सोमवार, अप्रैल 22, 2013

भाजपा का अपमान बोध से दूर तक सम्बन्ध नहीं


भाजपा का अपमान बोध से दूर तक सम्बन्ध नहीं  
वीरेन्द्र जैन

       पिछले दिनों भाजपा कार्यालय में एक और चेहरा बचाने की ओट तैयार की गयी।
       जेडी[यू] ने अपने सम्मेलन में यह जोर शोर से यह स्पष्ट कर दिया है कि वे ऐसी भाजपा के साथ गठबन्धन में सम्मलित नहीं होंगे जिन्हें नरेन्द्र मोदी जैसे बदनाम [राजनाथ सिंह के शब्दों में मशहूर] नेता को प्रधानमन्त्री पद प्रत्याशी के रूप में चुनने की मजबूरी हो। उन्होंने साफ साफ शब्दों में कहा कि वे अटल बिहारी वाजपेयी जैसे उदारवादी चेहरे [गोबिन्दाचार्य के शब्दों में मुखौटे] के कारण भाजपा जैसे [राजनीतिक अछूत] दल के नेतृत्व में एनडीए में सम्मलित हुए थे और वैसी ही दशा में बने रह सकते हैं। स्मरणीय है कि इस एनडीए गठबन्धन को बनाये रखने के लिए ही भाजपा ने अपनी उन तीन प्रमुख माँगों को स्थगित कर दिया था जिनके कारण उसकी एक अलग पहचान थी और वे माँगें थीं, अयोध्या में रामजन्म भूमि स्थल पर ठीक उसी स्थान पर एक भव्य मन्दिर का निर्माण जहाँ बाबरी मस्जिद स्थित थी, दूसरी समान नागरिक संहिता और तीसरी थी कश्मीर के लिए बनी धारा 370 की समाप्ति। इनको स्थगित रखने के बाद भी तेलगु देशम ने उनके गठबन्धन में सम्मलित होना स्वीकार नहीं किया था तथा सरकार से बाहर रह कर कांग्रेस को सत्ता से दूर रखने के उद्देश्य से समर्थन दिया था। लोकसभा अध्यक्ष के रूप में भी उन्होंने पहले अध्यक्ष के आकस्मिक निधन के बाद दूसरे किसी सांसद को अध्यक्ष पद के लिए नामित करने से इंकार कर दिया था। 2002 में गुजरात में सरकारी सहयोग से किये गये मुसलमानों के नरसंहार के बाद ही ममता बनर्जी, राम विलास पासवान, जयललिता आदि के नेतृत्व वाले दलों ने अपना समर्थन वापिस ले लिया था व अन्य दलों ने राजनीतिक मजबूरियों के कारण समर्थन बनाये रखते हुए भी इस कृत्य की निन्दा की थी। स्वय़ं अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी गोलमोल शब्दावली में दोनों पक्षों को साधते हुए राजधर्म निभाने की बात कही थी व अत्याचार की घटनाओं को सुनने के बाद आँखों के आगे रूमाल रख कर फोटो खिंचवाया था। जब देश के अल्पसंख्यक आयोग, महिला आयोग, मानव अधिकार संगठन से लेकर देश भर के राजनीतिक दलों, मीडिया हाउसों, के साथ उनके अपने नेताओं ने भी एक स्वर में मोदी सरकार की निन्दा की थी तब यह जरूरी था कि गुजरात के मुखिया को बदल दिया जाता। यदि गुजरात की जनता भाजपा के कार्यकाल से खुश थी तो विभिन्न जाँचों के पूरा होने तक नेतृत्व बदलने से क्या नुकसान था जबकि ये इसी आधार पर केशुभाई पटेल, आदि को पहले भी बदल चुके थे। सच तो यह है कि यह वही समय था जब नरेन्द्र मोदी नामक व्यक्ति ने भाजपा नामक संगठन की जगह ले ली थी और गुजरात भाजपा को जयललिता की एआईडीएमके, मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी, करुणानिधि की डीएमके, लालू प्रसाद की राजद आदि में बदल दिया था। गुजरात भाजपा एक लोकतांत्रिक सैद्धांतिक संगठन की जगह एक फासिस्ट गिरोह में बदल गयी थी जिसके दुष्परिणाम स्वयं भाजपा ने भुगते। मोदी सरकार पर केवल मुसलमानों के नरसंहार के ही आरोप नहीं लगे अपितु उनके मंत्रिमण्डल के महत्वपूर्ण मंत्री व भाजपा के समर्पित नेता हरेन पण्ड्या के परिवार वालों ने भी सार्वजनिक रूप से भाजपा के वरिष्ठतम नेताओं के सामने नरेन्द्र मोदी को जिम्मेवार ठहराया। उल्लेखनीय है कि जब पिछले दिनों भारतीय मूल की अंतरिक्ष यात्री सुनीता विलियम भारत आयी तो वह हरेन पण्ड्या की विधवा जाग्रति पण्ड्या के साथ तो रहीं पर गुजरात के मुख्यमंत्री कार्यालय के निरंतर प्रयास के बाद भी उन्होंने नरेन्द्र मोदी से मिलना पसन्द नहीं किया। अमेरिका और ब्रिट्रैन आदि देशों द्वारा वीजा देने से इंकार कर देने की तो काफी चर्चा हो ही चुकी है।
       जब यह साफ हो गया कि जेडी[यू] नरेन्द्र मोदी को नेता घोषित किये जाने की सम्भावनाओं पर भी एनडीए गठबन्धन से बाहर होने पर कृतसंकल्प है और वह अपनी बात बिना किसी लाग लपेट के कह रही है तो यह भी तय हो गया कि या तो भाजपा को साफ साफ यह कहना होगा कि वह किसी भी हालत में नरेन्द्र मोदी जैसे व्यक्ति को अपनी ओर से प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी नहीं बनायेगी या उसे उस एनडीए गठबन्धन से बाहर जाना होगा जिसके अध्यक्ष श्री शरद यादव हैं। इसका परिणाम यह भी होगा कि उसे बिहार में सत्ता सुख की हिस्सेदारी छोड़ना होगी, जिसका नेतृत्व जेडी[यू] के नितीश कुमार कर रहे हैं। जब नितीश कुमार भाजपा को सरकार से बाहर करेंगे तो सत्तासुख भोगने वाले विधायक विद्रोह भी कर सकते हैं इसलिए भाजपा नेतृत्व ने बिहार के कुछ नेताओं को यह बयान देने के लिए दिल्ली बुलाया कि वे निकले जाने से पहले स्वयं ही बिहार सरकार से बाहर हो लें और रोज रोज हो रहे अपमान से बच सकें। असल में निर्लज्ज भाजपा ने सत्ता के लिए कभी भी किसी भे तरह के अपमान की परवाह नहीं की है और वे अंत अंत तक सत्ता से चिपके रहने की कोशिश करते रहे हैं। जिस साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के सहारे उनकी राजनीति चलती है उसकी बेल सत्ता के सहारे ही ऊपर चढती है। स्मरणीय है कि वे अकेले ऐसे दल हैं जो हर तरह की संविद सरकार में सम्मलित होने में सबसे आगे खड़े रहते रहे हैं। जनता पार्टी के गठन के समय तो उन्होंने अपने जनसंघ को जनता पार्टी में विलीन करने का ड्रामा करना भी मंजूर कर लिया था जबकि सीपीएम जैसे दलों ने ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया था और अपना अस्तित्व बनाये रखते हुए केवल सीटों का समझौता ही किया था। सत्ता के लिए इन्होंने उत्तर प्रदेश में बसपा के साथ छह छह महीने तक सत्ता चलाने का हास्यास्पद समझौता किया और अधिक विधायक होने के बाद भी मायावती को पहले सरकार बनाने की शर्त पर भी झुक गयी थी। बाद में मायावती ने तो समझौता तोड़ दिया था पर इन्होंने दल बदल कर सरकार बना ली थी। उल्लेखनीय है कि सरकार बनाने के लिए सर्वाधिक दल बदलवाने की बीमारी इसी पार्टी ने फैलायी है। सत्ता के लिए सामाजिक और आर्थिक अपराधियों को टिकिट देने में यह किसी भी ऐसे दल से पीछे नहीं रही। मुलायम सिंह के खिलाफ मोहर सिंह को खड़ा करने की शुरुआत इसी पार्टी ने शुरू की थी। बाद में तो उत्तर प्रदेश में राजा भैया, कुंवर अखिलेश सिंह, सुशील सिंह,  और जेल में बन्द बृजेश सिंह तक को टिकिट देकर जीतने की बाजी बिछाते रहे हैं। मध्य प्रदेश आदि राज्यों में भी भ्रष्टाचार से घिरे विधायकों को महत्वपूर्ण मंत्री पद लगातार दिये जाने में भी पार्टी ने कभी अपमानित महसूस नहीं किया। येदुरप्पा को तब तक पद पर बनाये रखा जब तक कि पानी सिर से ऊपर नहीं गुजर गया और खनन माफिया रेड्डी बन्धुओं के सिर पर तो सुषमा स्वराज का हाथ हमेशा रहा। बंगारुओं और ग़डकरियों से भरी इस पार्टी में अब सारे ही लोग सत्ता लोभ में ही पार्टी में हैं इसके लिए वे किसी बदनामी से नहीं डरते। इनके लोग सवाल पूछने के लिए पैसे मांगते पकड़े जाते हैं, सांसद निधि बांटने में पकड़े जाते हैं, कबूतर बाजी में पकड़े जाते हैं, अविश्वास प्रस्ताव पर पाला बदलने के लिए धन लेने में पकड़े जाते हैं और कोई शर्म महसूस नहीं करते व दुबारा टिकिट पा जाते हैं तो गठबन्धन से निकाले जाने में काहे की शर्म? जब अमित शाह और माया कोडनानी को मंत्रिमण्डल में रखने वाले को वे सबसे मशहूर मुख्यमंत्री बताते हुए राजनाथ सिंह गर्व कर सकते हैं तो वे बिहार में जेडी[यू] द्वारा किये जा रहे अपमान की चिंता क्यों करेंगे। बिहार के नेताओं से इसलिए बयान दिलवा दिया गया है ताकि हटाये जाने के संकेत मिलते ही खुद ही छोड़ देने का पाखण्ड दिखा सकें।
       भाजपा स्वाभमानियों की पार्टी नहीं है, यदा कदा कभी गोबिन्दाचार्य जैसे स्वाभिमानी आ जाते हैं तो अब उनके भाजपा के बारे में जो विचार हैं वे भाजपा के चरित्र की असलियत बताते हैं।
खग जाने खग ही की भाषा।
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, अप्रैल 15, 2013

मध्य प्रदेश में उमा प्रवेश


मध्य प्रदेश में उमा प्रवेश
वीरेन्द्र जैन
                पार्टी के अन्दर और बाहर नितिन गडकरी की चतुर्दिक निन्दा हो जाने के बाद भाजपा के मार्गदर्शक की भूमिका निभाने वाले आर एस एस को राजनाथ सिंह के कन्धों पर दूसरी बार अध्यक्षता का भार डालना पड़ा है। यह जिम्मेवारी मिलने के बाद राष्ट्रीय कार्यकारिणी घोषित करने में उन्हें लम्बा समय लगा, जो पार्टी के संगठन में चल रही खींचतान के संकेत देती है। भाजपा की नई राष्ट्रीय कार्यकारिणी में तेरह उपाध्यक्ष घोषित किये गये जिनमें सदानंद गौडा, मुख्तार अब्बास नकवी,  सीपी ठाकुर, जुएल ओरांव, एसएस अहलूवालिया, बलबीर पुंज, सतपाल मलिक,  प्रभात झा,  उमा भारती, बिजॉय चक्रवर्ती, लक्ष्मीकांता चावला, किरण माहेश्वरी, स्मृति ईरानी हैं। इन तेरह नामों के बीच अखबारों में सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोरने वाला नाम उमा भारती का ही था जिनका चयन नितांत अनेपक्षित था। स्मरणीय है कि उन्होंने पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेताओं को सार्वजनिक रूप से न केवल धिक्कारा ही था अपितु अपनी अलग पार्टी बना कर कई चुनावों में प्रत्याशी घोषित किये व मध्यप्रदेश में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव लड़े जिनमें भाजपा को ही मुख्य रूप से निशाने पर रखा था। माना जाता है कि गुजरात और उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनावों में उन्होंने प्रत्याशी घोषित करने के बाद स्थानीय नेताओं से सौदा कर लिया था तथा कभी अपने गुरु के आदेश के नाम पर तो कभी हिन्दू वोटों की एकजुटता के नाम पर अपने प्रत्याशी वापिस ले लिये थे। उनका वोट बैंक भी भाजपा के वोट बैंक से निकला था तथा 2008 के मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में उन्होंने बारह लाख वोट भी जुटा लिए थे भले ही वे कुल पाँच विधायक ही जिता पायी थीं। बड़ा मल्हरा उपचुनाव में जो उमा भारती का ही अपना चुनाव क्षेत्र था, भाजपा ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रतीक बना कर लड़ा था क्योंकि उन्हें दल के आगे व्यक्ति के महत्व को खत्म करना था और यह भी सिद्ध करना था कि उमा भारती पार्टी के बिना शून्यवत हैं और वे अपने क्षेत्र से भी अपना प्रत्याशी जिता नहीं सकतीं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने साम दाम दण्ड भेद सभी हथकण्डों से वह चुनाव भाजपा की झोली में डाल लिया था। चुनव के दौरान भाजपा के बाहुबलियों ने उनके ऊपर हमला किया था और उन्हें भाग कर एक मन्दिर के अन्दर छुप जाना पड़ा था जहाँ अन्दर से साँकल बन्द करके ही वे सुरक्षित रह पायी थीं। इस घटना पर उन्होंने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर अपनी हत्या करवाने का आरोप भी लगाया था। सत्ता से दूर होने पर उनके अधिकांश समर्थक क्रमशः उनसे छिटक गये थे और वे लोग ही साथ रह गये थे जिनका भाजपा में प्रवेश पाना दुर्लभ था। निरंतर अकेली पड़ती उमा भारती कब तक केवल पैसे के सहारे राजनीति करतीं सो उन्होंने भाजपा में पुनर्प्रवेश के प्रयास किये और भाजपा नेताओं से व्यक्तिगत दुश्मनी रखने के कारण उनसे जुड़े समर्थकों को अधर में छोड़ दिया। 2009 के लोकसभा चुनाव में मैं तो उन्होंने अडवाणीजी को प्रधानमंत्री बनवाने में सहयोग करने के नाम पर भाजपा से केवल एक सीट माँगी थी जो भी उन्हें नहीं मिली थी। भाजपा में पुनर्प्रवेश के लिए उन्हें वर्षों प्रतीक्षा करना पड़ी थी व उनके प्रवेश के खिलाफ मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने उनके प्रवेश की दशा में स्तीफा देने की धमकी दी थी। जब जब उनकी माँग ठुकरा दी जाती तो साध्वीभेषी राजनेता प्रैस के सामने यह ‘सच’ कहतीं कि स्वास्थ के कारणों से वे अभी राजनीति में सक्रिय नहीं हो पा रही हैं। उनका प्रवेश कई बार टला और अंततः बाबरी मस्ज़िद ध्वंस मामले में सहअभियुक्त होने के परिप्रेक्ष्य में संघ द्वारा वीटो कर देने से उन्हें पार्टी में प्रवेश तो मिल गया पर मध्य प्रदेश में उनके प्रवेश पर पाबन्दी लगा दी गयी। उल्लेखनीय है कि भाजपा में प्रवेश मिलने के बाद उन्हें स्वास्थ सम्बन्धी कोई समस्या नहीं रही पर यह समस्या उनके भाई को हो गयी जिन्हें देखने के लिए उन्हें बार बार मध्यप्रदेश में आना पड़ता था। मध्यप्रदेश में अछूत घोषित करके भाजपा ने उन्हें गंगा शुद्धिकरण पर लगा दिया पर वे बार बार नर्मदा स्नान करके ही निर्मलता और शांति पाती रहीं, तथा धार्मिक कार्यों की ओट में आती जाती रहीं। इधर उनके आने से मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और तत्कालीन पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और अधिक कलुषित व अशांत होते रहे।
       उत्तरप्रदेश के 2012 के विधानसभा चुनावों के लिए उन्हें कई दूसरे लोगों के साथ चुनाव प्रभारी घोषित किया गया किंतु इस झुनझुने की असलियत समझ कर उन्होंने उसमें रुचि नहीं ली। बाद में उन्हें उत्तरप्रदेश में विधानसभा सदस्य का प्रत्याशी बनाने हेतु प्रदेश में सरकार बनने की स्थिति में मुख्यमंत्री प्रत्याशी बनाये जाने का लालच भी दिया गया। उन्हें उत्तर प्रदेश में जितवाने हेतु मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने पूरे मन से कोशिश की व समस्त संसाधन जुटा कर जिता भी दिया ताकि वे मध्यप्रदेश से विदा हो जायें। एक प्रदेश की मुख्यमंत्री और केन्द्र में मंत्री रही उमा भारती को यह पद फाँस नहीं पाया और वे केवल शपथ ग्रहण करने के लिए ही लखनऊ गयीं। वहाँ भी उन्हें सचमुच ही इतना बाहरी समझा गया कि जब पिछले दिनों कल्याण सिंह ने भाजपा के आगे अपनी पार्टी का आत्मसमर्पण कराया तब उन्हें आमंत्रित तक नहीं किया गया।
       सब जानते हैं कि उमा भारती की जान जिस तोते में बसती है उसका नाम मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी है। इसी कारण उन्हें न गंगा की गोद में आराम मिलता है, न उत्तरप्रदेश बाँध पाता है और न ही गुजरात आकर्षित कर पाता है। स्मरणीय है कि जब उन्हें भाजपा में पुनर्प्रवेश मिला था तब मध्यप्रदेश में उनके सम्मान में कोई भी स्वागत समारोह नहीं हुआ था अपितु पार्टी में एक भयावह सन्नाटा सा छा गया था। उनके समर्थकों को ही नहीं विधायकों तक को महीनों विधानसभा में भाजपा विधायक दल की सदस्यता नहीं मिल पायी थी। उनमें से किसी के नाम पर भी किसी सम्मानित पद के लिए कभी विचार नहीं किया गया था। इस अनुभव को ध्यान में रखते हुए इस बार उमा भारती ने मध्य प्रदेश में धूम धड़ाके के साथ प्रवेश करने की योजना बनायी। अपना स्वागत कराने के लिए उन्होंने अपने व्यक्तिगत समर्थकों के नाम पर सभी स्थानीय समाचार पत्रों में पूरे पूरे पृष्ठों के विज्ञापन प्रकाशित कराये और पार्टी कार्यालय में प्रायोजित स्वागत समारोह आयोजित करवाया। संयोग से कभी उनके विरोधी रहे प्रभात झा प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाये जाने के बाद मुख्यमंत्री के विरोधी हो गये थे सो उनको भी स्वागत समारोह में बुलाना पड़ा क्योंकि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। मजबूरन मुख्यमंत्री को भी इस स्वागत समारोह में आना पड़ा और नकली हँसी हँसना पड़ी। उल्लेखनीय है कि इसी दौरान मुख्यमंत्री के प्रचार विभाग ने पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के उस साक्षात्कार को प्रकाशित करवाया जिसमें उन्होंने कहा कि 2003 के चुनावों में भाजपा की जीत में उमा भारती की कोई भूमिका नहीं थी अपितु एंटी इंकम्बेंसी के कारण भाजपा का जीतना स्वाभाविक था। उमा भारती के एकल विज्ञापनों को देख कर प्रभात झा समर्थकों ने भी प्रमुख स्थानों पर उनके होर्डिंग्स लगवा दिये जिनमें उमा भारती का अता पता दूर दूर तक नहीं था।
       भले ही उमा भारती ने अपने बयान में कहा हो कि वे कांग्रेस का पिण्डदान करने के लिए आयी हैं किंतु सब लोग जान समझ रहे हैं कि असल में वे किसका पिण्डदान करेंगीं। वह दिन दूर नहीं जब मध्य प्रदेश के अन्दर भाजपा में महाभारत शुरू हो जायेगा। संघ के इशारों पर चलने वाले दल में सह सरकार्यवाहक सुरेश सोनी ने शिवराज को सताने के लिए न केवल उमा भारती, प्रभात झा को ही केन्द्रीय संगठन में स्थान दिलवा दिया है अपितु थावर चन्द गहलौत से लेकर कैलाश विजयवर्गीय, सुधा मलैया तक को शिवराज से ऊंची या बराबर की जगह पर प्रतिष्ठित करवा दिया है। वैसे भी उनका भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे अपने मंत्रिमण्डल के सदस्यों पर कोई नियंत्रण नहीं है, उच्च अधिकारी वैसे भी भाव नहीं देते थे और अब तो आचार संहिता लगने में कुछ ही महीने शेष रह गये हैं। पुनः भाजपा के सत्ता में आने के कोई संकेत नहीं हैं तथा उमा टिकिट वितरण में बड़ा हिस्सा माँगेंगीं। उनके जिन लोगों को भी टिकिट नहीं मिलेंगे वे स्वतंत्र रूप से उमाभारती के आशीर्वाद का दावा करते हुए चुनाव लड़ेंगे ही। भाजश के बिखर गये पुराने लोग फिर से एक जगह एकत्रित हो गये हैं। नई कार्यकारिणी के गठन के बाद उमाभारती का मध्यप्रदेश में प्रवेश खुल जाने से शिवराज के चेहरे की रौनक चली गयी है और उनकी खोखली हँसी उनके अन्दर पल रहे द्वन्द का साफ संकेत दे रही है। अँग्रेजी में एक कहावत है कि हँसने में जिसका पेट नहीं हिलता उस व्यक्ति से सावधान रहो। उनके दिल नहीं मिले केवल हाथ मिले हैं। रहीम ने कहा था-
रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय
जोड़े से फिर न जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय 
       इस जोड़ की गाँठें साफ नजर आ रही हैं
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, अप्रैल 12, 2013

पुस्तक समीक्षा रमेश यादव के गीतों का नया संकलन- पीला वासंतिया चाँद


पुस्तक समीक्षा

रमेश यादव के गीतों का नया संकलन- पीला वासंतिया चाँद
वीरेन्द्र जैन

       हिन्दी के बहुत सारे कवि अपनी ढेर सारी रचनाओं के कारण लोकप्रिय हुए हैं किंतु उनकी कोई एक रचना इतनी लोकप्रिय हो जाती है कि वह उसके उपनाम की तरह उसके साथ जुड़ जाती है। उदाहरण के रूप में कह सकते हैं कि बच्चन जी को ‘मधुशाला’ से, नीरज जी को ‘कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे’ से सोम ठाकुर को ‘मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर’ से मुकुट बिहारी सरोज को को ‘इन्हें प्रणाम करो, ये बड़े महान हैं’ से बुद्धिनाथ मिश्र को ‘एक बार और जाल फेंक मछेरे’ आदि से पहचाना जाता है तथा प्रत्येक कवि सम्मेलन में ये प्रतिनिधि रचनाएं उन्हें सुनाना ही पड़ती थीं। ठीक इसी तरह भोपाल के समर्थ गीतकार रमेश यादव को को उनकी लम्बी कविता ‘पीला वासंतिया चाँद’ से देश भर में पहचाना जाता है। इसे ऎतिहासिक घटना ही कहेंगे कि इस गीत को कभी धर्मवीर भारती ने धर्मयुग के पूरे पृष्ठ पर छापा था। अब उनका तीसरा काव्य संग्रह इसी नाम से प्रकाशित हुआ है जिसमें उनके 21 गीत संकलित हैं और सन्दर्भित गीत प्रमुख रूप से पुस्तक के 66 पृष्ठों को शीतल प्रकाश दे रहा है।
       रमेश यादव गीत लेखन में अपनी वरिष्ठता, लोकप्रियता, और गीतों में सम्प्रेषणीयता की कुशलता के बाद अति लेखन के शिकार नहीं हुये। उन्होंने मुकुट बिहारी सरोज की तरह यद्यपि मात्रा में अपेक्षाकृत कम लिखा है पर जो भी लिखा है वह चुनिन्दा की श्रेणी में आता है। उनके गीतों की विषयवस्तु में ही नहीं अपितु उनके कहन व उपमाओं में अनूठापन और ताजगी महसूस होती है। जिन लोगों ने उन्हें अपने सधे गले से गीत पढते हुए देखा-सुना है वे इन गीतों को और भी गहराइयों से महसूस कर सकते हैं। यह सच्चाई है कि जब प्रेम पनपता है तो वह कोई नाम चाहता है और हमारे यहाँ ये नाम नाते रिश्तों के रूप में सामने आता है। मनमोहक चाँद के प्रति सदियों से  धरतीवालों का जो प्रेम रहा है उसकी शुरुआत बचपन से ही हो जाती है और वह बच्चों के मामा की संज्ञा ग्रहण कर लेता है। हुआ यह है कि यह उपमा ही प्रेम का प्रतीक बन गयी है और हर तरह के प्रेम प्रतीक के रूप में इसका प्रयोग होता रहा है।
मां कहती है- बेटा चन्दा
बहिना कहती- भैया चन्दा
सजनी साजन को चाँद कहे
भौजी कहती- दिवरा चन्दा
कितने प्यारे नाते बन कर 
हम तुम में घूमा किया चाँद
यह पीला वासंतिया चाँद
रमेशजी ने मानव जीवन ही नहीं अपितु प्रक्रति, परम्परा और पुराणों के प्रतीकों में चाँद की प्रेममयी उपस्थिति को खोज कर मन में गुदगुदी पैदा करने वाली गीत कविता रची है।
गंगा का साथ मिला इसको
शंकर की दीर्घ जटाओं में
पर आजादी का दीवाना
कब रह पाया बाधाओं में
जिद कर बैठा, प्रलयंकर ने
नभ के माथ मढ दिया चाँद
यह पीला वासंतिया चाँद
या
इस धरती का हर अंग आज
हिंसा की माला जपता है
उत्थान नहीं है यह तो बस
धरती का रोग पनपता है
कितनी बदसूरत है धरती
इसने कैसे वर लिया चाँद
       अपने कटु समय से साक्षात्कार करते हुए भी रमेश यादव की भाषा नीरज जी की तरह गीतात्मक बनी रहती है-
आदमी के लहू का जिसे स्वाद है
वो ही नीयत रथों में बिठायी गयी
जंगली आचरण संहिता के लिए
आदमीयत मसीहा बनायी गयी
हंस की मुस्कराहट तलक में यहाँ
भेड़ियों का असर है, सम्हल कर चलो
सच्चे कलमकार दारुण दशाओं में भी अपना स्वाभिमान नहीं बेचते। वे लिखते हैं-
कलम बेच देते तो राजधानियों की
मदभरी ग़ज़ल होते हम भी
व्यक्ति नहीं दल होते हम भी
पोखर को कर लिया प्रणाम अगर होता
आजकल कमल होते हम भी
आज के आदमी का दोहरापन महसूस कर वे व्यंजना में लिखते हैं-
संचय की क्षमता न रही तो त्यागी हो गये
नंगा किया समय ने तो वैरागी हो गये
या
हूं व्यवस्था का विरोधी और ऊहापोह भी है
संत रहना भी जरूरी और सुविधा मोह भी है
किसी दल विशेष का झंडा उठाये बिना भी जब कवि अपनी बात कहता है तो उसकी पक्षधरता छुप नहीं सकती। सर्वहारा की चिंताएं उसकी कविता में उसकी राजनीति के संकेत दे देती हैं।
बिटिया हुयी जवान पिता की निर्धनता की छाँव में
ज्यों कोई फुलझड़ी लिए हो घासफूस के ठांव में
वेणु गोपाल कहते थे कि प्रेम और युद्ध की कविता आपस में विरोधी नहीं होती है, हम युद्ध इसीलिए तो करते हैं ताकि प्रेम सुरक्षित रहे। संकलन में कई मनमोहक गीतों के साथ साथ वे समाज को शुभकामनाएं देते हैं तो कहते हैं कि-
जिसके पास घुटन हो, उसको हवा मिले
दुख के बीमारों को सुख की दवा मिले
नया वर्ष ऐसा देना मेरे भगवन
जिसके पास एक हो उसको सवा मिले
ऐसी पंक्तियां मुक्तिबोध की उन पंक्तियों की याद दिलाती हैं जो कहती हैं कि – जो है उससे और बेहतर चाहिए ।
जब प्रकाशकों ने गीतों की पुस्तकें छापना बन्द कर दिया हो और गीतकार कहलाने पर साहित्य से बाहर का आदमी प्रचारित कर दिया गया हो, ऐसी दशा में गीतों का संकलन लाने के लिए रमेश यादव के गीतों जैसे गीतों का संकलन ही पूरे साहस के साथ आकर कह सकते हैं कि गीत अभी जिन्दा हैं और रहेंगे।
चर्चित पुस्तक- पीला वासंतिया चाँद
गीतकार     - रमेश यादव
पृष्ठ      -    88
मूल्य           रु.200/- सिर्फ
प्रकाशक – चन्द्रमा प्रकाशन
कावेरी-64 महेन्द्र टाउनशिप-1
ई-8 एक्स्टेंशन, गुलमोहर भोपाल 462039
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, अप्रैल 04, 2013

राष्ट्रीय कार्यकरिणी के गठन के संकेत - बेशर्मी पर उतर आयी है भाजपा



राष्ट्रीय कार्यकारिणी के गठन के संकेत
 बेशर्मी पर उतर आयी है भाजपा
वीरेन्द्र जैन
       किसी भी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के गठन में यह कोशिश की जाती है कि पार्टी के संगठन का गठन ऐसा हो जिससे वह पहले की तुलना में और भी अच्छी तरह काम करे व लोकप्रियता हासिल करे, किंतु राजनाथ सिंह को मजबूरन भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाये जाने के बाद घोषित की गयी राष्ट्रीय कार्यकारिणी लोकतंत्र की दिशा में जाती हुयी दिखाई नहीं देती। देश भर के निष्पक्ष प्रिंट और विजुअल मीडिया ने भाजपा के इस कदम की एक स्वर से निन्दा की है व भाजपा का पेड मीडिया भी इसकी प्रशंसा नहीं कर सका अपितु उसने मौन रहना ही ठीक समझा।
       बंगारुओं, येदुरप्पाओं, गडकरियों, व जाँचों के दरवाजे पर लटके सैकड़ों दूसरों की यह पार्टी दिशा भ्रम की शिकार हो गयी है और उसे पता ही नहीं चल रहा कि उसकी दिशा कौन सी है। उल्लेखनीय है कि नब्बे के दशक में बाबरी मस्ज़िद तोड़ने का माहौल बनाने हेतु जो रथयात्रा निकाली गयी थी वह अपने पीछे खून की लकीर छोड़ती हुयी गयी थी, और उस राजनीतिक षड़यंत्र जिसे वे अभियान का नाम देकर भी जिम्मेवारी से बचने की कोशिश करते हैं, द्वारा पूरे उत्तर भारत में साम्प्रदायिक उत्तेजना पैदा कर दी गयी थी। 1993 से 1999 के बीच उन्होंने इस उत्तेजना का भरपूर विदोहन किया किंतु उत्तेजनाओं की उम्र लम्बी नहीं चलती व शीघ्र ही ठोस यथार्थ द्वार खटखटाने लगता है। उस क्लाईमेक्स के बाद अब तक इन्होंने क्रमशः उतार ही देखा है। संघ पर अंध श्रद्धा रखने वालों को भी भी गडकरी को अध्यक्ष के पद पर थोपना पसन्द नहीं आया था पर उनके खिलाफ हुए खुलासों के बाद भी जब उन्हें दूसरी बार थोपा जाने लगा तो चीख पुकार मच गयी क्योंकि पार्टी उस दौर में सत्तापक्ष पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को ही मुख्य मुद्दा बनाये हुए थी। स्मरणीय है कि जनसंघ के पहले अध्यक्ष मौल्लिचन्द्र शर्मा को संघ के हस्तक्षेप से दुखी होकर ही स्तीफा देना पड़ा था पर तब से संघ का आदेश ही अंतिम माना जाता था। यह पहली बार हुआ था कि संघ की चाहत के बाद भी गडकरी को दोबारा अध्यक्ष नहीं बनाया जा सका था। पहली बार संघ परिवार ने अध्यक्ष पद के लिए अकाल महसूस किया था और थक हार कर दूसरे सर्वाधिक अनुशासित व आज्ञाकारी व्यक्ति के कन्धे पर बन्दूक रख दी गयी थी। नई कार्यकारिणी से यह संकेत मिलता है कि वह अब अपने सारे मुखौटे नोंच कर अपने असली स्वरूप में सामने आ जाना चाह्ती है।
       कार्यकारिणी में मुख्यमंत्री होते हुए भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम नरेन्द्र मोदी को संसदीय बोर्ड में ले लिया गया है व 74 सदस्यीय टीम में अधिकांश मोदी समर्थक हैं। स्मरणीय है कि इन्हीं राजनाथ के अध्यक्ष रहते हुए पिछले कार्यकाल में नरेन्द्र मोदी को संसदीय बोर्ड में न लेने का कारण उनका मुख्यमंत्री होना ही बतलाया गया था। सबसे ज्यादा शर्मनाक तो गुजरात के फर्जी एनकाउंटर के आरोपी अमित शाह को राष्ट्रीय महासचिव बनाया जाना है जिन पर हत्या और साजिश रचने समेत कई आरोप हैं और उन्हें तड़ीपार रहना पड़ा था। अपने उत्तेजक बयानों और बचकाने बोलों के लिए बदनाम हो चुके वरुण गाँधी को महासचिव जैसा महत्वपूर्ण पद देने के पीछे  नेहरू-गाँधी परिवार को बदनाम करने के अलावा और क्या हो सकता है, क्योंकि वरुण गाँधी ने अभीतक किसी भी तरह की सांगठनिक प्रतिभा का परिचय नहीं दिया है। किसी समय भाजपा और विहिप- बजरंगदल के चर्चित नेता रहे विनय कटियार को तुरंत प्रतिक्रिया देनी पड़ी कि अगर मेरे नाम के पीछे भी गाँधी शब्द लगा होता तो मुझे भी महासचिव का पद मिल गया होता।
       उमाभारती को यद्यपि उपाध्यक्ष जैसा नखदंत विहीन पद दिया गया है, जो हेमामालिनियों के ही लायक पद है किंतु पिछले दिनों उन्होंने पार्टी को जो चकरघिन्नी का नाच नचाया था उसे देखते हुए उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित किया जाना चौंकाता है। स्मरणीय है कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उन्हें पार्टी में सम्मलित करने पर स्तीफा देने की धमकी दी थी और इसी कारण उनका प्रवेश वर्षों तक लम्बित रहा था। बाद में संघ के दबाव में उन्हें मध्यप्रदेश में सक्रिय न होने की शर्त पर प्रवेश दिया गया था और उन्हें उत्तर प्रदेश में विधायक चुनवाने के लिए पार्टी ने पूरी ताकत झौंक दी थी। यही कारण रहा कि उमा भारती शपथ लेने के अलावा कभी भी उत्तर प्रदेश विधानसभा नहीं गयीं।
       कभी उमा भारती ने शिवराज सिंह चौहान पर उनकी हत्या करवाने का आरोप भी लगाया था पर अब उन्होंने शिवराज सिंह की राजनीतिक हत्या करवा दी है। इस कार्यकारिणी के गठन में अगर सबसे ज्यादा अपमानित किसी को होना पड़ा है तो वे शिवराज सिंह चौहान ही हैं। संघ के सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी ही संघ में भाजपा का कार्य देखते हैं और उन्होंने अपने कट्टर अनुयायी प्रभात झा को पुनः मध्यप्रदेश का अध्यक्ष बनवाना चाहा था किंतु शिवराज सिंह चौहान ने चुपचाप ऐसी चाल चली कि प्रभात झा को मध्यप्रदेश छोड़ना पड़ा और उनके प्रिय नरेन्द्र तोमर अध्यक्ष बन गये। यह सीधा सीधा सुरेश सोनी पर निशाना था और उनकी क्षमताओं को चुनौती थी जिसका परिणाम यह हुआ कि वे स्वयं तो संसदीय बोर्ड के सदस्य चुने ही नहीं गये पर उनके प्रतिद्वन्दी प्रभात झा और उमाभारती को उपाध्यक्ष तथा थावरचन्द गहलौत और मुरलीधर राव को महासचिव बना दिया गया। इतना ही नहीं उनके मंत्रिमण्डल में रह कर भी सदैव उन्हें संकट में डालने वाले कैलाश विजयवर्गीय को उनके बराबर ही आमंत्रित सदस्य बना कर उन्हें अपमानित किया व विजयवर्गीय की विरोधी सुमित्रा महाजन को बाहर कर दिया। चौहान विरोधी टीम के सांसद राकेश सिंह अनूप मिश्रा, प्रह्लाद पटेल, और विक्रम वर्मा को ही विशेष आमंत्रितों में सम्मलित नहीं किया अपितु फग्गन सिंह कुलस्ते को फिर से अनुसूचित जाति जनजाति मोर्चे के अध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित कर दिया जो संसद में नोट कांड के एक पात्र रहे थे। शिवराज मंत्रिमण्डल के एक सदस्य जयंत मलैया की पत्नी सुधा मलैया को राष्ट्रीय सचिव बना कर शिवराज और उनके समर्थकों को हर तरह से नीचा दिखाने का काम किया। इस जले पर नमक छिड़कने सुरेश सोनी 3 अप्रैल को भोपाल पहुँचे और संघ कार्यालय जाने से पहले शिवराज सिंह चौहान के बंगले पहुँचे व बाद में उनके मंत्रिमण्डल के सदस्य पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर के घर गये।
       यह नाराजी भाजपा शासित राज्यों में गुजरात के बाद सबसे महत्वपूर्ण राज्य मध्यप्रदेश में ही देखने को नहीं मिल रही अपितु पूरी भाजपा में चारों ओर पैदा हुयी है। समाचार है कि सहसंगठन मंत्री सौदान सिंह और राजनाथ में तीखी नौक-झौंक हुयी है और उसके बाद वे अज्ञातवास पर चले गये हैं। इसी तरह वी सतीश भी बेहद नाराज हैं और बैठ को बीच में ही छोड़ कर चले गये थे। प्रवक्ता पद से हटाये जाने पर रविशंकर प्रसाद आहत हैं तो मुख्य प्रवक्ता नहीं बनाये जाने से प्रकाश जावेडकर नाराज हैं। शांता कुमार जैसे वरिष्ठ नेता ही नहीं अपितु कलराज मिश्र, विनय कटियार, भगत सिंह कोश्यारी, करुणा शुक्ला, नज़मा हेपतुल्ला, रमेश पोखरियाल निशंक, संतोष गंगवार, नवजोत सिंह सिद्धू किरीट सोमैया,  रामनाथ कोविद, तरुण विजय, आदि की छुट्टी कर दी गयी है।
       भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के गठन से पूर्व नरेन्द्र मोदी ने एक घंटे तक लाल कृष्ण अडवाणी से गुप्तवार्ता भी की थी जिससे लगता है कि इस कार्यकारिणी के चयन में उनकी सहमति है। लोकतंत्र में जब कोई लोकप्रियता की उपेक्षा करके संगठन में मनमाने बदलाव करता है तो ऐसा लगता है कि उसकी निगाह चुनाव पर न होकर
कहीं और है। स्मरणीय है कि भाजपा के बहुत सारे नेता बाबरी मस्ज़िद ध्वंस, साम्प्रदायिक दंगों, भगवा आवरण में आतंक फैलाने, गुजरात के नरसंहार, करवंचन, आर्थिक अनियमियताओं आदि के घेरे में हैं। कार्यकाल पूरा होते होते यूपीए सरकार अपराधियों को दण्ड दिलाने के प्रति तेजी ला सकती है। अन्ना हजारे और आमआदमी पार्टी समेत अनेक संगठनों ने जिस तरह से भ्रष्टाचार को प्रमुख मुद्दा बना दिया है इस कारण भाजपा को सत्ताविरोधी लाभ मिलने की सम्भावना नहीं दिख रही जिसके बारे में अडवाणी भी कई बार बयान दे चुके हैं। भाजपा का इतिहास चालाकी पूर्वक राजनीति करने व अफवाहें फैलाने का रहा है। नई कार्यकारिणी में उन्होंने जो चयन किया है उससे ये संकेत भी मिलते हैं कि यह पार्टी अपनी अस्तित्व रक्षा में कानून के घेरे में आने पर दुष्प्रचार में तेजी ला साम्प्रदायिक वातावरण बनाने का काम कर सकती है, क्योंकि उसके पास लाठी की ताकत और कम विवेक वालों की फौज दूसरे किसी भी दल से अधिक है। पिछले नौ वर्षों में उन्होंने संसद को ठीक तरह से नहीं चलने दी है। गुजरात में लोकायुक्त को निर्मूल कर दिया है। मोदी के नेतृत्व में इस नई कार्यकारिणी को देखते हुए यह जरूरी हो जाता है कि धर्मनिरपेक्ष ताकते उनके मंसूबों को कामयाब न होने देने के लिए कमर कस लें क्योंकि उन्होंने तो तैयारी कर ली है। 
वीरेन्द्र जैन
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