गुरुवार, जनवरी 28, 2010

मुलायम की चिंता में ज्योति बसु का प्रधान मंत्री न बनने का फैसला

मुलायम की चिंता में ज्योतिबसु का प्रधानमंत्री न बनने का फैसला
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों देश के वरिष्ठतम नेताओं में से एक ज्योति बसु का 96 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के लम्बे समय तक पोलित ब्यूरो सदस्य रहे और पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। उनके अस्सी वर्ष के बेदाग और समर्पित सक्रिय राजनीतिक जीवन में उनके किसी घनघोर विरोधी तक को उन पर उंगली उठाने का मौका नहीं मिला, जबकि वे दुनिया के इतिहास में सबसे लम्बे समय तक किसी चुनी हुयी सरकार के प्रमुख रहे। उनके निधन पर श्रद्धांजलि अर्पित करनेकेलिये सभी को एक मंच पर आना स्वाभाविक था, और ऐसा हुआ भी।
वे अपनी पार्टी के अनुशासित सिपाही थे और अपनी सारी उपलब्धियों का श्रेय अपनी पार्टी की नीतियों और कार्यक्रमों को देते रहे थे। स्वाभाविक था कि ज्योति बसु को याद करते समय उनकी पार्टी की नीतियाँ और कार्यक्रम भी चर्चा में आयें इसलिये कुछ डिनर पार्टी नुमा पार्टी चलाने वाले नेताओं ने इस अवसर पर कुछ ऐसी बातों का उल्लेख किया जिनका स्पष्टीकरण अनेक बार दिया जा चुका था और एक सच्ची लोकतांत्रिक पार्टी के अन्दर बहुमत से प्रस्ताव पास हो जाने के बाद उक्त विषय पर कभी कोई मतभेद सामने नहीं आया था।
अपने वित्तप्रबन्धक और राजनीतिक ताकत का सौदा करने वाले महासचिव द्वारा पद छोड़ दिये जाने से परेशान पहलवान मुलायम सिंह ने कहा कि यदि ज्योति बसु को प्रधान मंत्री बनने दिया गया होता तो देश का नक्शा कुछ और होता। उनका यह बयान असल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में उनकी समझ की कमी को दर्शाता है। सीपीएम कोई भाजपा नहीं है कि वोट लेने के लिये सिद्धांत बघारती फिरे और सता पाने के लिये सारे अनैतिक समझौते करने लगे। स्वयं मुलायम सिंह ने अमर सिंह की उंगलियों पर नाचते हुये अमेरिका से परमाणु समझौते पर एकदम से यू टर्न ले लिया था जबकि कुछ ही दिन पहले उन्होंने इसी समझौते के खिलाफ एक विशाल रैली में भाग लिया था। पिछले राष्ट्रपति के चुनाव में उन्होंने अपने राजनीतिक गठबन्धन की उम्मीदवार स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, आज़ाद हिन्द फौज़ की केप्टन भारत रत्न डा. लक्ष्मी सहगल को समर्थन देने की जगह नरेन्द्र मोदी की पार्टी के उम्मीदवार मिसायल मेन को कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर समर्थन देना ठीक समझा था। ऐसा लगता है कि उनके पूर्व महासचिव द्वारा सार्वजनिक रूप से यह बताने के कारण कि उनके सीने में मुलायम सिंह के कई राज दफन हैं, मुलायम विचलित से हो गये हैं और असंगत बयानबाज़ी करने लगे हैं।
दरअसल पहलवान फिल्मी नायिकाओं, नायकों और उद्द्योगपतियों की चकाचौंध् से चमत्कृत और सौदेबाज़ी से एकत्रित पार्टी फंड के नशे में यह भूल गये हैं कि एक कैडर वाली पार्टी कैसे काम करती है। मुलायम सिंह स्वयं भी केन्द्रीय मंत्रि मण्डल के सदस्य रहे हैं और उन्हें पता ही होगा कि सरकार का कोई भी फैसला प्रधान मंत्री नहीं अपितु कैबिनेट की बैठक अपने बहुमत के आधार पर लेती है और सीपीएम जैसी वर्गीय सिद्धांत में विश्वास रखने वाली पार्टी अपने शत्रु वर्ग के फैसलों को अपने नाम से क्यों लागू करती क्योंकि उसके तो दो-तीन सद्स्य ही केबिनेट में आते। अम्बानियों को ढोने वाले मुलायम ही नहीं बाकी की सारी गैर बामपंथी पार्टियाँ अपने अपने आकाओं के हितों में फैसले लेने के लिये दबाव बनाते और सरकार का हाल वैसा ही होता जैसा कि तेरह दिन की अटल बिहारी की सरकार का हुआ था। सीपीएम ने गठबन्धन केवल भाजपा जैसी साम्प्रदायिक पार्टी को सत्ता से आने में रोकने के लिये बनाया था न कि सरकार बनाने के लिये। वे अगर चाहते तो पिछली यूपीए की सरकार में भी अपने चार केबिनेट मंत्री बनवा सकते थे पर लगातार समर्थन देते हुये भी उन्होंने स्वयं को सत्ता के चरित्र से दूर रखा जबकि परमाणु करार पर कांग्रेस से सौदा करने के बाद मुलायम सिंह पहली फुरसत में गृह मंत्री पद मांगने अमर सिंह के साथ पहुँच गये थे। सीपीएम ने चन्द्र शेखर के इस आरोप का कि वह ज़िम्मेवारी से भागती है तुरंत ज़बाब देते हुये कहा था कि अगर ज़िम्मेवारी से भागते होते तो बंगाल में लगातार तीस साल शासन नहीं चलाते।
एक प्रदेश में जातीय अस्तित्व रखने वाले मुलायम सिंह की खिसकती ज़मीन ने उन्हें विचलित कर दिया है और शायद रामायण की यह चौपाई उन्हें कुछ रास्ता दिखाये-
धीरज धरम मित्र अरु नारी
आपत काल परखिये चारी

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शनिवार, जनवरी 23, 2010

madhya pradesh men sarakaar aur naukarashaahee

सरकार का मुँह देखकर ही काम करती है नौकरशाही
वीरेन्द्र जैन
मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपनी सरकार के पिछड़ेपन के बारे में हो रही आलोचनाओं से बौखला कर अपनी कमजोरियों का ठीकरा नौकरशाही के सिर फोड़ना शुरू कर दिया है। स्मरणीय है कि विकास को जाँचने के सबसे बुनियादी मानक जीडीपी [सकल घरेलू उत्पाद] की गणना में मध्य प्रदेश देश के सबसे फिसड्डी राज्यों में गिना गया है तथा दूसरे फिसड्डी राज्यों बिहार, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, झारखण्ड छत्तीसगढ से भी पीछे रह गया है।
सीएसओ[केन्द्रीय सांख्यकी संगठन] की रिपोर्ट बताती है कि 4.89% जीडीपी की दर से विकास करने वाला यह राज्य देश की जीडीपी की तुलना में आधा विकास ही कर सका है।यह तब है जब कि इस प्रदेश की सरकार सैकड़ों करोड़ रुपयों की मेहमानबाज़ी करके उद्द्योगपतियों के लिये पीले चावल बिछाये होने का प्रचार कराती रहती है। ज़मीनें लगभग मुफ्त में ही दी जा रही है व उद्द्योगपतियों को समझाया जा रहा है कि सारे श्रम कानून उन्हीं के पक्ष में तोड़े मरोड़े और बनाये बिगाड़े जायेंगे। स्मरणीय है कि गत दिनों अपनी यात्रा के दौरान राहुल गान्धी ने एक प्रेस् वार्ता में प्रदेश की क्कर्यप्रणाली पर टिप्पणी करते हुये कहा था कि मध्य प्रदेश सरकार, केन्द्र सरकार से मिले धन को ही स्तेमाल नहीं कर पा रही है। उसके बाद बुलायी गयी पहली बैठक में मुख्य मंत्री ने कहा कि राज्य शासन को प्राप्त होने वाली केन्द्रीय सहायता का पूरा उपयोग न करने वाले विभागों के अफसरों की अक्षमता का खामियाज़ा सम्बन्धित क्षेत्र की जनता भुगतती है जिससे सम्बन्धित क्षेत्र का विकास प्रभावित होता है। ऐसे सभी विभागों को चिन्हित कर इसी सप्ताह उनकी बैठक बुलायी जाना चाहिये।
दरअसल नौकरशाही अपनी सरकार के अनुसार ही काम करती है। यदि सरकार ईमानदार और कर्मठ होती है तो नौकरशाही बेईमान और नाकारा नहीं हो सकती। जिस मंत्रिमण्डल में आधा दर्ज़न से ज्यादा ऐसे सदस्य हों जिन के घर और परिवारियों पर आयकर विभाग ने छापा मारकर करोड़ों रुपयों की अघोषित सम्पत्ति ज़मीनों के कागज़ात, शेयर, बीमा पालिसियाँ, बैंकों की ज़मा रसीदें और लाकर ज़ब्त किये हों उनके अफसरों से ईमानदार होने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। जिस मंत्रिमण्डल में ऐसे ऐसे मंत्री हों जिनके ड्राइवरों के यहाँ तक से करोड़ों रुपये मिले हों उनके अधिकारियों द्वारा जो काम किया भी जायेगा तो वह कागज़ों से बाहर कैसे आ सकेगा। जिस मंत्रिमण्डल के सद्स्यों की छोटी छोटी लड़कियाँ स्कूल में नोटों की गिड्डियाँ ले जाती हों और सहपाठियों को बताती हों कि उनके यहाँ तो बोरों में नोट भरे रहते हैं ऐसे बोरे नियमनुसार काम करके तो नहीं भरते। अभी तक पुलिस थानों, ट्रैफिक चेक पोस्टों सेल्स टैक्स बैरियरों आदि की नीलामी की खबरें ही सुनते थे किंतु अब तो खुले आम कलेक्टरों की कुर्सियाँ भी नीलामी पर चढी हुयी हैं तब विकास की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
ज़िलों में सरकारी पार्टी के स्थानीय स्तर के नेताओं द्वारा मलाईदार विभागों के अफसरों से इतनी माँगें की जाती हैं कि उपलब्ध बज़ट से कई गुना माँगें तो अधूरी ही रह जाती हैं ऐसे में सरकारी कामों की उम्मीद कैसे की जा सकती है। सच तो यह है कि जितने ईमानदार अफसर हैं वे अपनी लाज़ बचाने के लिये नाकारा होने का आरोप ग्रहण करने के लिये विवश हैं और जितने अफसर बेईमानी में सहभागी हैं उनका सारा काम कागज़ों पर ही रह जाता है जिससे जनता प्यासी की प्यासी रह जाती है। जो दुस्साहसी होते हैं उनका हाल प्रो. सब्बरवाल जैसा होना तय है क्योंकि अपराधियों को सरकार खुद ही बचाने में आगे रहती है तथा अपराधियों के छूट जाने पर जलूस में नाचता हुआ मंत्री बयान देता कि आज मुझे इतनी खुशी है जितनी कि मंत्री बनने पर भी नहीं हुयी थी। सही काम करने वाली एस डी एम संजना जैन को ट्रांसफर झेलना पड़ता है वहीं मंत्रियों के साथ हम्माम में स्नान करने वाले अफसरों की बल्ले बल्ले होती है। राजधानी में निरंतर ज़ंज़ीरें खींचे जाने की घटनाओं में अगर कोई पकड़ा जाने वाला अपराधी सोना खरीदने वाले दुकानदार का पता उगलता है तो उससे पूछ्ताछ करने से पहले ही सरकारी पार्टी के नेता दुकानदार पर दबाव न बनाने के लिये पुलिस पर दबाव बनाने लगते हैं, और खीझ में पुलिस अपराधियों को पकड़ना ही छोड़ देती है। सरकारी पार्टी के लोग सरे आम ट्रैफिक उल्लंघन करते हैं और उन्हें रोकने वाली महिला कानिस्टिबिल को ही दँड भुगतना पड़ता है। काम का बहुत सारा हिस्सा अदालतों से स्टे मिलने कए कारण रुक जाता है और कार्यस्थलों के अतिक्रमण अनंत काल तक चलते रहते हैं क्योंकि अभियोजन[प्रासीक्यूसन] तो सरकार के पास है और सब जगह वही होता है जैसा कि अदालत ने सब्बरवाल मामले में टिप्पणी करते हुये व्यक्त की है।
यदि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह सचमुच ही गम्भीर हैं तो उन्हें सबसे पहले अपने प्रचारित आदर्शों को अपनी पार्टी पर ही लागू करने की हिम्मत दिखानी चाहिये। उसके बाद नौकरशाही द्वारा की जाने वाली कार्यवाहियाँ स्वतः ही लाइन पर आ जायेंगीं।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, जनवरी 22, 2010

भारतीय जिन्ना पार्टी


.................और अब सुदर्शन हुये ज़िन्ना के नये प्रशंसक
वीरेन्द्र जैन
यदि संघ परिवार इसी दिशा में बढता रहा तो वह दिन दूर नहीं कि भारतीय जनता पार्टी को अपना नाम भारतीय ज़िन्ना पार्टी रख्र देना पड़े।
इस बात को बहुत दिन नहीं बीते जब भाजपा के दूसरे नम्बर के बड़े नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी को पाकिस्तान की संसद में ज़िन्ना के 11 अगस्त 1947 को दिये एक भाषण की प्रशंसा करने के कारण पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा था। उनको यह पद छोड़ने का दबाव उनकी पार्टी के किसी नेता की ओर से नहीं आया था अपितु इसका निर्देश उन्हें आर एस एस की ओर से मिला था। अपने इस बयान पर आडवाणीजी ने नागपुर जाकर सफाई भी दी थी किन्तु जिस संगठन में भावनात्मक मुद्दों के आधार पर राजनीतिक व्यापार चलता हो तो वहां सत्य और तर्क की गुंजाइश नहीं होती। आडवाणीजी को ज़िन्ना के जिस भाषण की प्रशंसा करने पर आर एस एस के प्रकोप का सामना करना पड़ा था वह भाषण सचमुच ही महत्वपूर्ण था, प्रशंसनीय था और ज़िनना की प्रचलित छवि को बदलने वाला था। आडवाणी ही नहीं, कोई भी समझदार और सम्वेदनशील व्यक्ति उसकी तारीफ किये बिना नहीं रह सकता, विशेष रूप से जब उसे एक मन्दिर का उदघाटन करने के लिये राज्य अतिथि के रूप में बुलाया गया हो और उसे ज़िन्ना के मज़ार पर फूल चढाने के लिये ले जाया गया हो।
उसके बाद भाजपा के बेहद कद्दावर नेता और आडवाणी के सही वारिस जसवंत सिंह को ज़िन्ना के ऊपर किताब लिखने के कारण् बेहद अपमानजनक तरीके से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और वह भी बिना सफाई का मौका दिये और बिना किताब पढे। राजनीतिक क्षेत्र में जसवंत सिंह का बहुत सम्मान था और वे साम्प्रदायिक हिन्दूवादी पार्टी में एक माडरेट चेहरा थे जिसे मुखौटे की तरह स्तेमाल किया जा सकता था। कुछ ही वर्ष पूर्व उन्हें श्रेष्ठ सांसद के रूप में सम्मानित किया गया था तथा उनका नाम अपनी प्रतिभा और वरिष्ठता के कारण आडवाणीजी के रिटायरमेंट के बाद सदन में विपक्ष के नेता के रूप में सामने आना था। पर वे आर एस एस से नहीं थे व पार्टी में संघ के हस्तक्षेप को पसन्द नहीं करते थे इसलिये संघ उन्हें उक्त पद पर नहीं देखना चाहता था।
पर ऐसा लगता है कि संघ परिवार में अनेक लोगों को निरंतर ज़िन्ना का भूत परेशान कर रहा है और वे समझने लगे हैं कि उनके बुरे दिनों में ज़िन्ना ही उनका उद्धार करेंगे। एक के बाद दूसरे को ज़िन्ना की प्रशंसा का दौरा पड़ रहा है। ताज़ा मामला पूर्व सरसंघचालक के सी सुदर्शन द्वारा ज़िन्ना की प्रशंसा करने को लेकर है। मध्य प्रदेश में अपना डेरा जमा चुके सुदर्शनजी ने प्रदेश के हरदा जिले की टिमरनी तहसील में एक व्याख्यानमाला के दौरान कहा कि पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली ज़िन्ना उदारवादी नेता थे और गान्धीजी ने शौकत अली जैसे कट्टर मुसलमानों का सहयोग लेकर ज़िन्ना की उपेक्षा की थी और उन्हें केवल मुसलमानों का नेता बताया था जिससे नाराज होकर ज़िन्ना कट्टर मुसलमान बन गये थे।
सवाल उठता है कि भाजपा नेताओं को अस्सी साल पुराना यह इतिहास अचानक ही अब क्यों याद आने लगा है। ये सारी समझ उन्हें तब भी नहीं आयी जब वे सत्ता में रहे और अपने पालतू इतिहास लेखकों से ऐतिहासिक तोड़मरोड़ कराते हुये इतिहास को अपने अनुरूप बदलवाने के ढेरों प्रयास किये। असल में उन्हें अब यह समझ में आने लगा है कि इस देश में मुसलमानों का विश्वास अर्जित किये बिना वे कभी भी सत्ता नहीं पा सकते और किसी जोड़तोड़ से पा भी लें तो उसे बनाये नहीं रख सकते। अब तक उन्होंने अपना आधार ही मुसलमानों को देशतोड़क और देशद्रोही कहते हुये ही बनाया था और जब उन्हें मुसलमानों का विश्वास अर्जित करने का दूसरा कोई रास्ता नहीं मिला तो उन्होंने ज़िन्ना की स्तुतियाँ गाना शुरू कर दीं। पर उनका यह कदम भी कुछ काम आने वाला नहीं है क्योंकि भारतीय मुसलमान कभी भी ज़िन्ना का समर्थक नहीं रहा। बँटवारे के समय वे ही मुसलमान हिन्दुस्तान में रह गये थे जिन्हें भारत के नेताओं, और उनकी धर्म निरपेक्षता की नीति पर् भरोसा था। जो मुसलमान ज़िन्ना पर भरोसा करते थे वे सब पाकिस्तान चले गये थे। संघ परिवार के इन कदमों से इतना होगा कि उनके हिन्दू समर्थक भी उनसे नाराज हो जायें और उनके प्रचारकों के सामने धर्म संकट खड़ा हो जाये।
इन सारी समस्याओं के मूल में राजनीतिक विचारधारा विहीन लोकतंत्र का विकास होना है जिस कारण से दूसरे दूसरे हथकण्डों से राजनीति की जाती है जिनमें से साम्प्रदायिकता भी एक है। साम्प्रदायिकता के लिये एक दुश्मन ज़रूरी होता है भले ही वह बनावटी ही क्यों न हो। भाजपा का मुस्लिम विरोध भी इसी कूटनीति का हिस्सा था और जब श्रीमती सोनिया गान्धी कांग्रेस की अध्यक्ष बन गयीं तब से उन्होंने धर्म परिवर्तन के नाम पर चर्चों पर हमले करना शुरू कर दिये थे। इस इक्कीसवीं शताब्दी में वे कब तक इस तरह के हथकण्डों से काम चला पाते हैं यह देखना होगा।
वीरेन्द्र जैन
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रविवार, जनवरी 17, 2010

श्रद्धांजलि - ज्योति बसु

ज्योति बसु बुझने वाली ज्योति नहीं थे
वीरेन्द्र जैन
ज्योति बसु की देह से चेतना चले जाने को देहांत भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि उन्होंने अपनी देह को भी मेडिकल कालेज को दान करने का निर्णय कर दिया था। उनके जीवन के बाद भी उनकी देह इस देश में चिकित्सा विज्ञान का अध्ययन करने वाले नौजवानों के काम आयेगी जिससे वे हज़ारों ज़िंदगियों को बचा कर जीवन ज्योतियाँ बनाये रहेंगे।
वे राजनेता थे किंतु ऐसी पार्टी के राजनेता थे जहाँ सामूहिक नेतृत्व होता है और व्यक्ति का योगदान भी समूह की आवाज़ की तरह सामने आता है। अपने ज्ञान की ज्योति से अपने साथियों की सहमति के साथ ज्योति बाबू ने जिस पार्टी का विकास किया था उसके सदस्यों ने समाजवादी समाज की स्थापना के लक्ष्य के साथ संसदीय लोकतंत्र के नियमों का पालन करते हुये पूरे देश में जिस उच्च स्तरीय नैतिकता की ज्योति जलायी वह न केवल देशवासियों को रोशनी दिखाती रहेगी अपितु हज़ारों राजनीतिज्ञों को आइना भी दिखाती रहेगी। वे भगत सिंह की उस परम्परा के वंशज थे जो मानते थे कि-
हम भी आराम से रह सकते थे अपने घर पर
हमको माँ बाप ने पाला था बड़े दुख सह कर
किंतु समाज में सकारात्मक बदलाव की जो ज्योति उनके अन्दर रोशन हुयी वो कभी बुझी नहीं। जहाँ एक छोटे से पद के लिये लोग अपने सारे सिद्धांत भूल जाते हैं वहीं ज्योति बसु की पार्टी ने देश के सर्वोच्च प्रधानमंत्री पद को दो बार ठुकराया। वे अपनी पार्टी के उन संस्थापक सदस्यों में से एक थे जिसके ई एम एस नम्बूदरीपाद, हरकिशन सिंह् सुरजीत समेत अधिकांश सदस्यों ने अपनी पूरी सम्पत्ति पार्टी के नाम कर दी थी और वह सम्पत्ति भी कोई साधारण सम्पत्ति नहीं थी। एक चौथाई शताब्दी से अधिक समय तक मुख्य मंत्री रहते हुये भी उन्होंने कभी सरकारी बंगले में जाने की ज़रूरत नहीं समझी। वे ऐसे मुख्य मंत्री थे जो अपने जिस मकान में रहते थे उसके दूसरे हिस्से में किरायेदार रहता था। उन्होंने जिस पार्टी का नेतृत्व किया उसे वे नैतिक मूल्य दिये कि उनके सदस्यों ने न कभी दल बदल किया न टिकिट पाने के लिये मारा मारी की। वे उस विधान सभा के द्वारा चुनी सरकार के मुखिया रहे जिसके सदस्यों ने लगातार 25 से अधिक वर्षों तक अपना कोई वेतन नहीं बढाया। उनकी पार्टी के प्रत्येक सांसद और विधायक द्वारा अपना पूरा वेतन पार्टी को दिया जाता रहा है और उनमें से व्होल टाइमरों को पार्टी से मिलने वाले वेतन से अपना गुज़ारा करना होता था। जो बेहद मामूली होता था।
ज्योति बाबू के पार्टी सद्स्य ना तो हवाला से जुड़े रहे, न संसद में सवाल उठाने के लिये पैसे लेने के मामले में, न सांसद निधि बेचने में, न कबूतरबाज़ी में, और न दल बदल के लिये पैसे लेने में । उनकी पार्टी के सदस्य यदि जनता से समर्थन लेकर सद्न में पहुँचते हैं तो वहाँ उपस्थित भी रहते हैं और कार्यवाही में भाग भी लेते हैं। उनकी पार्टी ने पूंजीपतियों से चन्दा नहीं लिया अपितु वह उनके सद्स्यों द्वारा दी गयी लेवी से सादगी और समर्पण के आधार पर चलती रही तथा देश की दूसरी पार्टियों और उनके नेताओं की तरह राजनीति को निजी सम्पत्ति बनाने के लिये प्रयोग नहीं किया। उनकी कैडर आधारित पार्टी ने कभी किसी दूसरे दल के सदस्यों को को आयात नहीं किया और न ही उनके दल के सदस्यों ने अपने स्वार्थ के लिये दल बदल किया। भले ही संख्या की दृष्टि में उनकी पार्टी देश में तीसरे नम्बर पर रही हो किंतु संसदीय बहस और विमर्शों में सदैव पहले नम्बर पर रही। आज जब हमारी संसद में तीन सौ से ज्यादा करोड़पति हैं तब उनकी पार्टी में भले पैसे वाले लोग न हों पर करोड़ों लोगों का साथ और विश्वास पाने वाले नेतृत्वकारी मौज़ूद हैं। उनकी पार्टी ने कभी अपने संख्यात्मक विस्तार के लिये नीतियों और सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। वे कभी अपने वर्ग की विरोधी पार्टी की सरकारों में सम्मलित नहीं हुये तथा गठबन्धन सरकारों को समर्थन देते हुये उन्होंने सदैव ही अपने सिद्धांतों और नीतियों के आधार पर न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर सहमति बनाने की शर्त रखी व उसका उल्लंघन करने पर उन्होंने सरकार से समर्थन वापिस लेने में कोई देर नहीं की।
ज्योति बाबू की जनहितैषी नीतियों के कारण इतनी लोकप्रियता रही कि दुनिया में लोकतांत्रिक ढंग से लगातार चुनी हुयी सरकार बनाने और लगातार चलाने में उन्होंने विश्व रिकार्ड बनाया, और देश के दूसरे दलों के सत्ता व कुर्सी लोलुप नेताओं के विपरीत वे पद पर रहते हुये ही पार्टी से अनुमति लेकर स्वयं ही रिटायर हुये और अपने स्वास्थ की सीमा में पार्टी का काम करते रहे।
देह एक भौतिक वस्तु है और प्रत्येक भौतिक वस्तु की तरह उसके अवयव भी विश्रंखलित होते हैं किंतु जो लोग अपने कार्यों और आदर्शों से इतिहास में अपने पद चिन्ह छोड़ जाते हैं वे लंबे समय तक उपस्थित रहते हैं। ज्योति बसु भी उन्हीं लोगों में से एक थे, जो अपने पीछे समर्पित विवेकशील ईमानदार कार्यकर्ताओं की पूरी एक पार्टी छोड़ गये हैं।
सभी लोग मरने से मर नहीं जाते, कुछ ऐसे होते हैं जो हमारी स्मृतियों में ही नहीं अपितु हमारे संकल्पों को रौशन करते हुये सदैव साथ रहते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, जनवरी 15, 2010

अमर मुलायम प्रसंग.........और ब्लेकमेलिंग किसे कहते हैं?

अमर-मुलायम प्रसंग्
.........और ब्लेकमेलिंग किसे कहते हैं?
[बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी]
वीरेन्द्र जैन
एक बोध कथा याद आ रही है।
जिस गाँव में नसरुद्दीन रहता था उस गाँव में एक गरीब आदमी की शादी तय हुयी। जिस दर्ज़ी को उसने पाज़ामा सिलने को दिया था वह बीमार पड़ गया तो उसे ठीक वक़्त पर पाज़ामा तैयार नहीं मिल सका। उसे मालूम चला कि अभी हाल ही में नसरुद्दीन ने पाज़ामा सिलवाया है तो उसने शादी के लिये उसका पाज़ामा माँग लिया और उसे बारात में चलने के लिये भी कहा। जब बारात उस गाँव में पहुँची तो दुल्हिन की दादी दूल्हे को देखने आयी। देख कर उसने कहा दूल्हा तो अच्छा है जवान है और सुन्दर है। साथ बैठे नसरुद्दीन से नहीं रहा गया तो उसने कहा कि हाँ और पाज़ामा मेरा पहिने हुये है। दादी के जाने बाद दूल्हे के रिश्तेदारों ने कहा कि भइ इस बात को कहने की क्या ज़रूरत थी। नसरुद्दीन ने अपनी गलती मान ली।
थोड़ी देर बाद दुल्हिन की मामी दूल्हे को देखने आयी तो उसने भी वही बात कही कि दूल्हा तो अच्छा है जवान है और सुन्दर है तो नसीरुद्दीन बोले और पाज़ामा भी अपना पहिने हुये है।
मामी के जाने के बाद रिश्तेदारों ने कहा कि आप पाज़ामे का ज़िक्र क्यों करते हैं। नसुरुद्दीन ने फिर अपनी गलती मानी और आगे सावधान रहने का बादा किया। थोड़ी देर बाद दुल्हिन की बुआ दूल्हे को देखने आयी तो वह भी बोली कि दूल्हा तो अच्छा है, जवान भी है और सुन्दर भी है तो नसीरुद्दीन बोल पड़े कि और पाज़ामा किसका पहिने हुये है इस बारे में मैं कुछ नहीं कह रहा हूं।
असल में अपने आप को मुलायम सिंह का दर्ज़ी बताने वाले अमर सिंह के साथ भी यही दिक्कत है कि वे यह बताने से नहीं चूक पाते कि मुलायम सिंह उन्हीं का पज़ामा पहिन कर दूल्हे बने हुये हैं। उधार का पज़ामा पहिन कर दूल्हा बने मुलायम जब तक पज़ामा उतार कर अपने पहलवान स्वरूप में नहीं उतर आते तब तक अमर सिंह जैसे लोग उन्हें अपने पाज़ामे की याद दिलाते ही रहेंगे क्योंकि वे ये भूल जाते हैं कि पाज़ामा भले ही किसी का हो पर सुन्दर और स्वस्थ दूल्हे तो मुलायम सिंह ही हैं और वे उन्हीं की शादी के बराती हैं। यदि दूल्हा ही नहीं होगा तो पाज़ामे तो नाड़े डले पड़े रहेंगे उन्हें कोई पूछने वाला भी नहीं मिलेगा।
किसी सभ्य व्यक्ति के मुँह से कोई शब्द यूं ही नहीं निकलता। कांग्रेस के सत्यव्रत चतुर्वेदी के मुँह से भी चिरकुट शब्द यूं ही नहीं निकल गया होगा।
ब्लेकमेलिंग किसी हमले या रहस्योदघाटन को नहीं कहते हैं अपितु वह इस बात को स्मरण कराते रहने का नाम ही है कि हमें तुम्हारी फलाँ फलाँ बातें पता हैं और यदि तुमने हमारी शर्तें नहीं मानीं तो वे रहस्य सार्वजनिक हो सकते हैं। उन गोपनीय बातों के सार्वजनिक हो जाने का कुछ भी परिणाम निकले किंतु उनके सार्वजनिक हो जाने के बाद ब्लेकमेलिंग का अंत हो जाता है। जो व्यक्ति सार्वजनिक रूप से गोपनीय बातों की बार बार याद दिलाता रहता है वह लाख इंकार के बाद भी ब्लेकमेलिंग ही कर रहा होता है।
भारतीय राजनीति में जब से संविद सरकारें बनना प्रारम्भ हुयी हैं तब से राजनीतिक भ्रष्टाचार तेज़ी से बड़ा है तथा दलबदल और चुनावी प्रबन्धन में व्यापक स्तर पर अवैध धन का स्तेमाल होने लगा है। इस खेल में बामपंथी दलों को छोड़ कर लगभग सभी प्रमुख दल शामिल हैं किंतु इतने व्यापक पैमाने पर दलबदल और लेन देन होते रहने के बाबज़ूद कभी किसी राजनीतिज्ञ ने किसी को इस आधार पर अपने पक्ष में फैसला करने के लिये विवश करने का प्रयत्न नहीं किया कि मुझे उसके फलाँ राज पता हैं।
रक्षा मंत्री जैसे ज़िम्मेवार पदों पर रहे किसी नेता के बारे में दिये गये ऐसे अन्धे बयानों से राष्ट्र के प्रति चिंतित लोगों के मन में उसके प्रति तरह तरह के सन्देह पैदा होते हैं और कोई भी अपनी सुविधानुसार कुछ भी कल्पना करने लगता है। अभी हाल ही में अमेरिका के साथ परमाणु बिजली घरों के बारे में किये गये समझौते पर अचानक पाला बदलने के बाद समाजवादी पार्टी सन्देह के घेरे में आयी थी तथा भाजपा ने सदन में नोटो के बंडल उछालते हुये उनके सदस्यों की खरीद फरोख्त् का आरोप लगाया था जो समाजवादी पार्टी के अमर सिंह पर ही था न कि कांग्रेस पर। इस प्रकरण की जाँच अभी ज़ारी है तथा अमर सिंह के बयान सन्देहों को पैदा कर रहे हैं। पिछले दिनों जब अमर सिंह की टेलीफोन वार्तायें अवैध रूप से रिकार्ड होने का मामला सामने आया था तो अदालत से उन वार्ताओं के सार्वजनिक होने से रोकने के लिये कोर्ट से आदेश लिया गया था जिसके कयासों की कहानियाँ मौखिक रूप से सुनी सुनायी गयी थीं।
अपने को अस्वस्थ घोषित करते हुये उस आधार पर पार्टी की सक्रियता से त्यागपत्र देने के लिये इंगलेंड को चुनना कहाँ तक उचित माना जा सकता है और ये कैसी अस्वस्थता है कि जो राज्यसभा की सदस्यता से त्यागपत्र देने को प्रेरित नहीं करती पर पार्टी की ज़िम्मेवारी के पदों से त्यागपत्र की मिसाइल को दूर से दाग देने और उस पर बहस को लगातार बनाये रखने को प्रेरित करती है। आखिर पार्टी के उन पदों पर रह कर भी ऐसी बहसों के अलावा सार्वजनिक रूप से वे और क्या करते रहे हैं!
यदि श्री अमर सिंह जी का अस्वस्थता के कारण त्यागपत्र देने का आधार सच्चा है तो उनके सबसे निकट रहे मुलायम सिंह और राम गोपाल यादव कितने निर्मम लोग माने जायेंगे जो उनकी अस्वस्थता के बाबजूद उनका त्याग पत्र स्वीकृत नहीं कर रहे हैं और उन्हें शारीरिक नहीं मानसिक रूप से अस्वस्थ बतला रहे हैं। क्या ये विचारणीय नहीं है कि इन दो में से किसी एक का असत्य होना तय है और सब जानते हैं कि लोग किनकी बातों को सच्चा और किनकी बातों को झूठा मान रहे हैं। श्री अमर सिंहजी ने मोहन सिंह को इलाज़ कराने और चुनाव खर्च के लिये गिड़गिड़ाते हुये माँगने पर जो धन देने का रहस्योदघाटन किया है वह भी अपने व्यक्तिगत खाते से उस समय शायद सशर्त ही दिया होगा और शर्त के उल्लंघन पर उसे वापिसी की शर्त रखी होगी। क्या अभी एक दो लोग जो उनके समर्थन में आये हैं क्या वे भी शर्तों के परिपालन में ही आगे आये हैं!
राजनीति में धन के हस्तक्षेप का दुष्परिणाम कुछ ही दिन पहले प्रमोद महाजन के दुखद निधन में देखा जा चुका है जिसमें एक भाई दूसरे की जान का दुश्मन बन चुका है। यह एक दूसरा उदाहरण सामने आ रहा है जब एक भाई एक ओर जा रहा है और दूसरा दूसरी ओर जा रहा है तथा इसके मूल में भी राजनीति में विचार को पीछे रख कर पैसे की राजनीति ही ज़िम्मेवार है। हिन्दी के टीवी सीरियलों की तरह ये मामला लम्बा खिंचने से तो अच्छा है कि सब कुछ सामने आ ही जाये- फोड़ा फूटा पीर हिरानी।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

सोमवार, जनवरी 11, 2010

सर्दी से मौतें और धर्मस्थलों में जमा पैसा

सर्दी से मौतें और बेतरतीब फैले धर्म स्थलों में जमा पैसा
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों से लगातार समाचार आ रहे हैं कि उत्तर भारत में पड़ रही जबरदस्त ठंड से सैकड़ों मौतें हो गयीं हैं और यह सिलसिला लगातार ज़ारी है। यह कोई ऐसी आपदा नहीं है कि जिसका कोई उपाय नहीं हो। अगर ऐसा होता तो किसी भी नगर के अधिकांश लोगों को काल के गाल में समा जाना चाहिये था, किंतु मौतें उन्हीं की हुयीं हैं जिनके पास न तो रहने के लिये कोई सुरक्षित स्थान था ना पहनने ओड़ने, बिछाने के लिये कपड़े थे, और ना ही सर्दी से प्राकृतिक रूप से मुक़ाबला करने के लिये पेट में भोजन था। दूसरी ओर देश में दिन प्रति दिन कुकरमुत्तों की तरह धर्म स्थल फैलते जा रहे हैं और इन धर्मस्थलों के पास अटूट पैसा जुड़ता जा रहा है जिस कारण इन धर्म स्थलों में मुफ्त में माल मलाई चर रहे हरामखोरों के व्यभिचार की कहानियाँ दिन प्रति दिन प्रकाश में आ रही हैं, और इसी पैसे के कारण कई बार हत्यायें तक होती रहती हैं। प्राकृतिक आपदाओं के समय इन धर्म स्थलों के दरवाज़े क्यों नहीं खुल जाते और भूख और मौसम के प्रकोप से मरते लोगों के लिये धर्मस्थलों के नाम पर ज़मा धन क्यों उपयोग में नहीं आता। आखिर उक्त धन काहे के लिये जोड़ कर रखा जा रहा है। एक विद्वान के कथन के अनुसार पुजारी, साधु, सन्यासी वही है जिसे ईश्वर पर विश्वास है और जिसे ईश्वर पर विश्वास है वह शाम के खाने को नहीं जोड़ता क्योंकि उसे भरोसा होता है कि अगर वह सच्चा भक्त है तो उसके शाम के खाने का इंतज़ाम भी हो ही जायेगा। यही कारण है कि सच्चे पुजारी और सन्यासी संग्रह नहीं करते, और जो संग्रह करते हैं उनका सन्यास झूठा है। किसी समाज में अगर भूख और मौसमों के प्रकोप से मौतें हो रही हैं तो उस समाज में स्थापित धर्म स्थल और उसके कर्ता धर्ता अधार्मिक और पाखण्डी हैं। अगर धर्म स्थल मौसम के प्रकोप से मरते हुये लोगों को आश्रय नहीं दे सकते तो या तो वह धर्म गलत है या उसके ठेकेदार कहीं उसके साथ धोखा कर रहे हैं। इन मौतों का हिसाब सम्बन्धित क्षेत्र के धर्म स्थलों के प्रबन्धकों से लिया जाना चाहिये क्योंकि वे धर्म के घोषित और पवित्र उद्देश्यों के नाम पर अटूट सुविधायें पा रहे हैं जबकि व्यवहार में वे उस धर्म के घोषित सिद्धांतों को कलंकित कर रहे हैं। रामकथा के अनुसार साधु का झूठा भेष बनाकर सीता हरण करने वाला रावण भी अंततः राम के तीर का शिकार बनता है अर्थात झूठे भेष के कारण अपराधी क्षमा का पात्र नहीं हो सकता। जो लोग प्रत्येक अस्वाभाविक मृत्यु में मरने वाले की जाति और धर्म पूछते है वे गरीबी की मार से मारे गये इन लोगों का धर्म पूछने के लिये नहीं आये कि मृतक किस धर्म के थे, क्योंकि इससे उनकी और उनके धार्मिक संस्थानों की ज़िम्मेवारी सामने आती है।
इस निर्मम दौर में पाखण्डियों की नक़ाबें नोंची जाना चाहिये तब ही सच्चा और मानवीय धर्म सामने आ सकेगा। जितने लोगों की मौतें हुयीं हैं कम से कम उतने धर्म स्थलों को दरिद्र नारायणों के निवासों में परिवर्तित हो जाना चाहिये तभी सच्चा प्राश्चित होगा। इंगलेंड में निरंतर चर्च घट रहे हैं, तो हमारे यहाँ धर्म स्थल क्यों नहीं हट सकते।
वीरेन्द्र जैन
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प्रधान मंत्री जी...... पर वैज्ञानिक हैं कहां?

.....पर वैज्ञानिक हैं कहाँ?
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों हमारे प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह ने 97वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अवसर पर भारतीय वैज्ञानिकों का आवाहन करते हुये कहा कि वे विज्ञान को नौकरशाही और विभिन्न संस्थानों में व्याप्त पक्षपात से मुक्त कराने के लिये सरकार के साथ मिल कर काम करें। उन्होंने प्रतिभा पलायन पर भी चिंता व्यक्त करते हुये कहा कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नई ऊर्जा भरने का समय आ गया है। उन्होंने प्रतिभा पलायन को प्रतिभा विकास में परिवर्तित करने का नारा देते हुये विदेशों में काम करने वाले वैज्ञानिकों को देश लौटने का भी आवाहन किया।
प्रधान मंत्री का यह आवाहन एक औपचारिक उद्घाटन भाषण से अधिक कुछ नहीं है क्योंकि लगभग ऐसे ही उद्घाटन भाषण प्रत्येक कांग्रेस के समय उद्घाटनकर्ता देते रहे हैं और वे निरर्थक होते रहे हैं। भले ही इस अवसर पर कुछ लोगों द्वारा देश में कम वेतन और सुविधाओं सहित नौकरशाही के रवैये का रोना रो लिया जाता रहा है, किंतु परिणाम कुछ भी नहीं निकलता रहा है, नौकरशाही अपने ढंग से काम करती रही है और तथाकथित प्रतिभायें अपना बोरिया बिस्तर विदेशों के लिये बांधती रही हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि हमारे यहाँ वैज्ञानिक होते ही कहाँ हैं? किसी विश्वविद्यालय से विज्ञान की डिग्री ले लेने और उसके आधार पर किसी सिफारिश या रिश्वत के आधार का मिश्रण कर के नौकरी पा लेने से कोई वैज्ञानिक नहीं हो जाता। विज्ञान के लिये ज़रूरी होता है वैज्ञानिक दृष्टिकोण का होना। जब तक दृष्टिकोण वैज्ञानिक नहीं है तब तक कितनी भी डिग्रियाँ लेकर आदमी वैज्ञानिक नहीं बन सकता। हमारे आज के डाक्टर ऐसे हैं जो छींक आ जाने पर थोड़ी देर के लिये रुक जाना ठीक समझते हैं और हिचकियाँ आने पर उन्हें लगता है कि कहीं कोई उन्हें याद कर रहा है। इंजीनियर अपनी कोठियाँ बनवाते समय उन पर काली हंडिया लटकाना नहीं भूलते और फिजिक्स ज्योग्राफी आदि के प्रोफेसर चन्द्र ग्रहण सूर्य ग्रहण के बाद तथाकथित पवित्र नदियों में स्नान करने के लिये जाते हैं। विज्ञान के क्षात्र अपनी कक्षाओं में पास होने या मेरिट में आने के लिये मन्दिरों और मज़ारों पर जाकर प्रार्थनायें करते हैं और प्रसाद चढाते हैं। आज तक इस बात के लिये किसी डाक्टर, इंजीनियर या प्रोफेसर पर कोई कार्यावाही नहीं हुयी कि श्रीमान जी आप वेतन भत्ते आदि तो एक वैज्ञानिक होने का ले रहे हैं किंतु आपके पूरे पूरे आचरण अवैज्ञानिक हैं। चाहिये तो यह था कि ऐसे तथाकथित वैज्ञानिकों की डिग्रियाँ रद्द कर दी जातीं और नागरिक स्वतंत्रता के अंतर्गत उन्हें भजन पूजन धर्म ध्यान आदि के लिये नौकरी से स्वतंत्र कर दिया जाता।
दरअसल जिन्हें हम डाक़्टर की डिग्री देकर वैज्ञानिक समझते हैं उनमें से बहुत सारे केवल केमिस्ट हैं जिनके असली प्रशिक्षक मेडिकल रिप्रजेंटेटिव होते हैं। मैं पिछले दिनों कुछ रोचक काम किया करता था कि जब भी किसी दोस्त की बीमारी पर उसे दिखाने के लिये डाक्टर के पास ले जाता तो उसकी जेब में एक पर्ची लिख कर डाल देता। डाक्टर के कमरे से बाहर आने के बाद उसके परचे में लिखी दवाईयों को खरीदने के बाद जब में उनके कम्पोनेंट्स को अपनी परची से मिलाता था तो नये ब्रांड नाम में वे लगभग वही होती थीं जिन्हें में पहले ही लिख चुका होता, जबकि में मेडिकल क्षेत्र से नहीं हूं। मैंने अस्पताल में ड्यूटी करने वाली कई गायनाक्लोजिस्ट के नायिकाओं जैसे बड़े बड़े नाखून और उनकी उंगलियों में अंगूठियाँ देखीं हैं। खेद के साथ कहना पड़ता है कि हमारे ज्यादातर डाक्टर इंजीनियर और दीगर विज्ञानडिग्रीधारी केवल व्यवसायी हो गये हैं और दुनिया की वैज्ञानिक उपलब्धियों का व्यापार करते हैं। वे अपने विषय के जर्नल्स ताक नहीं पढते और उनका ज्ञान नौकरी पाने तक की गयी पढाई से आगे नहीं बढता। वे अपने संस्थान में अधिकारी बन के एडमिनिस्ट्रेशन करते हैं, रिश्वतें कमीशन आदि लेते हैं। डाक्टर लोग मरीज को ग्राहक समझते हैं और उसकी देय क्षमता तक उसका इलाज करते रहते हैं ताकि अपना नर्सिंग होम बनवाने के लिये धन संचय कर सकें। अनावश्यक टेस्ट कराके कमीशन , दवा बिक्री से प्राप्त कमीशन, आदि पर उनका सारा ध्यान रहता है। नई या दुसाध्य बीमारियाँ उन्हें चुनौतियाँ नहीं लगतीं व अपने ड्यूटी टाइम के बाद आने जाने में वे असुविधा महसूस करते हैं। विदेशों में गये भारत के कम्पयुटर इंजीनियरों के बारे में किसी ने कहा था कि वहाँ उनकी भूमिका केवल किसी शराफे की दुकान के बाहर बैठे गहने चमकाने वालों से अधिक की नहीं है। वे किसी मौलिक काम से जुड़े हुये नहीं हैं।
हम जब भी इन तथाकथित वैज्ञानिकों को देखते हैं तो वे सदैव ही अफसरों वाली वेषभूषा में मिलते हैं। प्रोफेसर यशपाल जैसे कुछ लोगों को छोड़ कर अधिकांश ही अपनी प्रशासक छवि में सजे व उसे वैसी ही बनाये रखने की चिंता में मिले। कहाँ हैं चाय की केतली से प्रयोग करने वाले जेम्स वाट और युरेका युरेका चिल्ला कर नंगे दौड़ पड़ने वाले आर्कमडीज़! आज बेंक के फिक्स डिपाजिटों, लाकरों, शेयर बाज़ार पर ध्यान केन्द्रित रखने वाले इंजीनियर और नर्सिंग होम्स के लिये ईंट सीमेंट सरिया तलाशते प्राईवेट प्रेक्टिस करते, या झूठे मेडिकल सार्टिफिकेट या पोस्ट मार्टम रिपोर्ट तैयार करते डाक्टर, नज़र आते हैं। भला इन्हें वैज्ञानिक कैसे कहा जा सकता है! अपनी बेटियों के लिये दहेज की चिंता से ग्रस्त और अपनी संतति के लिये अट्टालिकायें खड़ी कर सात नाकारा पीढियों के लिये दौलत जोड़ कर रख जाने के सपने देखने वाले वैज्ञानिक नहीं हो सकते। वैज्ञानिक होना तो दार्शनिक होना है जो किये हुये को सीढी बना कर कुछ नया करने की सोचता है।
प्रधानमंत्री जी, अगर ये लोग आपके आवाहन पर लौट भी आयेंगे तो निशि दिन इस बात का रोना रोने के लिये लौटेंगे कि हमें वहाँ ये मिलता था, हमें वहाँ वो मिलता था आदि आदि। ज़रूरत इस बात की है कि पहले अपने यहाँ वैज्ञानिक माहौल बने वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शिक्षा दीक्षा हो व विज्ञान के लिये निर्धारित बज़ट पर पल रहे अवैज्ञानिकों का उनके योग्य उचित स्थान पर विस्थापन हो। एक धर्म निरपेक्ष प्रशासनिक मशीनरी जो संविधान की मूल भावना के अनुसार काम करने के प्रति समर्पित हो और अपने धार्मिक अन्ध विश्वासों को अपने कार्य क्षेत्र पर थोपने की कोशिश न करे। जब तक विज्ञान वैकल्पिक रोज़गार होगा तो वैज्ञानिकता नहीं पैदा होगी, उसके लिये ज़रूरी होता है एक ज़ुनून जो वैज्ञानिक समझ के बाद ही आता है।
संयोग है कि प्रधान मंत्रीजी का यह आवाहन उस समय आया है जब देश भर के सिनेमा घरों में आमिर खान की - थ्री ईडियट- धूम मचा रही है और उसमें भी ये ही समस्यायें बेहद मनोरंजक और समझ में आने वाले तरीके से समझायी गयी हैं कि डिग्री तो कोई रट्टू तोता, परचा चुराने वाला, और प्रोफेसर का कृपापात्र भी ले सकता है, और विदेश में बेहतरीन वेतन वाली नौकरी भी पा सकता है, पर इससे वह वैज्ञानिक नहीं बन जाता। वैज्ञानिक तो लद्दाख की पहाड़ियों में रह कर भी नये अविष्कार कर सकता है और वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाली नई पीढी तैयार कर सकता है।
जब हमारी संसद का एक बड़ा हिस्सा अवैध कमाई करने वाले उन लोगों से भरा है जो चुनाव में अपनी जीत के लिये किन्हीं बाबा वैरागियों पीरों फकीरों के चक्कर लगाते हैं और अपनी पसन्द पर अपने जैसी नौकरशाही पदस्थ कराते हैं, तो, वैज्ञानिक दृष्टिकोण को मदद कहाँ से मिलेगी? वैज्ञानिक दृष्टिकोण समाज में आमूल चूल परिवर्तन के बाद ही आ सकेगा और उसका प्रभाव पूरे समाज पर पड़ेगा।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, जनवरी 08, 2010

एक लोकप्रिय शिक्षक थे श्री राम स्वरुप गोस्वामी

गत दिनों मध्य प्रदेश के दतिया नगर में रहने वाले श्री राम स्वरूप गोस्वामी जी का निधन हो गया । वे स्कूल अध्यापक थे किंतु जिस समय ट्यूटोरियल क्लासेस का चलन प्रार्म्भ भी नहीं हुआ था तब वे पी एम टी, पी ई टी आदि कम्पटीटिव एक्जामिनेशन की पात्रता कक्षाओं के क्षात्रों को पधाते रहे हैं और उनके द्वारा पढाये गये सैकड़ों क्षात्र आज डाक्टर इंजीनियर और दूसरे पदों पर पदस्थ हैं। वे कभी किसी से ट्यूशन के पैसे नहीं मांगते थे अपितु जिसकी जितनी क्षमता होती थी वह उनकी दरी य तकिये के नीचे रख जाता था। उनमें से अनेक निर्धन क्षात्र तो कुछ भी नहीं दे पाते थे पर उनकी कक्षाओं में वे समान अधिकार से बैठते थे। वे विज्ञान और गणित को क्षात्रों की अपनी मातृ या कहना चाहिये लोकल भाषा में ऐसे समझा देते थे कि वह उसके दिमाग में घर कर जाता था। ज्ञान में भाषा के महत्व पर उनकी शिक्षण पद्धति का अध्ययन बहुत उपयोगी हो सकता है। मैंने भी उनकी कक्षाओं में बैठ कर विज्ञान पढा है। दतिया नगर में और दतिया के बाहर जहाँ जहाँ उनके पढाये क्षात्र गये हैं उनका बेहद सम्मान था।
उनके निधन पर एक स्थानीय समाचार पत्र दतिया प्रकाश में डा. नीरज जैन ने एक श्रद्धांजलि आलेख लिखा है जिसे यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं
वीरेन्द्र जैन्
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आचार्य प्रवर पं रामस्वरूप गोस्वामी जी के देहांत पर
मास्टर से संतत्व तक का सफर
प्रत्येक शख्स स्तब्ध था, इसलिये नहीं कि आचार्य गोस्वामी जी की उम्र अभी महाप्रयाण के लायक नहीं थी और न इसलिये कि उनका जाना कोई बड़ी प्राकृतिक या अप्रत्याशित दुर्घटना थी, वरन् सब उनके महाप्रयाण की खबर सुन कर ऐसे ही स्तब्ध थे जैसे सुधा पान करने वाले किसी देवता की मृत्युकी खबर सुन कर होते। बुंदेलखण्ड की सांस्कृतिक राजधानी दतिया नगर मेंदेश की आजादी के बाद जिस मास्टर ने भूखे, नंगे, गरीब व दलित बच्चोंको अपनी निहायत आकर्षक किंतु चुटीली और देहाती शैली से सभ्रान्तअंग्रेज बना दिया, बुंदेली मुहावरों से गणित पढ़ा दी, और देशीगालियों से विज्ञान सिखा दिया। उस असाधारण प्रतिभा के शिक्षक कायक-ब-यक चले जाना सबको चौंका रहा था। ग्वालियर में एक दूधवाले के बच्चों को फ्री में टयूशन पढ़ाकर अपनेदूध-पीने का शौक पूरा करने वाले आचार्य गोस्वामी अपनी जिंदगी को जन्मदेने वाले अपने निर्माता स्वयं थे। नगर की उनके जमाने की सम्मानित पदों पर पहुंचने वाली तीन चौथाईआबादी उनसे ज्ञान लेकर बढ़ी हुई, लेकिन मास्टर की लौकिक देह में ईश्वरत्वका आलौकिक दिया कब जल उठा किसी को पता नहीं। पांच घंटे की नौकरी,पांच घंटे की टयूशन और रात भर बारह घंटे की साधना। उनकी साधनाजब सिद्ध हुई तो उसका प्रकाश पूरे देश में फैल उठा, क्या छोटे? क्याबढ़े? भक्ति की अविरल गंगा में पावन दतिया के भक्ति सरोवर में पीताम्बरापीठ के बाद पंचम कवि की टोरिया एक तीर्थ बन गई। उनके निवास की गली मेंउनके घर के सामने से निकलने वाला हर राहगीर उसी तरह प्रणाम की मुद्रा मेंनिकलता है जैसे वह किसी सिद्ध स्थान की यात्रा पर हो। जब सारी दुनियां ईसा मसीह के जन्मदिन के जश्न में डूबी हुई थी। उस समयएक संत महाप्रयाण कर रहा था वह संत जिसने आत्म कल्याण को अपनाजीवन-धर्म नहीं बनाया बल्कि अपना पूरा जीवन पर कल्याण में लगा दिया। समाजके कल्याण की कीमत पर उन्होंने कभी अपने बच्चों तक के लिये कुछ नहींचाहा। एक गृहस्थ अपने भीतर देवता को छुपाये एक साथ इश्क हकीकी और इश्कमजाजी दोनों को कैसे जी लेता है यह बात केवल हमें गोस्वामी जी के जीवनसे पता चलती है। हम सब इसलिये स्तब्ध हैं क्योंकि हमें मनुष्य की मृत्यु कीखबर नहीं मिली देवता की मौत की खबर मिली है और पं रामस्वरूप गोस्वामीजी देवता थे-कुछ यूं-
''आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है मुझमें''और फिर मानना पड़ता है कि खुदा है मुझमें।''
-डॉ नीरज जैन

बुधवार, जनवरी 06, 2010

कितने मज़बूर रहे अटल बिहारी वाजपेयी

कितने मज़बूर थे अटल बिहारी वाजपेयी
वीरेन्द्र जैन
अटल बिहारी वाजपेयी के 86वें जन्म दिन पर हुये ताज़ा खुलासे से पता चलता है कि यदि गोविन्दाचार्य ने उन्हें भाजपा का मुखौटा बताया था तो वह अनजाने में उनके मुँह से निकल गया कितना बड़ा सच था। भाजपा के प्रधान मंत्री पद प्रत्याशी रहे पूर्व उप प्रधान मंत्री और पूर्व विपक्षी नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी ने अटलजी के जन्म दिन पर एक अखबार में लिखे लेख में उस आरोप को स्वीकार किया है जिसे वे अब तक झुठलाते रहे थे और उसका ज़िक्र उन्होंने अपनी उस पुस्तक में भी नहीं किया था जिसे वे आत्मकथा बताते हैं। आडवाणी जी ने उक्त लेख में लिखा है कि उनके अटल बिहारी वाजपेयी से अयोध्या आन्दोलन और गुजरात में अल्पसंख्यकों के नर संहार के बाद नरेन्द्र मोदी को मुख्य मंत्री पद से हटाने के मामले में मतभेद थे। उनके अनुसार अटलजी सभी मामलों पर उनसे विचार विमर्श करते थे और अगर किसी बात पर आडवाणी जी सहमत नहीं होते थे तो वे उस मामले को आगे नहीं बढाते थे। इसका परोक्ष अर्थ यही होता है कि भले ही प्रधान मंत्री अटलजी बताये जाते हों किंतु असली सत्ता आडवाणीजी के ही हाथों में केन्द्रित थी, और जैसा वे चाहते थे वैसा ही होता था। इस बात की पुष्टि जसवंत सिंह पहले ही अपनी पुस्तक के बाद हुयी चर्चा में कर चुके हैं कि अटलजी गुजरात में अलपसंख्यकों के नर संहार के बाद त्याग पत्र देने जा रहे थे तो उन्होंने ही उनका हाथ पकड़ लिया था। स्मरणीय है कि अटलजी के राज धर्म पालन करने वाले बयान से हुयी मोदी की अंतर्राष्ट्रीय छीछालेदर के तुरंत बाद आडवाणीजी ने मोदी को अब तक का सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री घोषित किया था।
स्मरणीय यह भी है कि जब विहिप के दारा सिंह ने आस्ट्रेलियाई पादरी फादर स्टेंस जो कुष्ट रोगियों की सेवा करने के लिये भारत में थे, को उनके दो मासूम बच्चों के साथ ज़िन्दा ज़ला दिया था तब अटल बिहारी वाजपेयी ने इस घटना से व्यथित होकर राजघाट पर एक दिन का अनशन किया था। इस अनशन में उनके साथ भाजपा में बड़े कद का केवल एक ही व्यक्ति साथ में था और वह श्री मदन लाल खुराना थे। इस साथ के बाद आडवाणी जी ने खुराना जी को राजनीति की मुख्य धारा से ही हटाने का काम किया जिसमें वे सफल ही रहे। बाद में हत्या के आरोपी दारा सिंह से संघ परिवार ने दूरी दिखाने की रणनीति बनायी थी किंतु पिछले रास्ते से उसे मदद कराते रहे थे। एक स्टिन्ग आपरेशन में जाम उठा कर नोटों की गिड्डियाँ स्वीकारते हुये जो व्यक्ति यह कहता नज़र आया था कि पैसा खुदा तो नहीं पर खुदा से कम भी नहीं, वह केन्द्र सरकार में मंत्री था और उसने उक्त हत्यारे को बाद वैधानिक और वित्तीय सहायता उपलब्ध करायी थी। उसका यह काम भाजपा की अटल विरोधी लाबी को किस तरह से पसन्द आया था उसका प्रमाण इस बात से लग जाता है कि पहले उसे राज्य सभा के लिये टिकिट दिया गया और बाद में लोकसभा के लिये टिकिट देकर चुनवा दिया गया।
बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के बारे में जो वीडिओ देखा गया है उसमें 5 दिसम्बर 1992 को अटलजी यह कहते दिखाये गये हैं कि मैं तो अयोध्या कार सेवा के लिये चलना चाहता था किंतु मुझे दिल्ली जाने के लिये कहा गया है। जाहिर है कि भाजपा के सबसे वरिष्ठ और लोकप्रिय नेता को उसकी इच्छा के विरुद्ध काम के लिये विवश करने वाली ताकतें कार्य कर रही थीं और वे एक अनुशासित सिपाही की तरह उसका आदेश मानने के लिये मज़बूर थे। बहुत सम्भव था कि उन्हें यह आशंका रही हो कि अटलजी बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के दौरान विचलित होकर कहीं योजना में व्यवधान न पैदा कर दें। इससे साफ होता है उनके के सबसे लोकप्रिय नेता बाजपेयी भाजपा के लिये केवल वह दिखावटी मुखौटा थे जो देश की जनता को धोखा देने के लिये लगाया जा रहा था।
वाजपेयी शासन काल में सत्ता की असली चाबी आडवाणीजी के हाथ में ही होने के सच का पता उस घटना से भी लगता है जब अमेरिका के एक अखबार में यह खबर प्रकाशित करा दी गयी थी कि अटलजी अस्वस्थ हैं, उन्हें कुछ याद नहीं रहता और वे शाम से ही जाम लेकर बैठ जाते हैं। इस खबर के प्रकाशन और उसकी खबर के स्थानीय अखबारों में छपने के बाद बनाये गये माहौल में आडवाणीजी को तब उपप्रधान मंत्री पद की शपथ दिलवा दी गयी थी जब अगले ही दिन मंत्रिमंडल का विस्तार होने वाला था। इस शपथ ग्रहण के बाद जब पत्रकारों ने इस औचक पद ग्रहण के बाद उनके द्वारा किये जाने वाले कामों के बारे में पूछा था तब आडवाणी जी ने कहा था कि प्रधानमंत्री के सारे काम जो वे अभी तक बिना पद के करते आ रहे थे। बाद में जब अटलजी अमेरिका यात्रा से नई जानकारियाँ पाकर लौटे थे तब तत्कालीन अध्यक्ष वैंकैय्या नाइडू ने यह वयान देकर सबको चौंका दिया था कि आगामी चुनाव अटलजी और आडवाणीजी के सन्युक्त नेतृत्व में लड़ा जायेगा। इस बयान से नाराज अटलजी ने लौटते ही कहा था कि आगामी चुनाव अकेले आडवाणीजी के ही नेतृत्व में लड़ा जायेगा। बाद में वैंक्य्या ने उनसे क्षमा मांगी थी।
आडवाणी जी भी जो अटलजी से कुल दो वर्ष छोटे हैं अपनी उम्र के अंतिम चरण में हैं और अनचाहे ही अपनी महात्वाकांक्षाएं त्यागने को विवश कर दिये गये हैं। यदि उन्हें अपने कार्यों पर कुछ आत्मग्लानि महसूस हो रही हो तो नई और सच्ची आत्मकथा लिखना चाहिये। ये देश के हित में होगी।
वीरेन्द्र जैन
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