नेता विज्ञापन माडल क्यों बनते हैं
वीरेन्द्र जैन
आप कोई सा भी अखबार उठा कर देख लीजिए इनमें प्रति दिन कोई ना कोई नेताजी किसी शो रूम, होटल, हास्टल, स्कूल, नर्सिंग होम, सड़क, फुट्पाथ, मेला, यहाँ तक कि पेशाब घर तक के हिन्दू रीति रिवाज़ से भूमि पूजन या फीता काट कर उद्घाटन करते हुये मिल जायेंगे। नेताजी को इस कार्यक्रम में आमंत्रित करने वालों का उद्देश्य होता है, उनके कद और पद का अपने व्यावसायिक हितों में लाभ उठाना। सरकारी भवन निर्माण में घटिया सामग्री लगा कर भी नेताजी का भय दिखा कर अधिकारियों से बिल पास करा लेना या मुफ्त में अपने व्यावसायिक प्रतिष्ठान को चर्चित करा लेना। ये नेता लोग भी इन कार्यक्रमों में निःस्वार्थ भाव से नहीं जाते हैं अपितु वे ऐसा करके उक्त व्यावसायिक प्रतिष्ठान को अपना पक्षधर, चुनावी समर्थक या फंड लगाने वाला बना लेते हैं। व्यावसायिक प्रतिष्ठानों का निरीक्षण करने वाले निरीक्षकों को भी सन्देश दे दिया जाता है कि उनके संस्थान को किसका संरक्षण प्राप्त है।
सरकार में शामिल नेताजी की पार्टी के सम्मेलनों, या आम सभाओं की व्यवस्थाएं भी, पुलिस द्वारा वांछित अपराधी इसलिए करते हैं ताकि स्थानीय पुलिस अधिकारियों को अपना मुँह बन्द रखने का सन्देश दिया जा सके। इसके परिणाम स्वरूप जिन आरोपियों को वर्षों से अदालती सम्मन नहीं पहुँच पाते वे मंत्रियों की सभाओं में मंच पर बैठे पाये जाते हैं, भले ही पुलिस रिकार्ड में वे भगोड़े के रूप में दर्ज़ रहते हों।
नेताजी को पद मिलने पर या सत्ता में बने रहने तक उनके जन्म दिन पर बधाई के बड़े बड़े विज्ञापन प्रकाशित कराने वाले नेताजी के साथ साथ अपना फोटो, प्रतिष्ठान का नाम, फोन नम्बर आदि भी इसीलिए देते हैं ताकि सम्बन्धित अधिकारियों तक नेताजी से उनकी निकटता की सूचना पहुँच जाये। यही कारण है कि ऐसे विज्ञापन देने वालों में अधिकांश, सरकारी ठेकेदार, सरकारी सप्लायर्स, या मंत्रियों की दलाली करने वाले लोग होते हैं, जो ऐसा करके मुख्यतयः अपना विज्ञापन कर रहे होते हैं। अभी हाल ही में मध्य प्रदेश में भाजपा का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ जिसके दौरान पार्टी के नव नियुक्त अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कार्यकर्ताओं से चापलूसी की संस्कृति छोड़ने, नेताओं के पैर न छूने, दिखावे से बचने, सादगी पूर्ण आचरण करने, होर्डिंग न लगाने, तथा विज्ञापन न छपवाने की सलाह दी थी। किंतु इसी मध्य प्रदेश में प्रदेश के अध्यक्ष पद पर पदारूढ नरेन्द्र सिंह तोमर को राष्ट्रीय महासचिव बनाये जाने पर न केवल उनके चुनाव क्षेत्र मुरेना में अपितु प्रदेश की राजधानी भोपाल में हज़ारों की संख्या में होर्डिंग लगवाये गये व अखबारों को विज्ञापनों से पाट दिया गया। सत्ता से निकटता दर्शाने के उन्माद में मुरेना में सैकड़ों बन्दूकों के साथ न केवल प्रदर्शन ही हुये अपितु अपना राजनीतिक दबदबा दिखा कर आतंक फैलाने के लिये अधाधुन्ध गोलियाँ भी चलायी गयीं। रक्षा के लिये दिये दिये गये लाइसेंस का इस तरह का स्तेमाल गैर कानूनी है किंतु ‘’सैंया के कोतवाल’’ होने की खुशी में कानून का सारा डर भुला कर ऐसी बेतरतीब ढंग से गोली चालन किया गया कि प्रदर्शन में आया एक युवक गम्भीर रूप से घायल हो गया। इससे पहले भी प्रदेश के मुख्यमंत्री निवास में विजय दशमी के अवसर पर चापलूस पुलिस अधिकारियों ने मुख्यमंत्री, उनकी पत्नी, उनके नाबालिग बेटे से एल एम जी बन्दूक से हवा में गोलियाँ चलवा कर गैर कानूनी काम किया गया था। इसी दौरान आर एस एस के शस्त्र पूजन कार्यक्रम में एक गैर लाइसेंसी बन्दूक से गोली चला कर एक संघ के स्वयं- सेवक को मार डाला गया था। श्री तोमर को पद पर चुने जाने के अवसर पर ऐसे ही गोली चालन के कार्यक्रम ग्वालियर, शिवपुरी, आदि स्थानों सरे आम पुलिस अधिकारियों के देखते हुये हुये, तथा सब्बरवाल हत्याकांड के बाद मनोबल हीन हो चुके पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी निरीह से देखते रहे।
होर्डिंग, विज्ञापन और स्वागत द्वार सजाने वाले कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्यवाही कौन कर सकता है जबकि स्वयं प्रदेश अध्यक्ष के ही स्वागत में राष्ट्रीय अध्यक्ष के निर्देशों का खुला उल्लंघन हो रहा हो और प्रदेश का मुख्य मंत्री खुद स्वागत द्वारों से गुजरता हुआ स्वागत के लिए स्टेशन गया हो। पिछले दिनों से भाजपा स्वाभिमान बिहीन अध्यक्षों की परम्परा ढो रहा है इसीलिए बंगारू लक्षमण, वैंक्य्या नाइडू, और राजनाथ सिंह के बाद गडकरी तक केवल नमूने के अध्यक्ष हैं, उनकी कोई नई बात सुनी नहीं जाती। यदि भाजपा के पूर्व थिंक टैंक गोबिन्दाचार्य की सलाह मान कर गडकरी ने कम बोलना शुरू कर दिया होता तो आज ऐसी किरकरी तो न होती।
खेद की बात है कि सहित्यिक पुस्तकॉ का लोकार्पण भी नेताजी के हाथों से ही होने लगा है। ऐसा काम हीनता बोध से ग्रस्त लेखक, या ज़ेबी संगठन ही कराते हैं। जिन लोगों ने पुस्तक पढी ही नहीं है वे भी साधिकार उस पर बोलते देखे जा सकते हैं। लेखन में कमजोर लेखक सोचते हैं कि नेताजी से विमोचन कराके वे अपनी पुस्तक को चर्चा में ले आयेंगे, और वह आती भी है तो केवल एक दिन के लिये, जब अखबारों में नेताजी को केन्द्र में रखते हुये फोटो छपता है और लेखक की देह और पुस्तक का कोई कोना किसी तरह दिख रहा होता है। असल में ये सारी ही घटनाएं एक तरह की चोरियाँ हैं। चोरी का आशय ही यह होता है कि जिस वस्तु पर आपका ह्क़ नहीं है उसके स्तेमाल करने के लिए किये गये कारनामे। ये चोरियाँ तब ही बन्द होंगीं जब किसी भी व्यावसायिक संस्थान में पकड़ी गई अनियमतताओं की सज़ा उसके उद्घाटनकर्ता को भी मिले और पुस्तक खराब निकलने पर उस पर बोलने वाले विमोचनकर्ता को भी निन्दा सहना पड़े। मंत्री के यहाँ छापा पड़ने पर उसके पक्ष में विज्ञापन देने वाले, स्वागत द्वार सज़ाने वाले, और उसके इर्द गिर्द घूमने वालों के घरों की भी सर्चिंग होनी चाहिए। जिस व्यावसायिक प्रतिष्ठान का उद्घाटन जिस नेता ने किया हो उसकी टैक्स चोरियाँ, उत्पादन में घटियापन या श्रमिक अधिकारों के उल्लंघन का मुकदमा सम्बन्धित नेताजी पर भी चलना चाहिए। जब वे किसी तरह की लोकप्रियता का परोक्ष लाभ लेते हैं तो नुकसान भी उन्हें ही उठाना होगा। अभी हाल ही में शत्रुघन सिन्हा के पुत्र लव की फिल्म के प्रमोशन पर लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज भी उपस्थित थीं और उनकी उपस्थिति के कारण पार्टी के कार्यकर्ता उक्त फिल्म को देखने भी जा सकते हैं, पर अगर फिल्म कमजोर निकली तो ये कार्यकर्ताओं के साथ धोखा होगा।
क्या इन नेताओं के पास राजनीतिक /प्रशासनिक काम का अभाव है जो ये माडल बनते रहते हैं?
वीरेन्द्र जैन
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विज्ञापन तो होते ही आकर्षित करने के लिए हैं..कोई समीक्षा थोड़े ही न है. आकर्षित होना या नहीं होना उपभोक्ताओं के विवेक पर है.
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