बुधवार, जनवरी 27, 2016

अमित शाह के मनोनयन से कौन खुश है?

अमित शाह के मनोनयन से कौन खुश है?
वीरेन्द्र जैन



अमित शाह के अध्यक्ष के रूप में मनोनयन को भले ही निर्वाचन कहा जा रहा है किंतु इस चयन समारोह का जो दृष्य सूचना माध्यमों ने दिखलाया है, उसके अनुसार तो उक्त अवसर पर उपस्थित भीड़ किसी शोक सभा में आये लोगों की तरह थी। एक अखबार के अनुसार यह बिहार में होने वाली जबरिया शादी की तरह का आयोजन था, जिसमें सब कुछ बन्दूक की नोक पर हो रहा था और कहीं कोई खुशी की लहर नहीं थी। न तो परिवार के बुजुर्ग उपस्थित थे और न ही सगे नाते रिश्तेदार। सब के सब या तो मजबूर थे या दर्शक थे जो जली कटी टिप्पणी कर रहे थे। जो किराये के नाचने वाले कथित कार्यकर्ता के रूप में भांगड़ा जैसा कुछ करने आये थे उनके बारे में फुसफुसाहट थी कि इन लोगों को बिहार के चुनावों के बाद नृत्य के लिए बुक किया गया था किंतु अवसर न आने के कारण उसी भुगतान पर अब बुला लिया गया है। बाहर वालों के लिए जो वीडियो स्क्रीन लगायी गयी थी उस पर किसी ने जरा याद करो कुर्बानी लगा दिया तो वह जो लौट के घर न आये बजने तक ही बज सका क्योंकि किसी ने उसे रुकवा दिया था। उस रोक का कारण भी बाहर वालों को यही समझ में आया कि मार्गदर्शक मण्डल में से अडवाणी, जोशी, शांताकुमार, किसी के भी न आने के कारण कहीं उसका गलत अर्थ न निकाला जाये।
हिन्दी का एक प्रमुख अखबार तो लिखता है कि- भाजपा की सदस्यता भले अमित शाह के पिछले कार्यकाल के बाद से पांच गुना बढी हो, पर उत्साह और लोकप्रियता दुगनी घटी है। ये हम नहीं वहां मौजूद जुबानें कह रही थीं।  
अमित शाह भाजपा के कभी भी राष्ट्रीय नेता नहीं रहे और अध्यक्ष बनने से पहले राष्ट्रीय स्तर पर उनकी नेकनामी नहीं अपितु बदनामी ही सामने आयी थी। वे केवल नरेन्द्र मोदी के सर्वाधिक विश्वासपात्र के रूप में जाने गये थे और इसी गुण के कारण इस पद पर बैठाये गये थे। वे मोदी की लोकप्रियता व उनमें पैदा हुए विश्वास के कारण ही सहन भी कर लिये गये थे। परोक्ष में वे मोदी के क्लोन के रूप में ही स्वीकार किये गये थे। चुनावों में सफलता मिलने के भले ही विभिन्न कारण रहे हों किंतु मोदी ने उसका श्रेय श्री शाह के प्रवन्धन को दिया था, जिससे उनका कद भी बढ गया था। पिछले दिनों दिल्ली, बिहार के विधानसभा चुनावों में तथा विभिन्न उपचुनावों और पंचायत नगर निकाय आदि चुनावों में मिली पराजय के बाद उनकी प्रचारित चमक कम हो गयी, या कहें कि कलई उतर गयी। इसका परिणाम यह हुआ कि पहले वे झेल लिये गये थे किंतु अब थोपे हुए लग रहे हैं।
इसी दौरान मोदी की लोकप्रियता के ग्राफ में जबरदस्त गिरावट आयी और मंहगाई, आतंक, मन्दी, साम्प्रदायिकता, समेत अनेक गैर जिम्मेवार नेताओं के बेहूदे बयानों के कारण मोदी की छवि भी लगातार धुँधली होती गयी। भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण शौरी ने तो इसे मनमोहन प्लस काऊ की सरकार कह कर यह बता दिया कि किसी भी  मामले में मोदी की सरकार मनमोहन सिंह सरकार से भिन्न नहीं है अपितु इसमें कुछ कमियां हैं। इसके बाद भले ही मोदी ने अपने विश्वासपात्र अमित शाह को दुबारा अध्यक्ष बनवाने में अपनी विशिष्ट स्थिति का प्रयोग कर पार्टी की कमान अपने पास ही रखी हो किंतु ऐसा करके उन्होंने पुराने भाजपा कार्यकर्ताओं के भरोसे को कम किया है।
अब भाजपा एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जब उसके कार्यकर्ताओं को लग रहा है कि उनकी सेवाओं की कोई कीमत पार्टी की निगाहों में नहीं रही और उनका भविष्य मोदी की मर्जी पर निर्भर है। वे सरकार और संगठन दोनों में ही अपनी मर्जी चलाने में समर्थ हो गये हैं और चुनाव जिताने की उनकी क्षमता निरंतर घट रही है। मार्ग दर्शक मंडल के अडवाणी, जोशी, शांताकुमार अपने समर्थकों समेत तो वैसे भी असंतुष्ट थे, राम जेठमलानी, अरुण शौरी, शत्रुघ्न सिन्हा, कीर्ति आज़ाद, भोला सिंह, आदि मुखर हो चुके हैं। सुषमा स्वराज, वसुन्धरा राजे, शिवराज सिंह चौहान, तो अपनी कमजोरियों के कारण चुप हैं किंतु शिव सेना, पीडीपी, और अकालीदल सहयोगी दल होने के बाद भी बड़े भाई की तरह व्यवहार करते रहे हैं। गुजरात में हर्दिक पटेल के नेतृत्व वाले पटेलों के आन्दोलन ने चौंकाया है वहीं मोदी के विरोधी संजय जोशी पुनः सक्रिय हो चुके हैं। गैर जिम्मेवार बयान देने वाले संघ के राममाधव पार्टी में अपनी विशिष्ट स्तिथि बनाये हुये हैं। राकेश सिन्हा जैसे संघ प्रवक्ताओं को टीवी चैनलों पर समानांतर रूप से भेजा जाता है जो कभी कभी भाजपा प्रवक्ताओं के लिए असहज स्तिथि पैदा कर देते हैं। 
सुब्रम्यम स्वामी जैसे महात्वाकांक्षी नेताओं को भाजपा में सम्मलित करके जो भूल की जा चुकी है वह ‘उगलत निगलत पीर घनेरी’ वाली स्थिति पैदा कर रही है। वे चतुर सुजान हैं, निर्भीक हैं, मुँहफट हैं, और कुंठित हैं। वे कभी भी किसी को भी संकट में डाल सकते हैं, जैसे राफेल विमान सौदौं के प्रारम्भ में बयान देकर डाल चुके हैं। पठानकोट हमले से मोदी की लाहौर कूटनीति फेल हो गयी है। सुब्रम्यम स्वामी, कीर्ति आज़ाद को मिले नोटिस का जबाब देने, और अरुण जैटली के विपक्ष में दिखने का संकेत देकर अरविन्द केजरीवाल की परोक्ष मदद कर चुके हैं। मोदी ने आसाराम को भाजपा परिवार का समर्थन नहीं मिलने दिया था किंतु स्वामी की वकालत ने मोदी के प्रयास को चुनौती दी है।
इमरजैंसी में कम्युनिष्ट, सोशलिस्ट समेत संघ के लोग भी जेल भेजे गये थे किंतु क्षमा मांग कर वापिस आने वाले केवल संघ के लोग ही थे। इसके बाद भी उस जेल यात्रा को सर्वाधिक भाजपा ने ही भुनाया और अपने राज्यों में मीसा बन्दियों की पेंशन बाँध ली। इमरजैन्सी को अभिव्यक्ति की आज़ादी पर प्रतिबन्ध के रूप में देखा गया था। अब इमरजैन्सी नहीं घोषित की गयी है फिर भी सबके मुँह सिले हुए हैं, वे असंतुष्ट हैं किंतु फिर भी कुछ नहीं बोल रहे हैं। शत्रुघ्न सिन्हा और कीर्ति आज़ाद से भाजपा के बहुत सारे लोग सहमत हैं किंतु आवाज़ किसी के भी मुँह से नहीं निकल पा रही है। एक साल बाद पश्चिम बंगाल, केरल, असम, उत्तरप्रदेश आदि के चुनाव हैं जहाँ पर उनकी जीत की सम्भावनाएं कम हैं। इन राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद क्या भाजपा में दमित लोगों का स्वर निकल सकेगा? यदि स्वर फूटा तो अमित शाह को जाना होगा, और नहीं फूटा तो भाजपा को जाना होगा।
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, जनवरी 14, 2016

पुस्तक प्रकाशन बनाम कुत्ते की हड्डी

पुस्तक प्रकाशन बनाम कुत्ते की हड्डी
वीरेन्द्र जैन
            यह, वह कठिन समय है जब लेखक बढ रहे हैं और पाठक कम हो रहे हैं। पुस्तकें समुचित संख्या में छप रही है किंतु उनके खरीददार कम होते जाते हैं। पुस्तक मेलों में काफी भीड़ उमड़ती है पुस्तकों की प्रदर्शनी को निहारती है, ढेर में रखी पुस्तकों को पलटती है और जाकर चाट-पकोड़ी फास्ट फूड खाती है, स्वेटर मफलर जैकिट खरीदती है, मित्रों परिचितों से गले मिलती है, सैल्फी लेती देती है और दिन सफल करके लौट आती है। वहाँ से मिले सूची पत्र रद्दी के ढेर में रख देती है।
             इस कठिन समय को मैं भिन्न समय कहना चाहता हूं। प्रकाशक पुस्तकें इसलिए छाप रहे हैं, क्योंकि वे बिक रही हैं, उन्हें सरकारी पुस्तकालय और शिक्षा विभाग समेत रेल, रक्षा, व विभिन्न सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थान खरीद रहे हैं। उनकी कीमतें ऊंची रखी जा रही हैं और सम्बन्धित अधिकारियों को खरीद पर भरपूर कमीशन दिया जा रहा है, जो बहुत ऊपर तक पहुँच रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र का यह धन अंततः जनता की जेब से जा रहा है। पुस्तक प्रकाशन और इसकी खरीद बिक्री में प्रकाशक और सरकारी खरीद के लिए जिम्मेवार अधिकारी मालामाल हो रहे हैं। कोई प्रकाशक गरीबी में नहीं जी रहा है, सबके पास भव्य बंगले हैं, गाड़ियां हैं, दौलत का नंगा प्रदर्शन है, वे अधिकारियों को जो पार्टियां देते हैं उनमें पैसा पानी की तरह बहाते हैं। कोई देखने वाला नहीं है कि जो पुस्तकें खरीदी गयीं उनमें से कितनी पढी गयी हैं, या पढे जाने लायक हैं? किसी को नहीं पता कि उनको खरीद किये जाने का आधार क्या है? प्रकाशित पुस्तकों के पाँच प्रतिशत लेखकों को भी रायल्टी नहीं मिलती। अधिकांश लेखक इस बात से खुश हो जाते हैं कि प्रकाशक ने कृपा करके उनकी पुस्तक छाप दी है। बहुत बड़ी संख्या में लेखक अपना पैसा लगा कर अपनी पुस्तकें छपवाते हैं और सरकारी सप्लाई की दर पर मुद्रित कीमत से अपनी लागत की पुस्तकें खरीद लेते हैं। वे खुद का पैसा खर्च करके विमोचन समारोह आयोजित करते हैं जिसमें प्रकाशक मुख्य अतिथि की तरह मंच पर बैठता है। यही कारण है कि आज ज्यादातर सम्पन्न और अतिरिक्त आय अर्जित करने वाले वर्ग के  लेखक प्रकाशित हो रहे हैं।
            जिस तरह किसी कुत्ते को हड्डी मिल जाती है जिसे चूसते चूसते उसकी जुबान से खून निकलने लगता है और वह अपने ही खून को हड्डी में से निकला खून समझ कर उसे और ज्यादा चूसता जाता है, उसी तरह लेखक भी अपना ही खून चूस चूस कर खुश होता रहता है। उसके अपने पैसे से किताब छपती है जो उसके ही पैसे से उसके घर पर आती है, और ‘सौजन्य भेंट’ देने के काम आती है। भेंट पाने वाला सौजन्यता में ही दो चार शब्द प्रशंसा के कह देता है भले ही उसने उसे पढी ही न हो। ऐसी पुस्तकें कम ही पढी जाती हैं। आमतौर पर पुस्तक मेलों में पाक कला, बागवानी, घर का वैद्य, या कैरियर से सम्बन्धित पुस्तकें ही बिकती हैं।
            पुस्तक आलोचना का और भी बुरा हाल है। आलोचक के नाम पर कुछ चारण पैदा हो गये हैं जो प्रत्येक प्रकाशित पुस्तक की बिना पढे प्रशंसा की कला में सिद्धहस्त हैं। प्रतिष्ठित से प्रतिष्ठित समाचार पत्र-पत्रिका में भी पुस्तक आलोचना के नाम पर जो कुछ छपता है वह प्रकाशन की सूचना और फ्लैप पर लिखी टिप्पणी से अधिक कुछ नहीं होती है। कथित आलोचक उसमें दो चार पंक्तियां और एकाध उद्धरण जोड़ कर उसे समीक्षा की तरह प्रकाशित करा देता है। ऐसा आलोचना कर्म कोई भी कर देता है। एक आलोचक को कम से कम विषय और विधा की परम्परा व समकालीन लेखन का विस्तृत अध्यन होना चाहिए जिसे वह दूसरी भाषाओं के साहित्य के साथ तुलना कर के परखता है। उसके सामाजिक प्रभाव के बारे में अपने विचार व्यक्त करता है व पुस्तक की उपयोगिता या निरर्थकता को बताता है। एक अच्छी आलोचना स्वयं में रचना होती है जिसके सहारे न केवल कृति को समझने में मदद मिलती है अपितु विधा के समकालीन लेखन और प्रवृत्तियों की जानकारी भी मिलती है। एक पुस्तक समीक्षा अनेक दूसरी पुस्तकों को पढने के प्रति जिज्ञासा पैदा कर सकती है।
            पुस्तक प्रकाशन से लेकर पुस्तक मेले तक छद्म ही छद्म फैला हुआ है। प्रकाशक, लागत लगाने वाले और सरकारी खरीद में मदद कर सकने वाले महात्वाकांक्षी व्यक्ति को लेखक के रूप में अधिक प्रतिष्ठित करना चाहते हैं और ऐसे ही लोगों को छापना चाहते हैं। दूसरी ओर उनकी कृतियों को पाठक पढना नहीं चाहते, खरीदना नहीं चाहते। ऐसे ही लेखकों के व्यय की भरपाई के लिए नये नये सरकारी पुरस्कार पैदा किये जा रहे हैं, जुगाड़े जा रहे हैं। कैसी विडम्बना है कि बहुत सारे पुरस्कृत और सम्मानित लेखकों के प्रशंसक और पाठक नहीं के बराबर हैं। सामान्य पाठक के लिए ऐसा लेखन कौतुकपूर्ण वस्तु बन चुका है। सरकारी पुरस्कारों से वह भ्रमित रहता है कि जरूर इस कृति में कुछ महत्वपूर्ण होगा जो उसकी समझ में नहीं आ रहा, जबकि उसमें कुछ होता ही नहीं है। कम प्रतिभा वाले लेखक समूहों ने अपनी अपनी संस्थाएं बना ली हैं जिनके माध्यम से वे खुद पुस्तकें प्रकाशित करके एक दूसरे को आभासी पुरस्कार लेते देते रहते हैं. ‘अहो रूपम अहो ध्वनिम’ करते रहते हैं व अपना फोटो संग समाचार खुद छपवा कर खुद को धोखा देते रहते हैं।
            सच तो यह है कि लेखन की दुनिया में गहरी बेचैनी, निराशा, ईर्षा, कुंठा, शोषण, धूर्तता छायी हुयी है। सृजन का संतोष या आनन्द कहीं दिखायी नहीं देता। यहाँ मसखरों से लेकर बहुरूपियों तक फैंसी ड्रैस वालों से लेकर नशाखोर तक भरे हुये हैं। कभी मुकुट बिहारी सरोज ने लिखा था-
गर्व से मुखपृष्ठ जिनको शीश धारें, आज उन पर हाशियों तक आ बनी है
क्योंकि मुद्रित कोश की उपलब्धियों से, कोठरी की पाण्डुलिपि ज्यादा धनी है
अक्षरों को अंक करके रख दिया है, तुम कसम से खूब साहूकार हो
तुम कसम से खूब रचनाकार हो  
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, जनवरी 09, 2016

सुब्रम्यम स्वामी का राम मन्दिर

 सुब्रम्यम स्वामी का राम मन्दिर
वीरेन्द्र जैन


गत दिनों सुब्रम्यम स्वामी ने दिल्ली विश्वविद्यालय में भाजपा के छात्र संगठन एबीव्हीपी के माध्यम से अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण पर एक सेमिनार का आयोजन किया। इस आयोजन के विरोध में आम आदमी पार्टी के छात्र संगठन और काँग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई ने  विरोध प्रदर्शन किया जो हिंसक टकराहट में बदलते बदलते रह गया। यह आयोजन इस रूप में सफल हुआ कि उक्त प्रदर्शन की खबरों से श्री स्वामी को वांछित प्रचार मिल गया। वे अशोक सिंघल के निधन के बाद से इस आन्दोलन में अपना दखल बढाने का अवसर तलाश रहे थे। यही कारण रहा कि उन्होंने पिछले दिनों इसी साल राम मन्दिर निर्माण की घोषणा करते हुए उसकी निर्माण प्रक्रिया के बारे में भी राज खोले।
       इस बात को मीडिया ने जनता के सामने लाने में बहुत लापरवाही बरती है कि भाजपा ने बहुत चतुराई से राम जन्मभूमि मन्दिर अभियान को राम मन्दिर अभियान में बदल दिया था। अब वे सभाओं में बहुत भोले बन कर जनता से सवाल करते हैं कि बताओ अगर भारत के अयोध्या में राम मन्दिर नहीं बनेगा तो कहाँ बनेगा? उनके इस चतुर सवाल पर भोले धर्मान्ध जन उत्तेजित होकर राम मन्दिर निर्माण का संकल्प लेते हुए जयघोष करने लगते हैं। यह मुद्दा जहाँ से उठाया गया था वह बिन्दु यह था कि ध्वस्त कर दी गयी बाबरी मस्ज़िद वाली भूमि पर बाबर के आने से पहले कभी राम जन्मभूमि मन्दिर था। इस बारे में एक वर्ग का कहना था कि उस मन्दिर को तोड़ कर बाबरी मस्ज़िद बनायी गयी थी और दूसरे वर्ग का कहना था कि वहाँ कोई मन्दिर नहीं था, और अगर था भी तो वह ध्वस्त हो चुका था। 1949 में साम्प्रदायिक सोच वाले तत्कालिक जिलाधीश ने वहाँ मूर्तियां रखवा कर उस इमारत की भूमिका बदलने का प्रयास किया था। यही जिलाधीश बाद में जनसंघ के टिकिट पर सांसद बने थे तथा उनके बाद उनकी पत्नी सांसद बनीं।
जब 1984 में भाजपा लोकसभा में दो सदस्यों तक सिमिट गयी थी तब उसे इस मुद्दे की याद आयी थी और उसने इसे चुनाव में समर्थन जुटाने के लिए स्तेमाल किया। भले ही इसके पूर्व वे उत्तर प्रदेश की संविद सरकार में रहे थे व केन्द्र में जनता पार्टी सरकार के घटक भी रहे थे तब उन्हें इसकी याद नहीं आयी थी। बाद की कहानी तो सर्वज्ञात है कि किस तरह रथयात्रा की द्वारा पूरे देश मे हिंसक वातावरण बनाया गया, साम्प्रादायिक दंगे हुये, जिनमें मृतकों के अस्थिकलशों को देश भर में घुमा कर उत्तेजना निर्मित की गयी, बाबरी मस्ज़िद तोड़ी गयी, विरोध में मुम्बई के दंगे हुए जिनके दमन उपरांत व्यापक बम विस्फोट हुये, और भाजपा दो से दो सौ तक पहुँच गयी। इस के दस साल बाद जब भाजपा गुजरात में फिर कमजोर होने लगी और मुख्यमंत्री बदलना पड़ा तब फिर अयोध्या से लौटते कारसेवकों वाली ट्रैन में आगजनी के बाद दुष्प्रचार और व्यापक नरसंहार साथ साथ हुये और तेज ध्रुवीकरण से गुजरात में अपना स्थायी स्थान बना लिया। इसी का विस्तार आज देश में भाजपा सरकार के रूप में स्थापित है।
सुब्रम्यम स्वामी एक प्रतिभावान आत्मकेन्द्रित वकील हैं जो अपनी महात्वाकांक्षाओं को राजनीति की सीढी के सहारे पाना चाहते हैं। उनका इतिहास बताता है कि वे किसी व्यक्ति. दल, या विचारधारा में आस्था नहीं रखते और न ही कोई संगठन ही बनाते हैं। वे भारतीय लोकतंत्र, राजनेता और कानून की कमजोरियों को पकड़ कर अपना महत्व स्थापित करते हैं। उनके इतिहास में ध्वंश ही ध्वंश नजर आते हैं। वे किसी के पक्षधर नहीं हैं न ही उनका कोई मित्र है। वे दोस्त या दुश्मन किसी की भी त्रुटि को सामने लाकर उसके लिए मुसीबत खड़ी कर सकते हैं। हिन्दुत्ववादी राजनीति में स्थान बनाने वाले स्वामी की बेटी ने एक मुस्लिम युवक से विवाह किया है किंतु किसी ने भी इस विषय पर उनमें कभी असहिष्णुता नहीं देखी। वे ऐसे निर्भीक एक्टविस्ट हैं जो राजनीति और राजनीतिज्ञों के दोहरेपन पर हमले करते हैं, व दबायी छुपायी बातों को सामने लाते हैं। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि भाजपा और नरेन्द्र मोदी ने उन्हें भाजपा में लाकर एक बड़ा खतरा मोल ले लिया है क्योंकि वे बार बार ऐसे बयान देते हैं जिनके लिए भाजपा को सफाई देना पड़ती है कि वे उनके निजी विचार हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने साफ साफ कहा कि उन्हें वित्त मंत्री बनाने का वादा कर के पार्टी में लाया गया था। जब श्री कीर्ति आज़ाद को पार्टी ने नोटिस दिया तो उन्होंने आगे बढ कर उस नोटिस का उत्तर देने में मदद करने का प्रस्ताव दिया, अर्थात परोक्ष में उनका समर्थन किया। फ्रांस से राफेल विमान खरीदने के सौदे का सबसे पहला और मुखर विरोध उन्होंने उन तर्कों के साथ किया था जिससे ऐसा लगता था जैसे इस सौदे में कुछ गड़बड़ है।
राम मन्दिर के बारे में दिल्ली विश्वविद्यालय में सेमिनार का मतलब विषय को सुर्खियों में लाना ही था जिसे उसके विरोध ने ज्यादा ही सुर्खियां दिला दीं। वैसे तो पिछले अनेक वर्षों से इस सम्बन्ध में विश्व हिन्दू परिषद की बैठकें होती ही रहती होंगीं व पत्थरों को तराशा जाना तो पिछले बीस सालों से लगातार जारी ही है।
देश के किसी भी स्थान में धर्मस्थल निर्माण पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है और अयोध्या में तो दो हजार से ज्यादा मन्दिर हैं। अगर एक मन्दिर और भी बन जाये तो क्या अंतर आयेगा? अगर निम्न बिन्दुओं पर ध्यान दिया जाये तो मन्दिर इसी साल बनने में कोई अड़चन नहीं है।
·         यह जनता का आन्दोलन नहीं अपितु भाजपा का चुनावी मुद्दा था जिसे वह अपनी योजना के अनुसार उभारता है
·         राम जन्मभूमि मन्दिर अभियान को राम मन्दिर निर्माण में बदल दिया गया है
·         कोर्ट में जो वाद चल रहा है वह मन्दिर निर्माण के बारे में नहीं, स्थान विशेष के बारे में है
·         अगर स्थान बदल लिया जाये तो भी कोई बड़ा विरोध नहीं होने वाला और मन्दिर बनाने का वादा निभ जायेगा
·         स्थान बदलने से सभी वर्गों का समर्थन मिल जायेगा
·         मन्दिर के लिए जो पत्थर तैयार किये गये हैं वे लाकिंग सिस्टम वाले हैं जिनसे कुछ ही दिन में राम मन्दिर बन सकता है
·         नये मन्दिर की भव्यता के आगे जन्मभूमि मन्दिर वाले कोर्ट के आदेश होने तक कुछ और प्रतीक्षा कर सकते हैं
·         मोदी के ग्लैमर से प्रभावित जयकारे से मन्दिर वाले चन्द लोगों की आवाज दब सकती है

कानूनाविद सुब्रम्यम स्वामी की ऐसी ही कोई योजना हो सकती है, इसलिए सेमिनारों के मुकाबले सेमिनारों से ही किये जाने चाहिए, या कोर्ट का सहारा लिया जाना चाहिए। 
वीरेन्द्र जैन
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