लिवइन के फैसले पर फैलते फालतू लोग
वीरेन्द्र जैन
लिव इन सम्बन्धी एक रिट याचिका पर आये अदालती फैसले पर एक वर्ग बहुत नाक भों सिकोड़ रहा है। पर साथ ही उसे यह अहसास भी है कि एकल परिवारों में बँट चुके समाज में किसी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता में दखल देने की कोई अपील कारगर नहीं होगी इसलिए वे फैसले के साथ एक जन विश्वास की टिप्पणी को बतौर उदाहरण देने के बहाने धार्मिक भावनाएं उकसाने का प्रयास कर रहे हैं। भागवत कथाओं से लेकर हज़ारों लाखों की संख्या में राधा कृष्ण के प्रेम पर भक्ति साहित्य भरा पड़ा है और पूरे देश में राधा कृष्ण के ही मन्दिर पाये जाते हैं जिनकी विधिवत प्राण प्रतिष्ठा की गयी होती है। हाल की घटनाओं से आभास होता है कि भाजपा के दो प्रमुख सितारे कानून की पकड़ में आ सकते हैं इसलिए संघ परिवार इस या उस बहाने न्याय व्यवस्था पर हमला कर उसके प्रति नफरत फैलाने को उतावला होना चाहता है।
सच तो यह है कि नई अर्थ व्यवस्था में नये उत्पादक अपने उत्पादों की बिक्री के लिए समाज में ज़रूरतें पैदा करते हैं जिससे न केवल रहन सहन में परिवर्तन आता है अपितु सामाजिक सम्बन्ध भी बदलते हैं। किंतु प्रत्येक समाज में एक वर्ग ऐसा पैदा हो जाता है जो तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में लाभ की स्थिति में होता है इसलिये वह समाज के किसी भी बदलाव को रोकने का भरसक प्रयास करता रहता है। नये निर्मित होते जाते समाज से उसका टकराव होता है। यथास्थिति से लाभांवित होने वाला वर्ग जमा हुआ, संगठित और सुविधा सम्पन्न होता है इसलिए वह संघर्ष में बेहतर मोर्चे पर होत है जबकि परिवर्तन कामी लोगों को संगठन बनाने से लेकर साधन भी एकत्रित करने होते हैं इसलिए वे कमजोर स्तिथि में होते हैं। नये लोग भले ही तर्क में प्रबल हों किंतु यथास्थिति वाले लोग झूठ और पाखण्ड में माहिर होते हैं तथा कमजोर बुद्धि वालों को भावनाओं में बहा ले जाते हैं।
इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला आया था जिसमे लिव-इन के अंतर्गत साथ रह रही महिला को सम्पत्ति के अधिकार में विवाहित महिला के बराबर का हक दिया गया था। विवाह, केवल दो देहों के शारीरिक सम्बंधों की सामाजिक व कानूनी स्वीकृति भर नहीं होती अपितु यह पति की सम्पत्ति में पत्नी का अधिकार और संतानों को विरासत कानून के अनुसार सम्पत्ति का अधिकार भी देता है। विवाह से पति पत्नी के अलावा भी परिवार में कई दूसरे रिश्ते बनते हैं। इसके विपरीत लिव इन रिलेशन केवल दो देहों के शारीरिक सम्बंधों को ही स्वीकृति देता था जो कुछ दिनों बाद सामाजिक स्वीकृति तो नहीं बनी पर कानूनी स्वीकृति बन गयी। आज अपने देश में भी हजारों लोग लिव इन रिलेशन के अर्न्तगत साथ रहने लगे हैं
उक्त अधिकार को यदि एक महिला(निर्बल वर्ग) को दिये गये अधिकार की तरह देखा जाये तब तक तो ठीक है किंतु इस अधिकार ने इस रिश्ते का स्वरूप ही बदल दिया है। ये रिश्ता असल में नारी की स्वतंत्रता और समानता का प्रतीक था जबकि विवाह उसकी परतंत्रता और परनिर्भरता का प्रतीक होता है। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने भले ही उसे धन का अधिकार दिया हो पर उसे फिर से उसी कैद की ओर जाने का रास्ता खोल दिया है।
सामाजिक स्वीकृति की परवाह किये बिना जो महिला लिव इन रिलेशन में रहने का फैसला करती है वह अपनी मर्जी की मालिक होती है तथा उस पर इस रिश्ते को स्वीकार करने या बनाये रखने के लिए कोई दबाव नहीं होता। वह जब तक चाहे इस रिश्ते को परस्पर सहमति से बनाये रख सकती है और जब चाहे तब इसे तोड़ सकती है। यह रिश्ता समाज में निरंतर चल रहे उन अवैध संबंधों से भिन्न होता है जो पुरूष की सम्पन्नता या सबलता के आधार पर कोई महिला किसी लालच वासना या सुरक्षा की चाह में बनाती आयी है। लिव इन रिश्ते कमजोर महिलाओं द्वारा बनाये रिश्ते नहीं होते अपितु वे स्वतंत्रचेता आत्मनिर्भर महिलाओं द्वारा नारी को पुरूष की तुलना में दोयम न मानने की भावना को प्रतिध्वनित करने वाले रिश्ते हैं। ये रिश्ते अपढ अशिक्षित और कमजोर बुद्धि महिलाओं के रिश्ते नहीं हैं अपितु पढी लिखी बौद्धिक तथा अपना रोजगार स्वयं करने वाली महिलाओं के रिश्ते होते हैं। मेरी दृष्टि में सम्पत्ति के अधिकार सम्बन्धी सुप्रीमकोर्ट का फैसला लिव इन रिश्ते की मूल भावना पर आधात करता है क्योंकि लिव इन रिश्तों को यदि किसी समाज या कानून के आधार पर संचालित किया जाने लगेगा तो फिर वह अंतत: विवाह(बंधन) में ही बदल जायेगा जहाँ असहमति के कई खतरे होते हैं इसलिए सहमति को ऊपर से ओढ कर रहा जाता है। लिव इन रिश्ते को अपनानेवाली महिला को उस निर्बल महिला की तरह नहीं देखा जाता था जैसा कि अवैध संबधों में जीने वाली अपराधबोध से ग्रस्त महिला को देखा जाता रहा है क्योंकि लिव इन वाली महिला किसी संबंध को छुपा नहीं रही होती है, अपितु रूढियों से ग्रस्त समाज के प्रति विद्रोह का झंडा लेकर उनसे टकराने को तैयार खड़ी दिखती है।
कानून के अनुसार धनसम्पत्ति पर अधिकार केवल विवाहित महिलाओं को ही मिलना चाहिये क्योंकि वे मूलतय: कमजोर महिलायें हैं जबकि लिव इन रिलेशन वाली महिला कमजोर महिला नहीं होती। यदि हम अपने पुराणों की ओर देखें तो लिव इन रिश्ते की कुछ झलक दुष्यंत शकुंतला की कहानी में मिलती है जहाँ शकुन्तला न केवल दुष्यंत से अपने दौर का लिव इन (गंदर्भ विवाह) ही करती है अपितु अपने पुत्र को भी पैदा करती है व पालती है। वह दुष्यंत के पास भी पत्नी का अधिकार मांगने नहीं जाती है अपितु एक परिचित के पास मानवीय सहायता की दृष्टि से जाती है। दूसरी ओर दुष्यंत भी इस रिश्ते को दूर तक नहीं ले जाते इसलिए शकुतंला को लगभग भूल ही गये हैं। माना जाता है कि इसी रिश्ते से जन्मे पुत्र भरत के नाम पर ही हमारे देश का नाम भारत पड़ा है।
यदि हम दुनियां में लिव इन रिश्तों के जन्म के समय को जाँचने की कोशिश करें तो हम पाते हैं कि ये रिश्ते उस समय विकसित हुये जब परिवार नियोजन की जरूरत ने नारी को माँ बनने या न बनने का अधिकार दे दिया। पशुओं के विपरीत मनुष्यों के बच्चों को अपना भोजन स्वयं अर्जित करने की दशा तक आने के लिए लम्बे समय तक पालना पड़ता है व इस दौर में नारी को अति व्यस्त व कमजोर भी रहना पड़ता है जो उसकी परनिर्भरता को बढाता रहा है, पर जैसे ही वह मातृत्व से स्वतंत्र हुयी वैसे ही उसने नारी स्वातंत्र का झंडा थाम लिया। नारी स्वतंत्रता और नारी अधिकार के सारे आंदोलन इसी दौर में परवान चढे हैं। पुरूषों ने भी इन रिश्तों में विरासत के अधिकार से मुक्त दैहिक संबंधों के कारण स्वयं को स्वतंत्र महसूस किया इसलिए इसे अपनाने में किसी तरह की हिचक नहीं दिखायी। सुप्रीम कोर्ट का फैसला दूसरी ओर उस कमजोर विवाहित महिला के हितों पर भी आघात करता है जो केवल पति की धन सम्पत्ति के कारण कई बार अनचाहे भी वैवाहिक बंधन में बंधी रहती है। जब लिव इन रिश्तों वाली स्वतंत्र महिला उस परतंत्र महिला के सम्पत्ति के अधिकारों पर भी हक बनाने लगी तो वह महिला तो दो़नों ओर से लुटी महसूस करेगी। इसलिए इस अधिकार से उन महिलाओं को तो वंचित रखा ही जाना चाहिये जो शादीशुदा पुरूषों से लिव इन रिश्ता बनाती हैं। यदि लिव इन रिश्तों में भी उसी परंपरागत विवाह के मापदण्ड लागू रहे तो फिर लिव इन रिश्तों में भिन्नता कहाँ रही? यदि इस दशा में सुधार नहीं हुआ तो आपसी विश्वास को ही नहीं अपितु समानता की ओर बढ रहे नारी आदोलन का भी बहुत नुकसान पहुँचेगा।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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मेरा आज का पोस्ट मेरे कमेन्ट के रूप मे लें.......
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भविष्य में नारियाँ शक्तिशाली होती जायेंगी ......पुरुष कमजोर होते जायेंगे....
http://laddoospeaks.blogspot.com/
मंटो यार, तेरी कहानी कितनी सच थी, देखो हिंदुस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने भी मना है . यार तू ओरत और मर्द के जिस रिश्ते को बताया, देखा और लिखा, उसे समझने में इस देश को ६० साल लग गए मगर क्या सुप्रीम कोर्ट के कहने से समाज नाम का प्राणी इस बात को मान लेगा कि ओरत और मर्द स्वतन्त्र है. शायद नहीं. अब पता नहीं इस मुल्क में कब इक मंटो होगा जो फिर से इस सवाल को लेकर जिन्दगी तबाह करे
जवाब देंहटाएंबेनामी जी मंटो की किताबों से अपने घर को चला पाओगे क्या///
जवाब देंहटाएंcitizen mahoday ghar chalane ki baat kahan se le aaye??manto ki kitabo se pure samaj ki gandgi dikhlayi jaati hai jo aapke jaise log dekhna nahi chahte...
जवाब देंहटाएं@ प्रिय कृष्ण मुरारी प्रसादजी, आपकी टिप्पणी ना तो मुझे समझ में आयी है और ना ही जो कुछ समझ में आयी है वह हज़म हो पा रही है, जिस समबन्ध में नारी और पुरुष दोनों की स्वतंत्रता सुरक्षित है उसमें कैसे नारियाँ मजबूत होती जायेंगीं और पुरुष कमजोर होते जायेंगे? और अगर ऐसा होता भी है तो क्या मजबूत होने का ठेका पुरुषों के ही पास है जो इतनी पीढियों से तथाकथित मजबूत चले आ रहे हैं अब नारियों को भी हो लेने दो। वैसे मैंने एक व्यंग्य में लिखा था कि नारियों को कमजोर माना जाता रहा है किंतु हिन्दुस्तान की सारी दीवारें होरडिंग्स, और अखबार मर्दाना कमजोरी को दूर करने के विज्ञापनों से भरे रहते हैं, कहीं भी औरताना कमजोरी का इलाज नहीं होता।
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