शनिवार, अगस्त 25, 2012

हेमा मालिनियां और अन्ना-रामदेव


           हेमा मालिनियां और अन्ना रामदेव
                                                                                     वीरेन्द्र जैन

       

 हेमा मालिनी अपनी युवा अवस्था में भारतीय सौन्दर्यबोध की मानक अभिनेत्री रही हैं, और देश के व्यापक फिल्म दर्शक जगत में विख्यात रही हैं। फिल्मी दुनिया में जब दूसरी नयी और अपेक्षाकृत युवा अभिनेत्रियां उन्हें पीछे छोड़ने लगीं तब उन्होंने विज्ञापन फिल्में करना शुरू कर दीं। यह वही समय था जब किसी भी तरह वोट हथिया कर सत्ता पर अधिकार करने के लिए भाजपा उतावली थी सो उसने साधारण जन को बरगलाने के सारे हथकण्डे अपनाये। साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद, के साथ उसने लोकप्रियतावाद का सहारा लिया जिसमें किसी भी क्षेत्र के लोकप्रिय व्यक्ति को किसी सौदे समझौते के अंतर्गत पार्टी के प्रचार के लिए तैयार किया जाता है और उसकी लोकप्रियता के आधार पर जुटायी गयी भीड़ को अपने समर्थन की भीड़ प्रचारित करके अनिश्चय से घिरे मतदाता को प्रभावित कर लिया जाता है। भाजपा ने सुश्री हेमा मालिनी को भी पार्टी प्रचार के लिए अनुबन्धित कर लिया और उनकी लोकप्रियता के सहारे जुटायी भीड़ से सम्पर्क करने का अवसर पाया। हेमा मालिनी तो एक प्रतीक हैं, पर भाजपा ने बहुचर्चित रामायण सीरियल में सीता की भूमिका करने वाली दीपिका चिखलिया, हनुमान की भूमिका करने वाले दारा सिंह, रावण की भूमिका करने वाले अरविन्द त्रिवेदी, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, स्मृति ईरानी, नवजोत सिंह सिद्धू, चेतन चौहान, रवि शास्त्री, आदि लोकप्रिय लोगों से यथा सम्भव समझौते किये और चुनावों में उतरने हेतु जनता से जुड़ने का माध्यम बनाया। श्रीमती इन्द्रा गान्धी के बाद की कांग्रेस ने भी सुनील दत्त, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, गोबिन्दा, आदि का सहारा लिया था। समाजवादी पार्टी ने राज बब्बर के बाद जयप्रदा, संजय दत्त, आदि का सहारा लिया। इनमें सुनील दत्त और राज बब्बर ऐसे कलाकार रहे हैं जिनकी राजनीतिक रुचि और पृष्ठभूमि रही है पर शेष कलाकारों का दुरुपयोग केवल उनकी लोकप्रियता को अपने वोट बैंक में बदलने के लिए चुना गया था।
       इसी परम्परा में टीम अन्ना हजारे, और रामदेव के आन्दोलन भी परोक्ष ढंग से भाजपा की मदद करने के लिए आयोजित करवाये गये लगते हैं। राजतंत्र में राजा महाराजा जब शेर के शिकार के लिए निकलते थे तो आस पास के सारे गाँव वालों को हाँका करने के किए पकड़ बुलाते थे जो जंगल के चारों ओर से शोर मचाते थे व राजा किसी नदी या सरोवर के किनारे सुरक्षित मचान लगाकर बैठ जाता था और घिरा शिकार के पानी पीने आने पर राजा उस पर गोली चला देता था, जिसके बाद वह उस शिकार पर पैर रख कर फोटो खिंचवाता था। भ्रष्टाचार विरोध के नाम पर टीम अन्ना और रामदेव ने मिल बैठ कर किसी फैसले पर पहुँचने की जगह जिस जिद और राजनीतिक प्रचार का सहारा लिया उससे ऐसा लगता है उनका लक्ष्य भ्रष्टाचार नहीं अपितु वर्तमान सरकार की छवि खराब करना भर रहा है। जब केन्द्र में दो प्रमुख गठबन्धन एक ही तरह का काम कर रहे हों तो व्यवस्थागत दोषों के लिए उनमें से एक को केन्द्रित करके आन्दोलन करना तथा दूसरे को अछूता छोड़ देना यही दर्शाता है। उल्लेखनीय यह भी है कि संघ परिवार के संगठनों ने यह पोल भी खोल दी थी कि अन्ना आन्दोलन के दिनों जो व्यवस्थाएं की गयी थीं उनमें संघ परिवार का पूरा सहयोग रहा था। टीम अन्ना ने अपने पहले दौर में प्रचार माध्यमों का भरपूर स्तेमाल करके लोकपाल बिल लाने के लिए जो माहौल तैयार किया उसके प्रभाव में ही सरकार त्वरित लोकपाल बिल लायी और उसे लोकसभा में रखा किंतु उसके लाने के बाद टीम अन्ना ने उसका विरोध करना शुरू कर दिया और जनलोकपाल बिल के नाम से एक ऐसा अव्याहारिक ड्राफ्ट पेश किया जिसके लिए सदन का कोई भी दल तैयार नहीं था। इसी लोकतंत्र और संसद को सर्वोच्च मानने की घोषणा करने वाली टीम अन्ना ने सारे संसद सदस्यों की असंसदीय भाषा में आलोचना करने की नीति अपनायी ताकि वे निष्पक्ष नजर आयें। आन्दोलन के दूसरे दौर में उन्होंने पहले दौर में रणनीति के अंतर्गत अलग थलग कर दिये रामदेव को गले लगा लिया और अपने आन्दोलन को जनलोकपाल की जगह केन्द्र सरकार के चौदह मंत्रियों के कामकाज पर केन्द्रित कर दिया। मीडिया के माध्यम से पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के बाद उन्होंने अपनी अनशन लीला यह कहते हुए समेट ली कि इस समस्या का राजनीतिक हल ही निकाला जायेगा जिसके लिए वे एक राजनीतिक विकल्प देंगे। उनकी इस अस्पष्ट घोषणा से यही निष्कर्ष निकला कि वे एक राजनीतिक दल का गठन करेंगे, वहीं दूसरी और अन्ना हजारे ने अपनी छवि को बनाये रखने के लिए किसी राजनीतिक दल में सम्मलित न होने और स्वयं चुनाव न लड़ने की घोषणा की। इस घोषणा के बाद टीम के सदस्य विभाजित नजर आये और श्री श्री रविशंकर व जस्टिस संतोष हेगड़े ने राजनीतिक दल बनाने का विरोध कर दिया तथा कुमार विश्वास भी इस विचार से सहमत नहीं थे। सम्भावना यह बन रही है कि टीम अन्ना कोई राजनीतिक दल बनाये बिना कुछ उम्मीदवारों को समर्थन दे। स्पष्ट है कि जिस यूपीए सरकार के खिलाफ उन्होंने सारा वातावरण तैयार किया है उसके किसी उम्मीदवार का वे समर्थन नहीं करेंगे। दूसरी ओर बामपंथियों सहित तीसरे पक्ष में माने जाने वाले दलों ने उनके आन्दोलन में आस्था व्यक्त नहीं की थी इसलिए वे उनका साथ भी नहीं देंगे जिससे केवल एनडीए ही ऐसा गठबन्धन बचता है जिसे टीम अन्ना द्वारा बनाये गये वातावरण का लाभ मिल सकता है या वे उसके कुछ उम्मीदवारों का सीधे सीधे समर्थन कर सकते हैं। यह इस बात से भी प्रकट है कि इस दौरान भाजपा शासित राज्यों में भ्रष्टाचार के बड़े बड़े खुलासे हुए किंतु आयकर के छापों में मिले अकूत धन के बाद भी टीम अन्ना ने उनकी आलोचना करना और उनके भ्रष्टाचार पर उंगली उठाना जरूरी नहीं समझा।
       जो काम टीम अन्ना ने किया वही काम बाबा रामदेव पहले से ही करते आ रहे थे और अपने योग प्रदर्शनों और दवा उद्योग से अर्जित विवादास्पद आय में से भाजपा को चन्दा देते रहे हैं। उन्होंने विदेशों से काला धन मँगाये जाने की सही माँग का स्तेमाल यूपीए सरकार की आलोचना को केन्द्रित रख कर की। अपने व्यापार में काला-सफेद करने के लिए कई कर विभागों के घेरे में आये रामदेव ने अपने आन्दोलन के दौरान ही अपने उत्पादों की आक्रामक मार्केटिंग शुरू कर दी और आयुर्वेदिक उत्पादों के नाम पर अपने संस्थान में टूथ ब्रुश समेत किराने का सामन भी बनाने और बेचने लगे। इसी आन्दोलन के दौरान अर्जित लोकप्रियता का लाभ उठाने के लिए उन्होंने अपने उत्पादों को कुछ केन्द्रों तक सीमित न रख कर सभी मेडिकल स्टोरों तक फैला दिया। इन उत्पादों की कीमतें भी उन्होंने दूसरी कम्पनियों से प्रतियोगी रखीं। मीडिया का ध्यान आकर्षित करने के बाद रामदेव ने भी राजनीतिक दल बनाने और सभी चुनाव क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार उतारने की घोषणा कर दी। अपनी माँगों के लिए चार सौ उन वर्तमान सांसदों, जिनकी वे असंसदीय निन्दा कर चुके हैं, के समर्थन का हास्यास्पद दावा करने वाले रामदेव के किसी भी उम्मीदवार की सफलता सन्दिग्ध है किंतु वे अपनी असंसदीय भाषा में यूपीए सरकार के खिलाफ जो प्रचार करेंगे और अपने आयुर्वेदिक उद्योग से अर्जित काले सफेद धन को झोंकेंगे उसका लाभ भी अंततः एनडीए को ही मिल सकता है, जिसका अपना रिकार्ड भ्रष्टाचार के मामले में किसी भी तरह बेहतर नहीं है। रोचक यह है कि टीम अन्ना और रामदेव के ये दोनों ही प्रस्तावित दल आगामी गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधान सभाओं के चुनावों में उतरने नहीं जा रहे हैं जहाँ अभी भाजपा सत्ता में है और भ्रष्टाचार का विरोध उनके विरोध में जायेगा।    
       भ्रष्टाचार के खिलाफ अडवाणी की रथयात्रा की असफलता के बाद भाजपा द्वारा जो ये हथकण्डे अपनाये जा रहे हैं उससे यह तो प्रकट होता है कि वह अपनी छवि के बारे में आत्मग्लानि और आत्मविश्वास की कमी की शिकार है, इसीलिए सत्ता में आने के लिए उसे तरह तरह की नई नई लीलाएं करनी पड़ रही हैं। कांग्रेस के एक महासचिव तो बहुत पहले से ही कहते आ रहे हैं कि इन दोनों ही आन्दोलनों के पीछे आरएसएस है जो अब सिद्ध होता दिख रहा है।  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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गुरुवार, अगस्त 16, 2012

फिल्म समीक्षा - गैंग वासेपुर-2 गोबरपट्टी की राजनीति पर चुटीला व्यंग्य


फिल्म समीक्षा के बहाने
      
गैंग वासेपुर-2 , गोबरपट्टी की राजनीति पर चुटीला व्यंग्य  
                                                                                  वीरेन्द्र जैन
       दुर्भाग्य से हमारे यहाँ फिल्मों जैसे बहुआयामी माध्यम को साहित्य से कमतर आँका गया है और यही कारण रहा कि टीवी आने से पूर्व लम्बे समय तक इस प्रभावशील माध्यम को लोगों ने ऐसी गणिका की तरह लिया जिससे केवल छुप कर ही मिला जा सकता है, और सार्वजनिक रूप से बुराई की जाती है। जब तक इस माध्यम से पैसों की बरसात नहीं होने लगी तब तक तथाकथित भले घर के लोगों ने अपनी महिलाओं को इसमें भूमिका निभाने की अनुमति देना तो दूर दिखाना भी गुनाह समझा। स्मरणीय है कि प्रारम्भ में महिलाओं की भूमिका भी पुरुष पात्रों को करना पड़ती थी और रामलीला जैसे धार्मिक नाटकों तक में सीता जैसे पवित्र पात्र की भूमिका भी लड़कों को निभाना पड़ती थी। फिल्म कला का सबसे सशक्त माध्यम है जिसमें न केवल साहित्य है, संगीत है, नाटक है, अपितु ज्ञान और मनोरंजन भी है। एक अच्छा कला माध्यम सभी तरह के विषयों को संवेदनशील और सुस्पष्ट ढंग से लोगों तक सम्प्रेषित होता है व दूरगामी प्रभाव छोड़ता है। जहाँ तक फिल्मों के दोषों का सवाल है तो सभी पुस्तकें भी अच्छी नहीं होतीं और चुनाव हमेशा ही करना पड़ता है। इसमें माध्यम दोषी नहीं होता।
       फिल्म गैंग वासेपुर-2 देखते हुए मुझे सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल की राग दरबारी याद आयी जो आजादी के बाद के गाँव मैं पैदा हुए सरकारी धन को चरने वाले दो पाये पशुओं को बहुत ही रोचक तरीके से सामने लाता है। वासेपुर गैंग-2 भी ऐसा ही एक प्रयास है जिसमें गोबरपट्टी अर्थात काऊ बैल्ट स्थित बीमारू राज्यों में पल बढ रही कुत्सित राजनीति, सामाजिकता, और अपसंस्कृति को दिखाते हुए यह सवाल खड़ा करता है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है और इसे दूर करने का रास्ता किधर से जाता है। फिल्म व्यंग्यात्मक है इसलिए इसमें अतिरंजना स्वाभाविक है, पूरी फिल्म में गालियों और गोलियों का भरपूर प्रयोग है और यथार्थ के नाम पर इनसे बचने की कोई कोशिश नहीं की गयी है। यद्यपि वासेपुर नाम का एक शहर झारखण्ड में स्थित है और फिल्म में बिहारी बोलियों का प्रयोग किया गया है किंतु यह ‘वासेपुर’ राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, उत्तरप्रदेश, बिहार और झारखण्ड तक फैला हुआ है। फिल्म प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट कर देती है कि इस कथा के वासेपुर का झारखण्ड के वासेपुर से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है, भले ही फिल्म विभिन्न सच्ची घटनाओं के आधार पर रचित कहानी पर बनी है।
       यह फिल्म उस समय आयी है जब भ्रष्टाचार के विरोध के नाम किये जा रहे आन्दोलनों की असफलता से यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि मूलतयः व्यवस्था ही दोषपूर्ण है और इसे आमूलचूल बदले बिना भ्रष्टाचार से मुक्ति का लक्ष्य नहीं पाया जा सकता। फिल्म में बेखौफ हिंसा करते हुए खानदान हैं जिनकी पुलिस गुलामी करती है या जो सरे-आम उस पुलिस को मारते पीटते रहते हैं जिनके नाम से आम आदमी की घिघ्घी बँधी रहती है। उसकी गिरफ्त में आये प्रतिद्वन्दी को ये मार देते हैं पर इनके खिलाफ कोई गवाही नहीं देता। अदालत को सजा देने के लिए गवाही चाहिए जिसके अभाव में ये हर बार छूट कर बाहर आ जाते हैं। सरकारी खरीद और ठेकों में लूट करने वाले ठेकेदार इनके सहारे दूसरे किसी को टेंडर नहीं भरने देते और वे खोज कर इन लोगों के पास पहुँचते हैं और इनकी ही शर्तों पर सौदा करते हैं। सौदे में बेईमानी करने वालों के दफ्तरों को बम से उड़ा देते हैं। बदले की भावना में हत्याओं का दौर चलता रहता है और इन खानदानों की माँएं स्वयं ही अपने बेटों को खानदानी दुश्मन से बदला लेने के लिए उकसाती रहती हैं जिसमें जान जाने और जेल जाने का खतरा सदैव ही बना रहता है। घर में खाना खाते समय भी लड़कों से कहती हैं कि अपने पिता की हत्या के मामले में बदला लिए बिना तुम्हारे गले से निवाला उतर कैसे जाता है। नगर में पुलिस अधिकारी स्थानीय विधायक या मंत्री की इच्छानुसार तैनात किया जाता है जो उसके निर्देशानुसार ही काम करते हैं। यही कारण है कि अपराधी येन केन प्रकारेण जन प्रतिनिधि बनने की कोशिश करता है। चुनावों को दूषित करके लोकतंत्र की भावना को निर्मूल करने का काम यही अपराधी कर रहे हैं और यही कारण है कि देश में 39% जनप्रतिनिधियों पर आपराधिक मुकदमे लम्बित हैं जिनका सहारा लेकर अन्ना हजारे टीम या बाबा रामदेव पूरी संसद का अपमान करते रहते हैं। इन इलाकों में पुलिस से शिकायत करने में कोई भरोसा नहीं करता, सब अपने अपने न्याय स्वयं करने में भरोसा रखते हैं। यही कारण है कि डकैतों को नायक बनाने वाली फिल्में बहुत बड़ी संख्या में बन रही हैं और पान सिंह तोमर जैसी फिल्म में नायक कहता है कि यहाँ डाकू नहीं होते बागी होते हैं, डाकू तो संसद में बैठते हैं।
       उक्त फिल्म हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर ही व्यंग्य नहीं करती अपितु उससे विकृत होती जा रही सामाजिक व्यवस्था पर भी व्यंग करती है। बिहार में बोलियों में अंग्रेजी शब्दों का घाल मेल करके उसे उन बोलियों के व्याकरण के साथ मिला कर खूब बोला जाता है जिसे इस फिल्म में एक गाने के साथ मिलाकर अच्छा व्यंग्य किया गया है। - फ्रस्टाओ नहीं मूरा, नर्भसाओ नहीं मूरा-  जैसे शब्दों को मिला कर एक गाना है तो बच्चों के नाम परपेंडुकलर और डेफिनेट जैसे हैं, जो बेखौफ होकर अपराध करते हैं और किसी भी दुकान से कुछ भी मुफ्त में खाते या उठाते रहते हैं। अपराधी नायक प्रेम की भावुकता में घिरने की जगह अपनी प्रेमिका से सीधे पूछता है कि वह उसके साथ सेक्स करना चाहता है, और नायिका भी उसे सीधे जूते खाने की धमकी देती है। जन्म से महानगरों और राजधानियों में रहने वाले लोग ऐसी कानून विहीनता वाली स्थिति की कल्पना भी नहीं कर सकते जो बीमारू राज्यों के गाँवों, कस्बों वालों को झेलना पड़ती है, और नागों साँपों जैसे प्रतिद्वन्दियों में से किसी एक के शरणागत होने को विवश कर देती है। अपने कला माध्यमों को हम जिस भाषा और गालियों से मुक्त रखते चले आये हैं वे गालियां हमारी माँ बहिन बेटियां प्रतिदिन बाजार में, बसों में, या गली मुहल्ले में सुनती रहती हैं पर हम अपने कला माध्यमों में इनका प्रयोग न करके कला की एक बनावटी दुनिया रचने की कोशिश करते हैं जबकि जरूरत अपनी उस व्यवस्था को सुधारने की है जो इन्हें जन्म देती है। फिल्मों में धड़ल्ले से दी गयी ये गालियां दर्शक को कल्पना लोक से निकाल कर अपने कटु यथार्थ में कहीं कुछ बदलने की बेचैनी देती हैं।
       अपराधियों को तकनीकी ज्ञान का अभाव उनका पैसा पूरा कर देता है और सम्बन्धित विशेषज्ञ स्वयं ही उनके पास आकर उनकी कमी को पूरा करने की पेशकश करते हैं। बाजरवादी व्यवस्था में हथियारों और ताकत के भरोसे अर्जित सम्पत्ति सारे तकनीकी ज्ञान को अपने साथ लाने में सक्षम हो जाती है। फिल्म में बेतरतीब ढंग से फलफूल रहे कस्बे हैं जिनमें अनियंत्रित ढंग से बढती भीड़ है, बेढंगे जाल की तरह बुनते बिजली, टेलेफोन या डिस्कों के तार हैं, अतिक्रमणों से संकरे होते रास्ते हैं और एक दम्भ के साथ निकलते धार्मिक जलूस हैं, रिक्शे वाले हैं, धुआँ उड़ाते वाहन हैं, रंग फीके पड़ते पुराने मकान हैं जिनकी पलस्तर उखड़ी दीवारें हैं, पुरानी परम्पराओं में पैर गड़ाये आधुनिकता है जो एक विचित्र सा दृश्य रचती है। पतले होने की तुलना बिजली के तार से करते हुए ‘लोकगीत’ हैं। पेजर से लेकर मोबाइल तक का उपयोग करते अपराधी हैं और लाठी के सहारे भैंस का मालिकत्व प्राप्त करती जंगली व्यवस्था है, जिसकी जेब में कानून पड़ा रहता है। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि जिस तरह कभी कभी महानगरों में अपनी क्षेत्रीय भाषा में बोलने वाला व्यक्ति सहज हास्य पैदा करते हुए भी हमें अपनी मौलिक दुनिया का आभास देता है वैसा ही अभास यह फिल्म अपने यथार्थ को व्यंग्यात्मक ढंग से देती है। सारी सभ्यताएं झूठ और बनावट के आधार पर खड़ी की जाती हैं जो प्राकृतिक को असभ्य मानती हैं। ऐसी फिल्में उस तरह की निन्दा के साथ साथ व्यावसायिक खतरे उठाते हुए भी रची जाती हैं, जो कहीं गहरे में असर करती हैं। प्रेमचन्द ने साहित्य को समाज का दर्पन कहा है और कृष्ण बिहारी नूर कहते हैं-

चाहे सोने के फ्रेम में मढ दो
आइना झूठ बोलता ही नहीं
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, अगस्त 07, 2012

क्या अब संघ परिवार अन्नाटीम के सहारे सत्ता हथियाना चाहती है ?


                क्या अब संघ परिवार अन्ना टीम के सहारे सत्ता हथियाना चाहता है?
                                                                                वीरेन्द्र जैन
       दक्षिण पंथ की राजनीति में अर्थ और आशय में बहुत अंतर होते हैं। नेताओं के बयानों के जो अर्थ होते हैं जरूरी नहीं कि उनका आशय भी वही हो। इस विषय पर आज से पच्चीस वर्ष पहले रमेश शर्मा की एक फिल्म आयी थी ‘न्यू दिल्ली टाइम्स’ जिसमें मीडिया का उपयोग करते हुए सत्ता की राजनीति के दोगले चरित्र का बहुत ही कुशल चित्रण था। माननीय श्री लाल कृष्ण अडवाणीजी की ताजा भविष्यवाणी को भी ‘बिटवीन दि लाइंस’ पढे जाने की जरूरत है जिसमें उन्होंने कहा है कि आगामी प्रधानमंत्री न भाजपा का होगा और न ही कांग्रेस का। इस भविष्यवाणी का भी वही आशय नहीं हो सकता जो इसका भाषायी अर्थ दे रहा है।
       प्रमुख प्रश्न है इस भविष्यवाणी के समय का। 2014 अभी इतनी दूर है कि सामान्य अवस्था में श्री अडवाणीजी को अभी से ऐसी भविष्यवाणी करने की जरूरत नहीं थी जिससे गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ और राजस्थान में होने वाले विधानसभा चुनावों से पूर्व ही भाजपा कैडर में हताशा फैले। आम तौर पर चुनाव लड़ने वाले नेता तो अंतिम समय तक अपनी पार्टी की जीत होने की घोषणाएं करते हुए कार्यकर्ताओं में उत्साह बनाये रखते हैं। अडवाणीजी के इस बयान के दौरान की प्रमुख घटना अन्नाहजारे और उनकी टीम द्वारा अनशन समाप्त करके चुनाव लड़ने की घोषणा करना है। मँहगाई, बेरोजगारी तथा भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरा कांग्रेस शासन और राज्यों में समान आरोपों के साथ साम्प्रदायिकता का अतिरिक्त कलंक लिये भाजपा से भी जनता में निराशा छायी है इसको अडवाणी से पहले आरएसएस सूंघ चुका है और सार्वजनिक रूप से व्यक्त भी कर चुका है। एक तीसरे विकल्प के प्रयोग की सम्भावनाएं बलवती दिखाई देने लगी हैं, जिसे इन दो दलों में से किसी की जरूरत पड़ सकती है। पर भाजपा के साथ गठबन्धन करने में प्रत्येक दल नाक भौं सिकोड़ता है, उनका साथ कोई भी दल किसी मजबूरी में ही लेता देता है, जिसका सर्वोत्तम नमूना बिहार में जेडी[यू] के साथ उनकी बिहार में बनी राज्य सरकार है, जो उनके प्रति अपनी नफरत को कभी नहीं छुपाती। यही कारण रहा कि मीडिया और संघ परिवार के सहारे अपनी राष्ट्रव्यापी छवि बना चुकी टीम अन्ना ने चुनाव में उतरने की घोषणा कर दी। इस घोषणा से नकारात्मक मतों का छींका टूटने की आस में बैठी भाजपा का निराश होना सहज स्वाभाविक है क्योंकि वह मुख्य विपक्षी दल है। सम्भवतः अडवाणीजी ने इसी यथार्थ में से संघ परिवार के हस्तक्षेप के लिए जगह तलाशने हेतु परखी लगायी है।
       स्मरणीय है कि संघ परिवार बहुत पहले ही यह समझ चुका था कि साम्प्रदायिक संकीर्णता की राजनीति द्वारा वे कभी भी हिन्दुस्तान पर शासन नहीं कर सकते इसलिए उन्होंने दूसरे के कन्धों पर बन्दूक रख कर चलाने की कोशिश की जिसमें वे बहुत हद तक सफल भी रहे अन्यथा विचार के आधार पर उनकी हैसियत अकाली दल या शिवसेना से अधिक समर्थन जुटाने की नहीं है। वे आज जिस स्थिति में हैं उसके पीछे इसी चतुराई का हाथ रहा है। भले ही गैर-कांग्रेसवाद का नारा लोहियाजी ने दिया था किंतु उससे लाभ उठाने वाले संघ परिवार के लोग रहे हैं। 1967 में जब कांग्रेस के असंतुष्टों के नेतृत्व में संविद सरकारें बनना प्रारम्भ हुयीं तब उनमें आतुर हो सबसे आगे बढ कर सहयोग देने वालों में जनसंघ ही था। 1977 में तो उन्होंने अपनी पूरी पार्टी को ही जनता पार्टी में विलीन कर देने का दिखावा किया क्योंकि वे अपनी बदनाम पहचान से अधिक सत्ता के दुरुपयोग के अवसरों के लिए सदैव तत्पर रहते रहे हैं। जनता पार्टी की सरकार में उन्होंने तब भी शामिल होना स्वीकार किया जब इसका नेतृत्व कांग्रेस से बाहर निकले मोरारजी देसाई, जगजीवन राम, हेमवती नन्दन बहुगुणा, आदि कर रहे थे। उनका यह विलीनीकरण नकली और षड़यंत्रकारी था इसलिए उनकी दुहरी सदस्यता के सवाल पर ही देश की पहली गैर-कांग्रेसी केन्द्र सरकार गिरी और ये लोग जैसे गये थे वैसे ही समूचे बाहर आ गये। इस बीच उन्होंने विदेश मंत्रालय और सूचना और प्रसारण मंत्रालय का मंत्रीपद लेकर अपनी जड़ें मजबूत कीं। अडवाणी जी के कार्यकाल में बहुत बड़ी संख्या में संघ के लोग मीडिया जगत में प्रविष्ट करा दिये गये जिन्होंने उसे आज के दूसरे सबसे बड़े दल तक पहुँचाने में बड़ा योगदान दिया। जनसंघ नाम से कोई मोह न रखने के कारण उन्होंने भाजपा नाम से नया नामकरण कर लिया, व जनता के बीच अपनी स्वीकारता बढाने के लिए अपनी पार्टी के लक्ष्यों मैं ‘गान्धीवादी समाजवाद’ को जोड़ दिया। 1985 के लोक सभा चुनावों में दो सीटों तक सिमिट गयी इस पार्टी ने हिम्मत नहीं हारी और फिर नया कन्धा तलाशने में जुट गयी। जल्दी ही उसे जनमोर्चा बना कर कांग्रेस से अलग हुए वीपी सिंह का साथ मिल गया और वे सुहाने सपने देखने लगे। पर दुर्भाग्य से चुनाव परिणाम ऐसे आये कि दोनों दल मिल कर भी सरकार बना सकने लायक संख्या बल नहीं जुटा सकते थे इसलिए उन्हें बामपंथी दलों के सहयोग की जरूरत पड़ी। बिडम्बना यह रही कि उन्होंने इस शर्त पर बाहर से समर्थन देना मंजूर किया कि भाजपा भी सरकार में सम्मलित नहीं होगी, सो वे मन मारकर रह गये। बाद में रामजन्म भूमि मन्दिर के नाम रथयात्रा के पीछे पीछे चलने वाले दंगों, बाबरी मस्ज्द ध्वंस और मुम्बई बम विस्फोटों ने व्यापक ध्रुवीकरण किया जिसके सहारे 98 के बाद उनकी सीटें अधिक आ गयीं तब कांग्रेस के खिलाफ चुनाव जीत कर आये क्षेत्रीय दलों के सहयोग से उन्होंने सरकार बनाने की कोशिश की। यह कोशिश तब सफल हुयी जब सहयोगी दलों की शर्तों के अनुसार उन्होंने अपनी पहचान के तीन प्रमुख मुद्दे, रामजन्म भूमि मन्दिर निर्माण. धारा 370, और समान आचार संहिता को अलग कर दिया। कर्नाटक में तरह तरह के दाग रखने वाले येदुरप्पा के आगे इन्होंने जिस तरह से आत्म समर्पण किया वह इनके सत्ता समर्पण की सर्वज्ञात ताजा कथा है। कहने का अर्थ यह है कि सत्ता के लिए समझौता परस्ती का उनका पुराना इतिहास है और मन वचन में भेद के सर्वोत्तम राजनीतिक प्रतीक हैं। यही कारण है कि सत्ता के लिए सिद्धांतों से किंचित भी समझौता न करने वाले बामपंथी इनके सबसे बड़े स्वाभाविक शत्रु हैं।
       जब यह सुनिश्चित हो गया कि अन्ना हजारे की टीम अब राजनीति में उतरेगी और निराश जनता के लिए तीसरी शक्ति के रूप में वह किसी उम्मीद की किरण लग सकती है तो उन्होंने सत्ता में उनके सहारे प्रवेश की सम्भावना तलाशी। बदनाम और राजनीतिक अछूत पार्टी की छवि से उबरने के लिए वे जनसंघ के विलीनीकरण की तरह पार्टी में कृत्रिम विभाजन भी दिखा सकते हैं जो टीमअन्ना की राजनीतिक पार्टी का समर्थक बनके प्रकट हो। आन्दोलन में सहयोग के कारण उनका साथ तो पुराना है। एक स्वीकार्य प्रतीक बनने के लिए भाजपा में वैचारिक विभाजन का माहौल प्रचारित किया जाने लगा। संघ के संजय जोशी और मोदी के मतभेद, अडवाणी और मोदी के मतभेद, केशुभाई और मोदी के मतभेद, धूमल और शांता कुमार के मतभेद, कोश्यारी और खण्डूरी के मतभेद, गडकरी और गोपीनाथ मुण्डे के मतभेद, अनंतकुमार और येदुरप्पा के मतभेद, वसुन्धरा और गुलाब चन्द्र कटारिया के मतभेद, शिवराज और उमा भारती के मतभेद आदि मतभेद जग जाहिर किये गये हैं। यदि इनमें से कुछ लोग सोची समझी तरकीब से एक अलग दल बना लेते हैं तो पहले से अंतर्सम्बन्ध और तीसरे विकल्प की उम्मीद पाले बैठी टीम अन्ना के साथ उनका गठबन्धन बन सकता है जिससे टीम अन्ना पर भाजपा से गठबन्धन की बदनामी का आरोप नहीं लग सकेगा। दल के नाम के प्रति वे वैसे ही बहुत भावुक नहीं होते ये जनसंघ के विलीनीकरण के समय देख चुके हैं। उनके लिए मूल चीज सत्ता में भागीदारी है वह किसी भी तरह मिले।
       बहुत सम्भव है कि यह एक अनुमान भर हो किंतु किसी भी तरह सत्ता से जुड़े रहने को कृत संकल्प संघ परिवार के राजनीतिक चरित्र को देखते हुए बेबुनियाद नहीं है। भाजपा के शिखर पुरुष अडवाणीजी का असमय का वक्तव्य अकारण नहीं हो सकता। संसद में घनघोर विरोध करने के बाद सुखराम से सहयोग ले लेने वाले, जयललिता से समर्थन ले लेने वाले, झारखण्ड में सत्ता से जुड़ने के लिए शिबू सोरेन के साथ गठबन्धन कर लेने वाले दल के पुराने घाघ राजनेता इस संकट काल में किसी न किसी तरह का मुखौटा लगा कर प्रकट होंगे, जिसकी एक सम्भावना यह भी है।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, अगस्त 03, 2012

अगर अन्ना हजारे अपने शब्दों पर सचमुच गम्भीर हैं तो .................


अगर अन्ना अपने शब्दों पर सचमुच गम्भीर हैं तो......
वीरेन्द्र जैन
[यह लेख अन्नाटीम द्वारा अनशन त्यागने और चुनावी समर में उतरने कीघोषणा से कुछ दिन पूर्व ही लिखा गया था]  
       यह अविश्वास का समय है। किसी भी क्षेत्र के नेतृत्वकारी लोगों पर पूर्ण भरोसा करने वाले लोगों की संख्या दिनों दिन घटती जा रही है। गान्धी नेहरू के बाद शायद जयप्रकाश नारायण वह अंतिम व्यक्ति थे जिन पर देश के एक बड़े वर्ग ने भरोसा किया था। यही कारण है कि देश में परिवर्तन चाहने वाले लोगों को पुराने प्रतीकों से काम चलाना पड़ता है। सम्भवतः इसी समझ के कारण केजरीवाल-सिसोदिया ग्रुप ने अपने आन्दोलन की विश्वसनीयता के लिए एक गान्धीनुमा प्रतीक का चयन किया जिन्हें लोग अन्ना हजारे के नाम से जानते हैं। फौज की साधारण नौकरी छोड़ कर आये अन्ना हजारे ने अपना परिवार नहीं बनाया, अपने गाँव में जनसहयोग के माध्यम से उन्होंने समाज सुधार के कुछ सफल काम किये और गान्धी के अनशन अस्त्र का प्रयोग करके महाराष्ट्र राज्य में कुछ दागी मंत्रियों को पद से मुक्त कराने में सफलता का श्रेय प्राप्त किया,[भले ही इसमें सत्तारूढों की दलीय गुटबाजी की भी एक भूमिका रही हो]।
       पर अन्ना हजारे, गान्धी जैसे सुशिक्षित, अनुभवी, चतुर और समझदार नहीं हैं। एक लोकप्रिय शायर का शे’र है- ‘ये जाफरानी पुलोवर, उसी का हिस्सा है/ दूसरा कोई जो पहिने तो दूसरा ही लगे’। गान्धी के इस पुराने अस्त्र का प्रयोग करते समय यह ध्यान रखना होगा कि अनशन दुश्मन को नुकसान पहुँचाने के लिए नहीं अपितु अपने लोगों की सम्वेदनाओं को झकझोरने के लिए किया जाता है। नेहरूजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैं कई बार गान्धीजी से सहमत नहीं था, पर वे अनशन पर बैठ गये थे और मैं नहीं चाहता था कि गान्धीजी को कुछ नुकसान हो इसलिए मुझे उनकी बात माननी पड़ी। अम्बेडकर को मनाने के लिए भी उन्होंने यर्वदा जेल में अनशन किया था जिस कारण असहमत होते हुए भी अम्बेडकर को अपनी माँगों से पीछे हटना पड़ा था। यह गान्धीजी के व्यक्तित्व का ही प्रभाव था कि उनके जीवन को बचाने के लिए लोग जिस तरह से सहमत हो जाते थे या उदासीनता त्याग कर आन्दोलन में सम्मलित होते जाते थे, आज न वैसे लोग हैं और न ही अनशनकारियों का वैसा व्यक्तित्व ही है। व्यक्तियों में बदल चुके समाज और बाज़ारवादी संस्कृति ने सबसे बड़ा हमला हमारी सम्वेदना पर ही किया है। आज दुर्घटना में घायल हुए व्यक्ति के पास से सैकड़ों वाहन गुजर जाते हैं पर कोई उसकी सहायता के लिए नहीं रुकता। भोपाल के पास मंडीदीप में शराब की बोतलों से भरा एक ट्रक उलट गया तो लोग शराब की बोतलें तो लूट ले गये किंतु दबे हुए ड्राइवर क्लीनर को किसी ने नहीं निकाला और उनकी मृत्यु हो गयी। भोपाल से ही एक क्रिकेट खिलाड़ी को अचानक राष्ट्रीय स्तर पर खेल के लिए बुलावा आ गया तो उसके लिए किसी ने भी अपनी फ्लाइट कैंसिल करके अपनी सीट उसे नहीं दी जिससे उसका मैच चूक गया, जबकि ऐसा नहीं हो सकता कि सारे ही लोग ऐसे काम से जा रहे हों जिसे एक दिन टाला नहीं जा सकता हो। ऐसी असंख्य घटनाएं प्रतिदिन हमारे चारों ओर घट रही हैं। यह समय गान्धीजी के समय की सम्वेदना से बहुत भिन्न है, इसलिए पिछले दस वर्षों से लगातार अनशन कर रही इरोम शर्मिला के अनशन से न तो सरकार और न ही समाज में कोई हलचल देखने को नहीं मिली।
       गान्धीजी के कटुतम आलोचकों ने भी इस बात को स्वीकारा है कि उन से असहमतियां हो सकती हैं पर  वे एक सच बोलने वाले आदमी थे। इन दिनों दूरदर्शन पर एक सन्देश विज्ञापन आता है जिसमें भी गान्धीजी कहते हुए दिखाये गये हैं कि मैं तो सच्ची सच्ची बात कहने वाला आदमी हूं.................। उनकी आत्म कथा का नाम भी ‘सत्य के प्रयोग’ ही है। अन्नाजी जब गान्धी जी के तरीके का स्तेमाल कर रहे हैं तो उन्हें अपने व्यक्तित्व को एक सच्चे आदमी की तरह मान्य बनाना होगा। यह उल्लेख करना गलत नहीं होगा कि आज देश में प्रतिवर्ष सैकड़ों की संख्या में ‘आमरण अनशन’ होते हैं जिनकी अवधि भी पहले से तय होती है। इन ‘आमरण अनशनों’ को एक दिन की स्थानीय कवरेज से अधिक का महत्व नहीं मिलता क्योंकि सब मानते हैं कि यह ड्रामा अपना व्यक्तिगत स्वार्थ हल कराने के लिए मामले को सार्वजनिक सा दिखाने की कोशिश है। परिणाम स्वरूप इस सम्वेदनहीन समय में यदि कोई सचमुच गम्भीर भी है तो भी लोग सन्देह करते हैं। ऐसे में अगर अन्ना हजारे अपेक्षाकृत बड़े समुदाय का ध्यान आकर्षित करने में सफल हुए हैं तो उसका कारण गान्धी की छवि का प्रभाव है। दूसरी ओर वे जैसे जैसे गान्धी की छवि से दूर जाते हैं वसे ही वैसे उनकी विश्वसनीयता घटती है। दुर्भाग्य यह है कि वे आज की असत्य पर आधारित राजनीति के चंगुल में फँसते जा रहे हैं और उनकी विश्वसनीयता दिनों दिन घटती जा रही है।
       अन्ना से उम्मीद रखने वाले लोगों के लिए यह जानना एक बड़े धक्के की तरह था कि गान्धी की छवि को आधार बनाने वाला व्यक्ति गान्धी की हत्या के विचार के जनक संगठन से गलबहियां कर रहा है जिनकी प्रचार सामग्री में आज भी गान्धी की हत्या को ‘गान्धी वध’ और गोडसे की किताबें बिकती हैं। जब अन्ना अनशन करते हैं तो भीड़ जुटाने के लिए इसी संगठन के लोग अपनी पहचान छुपा और अपना खजाना खोल कर हजारों लोगों के लंगर की व्यवस्था करते हैं और बाद में दावे के साथ लोगों को बताते भी हैं। अन्ना की जगह अगर गान्धीजी होते तो वे शुरू से ही इसे छुपाने की कोशिश नहीं करते पर अन्ना हजारे और उनकी टीम ने उस पर परदा डालने का काम किया। लोगों को यह सन्देह होना स्वाभाविक ही है कि अभी जो बातें सामने नहीं आयी हैं वे न जाने कितनी होंगीं। स्मरणीय है कि गान्धीजी की हत्या से जुड़े संग़ठन की भाषा भले ही बदल गयी हो पर न तो आज तक उसने कभी अपने किये का खेद व्यक्त किया और न ही अपने विचार ही बदले हैं। उन्हें जब भी मौका मिलता है वे राष्ट्र की धर्मनिरपेक्षता को चोट पहुँचाने से गुरेज नहीं करते और केन्द्र तथा गुजरात राज्य में सत्ता होने पर तो उन्होंने अपना असली स्वरूप ही दिखा दिया जिसके बाद उनके साथ हाथ मिलाना तक एक राष्ट्रीय शर्म बन चुकी है। उनके साथ गठबन्धन करने वाले दल तक उनके साथ बैठने को एक मजबूरी बताते हैं। दूसरी ओर जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आन्दोलन कर रहे हैं उनके ये सहयोगी उसमें आकंठ लिप्त हैं, इसे देश का बच्चा बच्चा जानता है। उक्त संग़ठन अगर किसी के साथ सहयोग करते हैं तो उसके अस्तित्व और उसके समर्थन को हड़पने के लिए करते हैं, इसलिए यह उम्मीद करना कि उनका सहयोग लेकर अपने आन्दोलन की घोषित भावना को बचा कर रखा जा सकता है, समझदारी नहीं कही जा सकती। वे या तो मौका देख कर अपना आधार खींच लेंगे या गुलाम बना लेंगे और ये दोनों ही बातें अन्ना के आन्दोलन और स्वयं अन्ना के हित में नहीं होंगीं। लगभग ऐसा ही हाल आयुर्वेदिक दवाओं के व्यापारी बाबा भेषधारी रामदेव के साथ सहयोग का भी है जो अपनी व्यापारिक अनियमिताओं के कारण कानून की नजर में है और बिना किसी द्वेष के भी कानूनी कार्यवाही से उनका साम्राज्य ध्वस्त हो सकता है। एक ओर तो उनकी राजनीतिक महात्वाकांक्षाएं हैं और दूसरी ओर अपने व्यावसायिक हितों के संरक्षण के लिए उन्हें ग्राहिकी और जनसमर्थन चाहिए।
       गान्धीजी इस समझदारी के लिए विख्यात थे कि वे अपनी विचारधारा से विचलन को स्वीकार नहीं करते थे और तात्कालिक सफलता के लिए किसी भी तरह का समझौता करना पसन्द नहीं करते थे। स्मरणीय है कि चौरी चौरा कांड में घटित हिंसा के बाद गान्धीजी ने व्यापक रूप से सफल हो रहे अपने आन्दोलन को वापिस ले लिया था। यही कारण है कि उनके विचारों और सन्देशों में एक ताकत थी और उनका अनशन एक आन्दोलन बन जाता था।
       भीड़ की चिंता करना चुनावी पार्टियों का काम है और गलत दोस्तों की तुलना में समझदार दुश्मन ज्यादा अच्छा होता है। अन्ना अगर बार बार दिखावटी अनशन करते रहे तो वे क्रमशः अपनी धार खोते जायेंगे और  वीकेंड मनाने वाली भीड़ के नेता होकर रह जायेंगे, पर यदि वे किसी ज़िद में आकर सचमुच ही लम्बा अनशन कर बैठे तो इस सम्वेदनहीन समाज में इरोम शर्मीला होकर रह जायेंगे। उन्होंने देश के लिए एक बेहद महत्वपूर्ण समस्या को हल करने के आन्दोलन का प्रतीक पुरुष बनना स्वीकार किया है, पर यह समस्या सचमुच हल भी हो सके इसके लिए समयानुकूल व्यवहारिक समाधान की तलाश की ओर बढना चाहिए। विचार करने की जरूरत यह भी है क्यों कुछ प्रमुख लोग उनके आन्दोलन को छोड़ कर चले गये हैं क्योंकि उनमें से सभी नकली नहीं थे। 
वीरेन्द्र जैन
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