बुधवार, अप्रैल 28, 2010

संस्मरण- स्मृति शेष मुनीन्द्रजी

संस्मरण

स्मृति शेष मुनीन्द्रजी-
जो पौधों को सींचना जानते थे
वीरेन्द्र जैन
दक्षिण समाचार के ताज़ा अंक से ही मालूम हो सका के गत 16 अप्रैल को मुनीन्द्रजी नहीं रहे।
मेरे मन में बचपन से ही एक साहित्यकार-पत्रकार बनने का सपना पलता रहा था किंतु इस काम के व्यवहारिक पक्ष से भी मैं अनभिज्ञ नहीं था जिस कारण से अपनी रोज़ी रोटी के लिए बैंक में नौकरी की और उसे लगातार 29 साल तक खींचता रहा जब तक कि बैंक में स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति योजना नहीं आ गयी। नौकरी के काम के बोझ में इस बीच साहित्य और पत्रकारिता जगत में काम करने का सपना मुर्झा गया होता अगर उसे सींचने वाले कुछ लोग नहीं मिले होते। मुनीन्द्रजी भी उनमें से एक थे।
1980 में जब गाजियाबाद में पदस्थ रहते हुये मैं अपने बैंक के सर्वोच्च अधिकारी से पंगा ले बैठा जो नियमों और कानून कायदों से मेरे खिलाफ कोई कार्यावाही करने की स्थिति में नहीं था तो उसने अपना अंतिम ब्रम्हास्त्र चलाया जो कि टांसफर का था और मेरा ट्रांस्फर लगभग 1500 किलोमीटर दूर गाज़ियाबाद से हैदराबाद कर दिया, आम भाषा में इसे फैंका जाना कहा जाता है। यह उसका अधिकार था और मुझे तथा मेरे बच्चों को होने वाली तक़लीफों से नियमों का कोई उल्लंघन नहीं होता था। अपना फोल्डिंग सामान समेटने से पहले मैंने इतना भर काम किया कि अपने साहित्यिक मित्रों को पत्र लिख कर हैदराबाद के उनके परिचितों के पते देने और उन्हें मेरे बारे मैं पत्र लिखने का अनुरोध किया।
इस दिशा में मुझे सबने सहयोग किया और बिना किसी तैयारी के मय सामान और बाल बच्चों के इतनी दूर सीधे पहुँचने का दुस्साहस करने पर भी असुविधाओं की जगह मुझे जो प्रेम और सम्मान मिला वह दिल को छू लेने वाला था। हैदराबाद गैर हिन्दी भाषी प्रदेश की राजधानी जहाँ मैं इससे पहले कभी नहीं गया था और व्यक्तिगत रूप से किसी को नहीं जानता था। संयोग से मेरा कार्यालय और जहाँ मुझे मकान मिला वह मुनीन्द्र जी के निवास के पास था, तथा परिचितों के एक दो पत्र उनके पास भी आये थे।
मैं तब तक मुनीन्द्रजी के व्यक्तित्व और कृतित्व से ना के बराबर परिचित था किंतु मेरा परिचय देने वालों ने मेरे बारे में ज़रूर अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से लिखा होगा जिसके परिणाम स्वरूप पहले ही माह में मुझे हिन्दी लेखक संघ की मासिक गोष्ठी की अध्यक्षता करने का अवसर मिला और अगली गोष्टी का आयोजन मेरे एकल काव्य पाठ का हुआ। कभी वे वहाँ त्रिवेणी नामक एक संस्था चलाते थे जिसमें हिन्दी उर्दू और तेलगु के साहित्यकार एक साथ रचना पाठ करते थे जो बन्द हो गयी थी। उन्होंने उसे दुबारा शुरू किया और पहले तीन कवियों में से हिन्दी के कवि के रूप में मेरा नाम रखा जिस्की अध्यक्षता बद्री विशाल पित्ती को करना थी, जिससे म्मैं बेहद नर्वस था। सन्योग से पित्तीजी नहीं आ सके किंतु उस दिन की नर्वसनैस मुझे आज भी याद है। मुझे दक्षिण समाचार जो तब हैदराबाद समाचार के नाम से निकलता था के अंक मिलने शुरू हो गये जिनमें समाचार और हिन्दी साहित्य के अलावा वहाँ के हिन्दी भाषी समाज के प्रमुख लोगों के दुख सुख के समाचार भी प्रकाशित होते थे। उल्लेखंनीय है कि हैदराबाद में समुचित संख्या में राजस्थान का मारवाड़ी समाज कई पीढियों से व्यापार करता है और एक अल्पसंख्यक या कहें कि प्रवासी मानसिकता की तरह बेगम बाज़ार के आस पास ही केन्द्रित था और एकजुट होकर हिन्दी का झंडा उठाये हुये था। ये लोग् हिन्दी साहित्य के आयोजनों को सहयोग भी करते थे। हैदराबाद समाचार ऐसे सभी हिन्दी भाषियों के घरों का आवश्यक अंग था, जिसके परिणाम स्वरूप उसमें छपने के बाद कोई भी सूचना पूरे हिन्दी समाज की जानकारी में आ जाती थी। मेरे बारे में भी मुनीन्द्रजी को प्राप्त जानकारी सूचना की तरह प्रकाशित हुयी जिससे साहित्य में रुचि रखने वाले सभी लोग मुझे पहचानने लगे। उस दौरान होने वाली प्रत्येक सरकारी-गैरसरकारी गोष्ठी में मैं पहले दस कवियों में बुलाया जाने लगा था। उस समय तक मैं हल्की-फुल्की व्यंग्य कविताओं, क्षणिकाओं, या लघुकथाओं के अलावा मंच पर पढी जाने वाली मंचीय कविताएं ही लिखता आया था। कभी दो चार व्यंग्य लेख छपे थे। मुनीन्द्रजी ने मुझसे बड़ी गद्य रचना मांगी तो लिखना पड़ी। मैं उस रचना के प्रति बेहद सजग था और किसी परीक्षार्थी की तरह पूरी ऊर्ज़ा से लिखी ताकि उनके द्वारा मेरे परिचय में लिखे शब्द झूठे न पड़ जायें। रचना ने व्यापक प्रतिक्रिया अर्जित की । वह परसाईजी का ज़माना था और मैं परसाईजी से बुरी तरह प्रभावित था सो साम्प्रदायिकता के खिलाफ भी वैसे ही तेवर थे जबकि हैदराबाद समाचार जिन लोगों के बीच पढा जाता था उनमें से अधिकांश कई कारणों से हिन्दू साम्प्रदायिकता के पक्षधर थे। उन्होंने विरोध में पत्र भी लिखे किंतु समाजवादी मुनीन्द्रजी ने कोई परवाह नहीं की और मेरे लिखे को लगातार छाप कर मुझे प्रोत्साहित करते रहे। इसी प्रोत्साहन ने मेरे व्यंग्य को धार देने का काम किया। एक बार तो हैदराबाद समाचार की 25वीं जयंती पर वहाँ के ज़ू में एक विचार गोष्ठी और दावत का आयोजन किया गया तो एक सज्जन से झगड़े की नौबत तक आ गयी किंतु बाद में वेणु गोपाल और मुनीन्द्र जी ने मेरा पक्ष लेकर मुझे कमजोर नहीं पड़ने दिया।
मुनीन्द्रजी का योगदान हिन्दी साहित्य में इसलिए स्मरणीय रहेगा कि उन्होंने जिस ‘कल्पना’ का सम्पादन किया उसने उस दौर के हिन्दी के सारे मूर्धन्य साहित्यकारों को मंच दिया या कह सकते हैं कि कल्पना में छपने के बाद ही वे अपनी प्रतिभा को अखिल भारतीय कर सके, क्योंकि यह पत्रिका लम्बे समय तक हिन्दी साहित्य की इकलौती प्रमुख पत्रिका रही। मुनीन्द्रजी के साथ रघुवीर सहाय, ओम प्रकाश निर्मल, प्रयाग शुक्ल, भवानी प्रसाद मिश्र, राजा दुबे, आदि समय समय पर सहयोगी रहे किंतु लगातार काम करने वालों में मुनीन्द्रजी ही थे और उन्हें ही प्रमुख माना जाता था। एम.एफ हुसैन भी उसी समय बद्री विशाल पित्ती जी के लिए रामायण पर अपनी पेंटिंग्स बना रहे थे। हिन्दी साहित्य की मुक्तिबोध की ऐतिहासिक कविता “अन्धेरे में” सबसे पहले उन्होंने ही कल्पना में छापी थी और तब उसका शीर्षक था “सम्भावनाओं के दीप अन्धेरे में”। उन दिनों हरि शंकर परसाईजी का स्तम्भ “और अंत में” भी उन्हीं के कार्यकाल में छपा जिसने परसाईजी की प्रतिभा की पहचान पूरे देश को करवाई। ऐसे ढेर सारे उदाहरण मौजूद हैं, यदि ऐसा काम किसी दूसरे ने किया होता तो वह ज़िन्दगी भर इसी को गाता और इसी की खाता रहता किंतु ये बातें मुझे कभी भी उनके मुँह से सुनने को नहीं मिलीं अपितु मुझे ओम प्रकाश निर्मलजी के द्वारा मालूम हुयी थीं। उनकी विनम्रता का नमूना यह था कि गुजरात के नर संहार के दौरान में बहुत व्यथित था और मैंने ढेर सारे लेख लिखे थे जिनमें से कुछ उन्होंने दक्षिण समाचार में छापे किंतु जब किसी का एक लेख गुजरात सरकार के पक्ष में छपा देखा तो मैंने उस पर एक लम्बी प्रतिक्रिया लिखी जो नहीं छपी तो मैंने एक तीखा शिकायती पत्र लिखा। इसके उत्तर में उनका एक बहुत ही विनम्र उत्तर आया जिसमें लिखा था कि आप चिंतक हैं और मैं तो आपका फेन हूं, आपके इस विषय पर लेख छपे हैं, मैं आपके विचारों का स्वागत करता हूं किंतु दक्षिण समाचार छोटा सा अखबार है उसमें जगह की सीमा है ...........आदि। उनकी इस विनम्रता ने मुझे पानी पानी कर दिया, और मैंने एक क्षमा याचना का पत्र लिखा, पर वे यथावत वैसे ही विनम्र होकर उत्तर देते रहे।
वे केवल विचारों में ही नहीं अपितु कार्य में भी प्रगतिशील गान्धीवादी समाजवादी थे उन्होंने अपने बच्चों की शादी में जाति धर्म को आड़े नहीं आने दिया और उनके परिवार में अनेक धर्म जातियों में पैदा हुये परिवारीजन मिल जाते हैं। एक बार वे बोले कि मेरे मुनीन्द्र नाम से बहुत सारे लोग तो मुझे जैन समझते हैं, [ दरअसल उनकी सादगी से यह भ्रम होना स्वाभाविक भी था] किंतु इसी दौरान उन्होंने बताया कि वैसे अपने परिवार में मैं अकेला शाकाहारी हूं अर्थात वे अपने विचार किसी पर लादने के पक्षधर भी नहीं थे। बद्री विशाल पित्तीजी का घर लोहियाजी का दूसरा घर कहलाता था और उनके साथ उनके ढेरों संसमरण रहे हैं। इमरजैंसी के दिनों में लाड़ली मोहन निगम ने उनके यहाँ रह कर ही फरारी काटी थी।
उनके सहयोग और प्रोत्साहन से कितने बीज पल्लवित पुष्पित हुये हैं कोई नहीं कह सकता क्योंकि उन्हें अहसान जताना नहीं आता था। यही भूमिका माता पिता की भूमिका होती है। उनके लिए मन में ऐसे ही भाव जन्मते हैं। श्रद्धांजलि शब्द बहुत औपचारिक हो गया है उनके लिए उससे बढकर आत्मीय भाव हैं।
वीरेन्द्र जैन
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