गत दिनों मध्य प्रदेश के दतिया नगर में रहने वाले श्री राम स्वरूप गोस्वामी जी का निधन हो गया । वे स्कूल अध्यापक थे किंतु जिस समय ट्यूटोरियल क्लासेस का चलन प्रार्म्भ भी नहीं हुआ था तब वे पी एम टी, पी ई टी आदि कम्पटीटिव एक्जामिनेशन की पात्रता कक्षाओं के क्षात्रों को पधाते रहे हैं और उनके द्वारा पढाये गये सैकड़ों क्षात्र आज डाक्टर इंजीनियर और दूसरे पदों पर पदस्थ हैं। वे कभी किसी से ट्यूशन के पैसे नहीं मांगते थे अपितु जिसकी जितनी क्षमता होती थी वह उनकी दरी य तकिये के नीचे रख जाता था। उनमें से अनेक निर्धन क्षात्र तो कुछ भी नहीं दे पाते थे पर उनकी कक्षाओं में वे समान अधिकार से बैठते थे। वे विज्ञान और गणित को क्षात्रों की अपनी मातृ या कहना चाहिये लोकल भाषा में ऐसे समझा देते थे कि वह उसके दिमाग में घर कर जाता था। ज्ञान में भाषा के महत्व पर उनकी शिक्षण पद्धति का अध्ययन बहुत उपयोगी हो सकता है। मैंने भी उनकी कक्षाओं में बैठ कर विज्ञान पढा है। दतिया नगर में और दतिया के बाहर जहाँ जहाँ उनके पढाये क्षात्र गये हैं उनका बेहद सम्मान था।
उनके निधन पर एक स्थानीय समाचार पत्र दतिया प्रकाश में डा. नीरज जैन ने एक श्रद्धांजलि आलेख लिखा है जिसे यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं
वीरेन्द्र जैन्
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आचार्य प्रवर पं रामस्वरूप गोस्वामी जी के देहांत पर
मास्टर से संतत्व तक का सफर
प्रत्येक शख्स स्तब्ध था, इसलिये नहीं कि आचार्य गोस्वामी जी की उम्र अभी महाप्रयाण के लायक नहीं थी और न इसलिये कि उनका जाना कोई बड़ी प्राकृतिक या अप्रत्याशित दुर्घटना थी, वरन् सब उनके महाप्रयाण की खबर सुन कर ऐसे ही स्तब्ध थे जैसे सुधा पान करने वाले किसी देवता की मृत्युकी खबर सुन कर होते। बुंदेलखण्ड की सांस्कृतिक राजधानी दतिया नगर मेंदेश की आजादी के बाद जिस मास्टर ने भूखे, नंगे, गरीब व दलित बच्चोंको अपनी निहायत आकर्षक किंतु चुटीली और देहाती शैली से सभ्रान्तअंग्रेज बना दिया, बुंदेली मुहावरों से गणित पढ़ा दी, और देशीगालियों से विज्ञान सिखा दिया। उस असाधारण प्रतिभा के शिक्षक कायक-ब-यक चले जाना सबको चौंका रहा था। ग्वालियर में एक दूधवाले के बच्चों को फ्री में टयूशन पढ़ाकर अपनेदूध-पीने का शौक पूरा करने वाले आचार्य गोस्वामी अपनी जिंदगी को जन्मदेने वाले अपने निर्माता स्वयं थे। नगर की उनके जमाने की सम्मानित पदों पर पहुंचने वाली तीन चौथाईआबादी उनसे ज्ञान लेकर बढ़ी हुई, लेकिन मास्टर की लौकिक देह में ईश्वरत्वका आलौकिक दिया कब जल उठा किसी को पता नहीं। पांच घंटे की नौकरी,पांच घंटे की टयूशन और रात भर बारह घंटे की साधना। उनकी साधनाजब सिद्ध हुई तो उसका प्रकाश पूरे देश में फैल उठा, क्या छोटे? क्याबढ़े? भक्ति की अविरल गंगा में पावन दतिया के भक्ति सरोवर में पीताम्बरापीठ के बाद पंचम कवि की टोरिया एक तीर्थ बन गई। उनके निवास की गली मेंउनके घर के सामने से निकलने वाला हर राहगीर उसी तरह प्रणाम की मुद्रा मेंनिकलता है जैसे वह किसी सिद्ध स्थान की यात्रा पर हो। जब सारी दुनियां ईसा मसीह के जन्मदिन के जश्न में डूबी हुई थी। उस समयएक संत महाप्रयाण कर रहा था वह संत जिसने आत्म कल्याण को अपनाजीवन-धर्म नहीं बनाया बल्कि अपना पूरा जीवन पर कल्याण में लगा दिया। समाजके कल्याण की कीमत पर उन्होंने कभी अपने बच्चों तक के लिये कुछ नहींचाहा। एक गृहस्थ अपने भीतर देवता को छुपाये एक साथ इश्क हकीकी और इश्कमजाजी दोनों को कैसे जी लेता है यह बात केवल हमें गोस्वामी जी के जीवनसे पता चलती है। हम सब इसलिये स्तब्ध हैं क्योंकि हमें मनुष्य की मृत्यु कीखबर नहीं मिली देवता की मौत की खबर मिली है और पं रामस्वरूप गोस्वामीजी देवता थे-कुछ यूं-
''आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है मुझमें''और फिर मानना पड़ता है कि खुदा है मुझमें।''
-डॉ नीरज जैन
ऐसे शिक्षक को मेरी श्रद्धाजंली। उनके बारे में पढ़ने से भी अधिक खुशी मुझे यह जाकर हुई कि लोगों ने उनके परिश्रम,लगन व त्याग को पहचाना और उन्हें इतना सम्मान दिया।
जवाब देंहटाएंऐसा लेख पढ़वाने के लिए आभार। काश समाचार पत्र आदि ऐसे लोगों की चर्चा अधिक करते।
घुघूती बासूती