शनिवार, जनवरी 31, 2015

नोटा के प्रयोग से वंचित मतदाता


नोटा के प्रयोग से वंचित मतदाता  

वीरेन्द्र जैन
       भोपाल के नगर निगम चुनाव में मेयर और पार्षद के लिए एक साथ मतदान हो रहा था। जब में अपने वार्ड के पार्षद को चुनने के लिए मतदान करने मतदान केन्द्र पहुँचा तो बताया गया कि पार्षद के लिए मतदान नहीं हो रहा है क्योंकि इस वार्ड से केवल दो ही प्रत्याशियों ने फार्म भरा था पर आखिरी समय में एक प्रत्याशी ने अपना नाम वापिस ले लिया था इसलिए इस वार्ड से इकलौते प्रत्याशी को निर्विरोध निर्वाचित घोषित कर दिया गया। जब मैंने पीठाधीन अधिकारी से अपने नोटा अधिकार के बारे में पूछा तो वह ऐसे हँस दिया जैसे कि मैंने कोई मजाक किया हो। जब मैंने उनसे कहा कि मैं यह अनुरोध गम्भीरता से कर रहा हूं तो उन्होंने इस सम्बन्ध में नियमों से अनभिज्ञता प्रकट की।
       पिछले दिनों मध्य प्रदेश के नगरीय निकाय चुनावों में समुचित संख्या में पार्षदों के चुनाव निर्विरोध हुये हैं। जब मैंने वर्षों से नगरीय निकायों के चुनाव लड़ने की तैयारी करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा नाम वापिस ले लेने की खबरों के बाद उनके निकटतम लोगों से बात की थी तो कहानी ही दूसरी समझ में आयी थी। उन्होंने बताया कि नगरीय निकाय चुनावों में भाग लेने वाले अस्सी प्रतिशत से अधिक प्रत्याशी केवल कमाई करने और भविष्य में बड़े चुनाव की भूमि तैयार करने के लिए ही सक्रिय होते हैं। इस कमाई की प्रत्याशा में लागत भी लगानी पड़ती है और न जीत पाने की दशा में वह लागत डूब जाती है या कहें कि व्यापारिक घाटा हो जाता है। इस घाटे का लाभ पैसे लेकर वोट देने वाले मतदाताओं को मिलता है। चुना गया व्यक्ति न केवल अपनी लागत ही वसूलता है अपितु अगले चुनाव में बड़ी लागत लगाने और सम्भावित घाटे की पूर्ति के अनुसार कमाई करता है। यही कारण है कि लगभग सभी स्थानों के नगर निकाय अपने तयशुदा कार्यों की जगह छुटभैये नेताओं के व्यापार केन्द्रों में बदल चुके हैं और कमजोर वर्गों की सफाई, स्वास्थ व शिक्षा सुविधाओं को इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है। इसी कारण से प्रधानमंत्री की सफाई की अपील खोखली ही नजर आने वाली है। इस बार अनेक स्थानों पर विभिन्न दलों के प्रत्याशियों ने ठेकेदारों की तरह पूल बना लिया था और न केवल दोनों ही लागत लगाने से बच गये अपितु प्रत्याशित कमाई का हिस्सा दूसरे कमजोर प्रत्याशी को देकर उससे नाम वापिस करवा दिया गया और निर्विरोध निर्वाचित हो गये। पंचायतों के चुनावों में भी दर्ज़नों स्थानों पर मन्दिर बनवाने के नाम पर एक मुश्त राशि देकर निर्विरोध निर्वाचन के समाचार छाये रहे हैं। स्मरणीय है कि लोकसभा क्षेत्र भिंड-दतिया और नोएडा में भी काँग्रेस प्रत्याशियों का ठीक चुनाव के मध्य हृदय परिवर्तित होते देखा गया था और ऐसे परिवर्तनों ने एक ही पार्टी को पूर्ण बहुमत दिलाने में बहुत योगदान दिया था।
       यद्यपि मैं प्रयास के बाद भी स्वयं नियम तो नहीं तलाश सका किंतु राज्य निर्वाचन आयोग के एक अधिकारी ने फोन पर बताया कि नोटा का अधिकार केवल सविरोध निर्वाचन की स्थिति में ही है और इकलौता प्रत्याशी होने की दशा में निर्विरोध निर्वाचित घोषित किया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि नियमानुसार अगर नोटा के वोट सबसे अधिक भी हों तो भी विजयी दूसरे नम्बर पर वोट लाने वाले को ही घोषित किया जायेगा।   
       ऐसा नियम मतदाताओं को नोटा का अधिकार देने के उद्देश्य को नुकसान पहुँचा रहा है। जिस क्षेत्र से कोई प्रतिनिधि निर्विरोध निर्वाचित घोषित किया जाता है तो उसका मतलब यह प्रकट होता है कि उस व्यक्ति या उस पार्टी का कोई विरोध वहाँ नहीं है जबकि यथार्थ में स्थिति यह होती है कि यह चुनावी प्रबन्धन का कमाल होता है। देखा गया है कि ऐसे निर्विरोध निर्वाचन हमेशा ही सत्तारूढ राजनीतिक दल के पक्ष में ही होते हैं। भय या लालच के सहारे अगर किसी को सत्तारूढ दल के प्रत्याशी के खिलाफ उम्मीदवार बनने से रोक दिया जाता है तो नोटा के वोट उस ज्यादती के संकेत दे सकते हैं। नोटा के वोट क्षेत्र में लोकतंत्र के प्रति सचेत और सक्रिय किंतु विकल्पहीनता भोग रहे मतदाताओं का पता भी देते हैं। गत लोकसभा चुनाव में पहली बार नोटा का विकल्प दिया गया था और इस के पक्ष में साठ लाख से अधिक वोट पड़े थे। छह राष्ट्रीय दल व 64 राज्यस्तरीय दलों के बीच इसका क्रम अठारहवां था।          
       मैंने भी नोटा का अधिकार पाने के लिए अपने स्तर पर योगदान किया था किंतु आज नोटा का अधिकार होते हुए भी मुझे अपने मतको व्यक्त करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया है।
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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बुधवार, जनवरी 28, 2015

रद्धांजलि श्री आर के लक्षमण न उनकी रीढ कभी झुकी और न ही उनके आम आदमी की



श्रद्धांजलि श्री आर के लक्षमण
न उनकी रीढ कभी झुकी और न ही उनके आम आदमी की

वीरेन्द्र जैन
       कार्टून कला सामाजिक सरोकारों से सम्बन्ध रखती है और श्री आर के लक्षमण वैसे ही उसके भीष्म पितामह थे जिस तरह से कि हिन्दी व्यंग्य के भीष्म पितामह श्री हरि शंकर परसाई थे। श्री लक्षमण के कार्टून में हमेशा टुकुर टुकुर देखता एक आम आदमी होता था जो केवल दृष्टा था और जो कभी नहीं बोला। यह आम आदमी और उसकी दशा लगातार 60 सालों तक वैसी ही बनी रही वह हतप्रभ सा सब कुछ होते देखता रहा क्योंकि वह अकेला रहा। आम आदमी को अकेले अकेले रखा गया है। उसके पास परम्परा की धोती है जिसकी सीमा इतनी है कि टखने उघड़े रहते हैं, पर उसके पास देह का ऊपरी भाग ढकने के लिए चौखाने वाली वंडी या कोट है जो बन्द गले का है। इस आम आदमी के पास गाँधीजी जैसा धातु के गोल फ्रेम का चश्मा है क्योंकि वह देखना चाहता है, साफ साफ देखना चाहता है। इस आम आदमी के पास एक छाता होता था। छाता धूप और बरसात से रक्षा के लिए होता है बशर्ते वह खुला हुआ हो, पर इस आम आदमी का यह छाता कभी नहीं खुला। उसने इसे न तो सहारे के लिए कभी छड़ी बनाया और न ही प्रहार के लिए हथियार की तरह प्रयुक्त किया। इस आम आदमी की रीढ हमेशा सीधी रही क्योंकि यह आम आदमी कभी झुका नहीं।
       श्री लक्ष्मण भी इसी आम आदमी की तरह रहे न तो उनकी रीढ कभी झुकी और न ही वे कभी झुके। जिस जे जे स्कूल आफ आर्ट ने यह कह कर उन्हें एडमीशन देने से मना कर दिया था कि आप में टेलेंट की कमी है उसी में दस साल बाद वे बतौर चीफ गैस्ट बुलाये गये थे। उन्होंने गाँधी नेहरूजी से लेकर चर्चिल, ख्रुश्चेव और मोदी तक हर सत्ताधीश के कार्टून बनाये। उन्हीं के शब्दों में कहें तो उन्हें अफसोस इस बात का रहा कि ज्योति बसु उनके लिए बहुत मनहूस रहे जिन्होंने उन्हें कभी कार्टून बनाने का अवसर नहीं दिया। 1997 में वे एक प्रदर्शनी के उद्घाटन के लिए भोपाल आये जिसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को मुख्य अतिथि होना था। जब उन्होंने उन्हें नाश्ते पर आमंत्रित किया तो उनका रूखा सा जबाब था कि मैं नाश्ता कर चुका हूं, और फोन रख दिया। इसके बाद कला और पत्रकारिता जगत का विशेष सम्मान करने वाले मुख्यमंत्री ने स्वयं ही उनके होटल पहुँच कर उनसे भेंट की और अचानक ही हाईकमान का बुलावा आ जाने के कारण शाम के कार्यक्रम में न आ पाने के लिए क्षमा मांगी। भोपाल के लोग तब लक्षमण और उनके कार्टून की ताकत से अभिभूत हुये।
       सूक्ष्म के सहारे विराट का परिचय कराने और उसमें अपनी दृष्टि को डाल देने की जो कला लक्षमण के पास थी वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। बहुत सारे दूसरे कार्टूनिस्टों के कार्टूनों में अगर कैप्शन न हों तो उनका व्यंग्य और कथन समझ में ही नहीं आता किंतु लक्षमण के कार्टूनों में रेखाओं और बिन्दुओं के सहारे न केवल व्यक्तियों की पहचान की जा सकती है अपितु उनकी प्रवृत्तियों को भी देखा जा सकता है। श्रीमती इन्दिरा गाँधी की पहचान उनकी लम्बी नाक से थी पर लक्षमन के कार्टूनों में वह और अधिक लम्बी हो जाती थी क्योंकि श्रीमती गाँधी अपनी नाक हमेशा ऊँची रखने के लिए मशहूर रही हैं। बाबरी मस्ज़िद ध्वंश के बाद वे कार्टूनों में श्री लाल कृष्ण अडवाणी के सिर पर एक शिरिस्त्राण नुमा मन्दिर जैसी आकृति बनाते रहे और बताते रहे कि वे ऐसे राजनेता हैं जिनके सिर पर मन्दिर सवार है। विसंगति की पहचान के लिए समाज हितैषी राजनीति की समझ और समाज विरोधी तत्वों की जैसी पहचान लक्ष्मण के कार्टूनों में मिलती है उसी के कारण वे देश के सबसे बड़े मीडिया संस्थानों में से एक के प्रमुख अंग्रेजी अखबार पर लगातार 60 सालों तक छाये रहे और पूरी दुनिया में रिकार्ड बनाया। उनके कार्टूनों को दूसरे अनेक अखबार और पत्रिकाएं पुनर्प्रकाशित करते रहे। देश के हजारों लोग केवल लक्षमन की कार्टून के लिए ही टाइम्स आफ इंडिया खरीदते थे और लाखों लोग इस अखबार में सबसे पहले उनके कार्टून को देखने से ही अखबार की शुरुआत करते थे। वे निर्भय थे और कार्टून बनाने में कोई लिहाज नहीं करते थे, पर एक कुशल सर्जन की तरह केवल रोगग्रस्त भाग पर ही नश्तर चलाते थे। कह सकते हैं कि उनका कार्टून मंत्र की तरह होता था जिसके सहारे समझ के खजाने को खोला जा सकता था। मुझे चुनावों के दौरान बनाया गया उनका एक कार्टून याद आता है जिसमें किसी गाँव में किसी पेड़ के सहारे चार छह ग्रामीण फटेहाल अवस्था में बैठे हैं और कोई सत्तारूढ रहा नेता हाथ में माइक लिए अपने द्वारा किये कामों को बखान रहा है तो ग्रामीण आपस में कहते हैं कि हमारे लिए इतना कुछ हो गया और हमें पता ही नहीं चला।
       भोपाल की कला परिषद में एक वर्कशाप के उद्घाटन के लिए जब वे आये थे तो उन्होंने लगभग फीता काटने जितने समय में उस वर्कशाप का ‘श्री गणेश’, गणेश जी का चित्र बना कर किया था जिसमें एक बहुत मोटा चूहा लड्डू खाता दिखाया था।‘यू विलीव इन गाड?’ के जबाब में यह लक्ष्मण ही कह सकते थे कि ‘गाड विलीब्स इन मी’। 
       जब 1994 में धर्मयुग में प्रकाशित मेरी व्यंग्य कविताओं का संकलन आया था तब मैंने उसके मुखपृष्ठ पर लक्ष्मन के आम आदमी का स्कैच छाप कर ही उसकी सार्थकता महसूस की थी। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।   
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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शनिवार, जनवरी 24, 2015

फिल्म समीक्षा ‘डौली की डोली’ विवाह संस्था पर सवाल उठाता मनोरंजन



फिल्म समीक्षा         
‘डौली की डोली’ विवाह संस्था पर सवाल उठाता मनोरंजन

वीरेन्द्र जैन
       यह संयोग है कि जिस दिन देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हरियाणा में ‘बेटी बचाओ बेटी पढाओ’ का आवाहन दुहराया उसी के दो दिन बाद फिल्म ‘डौली की डोली’ रिलीज हुयी जो अप्रत्यक्ष रूप से खरीदी हुयी बहुओं से जनित समस्या की ओर भी इंगित करती है। उल्लेखनीय है कि हरियाणा और पंजाब में लिंगानुपात की स्थिति बहुत खराब है और वहाँ उड़ीसा या बंगला देश से खरीद कर लायी हुयी लड़कियों से विवाह किया जाने लगा है। समाचार हैं कि कई बार अपराधी तत्व लुटेरी दुल्हनों के सहारे घरों के सारे माल की सफाई करवा देते हैं, और अपराधबोध से ग्रस्त परिवार पुलिस रिपोर्ट भी नहीं कर पाते। यद्यपि फिल्म में लिंगानुपात की जगह सुन्दर बहू को घर लाने की लोलुपता को कहानी का आधार बनाया गया है, किंतु दोनों ही मामलों में मूल समस्या तो यही रहती है। इस फिल्म में जो पहला शिकार बताया गया है वह भी हरियाणा का सम्पन्न किसान परिवार ही है, जिसके पास पैसा है पर बहू चाहिए।
विवाह संस्था समाज की बहुत महत्वपूर्ण संस्था है और लोकप्रिय फिल्मों, नाटकों या साहित्य की बहुत सारी समस्याएं इसी संस्था में आ गयी बुराइयों के आसपास घूमती रहती हैं। देखने में आ रहा है कि सर्वाधिक सात्विक चुटकले परिवार के परम्परागत ढाँचे के चरमराने पर ही बनाये जा रहे हैं। महानगरों में बहुत सारे युवा अविवाहित रहना पसन्द कर रहे हैं और लिव इन रिलेशन्स को कानूनी मान्यता के बाद सामाजिक मान्यता भी मिलती जा रही है। विषयगत फिल्म का मूल भाव भले ही विवाह संस्था से मनोरंजन निकालना हो किंतु विषय में प्रवेश करने पर उसकी समस्याओं से अछूता रहना तो सम्भव नहीं है। इसी फिल्म के एक व्यंगात्मक डायलाग में कहा गया है कि शादी चाहे परम्परागत होती या लुटेरी दुल्हिन के साथ हुयी हो पति तो दोनों ही स्थितियों में लुटता है, जेब तो उसी की खाली होती है।
       राजकुमार राव एक अच्छे अभिनेता है और इस फिल्म में उन्होंने अपनी बनी हुयी गम्भीर छवि से अलग हट कर हास्य भूमिका की है व उसमें भी सफल रहे हैं। इसी फिल्म में दादी की भूमिका निभा रही पात्र का बार बार और पुलिस पूछ्ताछ तक में भी एक ही वाक्य का बोलना कि ‘बेटी दी सब कुछ दिया’ भी अच्छा हास्य पैदा करता है। प्रसिद्ध व्यंगकार शरद जोशी भी किसी के कमजोर तकिया कलाम या गलत भाषा प्रयोग का दुहराव कर कर के हास्य पैदा करते थे। फिल्म में सोनम कपूर, पुलकित सम्राट और वरुण शर्मा भी हैं जिन्होंने भूमिका के अनुरूप ठीक अभिनय किया है।
       यह एक छोटी और कम बज़ट की फिल्म है जिसमें एक से अधिक आइटम सौंग हैं और अतिथि कलाकार की तरह प्रसिद्ध कलाकार भी आते हैं। सलमान खान के भाई और मलाइका अरोरा के पति अरबाज खान की इस हास्य प्रधान फिल्म का निर्देशन अभिषेक डोगरा ने किया है व तमाम मनोरंजक मसालों से सजाया है, पर इसका दुर्भाग्य यह है कि दर्शक अभी हाल ही में ‘पीके’ जैसी फिल्म देख चुके हैं जिसमें भरपूर मनोरंजन के साथ सामाजिक सन्देश भी था। ‘पीके’ का हैंग ओवर अभी बाकी है। यह फिल्म भारतीय दर्शकों की आदतों के विपरीत एक बहुत छोटी फिल्म है, जो सिनेमा हाल तक गये दर्शकों में एक अतृप्ति सी छोड़ती है।
       जब कलाएं कोई उपदेश या सन्देश न देकर अपने दर्शकों और पाठकों से सन्देश निकालने की स्वतंत्रता की नीति के अनुरूप रची जाती हैं तो वे कलाप्रेमियों को भी कला रचना में शामिल कर लेती हैं। कला प्रेमी अपनी समझ और सोच के अनुरूप सन्देश निकालता है। यह फिल्म जिस तरह के दर्शकों के पास तक अपनी पहुँच बना सकेगी वैसा ही सन्देश भी दे सकेगी।   
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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गुरुवार, जनवरी 22, 2015

किरण वेदी पर लगाया भाजपा का दाँव



किरण वेदी पर लगाया भाजपा का दाँव
वीरेन्द्र जैन

       भाजपा ने श्रीमती किरण वेदी को दिल्ली विधान सभा चुनावों में मुख्यमंत्री पद प्रत्याशी की तरह उतारने का फैसला किया है। इसके संकेत भाजपा द्वारा देर तक मुख्य मंत्री पद प्रत्याशी न घोषित करने व भाजपा की सदस्यता ग्रहण करने के बाद श्रीमती वेदी द्वारा भाजपा के पुराने कार्यकर्ताओं के साथ रंगरूटों जैसे व्यवहार से मिल गया था। यह भाजपा नेतृत्व का हताशा में उठाया गया कदम है। आम जनता को अपने दुहरे चरित्र से भ्रमित करने वाली भाजपा इस बार अपने ही शिखर के नेताओं और समर्थकों के साथ धोखा कर रही है। यही कारण है कि इस पार्टी को मोदी की पार्टी में बदल जाने के बाद आम कार्यकर्ताओं द्वारा पहली बार ऐसा खुला विद्रोह हुआ जिसे दबाने के लिए पुलिस और आरएएफ बुलानी पड़ी।  
       श्रीमती किरण वेदी और भाजपा को जानने वाले एक अनुभवी पत्रकार का मानना है कि यह एक खतरनाक फैसला है। उनका कहना है कि एक भले व्यक्तित्व की ख्याति रखने वाली किरण वेदी भाजपा जैसे दल के परम्परागत नेतृत्व की तरह काम करने की दृष्टि से अपात्र हैं। यह एक संयोग है कि वे देश की पहली आईपीएस अधिकारी हैं और उनकी पदस्थापना दिल्ली में रही है जहाँ समाचारों के लिए भूखे भेड़ चाल वाले मीडिया के लिए वे एक ज्वलंत विषय बन कर उभरीं थीं। इसी पहचान ने उन्हें परम्परागत पुलिस अधिकारी से अलग पहचान दी और इसे बनाये रखने की प्रेरणा भी दी। देश के तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी के किसी ड्राइवर द्वारा गलत स्थान पर खड़ी की गयी कार पर अनजाने में दण्ड लगा देना और उस दण्ड पर स्थिर रहना केवल इसलिए खबर बन गया था क्योंकि वे एक महिला आईपीएस थीं और उस समय तक महिला अधिकारियों तक को आमतौर पर कमजोर और ढुलमुल माना जाता था। इसी दौरान ऐसे ही ढेर सारे दृढ फैसले राज्यों के सैकड़ों आईएएस आईपीएस पुरुष अधिकारियों द्वारा लिये जाते रहे पर वे खबर नहीं बन सके, बनना भी नहीं चाहिए थे क्योंकि उन्होंने वही किया था जो उन्हें करना चाहिए था। किरण वेदी में एक बाल हठ या त्रिया हठ हमेशा रहा जिसे वे अपने पद और मीडिया की निगाह वाली स्थापना के कारण पूरा भी कर सकीं। पुलिस अधिकारियों का ऐसा ऐसा हठ बिहार, उत्तर प्रदेश या मध्यप्रदेश के दूर दराज के क्षेत्रों में नहीं चल पाता है। उन्होंने मीडिया द्वारा बनायी गयी छवि की रक्षा का पूरा प्रयास किया, भले ही दिल्ली में वकीलों से टकराने के बाद उन्हें हतोत्साहित होना पड़ा हो। एक सेलीब्रिटी बन जाने के बाद उनकी महात्वाकांक्षाओं ने उन्हें अन्ना आन्दोलन से जोड़ा भले ही पद पर रहते हुए उन्होंने नौकरशाही में चल रहे भ्रष्टाचार से टकराने का कोई उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया। इसी आन्दोलन से मिली लोकप्रियता ने उन्हें चुनावी राजनीति में आने को प्रेरित किया और सहज सफलता के लिए उस सत्तारूढ दल से जोड़ दिया जो उनके घोषित विचारों से मेल नहीं खाता है।
       देश विभाजन के बाद इस में आकर बसे शरणार्थियों के कारण दिल्ली शुरू से ही भाजपा का प्रभाव क्षेत्र रहा है और समय समय पर विभिन्न चुनावों में वे जीतते भी रहे हैं। यही कारण रहा कि यहाँ समुचित संख्या में स्थानीय नेतृत्व विकसित हो सका। नगर निगम पर लम्बे समय तक उनका अधिकार रहा है। जैसे जैसे राजनीति अपनी महात्वकांक्षाओं की पूर्ति का साधन बनती गयी वैसे वैसे भाजपा नेतृत्व में पद के लिए आपसी टकराहट भी होती रही है। मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा की टकराहट में श्रीमती सुषमा स्वराज को एक बार मुख्यमंत्री पद सौंपा जा चुका है और इसी टकराहट के चलते विधान सभा चुनाव हार भी चुके हैं। अभी भी हर्षवर्धन सतीश उपाध्याय और जगदीश मुखी के बीच प्रतियोगिता चल रही थी। अभी भी उदित राज, मनोज तिवारी, रमेश बिदूड़ी आदि बाहर के लोगों के सहारे लोकसभा चुनावों में नैय्या पार लगी थी। किरण वेदी का भाजपा सद्स्य बनते ही सीधा मुख्यमंत्री पद प्रत्याशी बनना दिल्ली के किसी भी पुराने नेतृत्व को हजम नहीं हो सकता। इसे स्वीकार कराने में केवल एक तर्क ही ने काम किया होगा कि उन्हें बताया गया कि अरविन्द केजरीवाल की पार्टी से जीतने का यह इकलौता सम्भव हथकण्डा है। यह सन्देश भी केवल दिल्ली के उच्च नेतृत्व के साथ ही साझा किया जा सकता था क्योंकि निचले स्तर पर यह सन्देश जाने पर समर्थक हतोत्साहित हो सकते थे।
       किसी प्रदेश में या देश में केवल प्रशासनिक क्षमता के सहारे लोकतांत्रिक सरकार नहीं चलायी जा सकती। भारत जैसे विकासमान लोकतंत्र में तो जनता को उसकी सारी कमियों, अन्धविश्वासों, अज्ञानों के साथ साधना होता है व उसी में से क्रमशः विकास और परिवर्तन की राह निकालना होती है। श्रीमती वेदी स्वयं को अच्छी प्रशासक मानती हैं और अपने चालीस साल के प्रशासनिक अनुभवों के कारण स्वयं को नेतृत्व की अधिकारी भी मानती हों, किंतु उन्हें पहले लोकतंत्रिक ढ्ंग से भाजपा कार्यकर्ता और फिर दिल्ली की जनता से अपने नेतृत्व को स्वीकार कराना पड़ेगा। अभी उनका सोच है कि नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता से भाजपा को विजय मिल जायेगी और उन्हें अच्छा प्रशासन देने के लिए मनमोहन सिंह की तरह कुर्सी सौंप दी जायेगी, जिसे सब लोग स्वीकार कर लेंगे। बहुत सम्भव है कि उनकी यह समझ गलत साबित हो। उल्लेखनीय है कि शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार, सूचना का अधिकार, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना आदि के बाद भी मनमोहन सिंह सरकार सुचारु रूप से नहीं चल सकी और अंततः उसे जाना पड़ा। यदि भाजपा इतना कैडर वाला संगठन होता तो श्रीमती वेदी को न तो इतनी आसानी से दल में प्रवेश मिला होता और न ही इतनी जल्दी इतने महत्वपूर्ण पद का प्रत्याशी बनाया गया होता। सारे दक्षिणपंथी व मध्यममार्गी दल पद और पैसे के लालची लोगों की दबी छुपी महात्वाकांक्षाओं को दुलरा सहला कर ही चल रहे हैं। कुछ को नकद लाभ दिया जा रहा है तो कुछ को भविष्य के लिए उम्मीदें दी गयी हैं। अभी ऊपर से लोगों को लाकर बिठाने और ईमानदारी से प्रशासन चलाने के वादे से पार्टी नहीं बचायी जा सकती। यही कारण है कि पार्टी नेतृत्व व कार्यकर्ताओं को साधने के साथ साथ साफ सुथरी सरकार चलाना बहुत कौशल का काम और यह समन्वय श्रीमती वेदी में नजर नहीं आता। उन्हें इसका कोई अनुभव भी नहीं है। उल्लेखनीत है कि बेदाग वीपी सिंह, अनुभवी इन्द्र कुमार गुजराल सहित कई राज्यों की ईमानदार बामपंथी गठबन्धन वाली सरकारें भी बहुत लम्बी नहीं चल सकीं। अपने कार्यकर्ताओं को पहले सम्बोधन में ही उन्होंने उन्हें जिस तरह से अनुशासित और आज्ञाकारी बनाने की कोशिश की वैसा अनुशासन तो भाजपा जैसे राजनीतिक दलों में कठिन हैं।  
       उल्लेखनीय है कि भाजपा में हमेशा मुख्यमंत्री पद देने, देकर हटाने या देने का लालच देकर न देने के कारण ही भाजपा में बगावत हुयी है  वीरेन्द्र कुमार सखलेचा, शंकर सिंह बघेला, केशुभाई पटेल, कल्याण सिंह, मदनलाल खुराना, उमा भारती, येदुरप्पा, से लेकर अनेक प्रसंग हैं, भले ही बाद में सफल न होने पर ज्यादातर वापिस लौट आये हों। यदि एक बार यह भी मान लिया जाये कि किरन बेदी के मुख्यमंत्री बनने की स्थिति आ जाती है तो भी उनके द्वारा इस पद पर आवश्यक लोचपूर्ण व्यवहार सम्भव नहीं। लोकसभा चुनावों के दौरान सातों सीटों पर मिली विजय में दल बदल कर आने वाले उदितराज, मनोज तिवारी, विधूड़ी, आदि की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी, किंतु ये लोग किरन बेदी के इस तरह आने और नेतृत्व हथियाने से खुश नहीं हैं जिसे दबे स्वर में व्यक्त भी कर चुके हैं। उसी तरह से मुखर न होने वाले हर्षवर्धन, विजय गोयल, जगदीश मुखी, विजेन्द्र गुप्ता आदि के समर्थक भी भावनाओं को दबा कर बैठे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में भी सबसे बड़ा दल होने के बाद भी भाजपा को कोई दल समर्थन देने को तैयार नहीं हुआ था व काँग्रेस ने आप पार्टी को समर्थन देना अधिक उपयुक्त समझा था। विजय गोयल ने तो अगस्त 2014 के दौरान राज्यसभा में साफ कह दिया था कि यूपी और बिहार वालों को दिल्ली आने से रोकने की जरूरत है ताकि दिल्ली के विकास को गति दी जा सके। बहुत सम्भव है उनके इस बयान का भाजपा को अब नुकसान उठाना पड़े। विधायकों की संख्या कम होने पर कोई दल उनके साथ गठबन्धन करने नहीं आयेगा।
       वैसे तो चुनाव परिणामों का पूर्व अनुमान सदैव ही सम्भावनाओं का खेल होता है और राजनीतिक दल जीत के दाँव लगाते रहते हैं किंतु ऊपर से जो प्रतीत होता है उसके अनुसार उन्होंने गलत प्रत्याशी पर दाँव लगा दिया है।  
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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