सकते हैं।
अभी हाल ही मैं सुप्रसिद्ध लेखिका और एक्टिविस्ट अरुन्धती राय उसी क्षेत्र में रह कर आयी थीं और उन्होंने आउटलुक [अंग्रेज़ी] में एक लेख लिखा था “वाकिंग विथ कामरेड्स”। इस लेख में उन्होंने बताया था कि वे लोग कितने जुझारू और निर्भीक ढंग से कठोर जीवन जीते हुये अपना काम कर रहे हैं, उनका अपने काम के प्रति इतना समर्पण है कि मौत का डर उन्हें नहीं सताता। उक्त लेख को पढते हुए ही महसूस होता है कि वेतन के लिए सैनिक बनने वालों की तुलना में वे कितने जुझारू हो सकते हैं। अरुन्धति के अनुसार्- “इन्द्रावती नदी के किनारे का इलाका माओवादियों द्वारा नियंत्रित है। पुलिस इस इलाके को पाकिस्तान कहती है। यहाँ गाँव खाली हैं, लेकिन जंगल लोगों से अटे पड़े हैं। जिन बच्चों को स्कूल में होना चाहिये था, वे जंगलों में भागे फिर रहे हैं। जंगल के खूबसूरत गाँवों में कंक्रीट की बनी इमारत या तो उड़ा दी गयी है और उनका मलबा बचा हुआ है, या फिर इनमें पुलिस वाले भरे हुये हैं। इस जंगल में जो युद्ध करवट ले रहा है, भारत सरकार को उस पर कुछ गर्व भी है और कुछ संकोच भी। आपरेशन ग्रीन हंट भारत के गृहमंत्री [और इस युद्ध के सीईओ] पी चिदम्बरम के लिए अगर गर्वोक्ति है, तो एक इंकार भी। वह कहते हैं कि ऐसा कोई युद्ध नहीं चल रहा, यह सिर्फ मीडिया द्वारा गढा गया है। और इसके बाबज़ूद ढेर सारा पैसा इस युद्ध में झौंका जा रहा है, दसियों हज़ार सैन्य टुकड़ियों को तैनात कर दिया गया है। भले ही यह युद्ध भूमि मध्य भारत के जंगल में है तो क्या हुआ, इसके गम्भीर नतीज़े हम सभी के लिए होंगे।“
अरुन्धति द्वारा कुछ ही दिनों पहले की गई यात्रा के बाद लिखे गये इस लेख के बाद हुयी इस घटना के बाद उनके लिखे का महत्व और बढ गया है। चिंता की बात यह है कि इतनी अधिक संख्या में अर्ध सैनिक टुकड़ियाँ तैनात कर देने के बाद भी उनका मनोबल नहीं गिरा है और वे करो या मरो के नारे पर लड़ रहे प्रतीत होते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जब हमारी सैनिक टुकड़ियाँ, इसे युद्ध घोषित कर अपनी पूरी ताकत झोंक देंगीं तो पूरे जंगल से उनका सफाया कर देंगीं, किंतु इस अभियान में हमें भी अपने अनेक बहादुर नौजवान भी खोने पड़ सकते हैं। अस्सी के दशक में ख्वाज़ा अहमद अब्बास ने एक फिल्म ‘दि नक्सलाइट’ बनायी थी और जब फिल्म में सैनिक बल पूरे नक्सलाइट केम्प को नष्ट कर देते हैं तो उसके बाद सैनिक कमांडर आवाज लगाता है कि अगर और कोई नक्सलाइट हो तो वो बाहर आकर समर्पण कर दे। दो तीन मिनिट के बाद सूखे पत्तों में सरसराहट होती है और किसी के चलने की आवाज आती है तो सभी सैनिकों की बन्दूकें अपने अपने निशाने साध लेती हैं, पर वहाँ से एक ढाई-तीन साल का बच्चा अपने दोनों हाथ आत्मसमर्पण की मुद्रा में उठाये बाहर निकलता है। इस माध्यम से फिल्म निर्देशक ने यह कहना चाहा था कि बन्दूकों से नक्सलियों को नष्ट कर देने के बाद भी उनका बीज नष्ट नहीं होता है। ऐसा लगता है कि आज वही बच्चा फिर से बड़ा हो गया है और एक बार फिर हमारे देश के कर्णधार उसी रास्ते पर बढ रहे हैं। पता नहीं इस रास्ते से हम कहाँ पहुँचेंगे पर बजट में रक्षा के लिए जो बड़ी राशि प्रस्तावित की गयी है उससे तो अनुमान लगता है कि सरकार को स्थिति की गम्भीरता का अनुमान है और वह बड़ी तैय्यारी में है।
ज़रूरत इस बात की है कि कोई बीच का रास्ता निकले, किंतु यह रास्ता सामाजिक न्याय की ओर बढ कर ही निकलेगा। अरुन्धति का अनुमान सही था कि भले ही यह युद्ध मध्यभारत के जंगलों में लड़ा जा रहा हो किंतु इसके गम्भीर नतीज़े हम सभी के लिए होंगे। जनसत्ता में प्रकाशित पुण्यप्रसून वाजपेयी का लेख अगर सच है तो आईपीएल और सानिया की शादी जैसी चीज़ों में खोये हुए हम लोग कितने अँधेरों में हैं, जबकि देश के बीचों बीच समानांतर सरकारें चल रही हैं, और स्थितियाँ सचमुच ही अनुमान से अधिक गम्भीर हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र फोन 9425674629

बुधवार, अप्रैल 07, 2010

घटते जंगल बढता जंगल राज्

नकारात्मक सुर्खियों से भरा प्रदेश
वीरेन्द्र जैन
राजनीतिक चेतना से शून्य शिथिल और उदासीन मध्य प्रदेश जिसके बारे में कभी भवानी प्रसाद मिश्र की पंक्ति ‘ऊंघते अनमने जंगल ‘ बहुत सटीक बैठती है, अपनी नकारात्मक सुर्खियों के कारण ही अपनी उपस्थिति दर्शा रहा है। प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री भले ही हाथ लगे अवसर को सुखद सपनों और सम्भावनाओं की घोषणाओं से भरने की कोशिशें करते रहते हों किंतु उनका मंत्रिमंडल, अफसरशाही, और पार्टी के लोग अपनी हरकतों से मुख्यमंत्री के मौखिक आदर्शवाद को उपहास का पात्र बनाते रहते हैं।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान प्रदेश के कुछ मंत्रियों के नज़दीकी लोगों के यहाँ पड़े छापों में सैकड़ों करोड़ रुपयों की नकदी, बैंक ज़मा रसीदें, और ज़मीन ज़ायज़ाद की खरीद के प्रमाण मिले थे, एक मंत्री के तो ड्राइवर के लाकर से ही सवा करोढ मिले थे। ये छापे राजनीतिक आरोपों से बचने के लिए उनके निकट के अफसरों और रिश्तेदारों के यहाँ डाले गये थे, जिनकी कभी कोई ऐसी हैसियत ही नहीं रही कि वे भ्रष्टाचार से भी इतनी राशि बना सकें। इनका दोष मानते हुये प्रारम्भ में इन्हें मंत्रिपरिषद से अलग रखा गया, किंतु लोकसभा चुनाव निबटते ही उन्हें पार्टी के निर्देश पर सादर मंत्रिमण्डल में सम्मलित कर किया गया। आधा दर्ज़न से अधिक मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की अनेक जाँचें चल रही है या कह सकते हैं कि टल रही हैं। प्रति दिन कोई न कोई घोटाला सामने आ रहा है।
पिछले दिनों प्रदेश के अफसरों के ठिकानों पर आयकर विभाग के जो छापे पड़े और उन छापों में जितनी मात्रा में धन सम्पत्ति और ज़मीन ज़ायज़ाद के कागज़ात मिले उनसे अन्दर पल रही बीमारी का पता चलता है। ज़ाहिर है कि ये सम्पत्तियाँ सम्बन्धित मंत्री की जानकारी और भागीदारी के बिना नहीं बन सकतीं। यह भी लगभग तय है कि इतने व्यापक स्तर पर हो रही कमाई की जानकारी पार्टी पदाधिकारियों को भी रहती है। पार्टी ही मंत्रिमण्डल के गठन में नाम निर्देशित करती है। इसलिए यह भी तय ही है कि सतारूढ पार्टी का भव्यता पूर्वक संचालन भी सदस्यों के सहयोग से नहीं अपितु इसी भ्रष्ट तरीके से हो रहा है। रोचक यह है कि प्रदेश में कई वर्षों से लोकायुक्त प्रणाली होते हुये भी, अभी तक किसी भी राजनेता को सज़ा नहीं मिली है जबकि उसके पास प्रदेश के आठ मंत्रियों के खिलाफ शिकायतें दर्ज़ हैं।
ताज़ा आयकर के छापों में जिन अधिकारियों के निवासों, लाकरों, और बैंकों से जो राशियाँ बरामद हुयी हैं वे आँखें खोल देने वाली हैं। जहाँ यह भी तय है कि छापे में पायी गयी रकम सम्बन्धित द्वारा किये गये कुल भ्रष्टाचार का बहुत थोड़ा सा हिस्सा होती है क्योंकि बहुत सारा तो वे लोग अपने ऐयाशी पूर्ण रहन सहन में खर्च कर चुके होते हैं और बहुत सारा बेनामी तो तलाशा ही नहीं जा पाता। छापों की खबरों के दौरान पूरे अधिकारी वर्ग के चेहरों पर छायी दहशत और बीस अधिकारियों का अचानक छुट्टी पर चले जाना उनके अपने अपराधबोध का प्रमाण और सरकार के अन्दर चल रही कारिस्तानियों की खबर देती है। पिछले दो-तीन वर्षों के दौरान अधिकारियों के पास से पाँच सौ करोड़ की बरामदगी की सूची देखने पर सरकार के चरित्र का पता चलता है-
· तत्कालीन गृह सचिव राजेश राजौरा जो स्वास्थ विभाग में कमिश्नर थे जिन्होंने करोड़ों रुपयों की बोगस खरीद की थी, और कई कागज़ी कम्पनियों को आर्डर देकर बन्दरबाँट की थी के पास से कई करोड़ की नगदी के अलावा करोड़ों रुपयों के फार्म हाउस खरीदने के प्रमाण मिल्र थे।
· तत्कालीन स्वास्थ संचालक डा. योगिराज शर्मा के यहाँ से तीस करोड़ की अघोषित आय का खुलासा हुआ था। आयकर ने उन पर 12 करोड़ रुपयों का टैक्स लगाया है जिसे ज़मा न करने पर उनकी चल अचल सम्पत्ति कुर्क करने का नोटिस दिया गया है।
· स्वास्थ विभाग के ही एक अन्य स्वास्थ संचालक अशोक शर्मा को भी विभाग ने घेरे में लिया है।
· जलसंसाधन विभाग में प्रमुख सचिव रहे अर्विन्द जोशी और उनकी आई ए एस पत्नी टीनू जोशी उनके पिता पूर्व डीजीपी के यहा छापा मारने पर विभाग को करोड़ों रुपये नकद लाकरों में सोना और ज़मीन ज़ायज़ाद समेत बीमा पालसियाँ के कागज़ात मिले थे।
· पीड्ब्ल्यूडी इंजीनियर रामदास चौधरी, दीपक असाई, और जितेन्द्र भासने जो अपनी बीमी एजेंट पत्नियों के द्वारा सीधी बीमी पालिसियाँ ही बवनवाते थे के यहाँ से बीमा पालसियों के कागज़ात मिले हैं।
· विधान सभा के अपर सचिव सत्यनारायण शर्मा के पास पदस्थ दो अफसरों के के शर्मा और के पी द्विवेदी के यहाँ भी करोड़ों रुपयों की आय का पता चला है।
कुल मिला कर आयकर छापों में लगभग पाँच सौ करोड़ की सम्पत्ति तो उज़ागर ही हो चुकी है किंतु राज्य सरकार ने कुछ ही मामलों में बेमन से कमजोर सी कार्यवाही ही की है और इनकम विभाग की रिपोर्ट आने की प्रतीक्षा का बहाना ले रही है।
अपराधों का ग्राफ तो दिन प्रति दिन बढ ही रहा है जिसे राजनीतिक संरक्षण के साफ संकेत मिलते हैं। सत्तारूढ पार्टी की एक विधायक फरार चल रही हैं जिनके पति पर कई हत्याओं का पता चला है और विधायक महोदया पर हत्या में सहयोग देने का प्रकरण जाँच में है। ज़मीनों की लूट ऐसी चल रही है कि संघ से जुड़ी संस्थाओं के नाम पर करोड़ों की ज़मीन कोड़ियों के मोल बेच दी गयी है, जिनमें गौशालाएं और सरस्वती शिशु मन्दिर जैसी संस्थाएं भी शामिल हैं। सदन में विपक्ष की नेता जो मध्य प्रदेश से ही सांसद हैं, के निकट सहयोगी एक विधायक के साथ वकील से सलाह लेने दिल्ली गये भोपाल विकास प्राधिकरण के सीईओ ट्रेन से गायब मिलते हैं और उनका शव रास्ते में ट्रैन की पटरियों पर पड़ा मिलता है किंतु भाजपा विधायक साथ गये व्यक्ति के गायब होने के बाद भी भोपाल में चुपचाप अपने घर चले जाते हैं और उनके गायब होने की जानकारी किसी को देने की ज़रूरत ही नहीं समझते। किसी भी पुलिस थाने में संघ परिवार के किसी व्यक्ति को बुलाये जाने पर बजरंगी थाने में पहुँच कर उत्पात करते हैं और आरोपी को छुड़ा कर ले जाते हैं। विद्यार्थी परिषद के ज़लूस को नियंत्रित करने वाले पुलिस इंस्पेक्टर का कालर खींचते दृश्य अखबारों में छपते हैं किंतु कहीं भी कोई कार्यवाही नहीं होती। कार्यवाही हो भी कैसे सकती है जब अपने पद की शपथ लेने से पूर्व गृहमंत्री हाफ पैंट पहिन कर संघ के विशेष पथसंचालन पर निकल कर यह सन्देश देता है कि पुलिस की लाइन क्या होना चाहिये। भोपाल इन्दौर जैसे नगरों में सरे आम जंजीरें खींची जा रही हैं, बैंक के आसपास लूटें हो रही हैं, घरों में घुस कर लूटें हो रही हैं और पुलिस अपनी मजबूरी का रोना रोती है कि उसे काम करने ही नहीं दिया जा रहा। प्रदेश का गृह राज्यमंत्री अपने मंत्री, मुख्य मंत्री, और दूसरे प्रमुख मंत्री के खिलाफ बयान दे कर कहता है कि वे उसे कोई काम ही नहीं करने दे रहे और पुलिस के लोग उसकी बात ही नहीं सुनते। दूसरी ओर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस अपनी पुरानी कमाई को सुरक्षित बनाये रखने के लिए चादर तान कर सो रही और आगामी चुनाव के आने की प्रतीक्षा कर रही है।

कभी जो प्रदेश विशाल जंगलों से सम्पन्न प्रदेश था अब जंगल राज्य में बदल चुका है और जंगल कटते जा रहे हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629




सोमवार, अप्रैल 05, 2010

सानिया के शादी और बाल ठाकरे की चौंच

सानिया की शादी और बालठाकरे की चौंच
वीरेन्द्र जैन
राजकपूर की एक फिल्म में गाना था- बेगानी शादी में अब्दुला दीवाना, ऐसे मनमौज़ी को मुश्किल है समझाना। किंतु ये बाल ठाकरे ऐसे दीवानों में से हैं जो जानबूझकर और सोच समझ कर दीवानापन दिखाते हैं ताकि देश में सबसे अधिक आयकर चुकाने वाली नगरी में धनपतियों को डरा धमका कर उनसे वहाँ ज़िन्दा रहने का टैक्स वसूल सकें। इसके लिए ज़रूरी होता है कि वे अपनी ताकत का प्रदर्शन करते रहें। इस शक्ति प्रदर्शन को गुंडागर्दी और माफियागिरी जैसे नामों से बचाने के लिए वे इसे एक राजनीतिक दल का नाम दिये हुये हैं।
किसी राजनीतिक दल को किसी कार्यक्रम और आन्दोलन की ज़रूरत होती है। किंतु शिवसेना ने इसके नाम पर प्रत्येक वार्ड में अपने कार्यालय खोल रखे हैं जहाँ पर कुछ बाहुबली हमेशा ही कैरम या शतरंज खेलेते पाये जाते हैं, जिनके घर नियमित रूप से वेतन पहुँचता है। लोगों को भयभीत करने के लिए उन्हें समय समय पर कुछ अभियान चलाने होते हैं, इसके लिए प्रत्येक गणेश उत्सव के समय गणपति का पण्डाल स्थापित करने के लिए वसूल किए जाने वाले चन्दे के अलावा वे कभी मराठी और दक्षिणभारतीय लोगों के बीच टकराव पैदा करते हैं तो कभी उत्तर भारतीय लोगों के बीच टकराव पैदा करते हैं। कभी राममन्दिर के नाम पर मुस्लिम विरोध को हवा देते हैं तो कभी पाकिस्तानी टीम को न आने देने के लिए पिच खोदने का काम करते हैं। कभी पाकिस्तान के मशहूर गायक गुलाम अली के आने का विरोध करते हैं तो कभी मशहूर फिल्म स्टार दिलीप कुमार के घर के सामने दिगम्बर प्रदर्शन करते हैं। ढेर सारी फिल्मों में कोई महत्वहीन मुद्दा तलाश कर फिल्म को न चलने देने का आन्दोलन खड़ा कर देते हैं और कई बार तो फिल्म को मशहूर कराने के लिए भी निर्माता आदि उनसे विवाद पैदा कराने के लिए सौदा करते हैं। हिन्दू मुस्लिम् विरोध तो ऐसा स्थायी कार्ड है जिसे वे कभी भी किसी भी बहाने से चल देते हैं।
किसी भी बाहुबली के लिये सबसे कठिन समय तब आता है जब लोग उससे डरना छोड़ देते हैं। पिछले दिनों बालठाकरे के साथ भी कुछ कुछ ऐसा ही हुआ। एक तो राज ठाकरे ने उनके गैंग़ से अलग होकर अपनी अलग एजेंसी खोल ली और उसमें सबकी सब वे ही ‘सेवाएं’ देने लगे जिस पर बालठाकरे का एकक्षत्र राज्य रहा आया था। दूसरी ओर उनकी अपनी बहू ने जो अपने पति से अलग होने के बाद भी बालठाकरे के घर में ही रह रही थी, ने उनकी पार्टी छोड़कर कांग्रेस की ओर मुखातिब हो गयी व सोनिया एवम राहुल गान्धी की तारीफों के पुल बाँधने लगी। शिवसेना की धमकियों की परवाह किए बिना राहुल गान्धी ने न केवल मुम्बई शहर का दौरा किया अपितु लोकल ट्रैन में सफर किया, और दादर जाकर एटीएम से पैसे निकाले। शाहरुख खान ने अपनी फिल्म ‘माय नेम इस खान’ के प्रदर्शन को रोकने से इंकार कर दिया, और फिल्म को मुम्बई मैं ही लाखों लोगों ने देख कर अपना पक्ष स्पष्ट कर दिया। जब उन्होंने आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों के ऊपर हो रहे हमलों के नाम पर आस्ट्रेलियन टीम को न खेलेने देने की चेतावनी दी तो समर्थन के अभाव में वह चेतावनी भी वापिस लेनी पड़ी।
यह वही समय है जब हताश निराश बाल ठाकरे, जो अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव पर हैं, ने भारत की ओर से खेलने वाली अंतर्राष्ट्रीय स्तर की महिला टेनिस खिलाड़ी द्वारा अपनी शादी के बारे में लिए फैसले के खिलाफ अपनी फूहड़ टिप्पणी दर्ज़ करायी। यह न केवल एक विशिष्ट नागरिक के नागरिक अधिकारों पर ही हमला था अपितु उसकी सोच की स्वतंत्रता पर भी हमला था। कौन अपना जीवन साथी किसे चुनता है इसका फैसला भी क्या मुम्बई का वह बाहुबली करेगा जिसके आतंक के कारण मुम्बई के कुछ फिल्म निर्माता देश के सैंसर बोर्ड के पास फिल्म भेजने से पहले अनुमति लेने जाते हों, अब वह विशिष्ट जनों की शादी के बारे में भी फैसला करने लगे तो हमारा आज़ाद होने का ढोल पीटना बेकार है। यदि संविधान द्वारा दिये गये अधिकारों को एक गैर संवैधानिक सत्ता निर्भीक होकर चुनौती देने लेगे और विरोध में आवाज़ भी नहीं सुनायी दे रही हो तो खतरे को समय रहते सूंघना चाहिए। खेद की बात तो यह है कि उनकी इस टिप्पणी के खिलाफ नागरिक अधिकारों पर बातचीत करने वाले बुद्धिजीवी और गैर सरकारी संगठन भी चुप रहने को विवश हैं। इससे तो यह मान लेना चाहिए कि बिना इमर्जेंसी घोषित किए भी तानाशाही अपना काम कर रही है। 1975 में लागू की गयी इमर्जेंसी के बारे में कहा गया था कि लोगों से झुकने के लिए कहा गया तो वे लेट गये, किंतु यहाँ तो अपने को महानायक कहलवाने की पब्लीसिटी कराने वाले बालठाकरे के घर जाकर नाक रगड़ते हैं।
विचारणीय यह है कि उक्त टिप्पणी उसी दौरान आयी जब कुछ दिनों पहले हरियाना की खाप पंचायत द्वारा अपनी मर्ज़ी से विवाह करने वाले एक मासूम दम्पत्ति को फाँसी देने के मामले में अभियुक्तों पर चले मुकदमे के बाद उन लोगों को मृत्यु दण्ड दिया गाया है। ठाकरे भी अपनी टिप्पणी द्वारा लोगों को उकसा कर ऐसे ही कार्य की ओर धकेल रहे हैं, जिसका प्रत्यक्ष परिणाम तो यह है कि भोपाल में भाजपा की प्रदेश सरकार द्वारा संरक्षित विश्व हिन्दू परिषदियों ने उस सानिया मिर्ज़ा के पोस्टर जलाये जिसकी कुछ दिन बाद शादी होने वाली है।भारतीय संस्कारों यह अपशकुन माना जाता है।
अपने देश से बाहर शादी करना तो आम बात हो गयी है और इस देश की सबसे अधिक शक्तिशाली महिला और इस विशाल देश में सत्तारूढ पार्टी की अध्यक्ष भी इस देश में दूसरे देश से आकर व शादी करके यहां रह रही हैं। यदि बाल ठाकरे के कथनानुसार, सानिया पाकिस्तान में शादी करने के बाद वहीं की नागरिक हो जाने वाली हैं तो हिन्दुस्तान में शादी करने वाली सोनिया गान्धी की राष्ट्र भक्ति पर शिव सेना के स्वाभाविक मित्र भाजपा संघ के लोग क्यों उछल उछल जाते हैं, और क्यों उनकी राष्ट्रीयता पर उंगलियाँ उठाते हैं। उनके प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में उनकी नेत्रियाँ विधवा भेष धारण करने और विधवाओं सा आचरण करने की धमकियाँ क्यों देने लगती हैं। यहाँ तथाकथित हिन्दूवादी दलों का दोहरा चरित्र सामने आता है।
सानिया चूंकि एक सेलिब्रिटी है इसालिए उसकी शादी की खबर एक सूचना या समाचार की तरह तो आ सकती है, इससे अधिक नहीं। अब वे किस देश के लिए खेलेंगीं यह उनका अपना फैसला होगा। खेल को खेल की भावना से आगे नहीं ले जाना चाहिए। आई पी एल ने खेल से राष्ट्रीय पहचान को अलग करके एक बहुत महत्वपूर्ण काम किया है।
परायी खीर में चौंच डुबाने वालों को सही सबक सिखाने की ज़रूरत है।
वीरेन्द्र जैन
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