शुक्रवार, सितंबर 20, 2019

मूर्तियों का आकार

मूर्तियों का आकार
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों भोपाल में गणेश की एक विशालकाय मूर्ति का विसर्जन करते हुए नाव पलट गयी थी और उसमें बारह युवा असमय ही मृत्यु का शिकार हो गये। ऐसे में जैसा कि होता है सत्ता में बैठे नेताओं ने जनभावनाओं के अनुरूप मुआवजे की बड़ी राशि देने की घोषणा करते हुए मृतक के परिवार के सदस्य को सरकारी नौकरी देने तक के वादे किये। कुछ लापरवाह छोटे प्रशासनिक अधिकारियों पर कार्यवाही की और नियमों को कठोर बनाने की घोषणा भी की। दूसरी ओर विपक्ष में बैठे नेताओं ने अपना कर्तव्य निभाते हुए दिये गये मुआवजे को कम बताते हुये उससे दुगनी राशि देने की मांग कर डाली और राजनीति करते हुये जिम्मेवारी को उच्च अधिकारियों से लेकर मंत्रियों तक फैलाने की कोशिश की, भले ही उनके कार्यकाल में घटित ऐसी ही दुर्घटनाओं में मुआवजे की राशि बहुत कम रही थी। सुधार की जो त्वरित घोषणाएं की गयीं उनमें मूर्ति का आकार छह फीट तक रखने की बात भी घोषित की गयी। घटना की सनसनी एक सप्ताह तक रही।
कुछ ही दिन बाद नवरात्रि पर्व का प्रारम्भ होने जा रहा है, जिसके लिए मूर्तियों का निर्माण अपने अंतिम दौर पर हैं। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार केवल भोपाल ही में दस फीट और उससे अधिक ऊंचाई की पाँच सौ से अधिक मूर्तियां निर्मित हो रही हैं। प्रशासन में इतहा साहस नहीं है कि वह इन मूर्तियों का निर्माण रुकवा सके या इनके विसर्जन को रोक सके। सरकार के सुधारात्मक सुझाव को भी धार्मिक मामला बता कर धार्मिक उन्मादियों ने सरकार के खिलाफ बयान देना शुरू कर दिया है। तय है कि विसर्जन का कार्यक्रम प्रति वर्ष की भांति ही होगा और दुर्घटनाओं की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। धर्मदण्ड के आगे दण्डवत हो जाने वाले पुलिस बल से यह उम्मीद भी नहीं की जा सकती कि वह धर्म के नाम पर कुछ भी बेतुके काम किये जाने को रोकने की कोशिश करे, भले ही उस काम की कोई सुदीर्घ परम्परा न हो। 
मूर्ति पूजा का उद्देश्य अतीत के पौराणिक देवताओं को वर्तमान समय में महसूस करना होता है इसलिए यथा सम्भव उनका स्वरूप वैसा ही बनाये जाने की कोशिश की जाती है जैसा कि पुराणों में उनका वर्णन किया गया है। वैसा ही रूप, वैसे ही वस्त्र, वैसे ही शस्त्र, वाहन, और उनके चरित्र के अनुसार उनकी मुख मुद्राएं बनायी जाती हैं। किंतु जब से राजनीति में धर्म की भूमिका ने प्रवेश किया है तब से उसका स्वरूप ही बदल गया है। आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व तिलक ने गणपति समारोहों का प्रारम्भ महाराष्ट्र में इसलिए किया था ताकि सार्वजनिक स्थान पर हर जाति धर्म के लोग स्वतंत्रता की लड़ाई में साथ आ सकें। आजादी के बाद आयी वोटों की राजनीति में लाभ लेने हेतु एक हिन्दुत्ववादी पार्टी ने पूरे हिन्दीभाषी क्षेत्र में इसका विस्तार किया। वर्षा की ऋतु के बाद सभी जगह उत्सव मनाने की परम्परा थी किंतु प्रत्येक क्षेत्र में ये उत्सव अलग अलग तरह से मनाये जाते थे। महाराष्ट्र में गणपति की स्थापना के रूप में होता था तो बंगाल में दुर्गा पूजा के रूप में, गुजरात में नवरात्रि में देवीपूजा के साथ गरवा के रूप में होता था तो हिन्दीभाषी क्षेत्र में रामलीलाएं व दशहरा उत्सव होते थे, कांवड़ यात्रा भी निकलती थी। केरल में मनाये जाने वाला ओणम भी इसी महीने पड़ने वाला त्योहार है। वोटों की राजनीति में धर्म के प्रयोग ने सभी जगह सभी तरह के उत्सव मनाये जाने शुरू करवा दिये व कुछ लोगों को इन उत्सवों का व्यापार करना सिखा दिया।
व्यापारिक मनोवृत्ति ने निर्धन, दलित, और पिछड़े वर्ग के बेरोजगार युवाओं को झांकी सजाने और निकालने का स्वरोजगार दे दिया। वे धर्म की राजनीति करने वाले नेताओं के संरक्षण में अपने समूह की ताकत के बल पर बिना हिसाब किताब का चन्दा एकत्रित करने लगे और धार्मिक भावनाओं का छोंक लगा होने से सरलता से वसूलने भी लगे। यह जानना रोचक हो सकता है कि सर्वाधिक आकर्षण वाली झांकियां बाजारों के आसपास ही लगायी जाती हैं क्योंकि व्यापारिक अनिश्चितता में जी रहा दुकानदार युवा समूह से किसी प्रकार का टकराव नहीं चाहता। ज्यादा चन्दा वसूलने के लिए झांकियों में प्रमुख तीर्थों की प्रतिकृतियों के साथ साथ मूर्तियों का आकार भी विशाल से विशालतर होता गया। आयोजक यह भूलते गये कि किसी मूर्ति का आकार धार्मिक पुराणों में रचे गये पात्रों के अनुरूप ही होना चाहिए। पुराणों में देवताओं का आकार सामान्य मानवाकार ही दर्शाया गया है जबकि राक्षसों या खलनायकों को विशाल आकार में बताया गया है। राजनीतिक व्यापार के चक्कर में वे देवताओं का स्वरूप ही बदले दे रहे हैं। उल्लेखनीय है कि देश में लाखों लोगों की पूज्य वैष्णो देवी की मूर्तियां आकार में सामान्य होते हुए भी महत्व में बड़ी हैं। दशहरा में रावण, मेघनाथ और कुम्भकरण के पुतले लम्बे से और और लम्बे बनाये जाते रहे हैं जिनसे सामान्य आकार के पात्र ही संहार कर मुक्ति दिलाते हैं।
गणपति उत्सव, नवरात्रि उत्सव, गरवा आदि की व्यावसायिकता में कोई पंडित या विद्वान यह बताने आगे नहीं आता कि इन उत्सवों को मनाने की शास्त्रोक्त सही विधि क्या हो सकती है, और इसमें आयी विकृतियों को रोका जाना चाहिए। उन्हें ऐसा करने पर धर्मविरोधी ठहराये जाने का खतरा महसूस होता है इसलिए वे दबंगों द्वारा राजनीतिक व्यापार के हित में बनायी जा रही व्यवस्थाओं को चलाने लगते हैं। दुकानदार भी अपने बाज़ार के आसपास ऐसे उत्सव आयोजित कराने में रुचि रखते हैं ताकि भक्तों और ग्राहकों के बीच बचे खुचे भेद को भी मिटाया जा सके। त्योहारों के दौरान दैनिक उपयोग की वस्तुएं मंहगी बिकने लगती हैं, भले ही उत्सवों, व्रतों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं हो। कारण पूछने पर वे बताते हैं कि उन्हें उत्सव के लिए चन्दा भी देना पड़ता है। कुल मिला कर इन उत्सवों का बोझ भी आम आदमी पर पड़ता है। उत्सवों के दौरान उचित दामों में सामग्री मिलने का कोई अभियान कभी नहीं चला जबकि उसे महूर्त बता कर हर व्यापारी अपना कीमती सामान बेचने के विज्ञापन देने लगता है। पितृपक्ष के दौरान नया सामान न खरीदे जाने का विश्वास लोगों में रहा है किंतु पिछले कुछ वर्षों से इसी दौरान कुछ लोकप्रिय बाबा बयान देते हैं कि पितृपक्ष में नया सामान खरीदने में कोई दोष नहीं है। जाहिर है कि उक्त अनावश्यक बयान व्यापारियों द्वारा दिलाये गये होते हैं। उत्तर भारत में नये नये फैले गणेश, दुर्गा, और गरवा उत्सवों के बीच में हमारी रामलीला विलीन हो गयी जो उत्तर भारत का सबसे पुराना जननाट्य था।
जो नये उत्सव आये हैं उनकी आचार संहिता भी बनना चाहिए और उसे अनैतिक व्यापार बनने से रोकने के लिए उसके हिसाब किताब और प्रबन्धन की देख रेख करने वाली भी कोई संस्था होनी चाहिए। अब प्रत्येक मुहल्ले के दबंगों को धन एकत्रित करने के लिए यह साधन बनता जा रहा है। धर्म की राजनीति करने वाले भी अपना प्रभावशाली कैडर भी इसी भीड़ से चुनने लगे हैं।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, सितंबर 18, 2019

श्रद्धांजलि स्मृति शेष माणिक वर्मा भोपाल में वे मेरे पड़ोसी भी रहे

श्रद्धांजलि स्मृति शेष माणिक वर्मा
भोपाल में वे मेरे पड़ोसी भी रहे

वीरेन्द्र जैन
माणिक वर्मा मंचों पर उस दौर के व्यंग्यकारों में शामिल हैं जब छन्द मुक्त व्यंग्य विधा को स्वतंत्र स्थान मिलने लगा था। एक ओर हास्य कविता में काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी, गोपाल प्रसाद व्यास रमई काका शैल चतुर्वेदी हुल्लड़ मोरादाबादी आदि थे तो दूसरी ओर देवराज दिनेश, माणिक वर्मा, सुरेश उपाध्याय, ओम प्रकाश आदित्य, गोविन्द व्यास, आदि थे जिनमें माणिक वर्मा जी का विशेष स्थान था। बाद में अशोक चक्रधर, प्रदीप चौबे, मधुप पांडेय आदि जुड़े । इसके बाद की पीढी में तो फूहड़ चुटकलों ने ही कविता की जगह लेना शुरू कर दिया था। सबसे वरिष्ठ श्री मुकुट बिहारी सरोज इन सब में अलग थे जिन्होंने गीत में सार्थक व्यंग्य रचा।
मेरी पद्य और गद्य व्यंग्य रचनाएं 1971 से ही कादम्बिनी धर्मयुग, माधुरी, रंग आदि में प्रकाशित होने लगी थीं इसलिए मैं खुद को इस खानदान का सदस्य मान कर चलता था। व्यवस्था के खिलाफ मुखर रूप से लिखने वाले माणिक वर्मा मेरे पसन्दीदा कवि भी थे और हमविचार भी लगते थे। अनेक समारोहों में उनसे भेंट होती रही थी किंतु अपने संकोची स्वभाव के कारण मैं जल्दी घुल मिल नहीं पाता था, इसलिए रिश्ता दुआ सलाम तक सीमित रहा था। सरोज जी के प्रति उनकी श्रद्धा देख कर मुझे बहुत अच्छा लगता था जब वे उनसे आशीर्वाद स्वरूप थोड़ा सा पेय पदार्थ मांग रहे होते थे और अपनी तरह से प्रशंसा करने वाले सरोज जी कह रहे होते, कि तुम्हें तब तक एक बूंद नहीं दूंगा जब तक कि तुम वादा नहीं करते कि इतना अच्छा नहीं लिखोगे, आखिर तुम क्यों इतना अच्छा लिखते हो! बहुत भावुक आत्मीयता महसूस होती थी जब माणिक जी उन से कह रहे होते थे कि – बप्पा थोड़ी सी दे दो, आपका आशीर्वाद तो चाहिए ही है मुझे!
इस बीच काफी समय गुजर गया। कवि सम्मेलनों में कवि के रूप में स्थापित होने की मेरी वासना शांत हो चुकी थी व उसी अनुपात में मंच के कवियों के प्रति आकर्षण भी खत्म हो गया था। मैं 2001 में बैंक की नौकरी छोड़ कर भोपाल आकर रहने लगा था और कविता छोड़ कर गद्य लेखन की ओर चला गया था। इसी बीच पता चला कि माणिक वर्मा जी भोपाल में ही रहने लगे हैं और मेरे पड़ोस में ही रहते हैं। पंजाबी बाग की लाजपत राय कालोनी में नीले रंग से पुता हुआ जो मकान है वह उन्हीं का है। मंच के एक कवि श्री दिनेश प्रभात के माध्यम से उनसे पुनः भेंट का मौका मिला और मेरे निकट ही रहने की बात जान कर वे बोले – भैय्या आ जाया करो कभी। पुराने माणिक वर्मा की तुलना में वे बीमार से लगे थे और उम्र का प्रभाव भी दिखा था।
इसी बीच कवि और समाजवादी राजनेता उदयप्रताप सिंह को म.प्र. में समाजवादी पार्टी की ओर से चुनाव का प्रभारी नियुक्त किया गया। वे मेरे पूर्व परिचित थे इसलिए उन्होंने इस प्रवास के दौरान प्रतिदिन मिलने का आग्रह किया ताकि दिन भर की राजनीतिक उठापटक के बाद शाम को साहित्यिक संवाद हो सके। इसी क्रम में एक दिन माणिक वर्मा जी से मिलने का कार्यक्रम भी बना। हम उनके घर पहुंचे और काफी देर बैठे। उस दिन उनके आते रहने के पुनः आग्रह में मुझे औपचारिकता की जगह सच्चाई नजर आयी। इसी मुलाकात में पता चला कि उनके प्रिय पुत्र नीरज कैंसर की बीमारी से ग्रस्त हैं जिनकी देख रेख में चिंतित वे कवि सम्मेलनों से भी दूर रहने लगे थे, और ऐसे कार्यक्रमों में ही जाते थे जहाँ वायुमार्ग से जाकर चौबीस घंटे के अन्दर वापिस आ सकें। यही कारण था कि उन्हें सचमुच ही वार्तालाप करने के लिए आत्मीय मित्रों की जरूरत थी। मैंने उनके यहाँ जाना शुरू किया तो उनकी आदत में शामिल होता गया। अंतराल होने पर वे खुद ही फोन करके आने का आग्रह करने लगे। कुछ समय बाद ही उनके पुत्र की मृत्यु हो गयी।
अपनी प्रारम्भिक जीवन संघर्ष कथा सुनाते हुए उन्होंने बताया था कि वे बचपन में ही बम्बई चले गये थे जहाँ वे टेलरिंग का काम करने लगे थे। जिस दुकान पर वे यह काम करते थे वहीं के टेलर मास्टर ने उनके शायर होने की प्रतिभा को पहचाना था और प्रोत्साहित किया था। वे मूल रूप से गज़लकार ही थे। अभी भी वे लगातार गज़लें कहते थे। कवि सम्मेलनों के आकर्षण ने उन्हें व्यंग्य कवि बना दिया था। उन्होंने बताया था कि कभी नीरजजी आदि को कवि सम्मेलन में सुनने के लिए वे तीस तीस किलोमीटर साइकिल से जाया करते थे। जब मैंने उन्हें सीपीएम के पाक्षिक पत्र लोकजतन का सदस्य बनाया तो उन्होंने बताया था कि वे कभी कम्युनिष्ट पार्टी के सदस्य हुआ करते थे और कामरेड शाकिर अली खान हरदा में क्लास लेने के लिए आते थे। उन्होंने कभी सोवियत भूमि पत्रिका के पचासों ग्राहक बनाये थे। बातचीत में पता लगा कि उनके छोटे बेटे इन्दौर में ही एडीजे हैं और दामाद कहीं कलैक्टर के समतुल्य पद पर पदस्थ हैं। उनके मूल निवास हरदा में उनका पैतृक मकान और खेती है। बहू भी स्कूल टीचर है। दिल्ली के एक कवि व प्रकाशक [शायद उनका नाम श्याम निर्मम था] ने उनका समग्र प्रकाशित करने का फैसला किया था किंतु उनके आकस्मिक निधन से वह प्रकाशन स्थगित हो गया था।
बीएचईएल भोपाल में हरवर्ष 26 जनवरी को कवि सम्मेलन होता है। ज्ञान चतुर्वेदी बीएचईल के ही कस्तूरबा अस्पताल में वरिष्ठ चिकित्सक रहे हैं और संस्थान की साहित्यिक गतिविधियों के लिए प्रबन्धन उनसे सलाह लेता रहा था। एक किसी वर्ष ज्ञान चतुर्वेदी का फोन मेरे पास आया कि माणिक वर्मा के साथ कवि सम्मेलन सुनने आ जाना। इसके साथ ही यह भी बताया कि उनके स्थानीय होने के कारण पिछले वर्ष प्रबन्धन ने उनके द्वारा चाही गयी पन्द्रह हजार की राशि देना मंजूर नहीं किया था किंतु इस वर्ष मैंने उन्हें बीस हजार देना मंजूर करवा लिया। वे आगे बोले जब प्रबन्धन सुरेन्द्र शर्मा को इक्वायन हजार दे रहा है तो मैंने कहा कि माणिक वर्मा को तो बीस हजार मिलने ही चाहिए। यह ज्ञान चतुर्वेदी का उनके प्रति सम्मान का प्रदर्शन था।
उनके साथ बैठ कर कवि सम्मेलनों और विभिन्न कवियों के बारे में ढेर सारी जानकारियां सुनने को मिलीं। जिस दिन वे भोपाल छोड़ कर जा रहे थे उस दिन उन्होंने मुझे फोन किया था किंतु मैं किसी कार्यक्रम में था और उसे अटैंड नहीं कर पाया था, अगले दिन पता चला कि वे तो भोपाल छोड़ कर चले गये हैं।  मुझे श्रद्धांजलि देने के लिए उनका ही वह शे’र याद आ रहा है-
ज़िन्दगी चादर है धुल कर साफ हो जायेगी कल
इसलिए ही हमने उसमें दाग लग जाने दिये  
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, सितंबर 17, 2019

समीक्षा – जिन्हें जुर्मे इश्क पे नाज था संवेदनात्मक ज्ञान को चरितार्थ करती पुस्तक


समीक्षा – जिन्हें जुर्मे इश्क पे नाज था 





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संवेदनात्मक ज्ञान को चरितार्थ करती पुस्तक
वीरेन्द्र जैन
मुक्तिबोध ने कहा था कि साहित्य संवेदनात्मक ज्ञान है। उन्होंने किसी विधा विशेष के बारे में ऐसा नहीं कहा अपितु साहित्य की सभी विधाओं के बारे में टिप्पणी की थी। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जिस रचना में ज्ञान और संवेदना का संतुलन है वही साहित्य की श्रेणी में आती है।  
खुशी की बात है कि विधाओं की जड़ता लगातार टूट रही है या पुरानी विधाएं नये नये रूप में सामने आ रही हैं। दूधनाथ सिंह का आखिरी कलाम हो या कमलेश्वर का कितने पाकिस्तान , काशीनाथ सिंह का काशी का अस्सी हो या वीरेन्द्र जैन [दिल्ली] का डूब, सबने यह काम किया है। पंकज सुबीर की ‘जिन्हें जुर्म-ए-इश्क पे नाज़ था’ इसीकी अगली कड़ी है।
       अमूमन उपन्यास अनेक चरित्रों की अनेक कहानियों का ऐसा गुम्फन होता रहा है जिनके घटित होने का कालखण्ड लम्बा होता है और जो विभिन्न स्थलों पर घटती रही हैं। यही कारण रहा है कि उसे उसकी मोटाई अर्थात पृष्ठों की संख्या देख कर भी पहचाना जाता रहा है। चर्चित पुस्तक भी उपन्यास के रूप में सामने आती है। इसका कथानक भले ही छोटा हो, जिसका कालखण्ड ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यास ‘नरक यात्रा’ की तरह एक रात्रि तक सिमिटा हो किंतु तीन सौ पृष्ठों में फैला इसमें घटित घटनाओं से जुड़ा दर्शन और इतिहास उसे सशक्त रचना का रूप देता है भले ही किसी को उपन्यास मानने में संकोच हो रहा हो। ईश्वर की परिकल्पना को नकारने वाली यह कृति विश्व में धर्मों के जन्म, उनके विस्थापन में दूसरे धर्मों से चले हिंसक टकरावों, पुराने के पराभवों व नये की स्थापना में सत्ताओं के साथ परस्पर सहयोग का इतिहास विस्तार से बताती है। देश में स्वतंत्रता संग्राम से लेकर समकालीन राजनीति तक धार्मिक भावनाओं की भूमिका को यह कृति विस्तार से बताती है। इसमें साम्प्रदायिक दुष्प्रचार से प्रभावित एक छात्र को दुष्चक्र से निकालने के लिए उसके साथ किये गये सम्वाद के साथ उसके एक रिश्तेदार से फोन पर किये गये वार्तालाप द्वारा लेखक ने समाज में उठ रहे, और उठाये जा रहे सवालों के उत्त्तर दिये हैं। पुस्तक की भूमिका तो धार्मिक राष्ट्र [या कहें हिन्दू राष्ट्र] से सम्बन्धित एक सवाल के उत्तर में दे दी गयी है, जिससे अपने समय के खतरे की पहचान की जा सकती है।
 
       “जब किसी देश के लोग अचानक हिंसक होने लगें। जब उस देश के इतिहास में हुए महापुरुषों में से चुन-चुन कर उन लोगों को महिमा मंडित किया जाने लगे, जो हिंसा के समर्थक थे। इतिहास के उन सब महापुरुषों को अपशब्द कहे जाने लगें, जो अहिंसा के हामी थे। जब धार्मिक कर्मकांड और बाहरी दिखावा अचानक ही आक्रामक स्तर पर पहुँच जाए। जब कलाओं की सारी विधाओं में भी हिंसा नज़र आने लगे, विशेषकर लोकप्रिय कलाओं की विधा में हिंसा का बोलबाला होने लगे। जब उस देश के नागरिक अपने क्रोध पर क़ाबू रखने में बिलकुल असमर्थ होने लगें। छोटी-छोटी बातों पर हत्याएँ होने लगें। जब किसी देश के लोग जोम्बीज़ की तरह दिखाई देने लगें, तब समझना चाहिए कि उस देश में अब धार्मिक सत्ता आने वाली है। किसी भी देश में अचानक बढ़ती हुई धार्मिक कट्टरता और हिंसा ही सबसे बड़ा संकेत होती है कि इस देश में अब धर्म आधारित सत्ता आने को है।’’ रामेश्वर ने समझाते हुए कहा।     

इस पुस्तक में टेलीफोन के इंटरसेप्ट होने के तरीके से इतिहास पुरुषों में ज़िन्ना, गाँधी, नाथूराम गोडसे के साथ सम्वाद किया गया है जैसा एक प्रयोग फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ में किया गया था। इस वार्तालाप से उक्त इतिहास पुरुषों के बारे में फैलायी गयी भ्रांतियों या दुष्प्रचार से जन्मे सवालों के उत्तर मिल जाते हैं। कथा के माध्यम से निहित स्वार्थों द्वारा कुटिलता पूर्वक धार्मिक प्रतीकों के दुरुपयोग का भी सजीव चित्रण है।
नेहरूजी के निधन पर अपने सम्वेदना सन्देश में डा. राधाकृष्णन ने कहा था कि “ टाइम इज द एसैंस आफ सिचुएशन, एंड नेहरू वाज वैल अवेयर ओफ इट”। महावीर के दर्शन में जो सामायिक है वह बतलाता है कि वस्तुओं को परखते समय हम जो आयाम देखते हैं, उनमें एक अनदेखा आयाम समय भी होता है क्योंकि शेष सारे आयाम किसी खास समय में होते हैं। जब हम उस आयाम का ध्यान रखते हैं तो हमारी परख सार्थक होती है। पंकज की यह पुस्तक जिस समय आयी है वह इस पुस्तक के आने का बहुत सही समय है। कुटिल सत्तालोलुपों द्वारा न केवल धार्मिक भावनाओं का विदोहन कर सरल लोगों को ठगा जा रहा है, अपितु इतिहास और इतिहास पुरुषों को भी विकृत किया जा रहा है। पुराणों को इतिहास बताया जा रहा है और इतिहास को झुठलाया जा रहा है। आधुनिक सूचना माध्यमों का दुरुपयोग कर झूठ को स्थापित किया जा रहा है जिससे सतही सूचनाओं से कैरियर बनाने वाली पीढी दुष्प्रभावित हो रही है जिसका लाभ सत्ता से व्यापारिक लाभ लेने वाला तंत्र अपने पिट्ठू नेताओं को सत्ता में बैठा कर ले रहे हैं। ऐसे समय में ऐसी पुस्तकों की बहुत जरूरत होती है। यह पुस्तक सही समय पर आयी है। हर सोचने समझने वाले व्यक्ति की जिम्मेवारी है कि इसे उन लोगों तक पहुँचाने का हर सम्भव प्रयास करे जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। शायद यही कारण है कि देश के महत्वपूर्ण चिंतकों ने सुबीर को उनके साहस के लिए बधाई देते हुए उन्हें सावधान रहने की सलाह दी है।       
इस कृति की कथा सुखांत है, किंतु इसके सुखांत होने में संयोगों की भी बड़ी भूमिका है। कितने शाहनवाजों को रामेश्वर जैसे धैर्यवान उदार और समझदार गुरु मिल पाते हैं! कितने जिलों के जिलाधीश वरुण कुमार जैसे साहित्य मित्र होते हैं, विनोद सिंह जैसे पुलिस अधीक्षक होते हैं, और भारत यादव जैसे रिजर्व फोर्स के पुलिस अधिकारी मिल पाते हैं, जो रामेश्वर के छात्र भी रहे होते हैं व गुरु की तरह श्रद्धाभाव भी रखते हैं। आज जब देश का मीडिया, न्यायव्यवस्था, वित्तीय संस्थाएं, जाँच एजेंसियों सहित अधिकांश खरीदे जा सकते हों या सताये जा रहे हों, तब ऐसे इक्का दुक्का लोगों की उपस्थिति से क्या खतरों का मुकाबला किया जा सकता है या इसके लिए कुछ और प्रयत्न करने होंगे?
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629

बुधवार, सितंबर 04, 2019

संस्मरण धर्मवीर भारती, पुष्पा भारती, कनु प्रिया


संस्मरण
धर्मवीर भारती, पुष्पा भारती, कनु प्रिया

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वीरेन्द्र जैन
गत दिनों भारत भवन में इला अरुण, के के रैना द्वारा परिकल्पित और निर्देशित नाटक ‘शब्द लीला’ के मंचन का समाचार पढने को मिला। पिछले कुछ वर्षों में भारत भवन में आमंत्रण भेजे जाने वाली सूची में संशोधन किया गया था और गत दो दशक की परम्परा को तोड़ते हुए मुझ जैसे लोगों को आमंत्रण भेजना बन्द कर दिया गया था, इनमें म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश अध्यक्ष व ऎतिहासिक वसुधा पत्रिका के सम्पादक राजेन्द्र शर्मा भी सम्मलित हैं। यदि समय पर सूचना मिल गयी होती तो इसे देखने मैं अवश्य ही गया होता।
मेरी रुचि का कारण इसका विषय है। यह नाटक धर्मवीर भारती की प्रसिद्ध रचना ‘कनु प्रिया’ पर आधारित बताया गया है जिसके बाद में ‘अन्धायुग’ का मंचन भी किया गया था। कहा जाता है कि ‘कनु प्रिया’ रचने की प्रेरणा भारती जी को अपने निजी जीवन में उठे द्वन्द और उसे हल करने के प्रयासों से प्राप्त जीवन अनुभवों से मिली। वे इलाहाबाद विश्व विद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक थे और पुष्पा भारती उनकी कक्षा की सबसे सुन्दर लड़कियों में से एक थीं। पूर्व से विवाहित भारती जी को उनके रूप और इस आकर्षण को मिले प्रतिदान ने द्वन्द में डाल दिया था। उन दिनों इलाहाबाद हिन्दी साहित्य की राजधानी थी जहाँ भारती जी के अलावा निराला, फिराक गोरखपुरी, हरिवंशराय बच्चन, सुमित्रा नन्दन पंत, महादेवी वर्मा, उपेन्द्र नाथ अश्क, भैरव प्रसाद, मार्कण्डेय, कमलेशवर, दुष्यंत कुमार त्यागी, ज्ञानरंजन, रवीन्द्रनाथ त्यागी आदि आदि लोग सक्रिय थे। अपनी प्रेमिका छात्रा पुष्पा भारती से विवाह करने के विचार पर नैतिकतावादी भारती गहरे द्वन्द से घिरे रहे पर अंततः उनका प्रेम जीता और उन्होंने पुष्पा जी से विवाह कर लिया।
एक बार धर्मयुग में उन्होंने लोहिया जी पर एक संस्मरणात्मक लेख लिखा। इस लेख में उन्होंने लिखा था कि अपने दूसरे विवाह के सम्बन्ध में उन्होंने लगभग समस्त परिचितों और आदरणीयों से सलाह चाही थी किंतु किसी ने भी खुल कर मेरा समर्थन नहीं किया था। किंतु जब उन्होंने लोहिया जी से सलाह मांगी तब उनकी सहमति ने उन्हें बल दिया था और वे निष्कर्ष पर पहुँचे थे। जैसा कि मैं पहले भी एक संस्मरण में जिक्र कर चुका हूं कि जब पुष्पा भारती जी भोपाल आयीं थीं, और दुष्यंत संग्रहालय में मुझे उनसे बातचीत का अवसर मिला था तो मैंने उनसे भारती जी की राजनीति के बारे में जानना चाहा था। उनका उत्तर था कि भारतीजी किसी राजनीति विशेष से जुड़े हुए नहीं थे और उनके घर पर तो हर तरह की राजनीति के लोग आते थे। इस पर मैंने कुरेदते हुए लोहिया जी से उनके सम्बन्धों के बारे में जनना चाहा तो उन्होंने एक संस्मरण सुनाया।
“भारतीजी तब मुम्बई [तब की बम्बई] आ चुके थे। लोहिया जी मुम्बई आये हुये थे और रेलवे स्टेशन के रिटायरिंग रूम में रुके हुये थे। हम दोनों उनसे मिलने गये और भारती जी ने मेरा परिचय कराया तो उन्होंने छूटते ही कहा चीज तो बहुत अच्छी है। यह सुन कर मुझे आग लग गयी। जब भारतीजी ने बाहर ले जाकर मुझसे पूछा कि क्या आज शाम इन्हें खाने पर बुला लें तो मैंने साफ मना कर दिया कि इस आदमी को तो मैं कतई खाना नहीं खिला सकती। फिर भारतीजी ने कभी ऎसा प्रस्ताव नहीं किया।“
इस पर जब मैंने पुष्पाजी को धर्मयुग में लिखे भारतीजी के संस्मरण के बारे में बताते हुए यह भी बताया कि आपसे शादी का अंतिम निर्णय लोहिया जी की सलाह के बाद ही हुआ था तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ, क्योंकि उन्हें यह बात पता ही नहीं थी। वे बोलीं, तो ये बात थी। शायद उन्हें अफसोस हुआ हो।
भारतीजी की पहली पत्नी का नाम कांता था जिसे समाचार में भूल से कामता लिख दिया गया है। उन्होंने ‘रेत पर तड़फती हुयी मछली’ नाम से एक उपन्यासनुमा रचना लिखी है। इस कृति के बारे में कहा जाता है कि वह उनकी आत्मकथा है। भारतीजी से द्वेष रखने वाले किसी विश्वविद्यालय के चयनकर्ताओं ने उसे कभी कोर्स में भी लगा दिया था। कांता जी की एक लड़की भी थी जो काफी समय तक मुम्बई में रही।
भारतीजी जितने अच्छे साहित्यकार थे उतने ही अच्छे सम्पादक भी थे। मैं यह बात निजी अनुभव से कह सकता हूं कि उन्होंने देश भर में हजारों लेखकों को मांजा है, संवारा है, और पहचान दी है। छोटी छोटी पर्चियों पर लिखी उनकी संक्षिप्त टिप्पणियां आज भी मेरी धरोहर हैं।
इसी मुलाकात में पुष्पाजी ने एक और संस्मरण साझा किया था जो उन्हें लता मंगेशकर ने फोन करके बताया था। एक बार लताजी पुणे से लौट रही थीं कि दो लड़कियां लिफ्ट मांगने का इशारा करते हुयीं दिखीं तो उन्होंने ड्राइवर से उन्हें बैठा लेने को कहा। ड्राइवर ने बेमन से आदेश का पालन किया। लताजी उन लड़कियों से उनके बारे में पूछ ही रही थीं कि ड्राइवर ने सीडी प्लेयर चालू कर दिया जिसमें लताजी का ही गीत आ रहा था। उन लड़्कियों ने उन्हें रोकते हुए कहा कि रुकिए, लताजी का गीत आ रहा है। गीत समाप्त होने के बाद उन्होंने पूछा कि क्या तुम लोगों को लताजी पसन्द हैं? उत्तर में उन्होंने कहा कि वे तो हमारे लिए भगवान हैं। लताजी ने पूछा कि अगर तुम्हें लताजी से मिलवा दें तो? उन लड़कियों ने ऐसा भाव प्रकट किया कि यह तो सम्भव ही नहीं है। तब लताजी न कहा कि मैं ही लता मंगेशकर हूं तो दोनों ने इसे सबसे बड़ा चुटकला सुन लेने के अन्दाज़ में खुले मुँह पर चार उंगलियां रख कर उपहास भाव प्रकट किया। लता जी ने उनके विश्वास को तोड़ने की कोशिश न करते हुए ड्राइवर से कहा कि मुझे घर छोड़ते हुए इन्हें इनके गंतव्य तक पहुंचा देना। ड्राइवर ने जब उनके घर पर छोड़ा, जिसके बारे में वे लड़कियां शायद पहले से जानती होंगीं, तो उनकी हालत देखने लायक थी।
राजीव गाँधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद हिन्दी में सबसे पहला साक्षात्कार पुष्पा भारती को ही दिया था। इसकी व्यवस्था तत्कालीन सांसद अमिताभ बच्चन ने की थी जो उन्हें बड़ी बहिन मानते रहे हैं। स्मरणीय है कि अमिताभ की शादी के समय उन्होंने इसी भूमिका का निर्वाह किया था। अपने समय की बहुचर्चित पुष्पाजी मुम्बई में ही रहती हैं। कामना है वे स्वस्थ रहें और उम्रदराज हों।   
वीरेन्द्र जैन
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