कितने मज़बूर थे अटल बिहारी वाजपेयी
वीरेन्द्र जैन
अटल बिहारी वाजपेयी के 86वें जन्म दिन पर हुये ताज़ा खुलासे से पता चलता है कि यदि गोविन्दाचार्य ने उन्हें भाजपा का मुखौटा बताया था तो वह अनजाने में उनके मुँह से निकल गया कितना बड़ा सच था। भाजपा के प्रधान मंत्री पद प्रत्याशी रहे पूर्व उप प्रधान मंत्री और पूर्व विपक्षी नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी ने अटलजी के जन्म दिन पर एक अखबार में लिखे लेख में उस आरोप को स्वीकार किया है जिसे वे अब तक झुठलाते रहे थे और उसका ज़िक्र उन्होंने अपनी उस पुस्तक में भी नहीं किया था जिसे वे आत्मकथा बताते हैं। आडवाणी जी ने उक्त लेख में लिखा है कि उनके अटल बिहारी वाजपेयी से अयोध्या आन्दोलन और गुजरात में अल्पसंख्यकों के नर संहार के बाद नरेन्द्र मोदी को मुख्य मंत्री पद से हटाने के मामले में मतभेद थे। उनके अनुसार अटलजी सभी मामलों पर उनसे विचार विमर्श करते थे और अगर किसी बात पर आडवाणी जी सहमत नहीं होते थे तो वे उस मामले को आगे नहीं बढाते थे। इसका परोक्ष अर्थ यही होता है कि भले ही प्रधान मंत्री अटलजी बताये जाते हों किंतु असली सत्ता आडवाणीजी के ही हाथों में केन्द्रित थी, और जैसा वे चाहते थे वैसा ही होता था। इस बात की पुष्टि जसवंत सिंह पहले ही अपनी पुस्तक के बाद हुयी चर्चा में कर चुके हैं कि अटलजी गुजरात में अलपसंख्यकों के नर संहार के बाद त्याग पत्र देने जा रहे थे तो उन्होंने ही उनका हाथ पकड़ लिया था। स्मरणीय है कि अटलजी के राज धर्म पालन करने वाले बयान से हुयी मोदी की अंतर्राष्ट्रीय छीछालेदर के तुरंत बाद आडवाणीजी ने मोदी को अब तक का सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री घोषित किया था।
स्मरणीय यह भी है कि जब विहिप के दारा सिंह ने आस्ट्रेलियाई पादरी फादर स्टेंस जो कुष्ट रोगियों की सेवा करने के लिये भारत में थे, को उनके दो मासूम बच्चों के साथ ज़िन्दा ज़ला दिया था तब अटल बिहारी वाजपेयी ने इस घटना से व्यथित होकर राजघाट पर एक दिन का अनशन किया था। इस अनशन में उनके साथ भाजपा में बड़े कद का केवल एक ही व्यक्ति साथ में था और वह श्री मदन लाल खुराना थे। इस साथ के बाद आडवाणी जी ने खुराना जी को राजनीति की मुख्य धारा से ही हटाने का काम किया जिसमें वे सफल ही रहे। बाद में हत्या के आरोपी दारा सिंह से संघ परिवार ने दूरी दिखाने की रणनीति बनायी थी किंतु पिछले रास्ते से उसे मदद कराते रहे थे। एक स्टिन्ग आपरेशन में जाम उठा कर नोटों की गिड्डियाँ स्वीकारते हुये जो व्यक्ति यह कहता नज़र आया था कि पैसा खुदा तो नहीं पर खुदा से कम भी नहीं, वह केन्द्र सरकार में मंत्री था और उसने उक्त हत्यारे को बाद वैधानिक और वित्तीय सहायता उपलब्ध करायी थी। उसका यह काम भाजपा की अटल विरोधी लाबी को किस तरह से पसन्द आया था उसका प्रमाण इस बात से लग जाता है कि पहले उसे राज्य सभा के लिये टिकिट दिया गया और बाद में लोकसभा के लिये टिकिट देकर चुनवा दिया गया।
बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के बारे में जो वीडिओ देखा गया है उसमें 5 दिसम्बर 1992 को अटलजी यह कहते दिखाये गये हैं कि मैं तो अयोध्या कार सेवा के लिये चलना चाहता था किंतु मुझे दिल्ली जाने के लिये कहा गया है। जाहिर है कि भाजपा के सबसे वरिष्ठ और लोकप्रिय नेता को उसकी इच्छा के विरुद्ध काम के लिये विवश करने वाली ताकतें कार्य कर रही थीं और वे एक अनुशासित सिपाही की तरह उसका आदेश मानने के लिये मज़बूर थे। बहुत सम्भव था कि उन्हें यह आशंका रही हो कि अटलजी बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के दौरान विचलित होकर कहीं योजना में व्यवधान न पैदा कर दें। इससे साफ होता है उनके के सबसे लोकप्रिय नेता बाजपेयी भाजपा के लिये केवल वह दिखावटी मुखौटा थे जो देश की जनता को धोखा देने के लिये लगाया जा रहा था।
वाजपेयी शासन काल में सत्ता की असली चाबी आडवाणीजी के हाथ में ही होने के सच का पता उस घटना से भी लगता है जब अमेरिका के एक अखबार में यह खबर प्रकाशित करा दी गयी थी कि अटलजी अस्वस्थ हैं, उन्हें कुछ याद नहीं रहता और वे शाम से ही जाम लेकर बैठ जाते हैं। इस खबर के प्रकाशन और उसकी खबर के स्थानीय अखबारों में छपने के बाद बनाये गये माहौल में आडवाणीजी को तब उपप्रधान मंत्री पद की शपथ दिलवा दी गयी थी जब अगले ही दिन मंत्रिमंडल का विस्तार होने वाला था। इस शपथ ग्रहण के बाद जब पत्रकारों ने इस औचक पद ग्रहण के बाद उनके द्वारा किये जाने वाले कामों के बारे में पूछा था तब आडवाणी जी ने कहा था कि प्रधानमंत्री के सारे काम जो वे अभी तक बिना पद के करते आ रहे थे। बाद में जब अटलजी अमेरिका यात्रा से नई जानकारियाँ पाकर लौटे थे तब तत्कालीन अध्यक्ष वैंकैय्या नाइडू ने यह वयान देकर सबको चौंका दिया था कि आगामी चुनाव अटलजी और आडवाणीजी के सन्युक्त नेतृत्व में लड़ा जायेगा। इस बयान से नाराज अटलजी ने लौटते ही कहा था कि आगामी चुनाव अकेले आडवाणीजी के ही नेतृत्व में लड़ा जायेगा। बाद में वैंक्य्या ने उनसे क्षमा मांगी थी।
आडवाणी जी भी जो अटलजी से कुल दो वर्ष छोटे हैं अपनी उम्र के अंतिम चरण में हैं और अनचाहे ही अपनी महात्वाकांक्षाएं त्यागने को विवश कर दिये गये हैं। यदि उन्हें अपने कार्यों पर कुछ आत्मग्लानि महसूस हो रही हो तो नई और सच्ची आत्मकथा लिखना चाहिये। ये देश के हित में होगी।
वीरेन्द्र जैन
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