सानिया की शादी और बालठाकरे की चौंच
वीरेन्द्र जैन
राजकपूर की एक फिल्म में गाना था- बेगानी शादी में अब्दुला दीवाना, ऐसे मनमौज़ी को मुश्किल है समझाना। किंतु ये बाल ठाकरे ऐसे दीवानों में से हैं जो जानबूझकर और सोच समझ कर दीवानापन दिखाते हैं ताकि देश में सबसे अधिक आयकर चुकाने वाली नगरी में धनपतियों को डरा धमका कर उनसे वहाँ ज़िन्दा रहने का टैक्स वसूल सकें। इसके लिए ज़रूरी होता है कि वे अपनी ताकत का प्रदर्शन करते रहें। इस शक्ति प्रदर्शन को गुंडागर्दी और माफियागिरी जैसे नामों से बचाने के लिए वे इसे एक राजनीतिक दल का नाम दिये हुये हैं।
किसी राजनीतिक दल को किसी कार्यक्रम और आन्दोलन की ज़रूरत होती है। किंतु शिवसेना ने इसके नाम पर प्रत्येक वार्ड में अपने कार्यालय खोल रखे हैं जहाँ पर कुछ बाहुबली हमेशा ही कैरम या शतरंज खेलेते पाये जाते हैं, जिनके घर नियमित रूप से वेतन पहुँचता है। लोगों को भयभीत करने के लिए उन्हें समय समय पर कुछ अभियान चलाने होते हैं, इसके लिए प्रत्येक गणेश उत्सव के समय गणपति का पण्डाल स्थापित करने के लिए वसूल किए जाने वाले चन्दे के अलावा वे कभी मराठी और दक्षिणभारतीय लोगों के बीच टकराव पैदा करते हैं तो कभी उत्तर भारतीय लोगों के बीच टकराव पैदा करते हैं। कभी राममन्दिर के नाम पर मुस्लिम विरोध को हवा देते हैं तो कभी पाकिस्तानी टीम को न आने देने के लिए पिच खोदने का काम करते हैं। कभी पाकिस्तान के मशहूर गायक गुलाम अली के आने का विरोध करते हैं तो कभी मशहूर फिल्म स्टार दिलीप कुमार के घर के सामने दिगम्बर प्रदर्शन करते हैं। ढेर सारी फिल्मों में कोई महत्वहीन मुद्दा तलाश कर फिल्म को न चलने देने का आन्दोलन खड़ा कर देते हैं और कई बार तो फिल्म को मशहूर कराने के लिए भी निर्माता आदि उनसे विवाद पैदा कराने के लिए सौदा करते हैं। हिन्दू मुस्लिम् विरोध तो ऐसा स्थायी कार्ड है जिसे वे कभी भी किसी भी बहाने से चल देते हैं।
किसी भी बाहुबली के लिये सबसे कठिन समय तब आता है जब लोग उससे डरना छोड़ देते हैं। पिछले दिनों बालठाकरे के साथ भी कुछ कुछ ऐसा ही हुआ। एक तो राज ठाकरे ने उनके गैंग़ से अलग होकर अपनी अलग एजेंसी खोल ली और उसमें सबकी सब वे ही ‘सेवाएं’ देने लगे जिस पर बालठाकरे का एकक्षत्र राज्य रहा आया था। दूसरी ओर उनकी अपनी बहू ने जो अपने पति से अलग होने के बाद भी बालठाकरे के घर में ही रह रही थी, ने उनकी पार्टी छोड़कर कांग्रेस की ओर मुखातिब हो गयी व सोनिया एवम राहुल गान्धी की तारीफों के पुल बाँधने लगी। शिवसेना की धमकियों की परवाह किए बिना राहुल गान्धी ने न केवल मुम्बई शहर का दौरा किया अपितु लोकल ट्रैन में सफर किया, और दादर जाकर एटीएम से पैसे निकाले। शाहरुख खान ने अपनी फिल्म ‘माय नेम इस खान’ के प्रदर्शन को रोकने से इंकार कर दिया, और फिल्म को मुम्बई मैं ही लाखों लोगों ने देख कर अपना पक्ष स्पष्ट कर दिया। जब उन्होंने आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों के ऊपर हो रहे हमलों के नाम पर आस्ट्रेलियन टीम को न खेलेने देने की चेतावनी दी तो समर्थन के अभाव में वह चेतावनी भी वापिस लेनी पड़ी।
यह वही समय है जब हताश निराश बाल ठाकरे, जो अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव पर हैं, ने भारत की ओर से खेलने वाली अंतर्राष्ट्रीय स्तर की महिला टेनिस खिलाड़ी द्वारा अपनी शादी के बारे में लिए फैसले के खिलाफ अपनी फूहड़ टिप्पणी दर्ज़ करायी। यह न केवल एक विशिष्ट नागरिक के नागरिक अधिकारों पर ही हमला था अपितु उसकी सोच की स्वतंत्रता पर भी हमला था। कौन अपना जीवन साथी किसे चुनता है इसका फैसला भी क्या मुम्बई का वह बाहुबली करेगा जिसके आतंक के कारण मुम्बई के कुछ फिल्म निर्माता देश के सैंसर बोर्ड के पास फिल्म भेजने से पहले अनुमति लेने जाते हों, अब वह विशिष्ट जनों की शादी के बारे में भी फैसला करने लगे तो हमारा आज़ाद होने का ढोल पीटना बेकार है। यदि संविधान द्वारा दिये गये अधिकारों को एक गैर संवैधानिक सत्ता निर्भीक होकर चुनौती देने लेगे और विरोध में आवाज़ भी नहीं सुनायी दे रही हो तो खतरे को समय रहते सूंघना चाहिए। खेद की बात तो यह है कि उनकी इस टिप्पणी के खिलाफ नागरिक अधिकारों पर बातचीत करने वाले बुद्धिजीवी और गैर सरकारी संगठन भी चुप रहने को विवश हैं। इससे तो यह मान लेना चाहिए कि बिना इमर्जेंसी घोषित किए भी तानाशाही अपना काम कर रही है। 1975 में लागू की गयी इमर्जेंसी के बारे में कहा गया था कि लोगों से झुकने के लिए कहा गया तो वे लेट गये, किंतु यहाँ तो अपने को महानायक कहलवाने की पब्लीसिटी कराने वाले बालठाकरे के घर जाकर नाक रगड़ते हैं।
विचारणीय यह है कि उक्त टिप्पणी उसी दौरान आयी जब कुछ दिनों पहले हरियाना की खाप पंचायत द्वारा अपनी मर्ज़ी से विवाह करने वाले एक मासूम दम्पत्ति को फाँसी देने के मामले में अभियुक्तों पर चले मुकदमे के बाद उन लोगों को मृत्यु दण्ड दिया गाया है। ठाकरे भी अपनी टिप्पणी द्वारा लोगों को उकसा कर ऐसे ही कार्य की ओर धकेल रहे हैं, जिसका प्रत्यक्ष परिणाम तो यह है कि भोपाल में भाजपा की प्रदेश सरकार द्वारा संरक्षित विश्व हिन्दू परिषदियों ने उस सानिया मिर्ज़ा के पोस्टर जलाये जिसकी कुछ दिन बाद शादी होने वाली है।भारतीय संस्कारों यह अपशकुन माना जाता है।
अपने देश से बाहर शादी करना तो आम बात हो गयी है और इस देश की सबसे अधिक शक्तिशाली महिला और इस विशाल देश में सत्तारूढ पार्टी की अध्यक्ष भी इस देश में दूसरे देश से आकर व शादी करके यहां रह रही हैं। यदि बाल ठाकरे के कथनानुसार, सानिया पाकिस्तान में शादी करने के बाद वहीं की नागरिक हो जाने वाली हैं तो हिन्दुस्तान में शादी करने वाली सोनिया गान्धी की राष्ट्र भक्ति पर शिव सेना के स्वाभाविक मित्र भाजपा संघ के लोग क्यों उछल उछल जाते हैं, और क्यों उनकी राष्ट्रीयता पर उंगलियाँ उठाते हैं। उनके प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में उनकी नेत्रियाँ विधवा भेष धारण करने और विधवाओं सा आचरण करने की धमकियाँ क्यों देने लगती हैं। यहाँ तथाकथित हिन्दूवादी दलों का दोहरा चरित्र सामने आता है।
सानिया चूंकि एक सेलिब्रिटी है इसालिए उसकी शादी की खबर एक सूचना या समाचार की तरह तो आ सकती है, इससे अधिक नहीं। अब वे किस देश के लिए खेलेंगीं यह उनका अपना फैसला होगा। खेल को खेल की भावना से आगे नहीं ले जाना चाहिए। आई पी एल ने खेल से राष्ट्रीय पहचान को अलग करके एक बहुत महत्वपूर्ण काम किया है।
परायी खीर में चौंच डुबाने वालों को सही सबक सिखाने की ज़रूरत है।
वीरेन्द्र जैन
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