अमर-मुलायम प्रसंग्
.........और ब्लेकमेलिंग किसे कहते हैं?
[बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी]
वीरेन्द्र जैन
एक बोध कथा याद आ रही है।
जिस गाँव में नसरुद्दीन रहता था उस गाँव में एक गरीब आदमी की शादी तय हुयी। जिस दर्ज़ी को उसने पाज़ामा सिलने को दिया था वह बीमार पड़ गया तो उसे ठीक वक़्त पर पाज़ामा तैयार नहीं मिल सका। उसे मालूम चला कि अभी हाल ही में नसरुद्दीन ने पाज़ामा सिलवाया है तो उसने शादी के लिये उसका पाज़ामा माँग लिया और उसे बारात में चलने के लिये भी कहा। जब बारात उस गाँव में पहुँची तो दुल्हिन की दादी दूल्हे को देखने आयी। देख कर उसने कहा दूल्हा तो अच्छा है जवान है और सुन्दर है। साथ बैठे नसरुद्दीन से नहीं रहा गया तो उसने कहा कि हाँ और पाज़ामा मेरा पहिने हुये है। दादी के जाने बाद दूल्हे के रिश्तेदारों ने कहा कि भइ इस बात को कहने की क्या ज़रूरत थी। नसरुद्दीन ने अपनी गलती मान ली।
थोड़ी देर बाद दुल्हिन की मामी दूल्हे को देखने आयी तो उसने भी वही बात कही कि दूल्हा तो अच्छा है जवान है और सुन्दर है तो नसीरुद्दीन बोले और पाज़ामा भी अपना पहिने हुये है।
मामी के जाने के बाद रिश्तेदारों ने कहा कि आप पाज़ामे का ज़िक्र क्यों करते हैं। नसुरुद्दीन ने फिर अपनी गलती मानी और आगे सावधान रहने का बादा किया। थोड़ी देर बाद दुल्हिन की बुआ दूल्हे को देखने आयी तो वह भी बोली कि दूल्हा तो अच्छा है, जवान भी है और सुन्दर भी है तो नसीरुद्दीन बोल पड़े कि और पाज़ामा किसका पहिने हुये है इस बारे में मैं कुछ नहीं कह रहा हूं।
असल में अपने आप को मुलायम सिंह का दर्ज़ी बताने वाले अमर सिंह के साथ भी यही दिक्कत है कि वे यह बताने से नहीं चूक पाते कि मुलायम सिंह उन्हीं का पज़ामा पहिन कर दूल्हे बने हुये हैं। उधार का पज़ामा पहिन कर दूल्हा बने मुलायम जब तक पज़ामा उतार कर अपने पहलवान स्वरूप में नहीं उतर आते तब तक अमर सिंह जैसे लोग उन्हें अपने पाज़ामे की याद दिलाते ही रहेंगे क्योंकि वे ये भूल जाते हैं कि पाज़ामा भले ही किसी का हो पर सुन्दर और स्वस्थ दूल्हे तो मुलायम सिंह ही हैं और वे उन्हीं की शादी के बराती हैं। यदि दूल्हा ही नहीं होगा तो पाज़ामे तो नाड़े डले पड़े रहेंगे उन्हें कोई पूछने वाला भी नहीं मिलेगा।
किसी सभ्य व्यक्ति के मुँह से कोई शब्द यूं ही नहीं निकलता। कांग्रेस के सत्यव्रत चतुर्वेदी के मुँह से भी चिरकुट शब्द यूं ही नहीं निकल गया होगा।
ब्लेकमेलिंग किसी हमले या रहस्योदघाटन को नहीं कहते हैं अपितु वह इस बात को स्मरण कराते रहने का नाम ही है कि हमें तुम्हारी फलाँ फलाँ बातें पता हैं और यदि तुमने हमारी शर्तें नहीं मानीं तो वे रहस्य सार्वजनिक हो सकते हैं। उन गोपनीय बातों के सार्वजनिक हो जाने का कुछ भी परिणाम निकले किंतु उनके सार्वजनिक हो जाने के बाद ब्लेकमेलिंग का अंत हो जाता है। जो व्यक्ति सार्वजनिक रूप से गोपनीय बातों की बार बार याद दिलाता रहता है वह लाख इंकार के बाद भी ब्लेकमेलिंग ही कर रहा होता है।
भारतीय राजनीति में जब से संविद सरकारें बनना प्रारम्भ हुयी हैं तब से राजनीतिक भ्रष्टाचार तेज़ी से बड़ा है तथा दलबदल और चुनावी प्रबन्धन में व्यापक स्तर पर अवैध धन का स्तेमाल होने लगा है। इस खेल में बामपंथी दलों को छोड़ कर लगभग सभी प्रमुख दल शामिल हैं किंतु इतने व्यापक पैमाने पर दलबदल और लेन देन होते रहने के बाबज़ूद कभी किसी राजनीतिज्ञ ने किसी को इस आधार पर अपने पक्ष में फैसला करने के लिये विवश करने का प्रयत्न नहीं किया कि मुझे उसके फलाँ राज पता हैं।
रक्षा मंत्री जैसे ज़िम्मेवार पदों पर रहे किसी नेता के बारे में दिये गये ऐसे अन्धे बयानों से राष्ट्र के प्रति चिंतित लोगों के मन में उसके प्रति तरह तरह के सन्देह पैदा होते हैं और कोई भी अपनी सुविधानुसार कुछ भी कल्पना करने लगता है। अभी हाल ही में अमेरिका के साथ परमाणु बिजली घरों के बारे में किये गये समझौते पर अचानक पाला बदलने के बाद समाजवादी पार्टी सन्देह के घेरे में आयी थी तथा भाजपा ने सदन में नोटो के बंडल उछालते हुये उनके सदस्यों की खरीद फरोख्त् का आरोप लगाया था जो समाजवादी पार्टी के अमर सिंह पर ही था न कि कांग्रेस पर। इस प्रकरण की जाँच अभी ज़ारी है तथा अमर सिंह के बयान सन्देहों को पैदा कर रहे हैं। पिछले दिनों जब अमर सिंह की टेलीफोन वार्तायें अवैध रूप से रिकार्ड होने का मामला सामने आया था तो अदालत से उन वार्ताओं के सार्वजनिक होने से रोकने के लिये कोर्ट से आदेश लिया गया था जिसके कयासों की कहानियाँ मौखिक रूप से सुनी सुनायी गयी थीं।
अपने को अस्वस्थ घोषित करते हुये उस आधार पर पार्टी की सक्रियता से त्यागपत्र देने के लिये इंगलेंड को चुनना कहाँ तक उचित माना जा सकता है और ये कैसी अस्वस्थता है कि जो राज्यसभा की सदस्यता से त्यागपत्र देने को प्रेरित नहीं करती पर पार्टी की ज़िम्मेवारी के पदों से त्यागपत्र की मिसाइल को दूर से दाग देने और उस पर बहस को लगातार बनाये रखने को प्रेरित करती है। आखिर पार्टी के उन पदों पर रह कर भी ऐसी बहसों के अलावा सार्वजनिक रूप से वे और क्या करते रहे हैं!
यदि श्री अमर सिंह जी का अस्वस्थता के कारण त्यागपत्र देने का आधार सच्चा है तो उनके सबसे निकट रहे मुलायम सिंह और राम गोपाल यादव कितने निर्मम लोग माने जायेंगे जो उनकी अस्वस्थता के बाबजूद उनका त्याग पत्र स्वीकृत नहीं कर रहे हैं और उन्हें शारीरिक नहीं मानसिक रूप से अस्वस्थ बतला रहे हैं। क्या ये विचारणीय नहीं है कि इन दो में से किसी एक का असत्य होना तय है और सब जानते हैं कि लोग किनकी बातों को सच्चा और किनकी बातों को झूठा मान रहे हैं। श्री अमर सिंहजी ने मोहन सिंह को इलाज़ कराने और चुनाव खर्च के लिये गिड़गिड़ाते हुये माँगने पर जो धन देने का रहस्योदघाटन किया है वह भी अपने व्यक्तिगत खाते से उस समय शायद सशर्त ही दिया होगा और शर्त के उल्लंघन पर उसे वापिसी की शर्त रखी होगी। क्या अभी एक दो लोग जो उनके समर्थन में आये हैं क्या वे भी शर्तों के परिपालन में ही आगे आये हैं!
राजनीति में धन के हस्तक्षेप का दुष्परिणाम कुछ ही दिन पहले प्रमोद महाजन के दुखद निधन में देखा जा चुका है जिसमें एक भाई दूसरे की जान का दुश्मन बन चुका है। यह एक दूसरा उदाहरण सामने आ रहा है जब एक भाई एक ओर जा रहा है और दूसरा दूसरी ओर जा रहा है तथा इसके मूल में भी राजनीति में विचार को पीछे रख कर पैसे की राजनीति ही ज़िम्मेवार है। हिन्दी के टीवी सीरियलों की तरह ये मामला लम्बा खिंचने से तो अच्छा है कि सब कुछ सामने आ ही जाये- फोड़ा फूटा पीर हिरानी।
वीरेन्द्र जैन
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