मंगलवार, अप्रैल 13, 2010

धार्मिक स्वतंत्रता के प्रतीक पुरुष डा. अम्बेडेकर्

धार्मिक स्वतंत्रता के प्रतीक पुरुष हैं डा. अम्बेडकर
वीरेन्द्र जैन
डा. अम्बेडकर के जन्म दिन पर केन्द्र सरकार ने अवकाश घोषित कर दिया है। सरकारों के पास महापुरुषों से प्रेरणा दिलाने का कोई दूसरा तरीका है भी नहीं। इस दिन माल्यार्पण, पुष्पांजलि श्रद्धांजलि, आदि लोक दिखावे के अनेक पाखण्ड भी किये जायेंगे। यह काम उन राज्य सरकारों के नेता भी करेंगे जिन्होंने अपने यहाँ धर्मांतरण निषेध विधेयक का प्रस्ताव भी रखा हुआ है। यह अम्बेडकर और उनकी विचारधारा का सीधा अपमान है, किंतु जिन नेताओं के मन और वचनों में
संविधान की धारा 25 में साफ साफ लिखा है कि नागरिकों को अपनी इच्छा से किसी भी धर्म को चुनने, मानने, और उसके प्रचार प्रसार करने की स्वतंत्रता है, जबकि धर्मांतरण निषेध का प्रस्ताव पास करने वालों के अनुसार धर्मांतरण कराने वाले व्यक्ति को इसकी पूर्व सूचना ज़िला मजिस्ट्रेट को देनी होगी। यह संविधान 25 के अंतर्गत दिये अधिकार की भावना का सीधा सीधा उल्लंघन है। यदि ऐसा ही रहा तो कल के दिन सरकार यह भी कहने लगेगी कि विवाह करने से पहले या बच्चा पैदा करंने से पहले सरकार को सूचना देनी होगी।
सोनिया गान्धी के राजनीति में सक्रिय होते ही संघ परिवार ने उन पर निशाना साधने के लिए अपने पिटारे में से जो भावनात्मक मुद्दा तलाशा तो वह धर्मांतरण का निकला। सैकड़ों वर्षों से कार्यरत और दीन दुखियों की सेवा में संलग्न ईसाई मिशनिरियाँ धार्मिक शिक्षा भी देती रही हैं व वह शोषित पीड़ित दलित व्यक्ति जिसका धर्मों से कुछ ज्यादा लेना देना नहीं होता, ईसाई धर्म अपना कर अपने प्रति उपकार करने वालों का अहसान चुकाने की कोशिश करता है। उनके इस प्रयास के प्रति भारतीय समाज ने लम्बे समय तक निरपेक्ष भाव अपनाया है। किंतु साम्प्रदायिक राजनीति के प्रसार के बाद जब संघ परिवार को आंकड़ा गत चुनावी नुकसान महसूस हुआ तो 1984 के राम जन्म भूमि मन्दिर की तरह धर्म परिवर्तन को भी भावना भड़काने के लिए अपने कार्यक्रम में शामिल कर लिया गया। ईसाई मिशनिरियों पर आरोप लगाये जाने लगे कि वे लालच देकर ज़ोर ज़बरदस्ती से धर्म परिवर्तन करा रहे हैं, जबकि सच यह है कि ईसाई मिशनरियाँ शिक्षा, सेवा और समता की भावना के आधार पर स्वैच्छिक ढंग से धर्म परिवर्तन करा रही हैं।
गुजरात की नरेन्द्र मोदी सरकार ने तो एक कदम आगे बढकर धार्मिक स्वतंत्रता विधेयक उस दिन आनन फानन में पास करा लिया था जब हरेन पण्डया की हत्या के विरोध में विपक्ष ने हंगामा कर दिया था और वे सदन से बाहर चले गये थे। इस विधेयक में तो प्रावधान है कि धर्म परिवर्तन से पूर्व ज़िला अधिकारी की पूर्व अनुमति अनिवार्य है।
स्मरणीय है कि गोधरा काण्ड से पहले गुजरात में व्यापक पैमाने पर गिरिजा घरों में आगजनी की जा रही थी जो गोधरा काण्ड जैसा दूसरा हथकण्डा मिलते ही बन्द हो गये थे। इस बहाने को लेकर यदि इतना व्यापक साम्प्रदायिक विभाजन नहीं हुआ होता तो गुजरात के साम्प्रदायिक तत्व कुछ और गिरिज़ाघरों में आग लगवा कर, वोट की खातिर धार्मिक भावनाएं भड़काते।
यदि आज अम्बेडकर होते तो उन्हें भी धर्म परिवर्तन नहीं करने दिया जाता।
संविधान में डा. अम्बेडकर द्वारा लिखित एवम व्यव्हृत यह अधिकार अब खटाई में पड़ता जा रहा है। मध्य प्रदेश और उड़ीसा में आज से तीस-पैंतीस वर्ष पूर्व ऐसा ही कानून लागू होने के बाबजूद आज तक धर्म परिवर्तन का कोई भी ऐसा प्रकरण प्रकाश में नहीं आया है, जबकि प्रत्येक कलेक्टर को प्रतिमाह इस आशय की रिपोर्ट भेजनी पड़ती है। किंतु इस आधार पर अल्पसंख्यक ईसाई समुदाय पर हमले होने प्रारम्भ हो चुके हैं।
धर्मांतरण केवल धर्म परिवर्तन का ही हिस्सा नहीं है अपितु यह समाज के निर्धन तबकों को शिक्षित करने व उन्हें शोषण उतपीड़न का शिकार बनाने वालों के खिलाफ संघर्ष करने का भी मुद्दा है। देखा गया है कि धर्म परिवर्तन करने वालों में लगभग शतप्रतिशत लोग दलित और शोषित समुदायों से सम्बद्ध होते हैं। अशिक्षित होना भी दलित होने का ही अभिशाप होता है। धर्म परिवर्तन करने वालों का न तो अपने पिछले धर्म से कुछ लेना देना होता है और ना ही नये धर्म से ही कुछ लेना देना होता है। यह तो शोषण से मुक्ति एवं अपनी निर्धनता को दूर करने का उपचार भर होता है। इस गैर क्रांतिकारी उपचार के अनेक रूप हो सकते हैं और धर्म परिवर्तन भी उनमें से एक है। इस उपचार में कम से कम इतना लाभ अवश्य ही होता है कि दलितों के सामाजिक सम्मान में कुछ धनात्मक परिवर्तन आता है। इसी सामाजिक सम्मान प्राप्त करने का एक नाम “हरिजनों[दलितों] का मन्दिर प्रवेश” भी रहा है। गौर से देखने पर जो धर्म परिवर्तन जैसा ही कुछ होता है। गाँव छोड़कर नगरों में बसने के प्रति आतुर लोगों में ग्रामीण रोजगारों का अभाव ही नहीं अपितु जातिगत अपमान की भावना से मुक्ति की आकाँछा भी कार्य करती है।
“मैं हिन्दू धर्म में पैदा ज़रूर हुआ हूं किंतु हिन्दू के रूप में मरूंगा नहीं” कहने वाले डा. अम्बेडकर ने सात लाख दलितों के साथ 14 अक्टूबर 1956 के दिन जब बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी तब उनकी और उन सात लाख दलितों की मुख्य भावना बौद्ध धर्म ग्रहण करने की न होकर भेदभाव बरतने वाले हिन्दू धर्म को त्यागने की अधिक थी। इस्लाम की जगह बौद्ध धर्म का चुनाव इसलिए किया गया था ताकि इस परिवर्तन में कम प्रतिरोधों का सामना करना पड़े।
दलित जब तक वोटर के रूप में अपनी पहचान नहीं बना पाया था तब तक उसके धर्म परिवर्तन पर किसी को आपत्ति नहीं थी किंतु जब सम्प्रदाय के आधार पर सत्ता के रास्ते खुलने लगे तो हिन्दूवादी दलों को धर्म परिवर्तन को सीधे तौर पर सत्ता के दरवाजे बन्द करने जैसा लगने लगा और आपत्तिजनक महसूस होने लगा। आस्ट्रेलिया से भारत में कुष्ट रोगियों की सेवा करने के लिए रह रहे मिशनरी स्टेंस की उसके दो बच्चों समेत ज़िन्दा जला कर हत्या कर दिये जाने पर दुनिया भर में थू-थू हुयी थी व कई देशों से सम्बन्ध बिगड़ने की सम्भावनाएं पैदा हो गयी थीं। इस स्तिथि पर पर्दा डालने के लिए प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सम्बन्धित व्यक्तियों और संगठनों की आलोचना करने के स्थान पर बयान दिया था कि धर्म परिवर्तन पर राष्ट्रीय बहस होना चाहिए। इस घटना के आरोपी का खुलकर पक्ष लेने वाले और उसे विधिक सहायता देने वाले सांसद दिलीप सिंह जू देव को पुरस्कृत कर मंत्री बना दिया गया था। इस घटना पर संघ परिवार से सम्बद्ध संस्थाओं के सीधे सीधे बयान और भाजपा की दबी छुपी हरकतें भी इतिहास में दर्ज़ हो चुकी हैं। तीन आस्तिक और तीन नास्तिक दर्शनों वाले भारतीय समाज में धर्म अतीत काल से व्यक्तिगत जीवन का सांस्कृतिक हिस्सा रहा है। यह केवल राजनीतिक आवश्यकता ही थी कि जिसने धर्म को समूह में बदल कर साम्प्रदायिकता की ओर उन्मुख किया है। प्राचीन काल में धर्म परिवर्तन की लम्बी परम्पराएं रही हैं। अपनी पुरानी मान्यताओं से बौद्ध, जैन, ईसाई, सिख, आर्य समाज, आदि की ओर उन्मुख लोगों के प्रति उस दौर के प्रचलित धर्म समाज द्वारा विरोध किये जाने का कोई इतिहास नहीं मिलता। जिसको जो रास्ता ठीक लगता था उसे चुनने का अधिकार होता था। आज जब अपने सामाजिक अपमान से मुक्त होने के लिए धर्म परिवर्तन किया जा रहा है व सामाजिक भेदभाव को यथावत रखने वाली हिन्दू संस्कृति के आधार पर राजनीति करने वालों को इससे अपनी राजनीति पर आघात लगता नज़र आ रहा है तो प्रलोभन का झूठा बहाना गढा जा रहा है।
डा. अम्बेडकर के जन्म दिवस को धार्मिक स्वतंत्रता दिवस के रूप में भी मनाया जाना चाहिये।
वीरेन्द्र जैन
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