सोमवार, अप्रैल 04, 2016

“की एंड का” - ज़ेंडर समानता के मामलों पर एक नई दृष्टि

फिल्म समीक्षा
“की एंड का” - ज़ेंडर समानता के मामलों पर एक नई दृष्टि

वीरेन्द्र जैन
जब से लैंगिक समानता के सवाल दुनिया में मुख्य सामाजिक विषयों में सम्मलित हुए हैं तब से स्त्री पुरुष के परम्परागत सम्बन्धों में सम्भावित बदलावों के विभिन्न आयामों पर अलग अलग तरह से विचार करने की कोशिशें हुयी हैं। इस दिशा में  हिन्दी कथा साहित्य व फिल्मों ने भी परम्परागत विषयों से हट कर अपनी कृतियों में नये नये विषयों का चयन किया है। ‘शुद्ध देसी रोमांस’ ‘रांझणा’, ‘डौली की डोली’ ‘चीनी कम’ ‘क्वीन’ ‘तनु वेड्स मनु’ ‘पीकू’  आदि कई हिन्दी फिल्में पिछले दो तीन सालों में ही सामने आयी हैं।
“की एंड का” उन्हीं आर. बाल्की की फिल्म है जिन्होंने ‘चीनी कम’ बनायी थी। फिल्म की कहानी आगामी समय की कल्पना पर बुनी गयी है। जानीमानी फेमनिस्ट कमला भसीन की एक कविता है जिसमें वे कहती हैं कि अगर महिला खाना बना सकती है तो पुरुष क्यों नहीं बना सकता, खाना बनाने के लिए बच्चेदानी की जरूरत थोड़े ही पड़ती है।  लैंगिक समानता के बाद समाज के बीच महिला-पुरुषों के तयशुदा काम विभाजन में भी परिवर्तन आना स्वाभाविक है। अभी हमारे परम्परागत समाज में स्त्री और पुरुषों के न केवल काम बंटे हुए हैं अपितु उन कामों के अनुसार ही उनकी हैसियत अनुसार श्रेष्ठता और हीनता बोध भी व्याप्त है। मध्यमवर्गीय महिलाओं का काम घर का प्रबन्धन, खाना बनाना, बच्चे पैदा करना, उन्हें पालना पोसना होता है और फिर भी जनगणना आदि  सर्वेक्षणों में उन्हें कोई काम न करने वाली गृहणी की तरह दर्ज़ किया जाता है। दम्पत्तियों के यौनिक सम्बन्धों में भी असमानता है, जहाँ आम तौर पर पुरुष अपनी मर्जी से उन सम्बन्धों का उपयोग करने का अधिकारी होता है वहीं पर महिलाओं की इच्छाओं का कोई महत्व नहीं होता। पिछले दिनों हमारे देश में थर्ड ज़ेन्डर को अलग ज़ेंडर को मान्यता दी गयी है  उनकी समस्याओं पर भी ‘शबनम मौसी’ के नाम से फिल्म पहले ही बन चुकी है।
इस फिल्म की कथा दिल्ली के एक बड़े बिल्डर के इकलौते शिक्षित बेटे [अर्जुन कपूर] की अपने पिता के काम में रुचि न लेने और अपनी माँ की असमय मृत्यु से उपजी पिता की सम्पत्ति से वितृष्णा से प्रारम्भ होती है। उसका मानना है कि उसके पिता की प्रगति में उसकी माँ द्वारा घर सम्हालने की भी उतनी ही बड़ी भूमिका है क्योंकि घर सम्हालना एक आर्ट है। शिक्षा में प्रबन्धन की डिग्री लेकर भी इस युवा को अनावश्यक धन कमाने और कथित विकास की निरर्थकता का अहसास है। इतिहास बताता है कि धन के मोह से वह व्यक्ति दूर हो पाया है जिनके पास समुचित मात्रा में धन की उपलब्धता होती है। महावीर और बुद्ध से लेकर नेहरू, गाँधी, ज्योति बसु आदि भी इसी श्रेणी के लोग माने जा सकते हैं। वह अपने पिता के मापदण्डों से अलग अपनी माँ द्वारा घर सम्हालने वाली आर्ट को जेंडर मुक्त देखना और  अपनाना चाहता है। वह अपने पिता से किसी भी तरह की सहायता लेने से इंकार कर देता है। घर से निकलते समय वह केवल मोटर ड्रिविन स्केटिंग इंस्ट्रूमेंट लेकर आता है और वह भी इसलिए क्योंकि वह उसके पिता के पैसे का नहीं है अपितु उसके चाचा ने यह उसके बर्थडे पर भेंट किया था। जब घर सम्हालने का उसका यह प्रयोग असामान्य होने के कारण मीडिया में चर्चा का विषय बनता है और नये विषयों का भूखा मीडिया उसके प्रयोग को व्यापक महत्व देता है तो उसकी जीवन साथी [करीना कपूर] को लगता है कि किसी भी तरह बड़े बनने की उसकी इच्छा मरी नहीं है अपितु वह अपने पिता की सम्पत्ति ठुकरा कर महान बनने की नौटंकी कर रहा था। यहाँ उनके अहं टकराते हैं व विश्वासों को धक्का लगता है। उनके बीच का प्रेम नायिका की माँ की समझाइश पर फिर से अंकुरित हो जाता है व नायक का पिता भी अपने अकेलेपन के अहसास से घबराकर उसके पास आ जाता है। यह कहानी का सुखांत है।
यह कहानी निश्चित रूप से आज से बीस वर्ष बाद की कहानी है। अभी भी हमारे यहाँ समाज मेट्रो, नगर, कस्बे और गाँवों में बंटा हुआ है जिनमें लोग अलग अलग सामाजिक सम्बन्धों में जी रहे हैं। विवाह जो व्यक्तिगत घटना होना चाहिए थी उस पर अभी भी जाति, समाज, रिश्तेदारों और परिवार का हस्तक्षेप है। परिवार में पैसा कमा कर लाने वाले व उसका प्रबन्धन करने वालों की भूमिका में स्वामी और श्रमिक जैसे सम्बन्ध विद्यमान हैं। नर को पौरुषवान उसकी देह नहीं अपितु समाज बनाता है और वही समाज अभी भी नारी को दोयम दर्जे की नागरिक बनाने की कोशिश करता है। एक महिला आई ए एस ने बताया था कि अभी भी उनसे पूछा जाता है कि उनके पति क्या करते हैं! पर किसी पुरुष से यह सवाल नहीं पूछा जाता कि उसकी पत्नी क्या करती है!
इस कहानी का नायक क्या सचमुच कोई ऐसा पुरुष हो सकता था जिसे आड़े समय में अपनी पैतृक सम्पत्ति का भरोसा न हो। क्या अच्छे कैरियर के बिना कोई स्वस्थ दम्पत्ति बच्चे पैदा न करने  के निर्णय पर आज अडिग रह सकता है! क्या आज पारिवारिक मिलन समारोहों में विवाह और बच्चों की बात के बिना सम्वाद सम्भव है! ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो इस अच्छी कहानी को भविष्य की कहानी बनाते हैं।         
फिल्म में प्रेम व प्रणय के अंतरंग दृश्यों में स्वाभाविकता है, जो सामान्य दर्शकों को भी सिनेमा हाल तक आकर्षित कर सकती है, जिसके सहारे यदि फिल्म अपनी लागत निकाल ले तो यह लीक से हट कर फिल्में बनाने वाले निर्माता निर्देशकों की हिम्मत बनाये रख सकती है। मेहमान कलाकार के रूप में अमिताभ बच्चन और जया बच्चन की उपस्थिति शायद इसमें कुछ मदद कर सके। फिल्म को एक बार देखा जा सकता है।
वीरेन्द्र जैन
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