मंगलवार, जनवरी 13, 2015

भाषायी गुलामी केवल अंग्रेजी की ही नहीं

भाषायी गुलामी केवल अंग्रेजी की ही नहीं
वीरेन्द्र जैन
हम आये दिन भाषायी गुलामी का स्यापा यहाँ वहाँ सुनते रहते हैं व 14 सितम्बर के आस पास यह रूदन और तीव्र हो जाता है क्योंकि देश में सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थान आने के बाद वहाँ प्रतिवर्ष यह आयोजन धन सम्मान आदि देकर कराया जाता है इसलिए रूदालों की एक राष्ट्रव्यापी टीम खड़ी हो गयी है जो हिमालय से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक जाकर ऑंसू बहाते हैं। रोचक यह भी है कि इस रूदन कार्यक्रम में वे लोग भी सम्मिलित होते हैं जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में वयस्क अवस्था प्राप्त कर लेने के बाद भी आजादी की लड़ाई में कोई हिस्सा नहीं लिया था तथा अभी भी उन लोगों के पीछे खड़े नजर आते हैं जिनका आजादी की लड़ाई में कोई योगदान नहीं रहा तथा आजादी के मतवालों का जो हमेशा ही साम्प्रदायिकता फैला कर विरोध करते रहे।
      आखिर ये भाषायी गुलामी होती क्या बला है! इसे जानने से पहले हमें आजादी और गुलामी को भी सही तरीके से समझना होगा। क्या जिस देश में सारे लोग एक समान न हों वहाँ क्या आजादी और गुलामी सब के लिए एक जैसी हो सकती है? जिन देशों   में दास प्रथा थी वहाँ की राष्ट्रीय आजादी के बाद भी क्या दासों को आजादी मिल गयी थी? अमेरिका के पहले सोलह राष्ट्रपति स्वयं दासों के मालिक रहे हैं। हमारे देश के प्रथम स्वतंत्रता आन्दोलन के आठ साल बाद सन 1865 में वहाँ दास प्रथा समाप्त हुयी। इसके भी सौ साल बाद तक भी वहाँ रंगभेद चला और काले लोगों को पुलिस, जेल-व्यवस्था तथा केकेके अर्थात कु क्लक्स और क्लान के छापामार दस्तों का दमन झेलना पड़ा। 1967 के पहले काले लोगों को गोरे लोगों के स्कूलों में पढने नहीं दिया जाता था और ना ही वे उनके शौचालयों, बसस्टेशनों, और फव्वारों की ओर जा सकते थे। 1967 में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने काले और गोरे लोगों के बीच विवाह और यौन सम्बंधों की इजाजत दी जो पहले प्रतिबंधित थे। इतना ही नहीं अभी पिछले दिनों बराक ओबामा की उम्मीदवारी के चुनाव के दौरान हिलेरी क्लिंटन ने उनकी चमड़ी के रंग को आधार बना कर अपना चुनाव प्रचार चलाया था। उल्लेखनीय है कि हमारे देश में भी हमारे संविधान की रचना में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले बाबा साहब अम्बेडकर भी उस समय अंग्रेजों से आजादी के पक्षधर नहीं थे क्योंकि उनका मानना था कि आखिर यह आजादी किसको मिलेगी! उसी उच्च कहलाने वाले सवर्ण वर्ग को। दलित तो गुलाम के गुलाम रहेंगे और जब तक कि दलितों के लिए उनकी 'आजादी' के हालात नहीं बन जाते तब तक यह एक बहुत सीमित आजादी ही होगी। गांधीजी ने उनकी बात समझी थी इसीलिए हरिजन उद्धार के सामाजिक आन्दोलनों को राजनीतिक आन्दोलनों की बराबरी पर चलाया था और उसके विरोध का परिणाम भी झेला था- स्मरणीय है कि गांधीजी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे ने गांधीजी को गोली मारने के बाद दिये गये बयानों में कहा था कि मैंने ऐसे साँप को मारा है जो हिन्दू धर्म को डॅंस रहा था। उसकी निगाह में वर्णव्यवस्था ही हिन्दू धर्म था। बाद में अम्बेडकर ने भी हिन्दू धर्म से आजादी ली थी और पाँच लाख दलितों के साथ नागपुर में हिन्दूधर्म छोड़ने के लिये सामूहिक रूप से बौद्ध धर्म अपनाया था।
      इसलिए भेद भाव वाले समाज में भाषायी गुलामी भी सबके लिए एक जैसी नहीं हो सकती। आम तौर पर हिन्दी भाषी लोगों को अंग्रेजी में मजबूरन व्यवहार करने की विवशता को भाषायी गुलामी माना जाता है जबकि उच्चवर्ग के जो लोग अंग्रेजी स्कूलों में पढ लिख कर बड़े होते हैं उन्हें जब कभी हिन्दी में व्यवहार करना पड़ता है तो उनके चेहरों पर गुलामी का संदेश साफ पढा जा सकता है। एक आम स्कूल में पढा हिन्दीभाषी भी कार्यालयों में जो अनुवाद की हिन्दी चल रही है उसके व्यवहार में गुलामी महसूस करता है। वैसे भी किसी भी कार्यालय के कार्यों की अपनी शब्दावली होती है व वह उसी लिपि के जानने वाले किसी भी दूसरे व्यक्ति के लिए विदेशी भाषा की तरह ही होती है, हम लोग किसी विभाग के फार्म भरते समय यह परेशानी झेलते रहते हैं। हिन्दी की बोलियों का प्रयोग करने वालों के लिए खड़ी बोली भी कम से कम आधी विदेशी तो होती ही है। मैं जब बचपन में अपने गाँव जाकर अपने कस्बे की भाषा में बात करने की कोशिश करता था तो गाँव की महिलाएँ कहती थीं कि ये तो बिल्कुल रेडियो की बोली बोलता है। उनके लिए खड़ी बोली रेडियो की बोली थी। वैसे भी हम लोग आपस में बात करते समय या पुस्तकों की समीक्षा करते समय कहते ही रहते हैं कि अभिजात्य भाषा का प्रयोग किया गया है अर्थात उसी भाषा में भी अभिजात्य की भाषा अलग होती है। (माना गया है कि प्रेम के कुछ क्षणों में मौन भी भाषा बन जाता है।)
असल में सचाई तो यह है कि जब हम अपने मन की बात लगभग वैसी की वैसी सामने वाले तक पहुँचाना चाहते हैं तो उसके लिए जिन शब्दों का प्रयोग करके हम सफल होते हैं वही हमारी भाषा हो सकती है व इसके अलावा इस लक्ष्य को पाने के लिए किन्हीं अन्य शब्दों के प्रयोग की विवशता भाषायी गुलामी है। हमें सोचने विचारने में कभी भाषा का संकट नहीं आता यह संकट तो तब आता है जब हमें अपने विचार दूसरे अथवा दूसरों तक पहुँचाने होते हैं। यह संकट तब और भी बढ जाता है जब दूसरा कुछ ज्यादा ही दूसरा होता है।
      सन 1969 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरागांधी को अपनी सरकार बचाने के लिए कम्युनिष्टों का समर्थन पाने हेतु बैंकों, बीमा कंपनियों आदि का राष्ट्रीयकरण करना पड़ा व उसके बाद इन संस्थानों को आम आदमी से जुड़ने को मजबूर होना पड़ा तब उन्हें आम आदमी की भाषा समझने वाले लोगों की जरूरत पड़ी। सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों में हिन्दी अधिकारियों की नियुक्तियाँ और भाषा विभागों आदि के गठन उसी काल की देन हैं जबकि मनमोहनसिंह की नई आर्थिक नीतियों के आने के बाद हिन्दी की जाजम लपेटने का काम प्रारंभ हो गया। देश में आम आदमी के बीच लोकप्रिय वक्ता रहे अटलबिहारी बाजपेयी आम सभाओं में 'लतीफों और हास्यकथाओं की भाषा' (सहज समप्रेषण) में बात किया करते रहे तो राजनारायण से लेकर लालू प्रसाद तक आम आदमी के बोलचाल की भाषा में बात करके ही जन नेता बन सके हैं। ( लालू जी की टूटीफूटी अंग्रेजी भी अपना संदेश दे जाती है।)
भाषा संवाद का माध्यम है और उसकी बात संवाद, संवादी, उनके वर्ग, उनके बीच के सम्बंध, सम्बंधों के बीच की ईमानदारी आदि पर निर्भर करेगी। एक लतीफे में टेलीफोन पर छोटे भाई की सारी बातें बड़े भाई की समझ में आती रहती हैं पर जब वह माँ के इलाज के लिए पैसे मांगता है तो बड़े भाई को सुनाई देना बंद हो जाता है और वह कहता है कि आवाज नहीं आ रही। असल में संवादियों के बीच यदि आपसी सौहार्द है तो भाषा के सारे अवरोध दूर किये जा सकते हैं किंतु जब एक व्यक्ति दूसरे को लूटना चाहता हो तो उसके लिए भाषा को भी आधार बना सकता है। अधिकतर सरकारी कार्यालय ऐसा ही कर रहे हैं जबकि बीमा एजेन्ट को कोई परेशानी नहीं होती और ना ही ग्राहक को बीमा करवाते समय होती है। इसलिए मेरी दृष्टि में भाषा की गुलामी का सवाल बाद में आने वाला सवाल है और उसे पहले उठाना ऐसा लगता है जैसे घोड़े के आगे गाड़ी बाँधी जा रही हो। हमारे पास भी जब गाँव की बोली में बोलता हुआ आदमी आता है तो उसको भी वैसी ही गुलामी का अहसास होता है जैसा कि हमें अंग्रेजी वालों के साथ होता है। यदि सरकार अवरोध को वास्तव में दूर करना चाहेगी तो सबसे पहले सरकारी कार्यालयों से भ्रष्टाचार को समाप्त करना होगा तथा काम करने की संस्कृति  विकसित करना होगी, भाषा की समस्या तो चंद अनुवादकों की नियुक्ति से हल हो जायेगी।
वीरेन्द्र जैन
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