.....पर वैज्ञानिक हैं कहाँ?
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों हमारे प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह ने 97वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अवसर पर भारतीय वैज्ञानिकों का आवाहन करते हुये कहा कि वे विज्ञान को नौकरशाही और विभिन्न संस्थानों में व्याप्त पक्षपात से मुक्त कराने के लिये सरकार के साथ मिल कर काम करें। उन्होंने प्रतिभा पलायन पर भी चिंता व्यक्त करते हुये कहा कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नई ऊर्जा भरने का समय आ गया है। उन्होंने प्रतिभा पलायन को प्रतिभा विकास में परिवर्तित करने का नारा देते हुये विदेशों में काम करने वाले वैज्ञानिकों को देश लौटने का भी आवाहन किया।
प्रधान मंत्री का यह आवाहन एक औपचारिक उद्घाटन भाषण से अधिक कुछ नहीं है क्योंकि लगभग ऐसे ही उद्घाटन भाषण प्रत्येक कांग्रेस के समय उद्घाटनकर्ता देते रहे हैं और वे निरर्थक होते रहे हैं। भले ही इस अवसर पर कुछ लोगों द्वारा देश में कम वेतन और सुविधाओं सहित नौकरशाही के रवैये का रोना रो लिया जाता रहा है, किंतु परिणाम कुछ भी नहीं निकलता रहा है, नौकरशाही अपने ढंग से काम करती रही है और तथाकथित प्रतिभायें अपना बोरिया बिस्तर विदेशों के लिये बांधती रही हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि हमारे यहाँ वैज्ञानिक होते ही कहाँ हैं? किसी विश्वविद्यालय से विज्ञान की डिग्री ले लेने और उसके आधार पर किसी सिफारिश या रिश्वत के आधार का मिश्रण कर के नौकरी पा लेने से कोई वैज्ञानिक नहीं हो जाता। विज्ञान के लिये ज़रूरी होता है वैज्ञानिक दृष्टिकोण का होना। जब तक दृष्टिकोण वैज्ञानिक नहीं है तब तक कितनी भी डिग्रियाँ लेकर आदमी वैज्ञानिक नहीं बन सकता। हमारे आज के डाक्टर ऐसे हैं जो छींक आ जाने पर थोड़ी देर के लिये रुक जाना ठीक समझते हैं और हिचकियाँ आने पर उन्हें लगता है कि कहीं कोई उन्हें याद कर रहा है। इंजीनियर अपनी कोठियाँ बनवाते समय उन पर काली हंडिया लटकाना नहीं भूलते और फिजिक्स ज्योग्राफी आदि के प्रोफेसर चन्द्र ग्रहण सूर्य ग्रहण के बाद तथाकथित पवित्र नदियों में स्नान करने के लिये जाते हैं। विज्ञान के क्षात्र अपनी कक्षाओं में पास होने या मेरिट में आने के लिये मन्दिरों और मज़ारों पर जाकर प्रार्थनायें करते हैं और प्रसाद चढाते हैं। आज तक इस बात के लिये किसी डाक्टर, इंजीनियर या प्रोफेसर पर कोई कार्यावाही नहीं हुयी कि श्रीमान जी आप वेतन भत्ते आदि तो एक वैज्ञानिक होने का ले रहे हैं किंतु आपके पूरे पूरे आचरण अवैज्ञानिक हैं। चाहिये तो यह था कि ऐसे तथाकथित वैज्ञानिकों की डिग्रियाँ रद्द कर दी जातीं और नागरिक स्वतंत्रता के अंतर्गत उन्हें भजन पूजन धर्म ध्यान आदि के लिये नौकरी से स्वतंत्र कर दिया जाता।
दरअसल जिन्हें हम डाक़्टर की डिग्री देकर वैज्ञानिक समझते हैं उनमें से बहुत सारे केवल केमिस्ट हैं जिनके असली प्रशिक्षक मेडिकल रिप्रजेंटेटिव होते हैं। मैं पिछले दिनों कुछ रोचक काम किया करता था कि जब भी किसी दोस्त की बीमारी पर उसे दिखाने के लिये डाक्टर के पास ले जाता तो उसकी जेब में एक पर्ची लिख कर डाल देता। डाक्टर के कमरे से बाहर आने के बाद उसके परचे में लिखी दवाईयों को खरीदने के बाद जब में उनके कम्पोनेंट्स को अपनी परची से मिलाता था तो नये ब्रांड नाम में वे लगभग वही होती थीं जिन्हें में पहले ही लिख चुका होता, जबकि में मेडिकल क्षेत्र से नहीं हूं। मैंने अस्पताल में ड्यूटी करने वाली कई गायनाक्लोजिस्ट के नायिकाओं जैसे बड़े बड़े नाखून और उनकी उंगलियों में अंगूठियाँ देखीं हैं। खेद के साथ कहना पड़ता है कि हमारे ज्यादातर डाक्टर इंजीनियर और दीगर विज्ञानडिग्रीधारी केवल व्यवसायी हो गये हैं और दुनिया की वैज्ञानिक उपलब्धियों का व्यापार करते हैं। वे अपने विषय के जर्नल्स ताक नहीं पढते और उनका ज्ञान नौकरी पाने तक की गयी पढाई से आगे नहीं बढता। वे अपने संस्थान में अधिकारी बन के एडमिनिस्ट्रेशन करते हैं, रिश्वतें कमीशन आदि लेते हैं। डाक्टर लोग मरीज को ग्राहक समझते हैं और उसकी देय क्षमता तक उसका इलाज करते रहते हैं ताकि अपना नर्सिंग होम बनवाने के लिये धन संचय कर सकें। अनावश्यक टेस्ट कराके कमीशन , दवा बिक्री से प्राप्त कमीशन, आदि पर उनका सारा ध्यान रहता है। नई या दुसाध्य बीमारियाँ उन्हें चुनौतियाँ नहीं लगतीं व अपने ड्यूटी टाइम के बाद आने जाने में वे असुविधा महसूस करते हैं। विदेशों में गये भारत के कम्पयुटर इंजीनियरों के बारे में किसी ने कहा था कि वहाँ उनकी भूमिका केवल किसी शराफे की दुकान के बाहर बैठे गहने चमकाने वालों से अधिक की नहीं है। वे किसी मौलिक काम से जुड़े हुये नहीं हैं।
हम जब भी इन तथाकथित वैज्ञानिकों को देखते हैं तो वे सदैव ही अफसरों वाली वेषभूषा में मिलते हैं। प्रोफेसर यशपाल जैसे कुछ लोगों को छोड़ कर अधिकांश ही अपनी प्रशासक छवि में सजे व उसे वैसी ही बनाये रखने की चिंता में मिले। कहाँ हैं चाय की केतली से प्रयोग करने वाले जेम्स वाट और युरेका युरेका चिल्ला कर नंगे दौड़ पड़ने वाले आर्कमडीज़! आज बेंक के फिक्स डिपाजिटों, लाकरों, शेयर बाज़ार पर ध्यान केन्द्रित रखने वाले इंजीनियर और नर्सिंग होम्स के लिये ईंट सीमेंट सरिया तलाशते प्राईवेट प्रेक्टिस करते, या झूठे मेडिकल सार्टिफिकेट या पोस्ट मार्टम रिपोर्ट तैयार करते डाक्टर, नज़र आते हैं। भला इन्हें वैज्ञानिक कैसे कहा जा सकता है! अपनी बेटियों के लिये दहेज की चिंता से ग्रस्त और अपनी संतति के लिये अट्टालिकायें खड़ी कर सात नाकारा पीढियों के लिये दौलत जोड़ कर रख जाने के सपने देखने वाले वैज्ञानिक नहीं हो सकते। वैज्ञानिक होना तो दार्शनिक होना है जो किये हुये को सीढी बना कर कुछ नया करने की सोचता है।
प्रधानमंत्री जी, अगर ये लोग आपके आवाहन पर लौट भी आयेंगे तो निशि दिन इस बात का रोना रोने के लिये लौटेंगे कि हमें वहाँ ये मिलता था, हमें वहाँ वो मिलता था आदि आदि। ज़रूरत इस बात की है कि पहले अपने यहाँ वैज्ञानिक माहौल बने वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शिक्षा दीक्षा हो व विज्ञान के लिये निर्धारित बज़ट पर पल रहे अवैज्ञानिकों का उनके योग्य उचित स्थान पर विस्थापन हो। एक धर्म निरपेक्ष प्रशासनिक मशीनरी जो संविधान की मूल भावना के अनुसार काम करने के प्रति समर्पित हो और अपने धार्मिक अन्ध विश्वासों को अपने कार्य क्षेत्र पर थोपने की कोशिश न करे। जब तक विज्ञान वैकल्पिक रोज़गार होगा तो वैज्ञानिकता नहीं पैदा होगी, उसके लिये ज़रूरी होता है एक ज़ुनून जो वैज्ञानिक समझ के बाद ही आता है।
संयोग है कि प्रधान मंत्रीजी का यह आवाहन उस समय आया है जब देश भर के सिनेमा घरों में आमिर खान की - थ्री ईडियट- धूम मचा रही है और उसमें भी ये ही समस्यायें बेहद मनोरंजक और समझ में आने वाले तरीके से समझायी गयी हैं कि डिग्री तो कोई रट्टू तोता, परचा चुराने वाला, और प्रोफेसर का कृपापात्र भी ले सकता है, और विदेश में बेहतरीन वेतन वाली नौकरी भी पा सकता है, पर इससे वह वैज्ञानिक नहीं बन जाता। वैज्ञानिक तो लद्दाख की पहाड़ियों में रह कर भी नये अविष्कार कर सकता है और वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाली नई पीढी तैयार कर सकता है।
जब हमारी संसद का एक बड़ा हिस्सा अवैध कमाई करने वाले उन लोगों से भरा है जो चुनाव में अपनी जीत के लिये किन्हीं बाबा वैरागियों पीरों फकीरों के चक्कर लगाते हैं और अपनी पसन्द पर अपने जैसी नौकरशाही पदस्थ कराते हैं, तो, वैज्ञानिक दृष्टिकोण को मदद कहाँ से मिलेगी? वैज्ञानिक दृष्टिकोण समाज में आमूल चूल परिवर्तन के बाद ही आ सकेगा और उसका प्रभाव पूरे समाज पर पड़ेगा।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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फोन 9425674629
वैज्ञानिक तो लद्दाख की पहाड़ियों में रह कर भी नये अविष्कार कर सकता है और वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाली नई पीढी तैयार कर सकता है .. सहमत हूं आपसे !!
जवाब देंहटाएंThats what i also think .Me and my brother are trieng to teach engineering students the practical
जवाब देंहटाएंaspects of engineering ,and we are amazed with the fact that students in there final year are not capable of doing basic practical things, they need help for there project works although they are scoring 80% marks in theory exams.
so our technical insitutes are not giving proper practical knowledge, if an electronics engineer calls a machenic to repair his TV what else any one can say ....
वीरेंद्र जी बहुत ख़ूब।
जवाब देंहटाएंइस तरह के खानापूर्ति भाषणों से वाकई कुछ नहीं हो सकता। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिते पूर्ण और सच्चा वैज्ञानिक माहौल तैयार करना ही एक अच्छी पहल हो सकती है।