महिला दिवस पर विशेष्
सशक्तिकरण की कमजोरियाँ
वीरेन्द्र जैन
किसी भी कल्याणकारी राज्य की यह जिम्मेवारी होती है कि वह अपने नागरिकों के बीच परम्परा से चले आ रहे या अचानक आ गयी विपदा के कारण उत्पन्न भेदभावों को मिटाने के लिए कुछ ऐसे उपाय करें ताकि उन कमजोर वर्ग के लोगों को भी दूसरों के समान जीवन जीने और विकास करने के अवसर उपलब्ध हो सकें। हमारे देश में भी नागरिकों के बीच विभिन्न तरह के भेद भाव सदियों से चले आ रहे थे व कुछ उत्तरोत्तर विकसित हो गये हैं जिन्हें मिटाने के लिए अनेक तरह के सशक्तिकरण कार्यक्रम शासकीय स्तर पर घोषित हैं व सरकारी मशीनरी द्वारा संचालित किये जा रहे हैं। वैसे तो सरकारों द्वारा जारी की गयी प्रगति रिपोर्टों और जन सम्पर्क विभागों के विज्ञापनों में इन सशक्तिकरण कार्यक्रमों की सफलता की रंगीन कहानियाँ प्रचारित की जाती हैं किंतु सच्चाई कुछ और ही होती है,ै जिसे कमजोर वर्ग की बस्तियों में जाकर या उनके चेहरों को पढ कर जाना जा सकता है। यदि आंकड़े एकत्रित किये जायें तो हम पायेंगे कि हमारे बजट की बड़ी बड़ी राशियाँ इन्हीं सशक्तिकरण कार्यक्रमों के लिए आवंटित की गयी होती हैं पर वे अपने घोषित लक्ष्यों तक नहीं पहुँच पाती हैं। इस स्थिति पर दुष्यंत कुमार का एक शेर याद आता है-
यहाँ तक आते आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
हमें मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
जहाँ आर्थिक सशक्तिकरण के कार्यक्रमों में पिचासी प्रतिशत हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ जाता है वहीं सामाजिक सशक्तिकरण में शोषक वर्ग अपनी चतुराई और प्रमुख स्थानों पर पकड़ रखने के कारण उन कानूनों का उन्ही के विरूद्ध स्तेमाल करता रहता है जिनके हित में वे लाये गये होते हैं।
हाल ही में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार मुंबई की एक प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री जब अपने बच्चे को टयूटोरियल क्लास के लिए छोड़ने गयी तो उसने अपनी गाड़ी गलत जगह पर पार्क कर दी पर जब चौकीदार ने उसे वहाँ गाड़ी पार्क करने से रोका तो उस अभिनेत्री ने कहा कि वह उसके खिलाफ यौन उत्पीड़न की रिपोर्ट लिखा कर बन्द करा देगी। उक्त अभिनेत्री इतनी प्रतिष्ठित और बोल्ड है कि यौन उत्पीड़न तो दूर की बात रही, कोई साधारण सा चौकीदार उससे कठोर शब्दों में बोलने का दुस्साहस तक नहीं कर सकता। यह धमकी न केवल यौन उत्पीड़न कानून का दुरूपयोग है अपितु यह कानून बनाने वालों की पवित्र भावना और इस कानून से सुरक्षा पाने के सही पात्रों के अधिकारों को भी खण्डित करने वाली हरकत है। मुझे गाँवों के कुछ मित्रों ने बताया है कि दलित स्त्रियों की इज्जत की सुरक्षा में जो कानून बने हैं उनके अंर्तगत दर्ज मामलों में ज्यादातर गलत और झूठे हैं। गाँवों की पार्टीबन्दी में एक पार्टी द्वारा दूसरे से बदला लेने के लिए अपने पक्ष की दलित महिला से गलत रिपोर्ट लिखवायी जाती है ताकि अपने दुश्मन को परेशान कराया जा सके और कानूनों के प्रावधानों के अनुसार उसे जमानत भी न मिल सके। ऐसा नहीं कि गाँवों में यौन उत्पीड़न नहीं होता पर जो सचमुच के उत्पीड़ित होते हैं वे आर्थिक सामाजिक रूप से इतने अशक्त होते हैं कि वे गाँव के बलशाली लोगों के खिलाफ रिपोर्ट लिखाने गवाह जुटाने और प्रतिशोध का सामना करने की हैसियत नहीं रखते। ऐसे लोग ज्यादातर मामलों में गाँव छोड़ कर शहर की ओर रूख कर लेते हैं। ( ये बात दूसरी है कि शहर में भी उन की झुग्गियाँ उजाड़ दी जाती हैं या मुंबई वालों की तरह उन्हें वहाँ से भी भगाने के आन्दोलन प्रारंभ हो जाते हैं जहाँ से अंतत: उन्हें किसी नई जगह भागना पड़ता है।) जो मुकाबला करने का साहस और संगठन रखते हैं वे आम तौर पर इस तरह की घटनाओं के शिकार नहीं होते।
एक लतीफा है जिसमें एक व्यक्ति अपने मित्र को बतलाता है कि रात में स्टेशन से लौटते समय कुछ लोगों ने उसे लूट लिया।
यह सुन कर उसका मित्र पूछता है- पर तुम्हारे पास तो पिस्तौल थी?
''हाँ!, वो तो ठीक रहा कि उस पर उनकी निगाह नहीं गयी नही ंतो वे उसे भी लूट लेते'' उसने एक संतोष के साथ उत्तर दिया।
आम तौर पर सशक्तीकरण के कार्यक्रमों में भी कुछ कुछ ऐसी ही स्थिति है। जब तक सशक्तीकरण कानून के स्तेमाल की ताकत और हिम्मत न हो तो वह सशक्तीकरण दूसरे और भी खतरों को आमंत्रण देता है। दूसरी बात यह है कि उसे देने वालों ने भी उसे पूरे मन से नहीं दिया है अपितु केवल अपनी छवि सुधारने या वोट जुगाड़ने भर के लिए देने का दिखावा भर किया है। आम तौर पर देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता अपनी पार्टी के कार्यक्रम और घोषणा पत्रों से अनभिज्ञ होते हैं और यदि कुछ उन्हें जानते हैं तो भी वे उनके दैनिंदिन जीवन का हिस्सा न होकर केवल किताबी आर्दश होते हैं। अपनी पार्टी द्वारा बनाये गये कानूनों को लागू करने के लिए कृतसंकल्प पार्टी कार्यकर्ताओं की उपलब्धता अभी शेष है। जब कभी कोई पीड़ित कानून के स्तेमाल का प्रयास भी करता है तो यही लोग उस पर समझौता करने के लिए दबाव डालने लगते हैं। कई मामलों में जब कमजोर वर्ग के लोगों ने अपने कानूनी अधिकारों के लिए संघर्ष करने के प्रयास किये हैं तो गाँव के ताकतवर लोगों ने या तो उनका निर्मम दमन किया या अपने प्रभाव वाले दलितों से उनका झगड़ा करा दिया और उसे आपस की बात बतला कर दलित उत्पीड़न कानून नहीं लगने दिया।
सशक्तिकरण के जो भी कानून लाये गये हैं उनका आज की सामाजिक व्यवस्था में लाये लाने की जरूरत से इन्कार नहीं किया जा सकता। किंतु जिस कारण वे लाये गये हैं उस पर उनका प्रभाव भी पड़ रहा है या नहीं इसका उचित मूल्यांकन और आवश्यक कानूनी सुधार नहीं किये जाते। चुनाव से पहले हर बार आरक्षित कोटे के बैकलॉग को भरने की बड़ी बड़ी बातें होती हैं किंतु उस बैकलॉग को निर्मित करने वालों के खिलाफ दण्डात्मक कार्यवाही होने के कोई उदाहरण नहीं मिलते। कानून होने के बहाने सामान्यजन को उसकी भरती से वंचित कर दिया जाता है व अपने लोगों को उपकृत कर दिया जाता है।
आरक्षण को ढाल बना कर सरकारें बेरोजगारी जनित असंतोष को सवर्ण-दलित संघर्ष की ओर मोड़ देने में सफल हो जाती हैं व इस तरह अपनी सुरक्षा कर लेतीं हैं। अभी हाल ही में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर हो हल्ला के दौर में न्यायाधीश सच्चर साहब ने बयान दिया था कि उन्होंने केवल अपनी अध्ययन रिपोर्ट जारी की है व किसी तरह के आरक्षण आदि की कोई सिफारिश नहीं की है क्योंकि यह हमारे काम का हिस्सा भी नहीं था। रोचक यह है कि इस रिपोर्ट के आधार पर मनमाने निष्कर्ष निकाल कर भाजपा अपना राजनीतिक खेल खेल रही है और कॉग्रेस अपने मुस्लिम वोट पक्के करने का काम निकाल रही है। जबकि अभी तक अल्पसंख्यकों के पक्ष में कुछ भी नहीं हुआ पर दोनों वर्गों के बीच तनाव पैदा कर दिया गया है। सच तो यह है कि रिपोर्ट बताती है कि अल्पसंख्यकों के हितैषी होने का दावा करने वाली पार्टियों के कार्यकाल में भी बड़े बड़े दावे करने के बाबजूद वास्तविक हालात में कोई सुधार नहीं हुये। दलितों को शाही समारोहों में पट्टे तो बाँट दिये गये पर कब्जे नहीं दिलवाये गये जिससे कब्जा प्राप्त करने के प्रयास में उन्होंने कब्जाधारी बाहुबलियों का दमन अलग से झेला।
असल में हमारे यहाँ आजकल जो सशक्तीकरण कानून लागू हैं वे किसी कमजोर व्यक्ति पर ऊपर से रूई लपेट कर उसे तन्दुरूस्त दिखाने की प्रचारात्मक हरकतें भर हैं जबकि अच्छे स्वास्थ के लिए एक अच्छी भूख में संतुलित भोजन की उपलब्धता और उसके पाचनतंत्र के सही होने की भी आवश्यकता होती है। हमारे यहाँ अनेक बीमारियों से ग्रसित कमजोर लोग भूख का अहसास तक भूल गये हैं और नियतवाद ने उनकी दृष्टि को धुंधला दिया है।कभी कभी उनके अशक्त हाथों पर रख दिये गये खाद्य पदार्थों को उनके खाने से पहले कुत्ते बिल्ली कौवे चील या बाज झपट लेते हैं। । जब तक वे अपने हक को मॉग कर लड़ कर नहीं पाते तब तक सारे सशक्तीकरण के प्रयास केवल उन्हें देने वालों के दरबारियों तक सिमिट कर रह जाने वाले हैं। यदि हमें सचमुच सशक्तीकरण की चिंता है तो हमें कमजोर लोगों को अपना हक पाने के लिए तत्पर संघर्षशील सिपाही के रूप में तैयार करना पड़ेगा और तब वे अपने पक्ष के कानूनों पर अमल करा सकेंगे व नये कानून बनवा सकेंगे।
वीरेन्द्र जैन
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बहुत विचारणीय पोस्ट ।
जवाब देंहटाएंi agree with Sharad ji
जवाब देंहटाएंएक लतीफा है जिसमें एक व्यक्ति अपने मित्र को बतलाता है कि रात में स्टेशन से लौटते समय कुछ लोगों ने उसे लूट लिया।
जवाब देंहटाएंयह सुन कर उसका मित्र पूछता है- पर तुम्हारे पास तो पिस्तौल थी?
''हाँ!, वो तो ठीक रहा कि उस पर उनकी निगाह नहीं गयी नही ंतो वे उसे भी लूट लेते'' उसने एक संतोष के साथ उत्तर दिया।
sach hai yahi hai mahilaa shashatikarn. vkjain