क्या उत्तर प्रदेश
में जनता जीतने वाली है
वीरेन्द्र जैन
मंचों पर कविता पढने वालों में एक प्रवृत्ति घर कर जाती है कि वे अपनी
प्रस्तुति को सफल बनाने के लिए पहले अपनी आजमायी हुयी कविता को ही सुनाते हैं तथा
उसके ‘चल’ जाने के बाद नये प्रयोग को प्रस्तुत करते हैं। मैं भी कभी मंचों पर जाया
करता था और उस दौर में वह एक कविता जरूर सुनाता था जिसे कई मंचों पर सफलता मिल
चुकी थी। कविता की पंक्तियां थीं-
ये भी जीते, वे भी
जीते
वोट डालते सालों
बीते
हर चुनाव में जीते
नेता जनता हारी है
जनता जीते, उस चुनाव
की मांग हमारी है
इस कविता पर अनजाने
में जयप्रकाश आन्दोलन के दौरान लोकप्रिय हुयी दिनकर जी की कविता ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ का प्रभाव
भी रहा होगा क्योंकि यह उसी दौरान लिखी गई थी। उत्तर प्रदेश विधानसभा के आगामी
चुनावों की एक वर्ष पूर्व ही शुरू हो गयी गहमा-गहमी से इस प्रसंग की याद हो आई
क्योंकि मुझे लगता है कि चुनावी शतरंज खेल रहे सभी चार प्रमुख दल अपनी पराजय टालने
के लिए जी जान से जुट गये हैं व कोई भी जीत के प्रति आश्वस्त नहीं है।
इस समय वहाँ समाजवादी पार्टी की सरकार है, जो बहुजन समाज पार्टी को हरा कर
इसलिए सत्ता में आ गयी थी क्योंकि उन्होंने नये प्रबन्धनों के द्वारा बहुजन समाज
पार्टी से अधिक मत जुगाड़ लिये थे जबकि एनएचआरएम घोटाले में व्यापम की तरह अनेक
सन्दिग्ध मौतों की बदनामी के बाबजूद बहुजन समाज पार्टी को पिछले चुनाव में मिले मतों
की संख्या में कमी नहीं आयी थी। इस जीत की रणनीति तैयार करने के लिए मुलायम सिंह
ने अपने अभिन्न मित्र अमर सिंह को पार्टी से बाहर बैठा दिया था और उनके कारण कभी बाहर
चले गये आजम खान को भावप्रवण अभिनय के साथ गले लगा लिया था। ऐसा माना गया कि उनके
आने से मुसलमानों के छिटके वोटों पर प्रभाव पड़ा था जिनके समाजवादी पार्टी के
परम्परागत वोटों के साथ जुड़ जाने पर यह जीत मिल गई थी। पूरे चुनाव के दौरान
उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया था कि जीतने के बाद उनकी पार्टी से मुख्यमंत्री कौन
बनेगा पर जीतते ही उन्होंने अपने बड़े बेटे अखिलेश को मुख्यमंत्री घोषित कर दिया था
जिसे थोड़ी मान मनौवल के बाद उनके भाई शिवपाल और असंतुष्ट आजम खान को स्वीकार करना
पड़ा था। कहा जाता है कि पिछले साल तक उत्तर प्रदेश में चार-पाँच लोग मुख्यमंत्री
की अनौपचारिक भूमिका निभाते रहे थे। अखिलेश के शपथ ग्रहण समारोह में ही उनके दबंग समर्थकों ने जिस अनुशासनहीनता का परिचय
दिया था, वह भविष्य का संकेतक था और बाद में भी लगातार जारी रहा। समाजवादी दबंगों के
आतंक की प्रतिक्रिया का प्रभाव 2014 के लोकसभा चुनावों में उ.प्र. से भाजपा की जीत
में भी दिखा था। कुल मिला कर सच यह है कि समाजवादी पार्टी की सत्ता संस्कृति और
सत्ता विरोधी रुझान के कारण जो वातावरण बना है उससे पैदा हुयी सम्भावित हार टालने
के लिए वे निरंतर प्रयास कर रहे हैं। इसी प्रयास में निकाले गये जोड़तोड़ कुशल अमर
सिंह और कुर्मियों के नेता बेनीप्रसाद वर्मा को दल में वापिस ले लेना भी सम्मलित
है। इससे पहले वे बहुजन समाज पार्टी के शासन काल के दागी मंत्री बाबूलाल कुशवाहा
के परिवार को पार्टी में सम्मालित कर चुके थे व बाद में एक फूहड़ सी कोशिश तो
उन्होंने मुख्तार अंसारी को दल में लेने की की थी किंतु दल में ही विचार भिन्नता के
कारण वे उसमें सफल नहीं हो सके। मथुरा काण्ड ने बहुत सारे लोगों की आँखें खोल दी
हैं। यादव सिंह के यहाँ छापेमारी में जो दस्तावेज मिले हैं, उनके आधार पर मुलायम
कुनबा कभी भी संकट में आ सकता है जिससे केन्द्र में सत्तारूढ भाजपा ही राहत दे
सकती है। अमर सिंह को दल में वापिस ले लेने के बाद आज़म खाँ फिलहाल चुप्पी ओढे हुए
हैं जो कभी भी टूट सकती है। हालत यह है कि वे भाजपा के साथ खुले में गठबन्धन नहीं
कर सकते पर अपमानित आज़म खाँ की औचक प्रतिक्रिया के बाद अमित शाह व अमर सिंह के बीच
किसी गुप्त समझौते की रणनीति भी बन सकती है।
भाजपा ने लोकसभा चुनावों के दौरान समय से ध्रुवीकरण करके व कुर्मी वोटों वाले
अपना दल के साथ समझौता करके जो जीत हासिल की उसके अनुसार वे 213 विधान सभा क्षेत्र
में आगे थे। इसी आधार पर वे उत्तर प्रदेश में जीत की उम्मीद करने लगे थे, पर कई
उपचुनावों में मिली पराजय के बाद उन्हें अपनी जमीन खिसकती नजर आ रही है। केन्द्र
में काँग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए शासन के नकारात्मक प्रभाव से लाभान्वित
नरेन्द्र मोदी की चमक फीकी पड़ चुकी है। घर वापिसी से लेकर कैराना तक के उनके
हथकण्डे उजागर हो चुके हैं, हरियाणा में जाटों के उपद्रव के दौरान भाजपा शासन की जो
कमजोरी प्रकट हुयी उसने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों को भयभीत कर दिया है। कुर्मी
जाति के मतों पर प्रभाव रखने वाला अपना दल दो हिस्सों में विभाजित हो चुका है और
उसके संगठन ने एनडीए से नाता तोड़ लिया है। बेनीप्रसाद वर्मा के समाजवादी पार्टी
में जाने के बाद तो प्रभाव पड़ेगा ही दूसरी ओर नितीश कुमार के सक्रिय होने से भी इस
जति के मतों का रुझान बदल सकता है। उनकी नीति बहुजन समाज पार्टी की बढत को रोकना है
और उसके बिकाऊ नेतृत्व से सौदा करके उसे कमजोर होते दिखाना है जिससे खुद को विकल्प
के रूप में प्रस्तुत कर सकें। हाल ही में बहुजन समाज पार्टी से जो नेता टूटे हैं
वे भाजपा उन्मुख नजर आते हैं। उनका हर कदम और हर बयान केवल अवसरवादी राजनीति का
संकेत देता है। अवसरवादियों को संतुष्ट करने की क्षमता इन दिनो भाजपा के पास ही
है। बड़ा स्टाकिस्ट दिखने के लिए बिकने का इरादा करने वाले पुराने माल को सबसे अच्छे
दामों में खरीदने की उनकी दुकान खुली हुयी है। उत्तर प्रदेश में वरिष्ठ लोगों को
सेवा निवृत्त की श्रेणी में डाल दिया गया है और युवाओं को मौका दिया जा रहा है। किन्तु
प्रदेश उपाध्यक्ष ने अपने अति उत्साह में जो नुकसान कर दिया है उसने दलितों को
मायावती के पक्ष में संघर्ष के लिए संगठित कर दिया है व भाजपा बैकफुट पर पहुँच गयी
है। इस टकराव को दादरी की घटना के बाद पूरे प्रदेश का आतंकित मुस्लिम मतदाता बहुत
गहराई से देख रहा है। साध्वी भेषधारी प्राची और आदित्यनाथ से लेकर साक्षी महाराज,
निरंजन ज्योति उमा भारती तक नवशिक्षित समाज के लिए आकर्षण के केन्द्र नहीं हैं। मुख्यमंत्री
बनने के सपने देखने वाले योगी आदित्यनाथ तो किसी अनुशासन में बँधने वाले लोगों में
नहीं हैं क्योंकि पूर्वांचल में भाजपा उनके कारण है वे भाजपा के कारण नहीं हैं। हर
चुनाव के अवसर पर वे भाजपा को धमकी देते हैं और हर बार भाजपा नेतृत्व को झुकना
पड़ता है।
काँग्रेस जैसी पुरानी पार्टी, समाजवादी पार्टी और भाजपा के सत्ताविरोधी
रुझानों पर उम्मीद लगा कर नये प्रयोगों से उम्मीद बाँधने में लगी है। वह प्रशांत
किशोर जैसे आंकड़ा प्रबन्धकों को जोड़ कर हास्यास्पद प्रयोग कर रही है। राहुल गाँधी
की छवि को खराब करने के लिए भाजपा ने अपने सोशल मीडिया वाले हजारों लोगों को लगा
रखा है जिसका मुकाबला करने की जगह प्रियंका गाँधी को लाने की खबरें हैं जिनका प्रचार
अभियान भीड़ तो बढा सकता है पर वोटों का रुझान नहीं बदल सकता है। काँग्रेस ने ब्राम्हणों
को एक संगठित जाति के वोट बैंक के रूप में प्रस्तुत करने का सपना देखा है जिसके
सहारे अगर वह जीतने का भ्रम पैदा करने में सफल हो पाती है तो उसे मुस्लिम वोट मिल
सकते हैं किंतु यह दूर की कौड़ी है क्योंकि काँग्रेस वर्तमान में अधिक से अधिक किसी
सम्मानजनक गठबन्धन तक पहुँचने का सपना ही देख सकती है। यदि बसपा इतनी कमजोर हो
जाती है कि वह काँग्रेस से प्रत्यक्ष या परोक्ष समझौता कर ले तो दोनों को फायदा हो
सकता है बशर्ते वे टिकिट देने के सबसे कम विवाद वाले किसी फार्मूले पर पहुँच सकें।
बहुजन समाज पार्टी के पास पिछले विधानसभा चुनावों तक अपना ऐसा वोट बैंक रहा है
जो आँख कान बन्द करके मायावती के नाम पर वोट देता रहा है। उनके दल को आरक्षण का
लाभ पाये हुए कर्मचारी और अधिकारियों का एक वर्ग भी आर्थिक व प्रशासनिक सहायता
देता रहा है किंतु टिकिटों के बिक्रय के समाचारों और उसके द्वारा दलित विरोधी
लोगों को सत्ता के द्वार तक पहुँचाने की घटनाओं ने मायावती की छवि को नुकसान
पहुँचाया है। जातियों के विलीनीकरण के आन्दोलन को छोड़ कर उन्होंने जो दुकान खोल ली
थी उसका नुकसान सामने आ गया है। अब बहुजन समाज पार्टी के पास बहुजन नहीं अपितु
मायावती की अपनी जाति के लोग ही बचे रह गये हैं क्योंकि दूसरी जाति के लोगों ने दल
में लोकतंत्र न होने के नाम पर अपनी अपनी जाति के अलग अलग दल बना लिये हैं व जाति
गौरव का नारा देकर अपनी जातियों के वोटों की अलग दुकानें खोल ली हैं। अपने समर्थन
की दम पर बहुजन समाज पार्टी ने कभी समाजवादी तो कभी भाजपा के साथ सरकार बनायी और
हर बार इस निष्कर्ष पर पहुँची कि सारे दल उनके समर्थन का लाभ लेने के लिए ही
तालमेल करते हैं व बाद में उनकी जातीय अस्मिता उभर आती है। अब वे गठबन्धन में
भरोसा नहीं करते जिसका परिणाम यह हुआ कि लोकसभा चुनावों में उनका कोई उम्मीदवार
नहीं जीत सका भले ही उन्हें चार प्रतिशत मत मिले हों। मुख्तार अंसारी और ओवैसी
मुस्लिम मतों को भटकाने के लिए अपने अलग उम्मीदवार उतार सकते हैं जो किसी को भी
जिताने हराने का काम कर सकते हैं। ये समय और परिस्तिथियां ही बतायेंगीं कि वे किस
पर कैसा प्रभाव डालते हैं।
घटनाएं और षड़यंत्र अभी और घटने की सम्भावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता।
टीवी लगातार राजनीतिक प्रशिक्षण दे रहा है इसलिए चुनाव परिणाम ही बतायेंगे कि कौन
मतदाता कितना जातियों से ऊपर उठ चुका है
और कितने लोगों को साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के षड़यंत्र समझ में आने लगे हैं, पर
इतना तय है कि पुराने जातीय समीकरणों में परिवर्तन अवश्य ही परिलक्षित होगा। जब
दलों की जीत की भविष्यवाणी करना मुश्किल हो जाये तो समझ लेना चाहिए की जनता की जीत
का समय पास आ रहा है।
वीरेन्द्र जैन
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