सावधान, अफगानिस्तान में भारत फँस सकता है
वीरेन्द्र जैन
अमेरिका ने अपने पाँसे बहुत ही चतुराई से चले हैं, और अगर हमने उसी समान चतुराई और कूटनीति से काम नहीं लिया तो अमरीका की बन्दूक हमारे कन्धों पर होगी और हम उसके पापों की सज़ा भुगतते हुये अपने किये पर पछता रहे होंगे। अमरीका ओसामा बिन लादेन को खोजने के बहाने अफगानिस्तान आया था। यद्यपि पहले भी वह चाहता था कि उसकी लड़ाई को हमारे सैनिक लड़ें जिसके लिए उसने हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी के सामने कुछ आकर्षक प्रस्ताव रखे थे और तत्कालीन सरकार उसमें फँसती जा रही थी, किंतु विपक्षी दलों की असहमतियों और विरोध के कारण हमने अपने सैनिक वहाँ न भेजने का समझदारी पूर्ण कार्य किया था, जिससे मजबूरन अमेरिका को वहाँ अपने सैनिक भेजने पड़े थे। किंतु बाद में उसने धीरे धीरे हमें अपने चंगुल में फाँस लिया। हमको अफगानिस्तान में विकास योजनाएं संचालित करने के नाम बुलाया गया और हम उस लालच में फँसते चले गये।
आज अफगानिस्तान में हमारी छह हज़ार करोड़ की परियोजनाएं चल रही हैं जिससे अच्छी खासी कमाई हो रही है। हमें उक्त कमाई तो दिख रही है किंतु यह नहीं दिख रहा है अमेरिका वहाँ तालिबानों को खत्म करने के लिए आया था किंतु उसने अभी तक भी तालिबानों को कमजोर नहीं कर पाया है। वे पाकिस्तान के एक हिस्से में स्वतंत्रता पूर्वक रह रहे हैं और पाकिस्तान में बड़ी ताकत की तरह उभरते जा रहे हैं। अभी भी पकिस्तान में सत्ता नागरिकों के प्रतिनिधियों के हाथों में नहीं है अपितु असली सत्ता फौज़ और आई एस आई के हाथों में है जिसमें से कुछ अमेरिका के इशारे पर काम करने वाले लोग हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने घोषित कर दिया है कि जुलाई 2011 तक वे अपनी फौज़ें अफगानिस्तान से वापिस बुला लेंगे। ऐसा करते ही तैय्यारी से ताक लगाये बैठे तालिबान अफगानिस्तान पर कब्ज़ा करने की लड़ाई छेड़ देंगे। अमेरिका तो बाहर हो चुका होगा किंतु हमारा पैसा और लोग फँसे होने के कारण हमें वहीं रहना होगा। इसका परिणाम यह निकलेगा कि अगली लड़ाई या तो हमारे और तालिबानों के बीच होगी जिसमें हमें अपनी ताकत झोंकनी होगी। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो ना तो हमारी पूंजी सुरक्षित रहेगी और ना ही काम करने वाले लोग। हमारे पास केवल दो ही विकल्प बचेंगे कि या तो हम अपनी लागत छोड़, अपने लोगों को सुरक्षित निकाल कर वापिस हो लें या अपनी फौज़ भेजकर उनसे मुक़ाबला करें। परोक्ष में कहा जा सकता है कि हम वहाँ फँस चुके हैं। हमें याद रखना चाहिए कि पिछले तालिबान शासन के समय हम अपने दूतावास को बन्द करके चले आये थे।
दूसरी ओर अफगानिस्तान से अमेरिका के विदा होते ही पाकिस्तान की अस्थिरता और बढ जायेगी अभी वहाँ की पुलिस तो आतंकवादियों के आगे हथियार डाल चुकी है और उनसे लड़ने का काम फौज़ के हाथ में है फिर भी लगातार वहाँ आतंकी घटनाएं घट रही हैं। अमेरिका के जाने के बाद यदि हमने अपनी फौज़ अफगानिस्तान् नहीं भेजी तो या तो फिर से तालिबानों का कब्जा हो जायेगा या अफगानिस्तान पाकिस्तान के साथ हो जायेगा। ये दोनों ही सम्भावनाएं खतरनाक हैं। हमारे प्रधानमंत्री की ताज़ा अमेरिका यात्रा से भी कोई परिणाम नहीं निकला है। अमेरिका बिल्ली और बन्दर की कहानी दुहरा है कभी इस पलड़े को झुका देता तो कभी उस पलड़े को। ज़रूरत इस बात की है कि भारत और पाकिस्तान की अपनी दुश्मनी खत्म हो और दोनों मिलकर आतंकियों से लड़ें तब ना तो भारत को अपनी परियोजनाएं समेटना पड़ेंगीं और ना ही आतंकी अपना कारनामे कर पायेंगे। किंतु पाकिस्तान और हमारे यहाँ भी एक लाबी ऐसी है जो पाकिस्तान् और हिन्दुस्तान को सहयोगी होते नहीं देखना चाहती। जबतक यह लाबी पस्त नहीं होगी हम कोई कूटनीतिक कदम नहीं उठा सकेंगे इसलिए बेहतर है कि हम या तो अमेरिका को कुछ दिन वहाँ और रुकने के लिए राज़ी कर लें या जुलाई 2011 तक अपनी परियोजनाएं पूरी करके अमेरिका के साथ ही वापिस निकलने की तैय्यारी कर लें।
वीरेन्द्र जैन
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