शुक्रवार, दिसंबर 26, 2014

फिल्म समीक्षा -‘पीके’ फिल्म - मनोरंजन के साथ सन्देश देने की कला



‘पीके’ फिल्म - मनोरंजन के साथ सन्देश देने की कला
वीरेन्द्र जैन

मुझे हाथरस के प्रोफेसर डा. राम कृपाल पांडे के सौजन्य से एक बार हिन्दी के सबसे प्रमुख आलोचक डा. राम विलास शर्मा से मिलने का सौभाग्य मिला था। उस अवसर पर मैंने उनसे हास्य और व्यंग का फर्क जानना चाहा तो उन्होंने उत्तर में कहा कि जब आदमी दाँत खोल कर हँसता है तो हास्य है और जब दाँत भींच कर हँसता है तो व्यंग्य है।
राज कुमार हीरानी की फिल्म ‘पीके’ एक दाँत भींच कर हँसने वाली फिल्म है। सोद्देश्य कहानी, विषय वस्तु के कुशल सम्पादन के साथ निर्देशन, राजकपूर की परम्परा के अभिनेता आमिर खान का सहज अभिनय, सामाजिक यथार्थ का निर्भीक प्रस्तुतीकरण जबरदस्त कटाक्ष करते हुए अपना सन्देश देने में सफल हैं। प्रत्येक धर्म अपने समय के श्रेष्ठ मनीषियों द्वारा उस समय मानवता के हित में दिये गये सर्वोत्तम सन्देशों का संकलन होता है, जो उस काल की बुराइयों और स्वार्थों से टकरा कर अपना स्थान बनाता है। ये मनीषी अपनी विनम्रतावश उन सन्देशों और कार्यों के परिपालन को सुनिश्चित करने के लिए उसे सुपर पावर द्वारा उनके माध्यम से भेजा गया सन्देश बता कर एक व्यवस्था बनाते आये हैं व उल्लंघन पर अज्ञात के दण्ड का भय भी बताते रहे हैं। इसी कारण उन के वारिस उन सन्देशों को वैसे का वैसा ही रख कर जड़ बना देते हैं। किंतु समय के साथ चुनौतियां भी बदलती है और उनसे टकराने के नये नये कार्य-विचार फिर से सामने आते हैं, जो अपने सन्देशों को वैसा ही धर्म बताते हैं और इसी कारण उनका पिछले धर्मों से टकराव होता है। इतिहास गवाह है कि दुनिया में सर्वाधिक हिंसा धर्मों के आपसी टकराव के कारण ही हुयी है और यह क्रम आज भी जारी है। यह हिंसा दुनिया की सर्वोत्तम उपल्ब्धियों को नुकसान पहुँचा रही है, पर धर्म के अन्धविश्वास से ग्रस्त लोग इस क्षेत्र में न तो विचार करने को तैयार होते हैं और न ही लोगों को अपने अपने विश्वास को स्वतंत्र रूप से मानने की आज़ादी देने को तैयार होते हैं। आज धार्मिक संगठनों के पास अटूट सम्पत्ति है, संगठन की हिंसक शक्ति है, अज्ञात का मनमाना लाभ और दण्ड की भयावह कथायें हैं। इसके साथ वोटों के व्यापारियों और अपराधियों के साथ अपवित्र गठजोड़ भी है। इसके विपरीत धर्मों को जीवंत और प्रगतिशील मानने वाली शक्तियों से टकराने वाले लोग बिखरे हुये हैं, असंगठित हैं, साधन और शक्तिहीन हैं तथा यथास्थिति से लाभान्वित होने वाली सत्ताधारी शक्तियां उनको नुकसान पहुँचाने के लिए तत्पर हैं। प्रत्येक धर्म में सत्य बोलने की बात कही गयी है किंतु आज सबसे अधिक जाने अनजाने झूठ बोलने वाले धार्मिक संस्थान ही हैं। आज हर तरह की अनैतिकताओं और अपराधों के समाचार धार्मिक संगठनों के स्थलों से ही आ रहे हैं। वे केवल विचार भिन्नता के कारण ही अलग अलग नहीं हैं अपितु वे निहित स्वार्थों के कारण अलग अलग हैं।
कोई भी धार्मिक संगठन अपने अलग अलग पंथों की सम्पत्ति, धर्मस्थलों, और भूमि भवनों को अपने धर्म के दूसरे पंथ के साथ तक बाँटने को तैयार नहीं है। प्राकृतिक आपदा ही नहीं अपितु धार्मिक स्थलों पर आयोजित मेलों ठेलों में भी जो हादसे घट जाते हैं उनके पीड़ितों को राहत देने के लिए भी ये संगठन आगे नहीं आते हैं। ईसाई मिशनरियों के प्रभाव और उनसे प्रतियोगिता के तात्कालिक कुछ उदाहरणों को छोड़ कर स्वास्थ और शिक्षा के क्षेत्रों में भी धार्मिक संगठनों की अटूट दौलत उपयोग में नहीं आती रही है। ऐसी स्थिति में धर्मों की बुराइयों से टकराने के लिए समाज के पास कटाक्ष जैसे सीमित और कमजोर कला के साधन ही बचते हैं। एक आम सुशिक्षित व्यक्ति की पाखण्डों से टकराने की जो दबी छुपी आकांक्षाएं हैं उन्हें ‘ओह माई गाड’ और ‘पीके’ जैसी फिल्में नैतिक समर्थन देने का काम करती हैं जिसका पता हाउस फुल सिनेमा घरों में बार बार बजती तालियों और विभिन्न तरह के प्रशंसक स्वरों से मिलता है। ये फिल्में धर्मों के ठेकेदारों द्वारा पैदा कर दी गयी बुराइयों को दूर कर के उनके अच्छे पक्ष को उभारने का काम कर रही हैं, और धर्मों को विवेक के केन्द्र बनाने की कोशिश कर रही हैं। वे वही काम कर रही हैं जो हमारे देश में कभी नानक, कबीर, आर्य समाज, नारायण स्वामी, विवेकानन्द, सहजानन्द सरस्वती, और महापंडित राहुल सांस्कृतायन महर्षि अरविन्द या ओशो जैसे लोगों ने किया था।
उपरोक्त लक्ष्य को पाने के लिए बनायी गयी फिल्म ‘पीके’ ने अपने सन्देश को मनोरंजन की चटनी के साथ प्रस्तुत किया है और उसके लिए जो कथा बुनी गयी है उसकी शुरुआत बर्टेंड रसेल की एक कहानी पर आधारित है। इस कहानी में एक पादरी है जो ज़िन्दगी भर ईसाई धर्म की शिक्षाओं का अक्षरशः पालन करता है और जिसे भरोसा है कि जब मरने के बाद वह स्वर्ग में जायेगा तो ईश्वर खुद ही बाँहें फैलाये उसके स्वागत के लिए दरवाजे पर खड़ा मिलेगा। पर जब वह स्वर्ग के बन्द दरवाजे पर पहुँचता है तो पाता है कि स्वर्ग का बन्द दरवाजा इतना मजबूत और विशाल है कि उसके सामने वह किसी पिस्सू से भी छोटा है। लम्बे समय तक इंतज़ार के बाद जब वह दरवाज़ा खुलता है और वह पादरी अन्दर प्रवेश करने की कोशिश करता है तो द्वारपाल उससे पूछ्ताछ करता है जिसमें वह अपने अनुशासित धर्मिक जीवन के बारे में बताता है। जब वह आने का स्थान पूछता है तो वह बहुत शान से अपने चर्च और गाँव का नाम बताता है। उसके आगे पूछने पर वह बताता है कि उक्त गाँव इंगलेंड में है।
यह इंगलेंड कहाँ है? चौकीदार पूछता है
इंगलेंड पृथ्वी पर है वह उत्तर देता है
कौन सी पृथ्वी? इस ब्रम्हाण्ड में करोड़ों पृथ्वियां हैं
वही जो सूरज के चारों ओर चक्कर लगाती है
कौन सा सूरज? इस ब्रम्हाण्ड में लाखों सूरज हैं, व ब्रम्हाण्ड भी अनेक हैं
यह सुन कर पादरी को चक्कर आ जाता है और उसे अपनी लघुता का अहसास होता है। इस फिल्म का प्रारम्भ भी इसी तरह की सूचना से होता है और किसी अनजान ग्रह से कोई एलियन अपनी प्राकृतिक अवस्था में इस पृथ्वी पर राजस्थान की धरती पर उतरता है। उसके पास उस यान को वापिस बुलाने का रिमोट जैसा दमकता हुआ यंत्र भर है। पहले ही दिन एक चोर उसका यंत्र छीन कर भाग जाता है। इस छीना झपटी में चोर का ट्रांजिस्टर उसके पास छूट जाता है। उस एलियन को हाथ पकड़ कर दूसरे के दिमाग की जानकारी को डाउनलोड करने की क्षमता प्राप्त है। वीराने स्थलों पर खड़ी ‘डांसिंग कारें’ उसके लिए कपड़ों और मुद्राओं का साधन बनती हैं। डासिंग कारें वे कारें हैं जिनमें छुप कर युवा जोड़े कपड़े उतार कर अपनी प्रेम क्रियाओं में खोये रहते हैं और उनकी कारें डांस करती रहती हैं। उस एलियन ने हाथ पकड़ कर खुद में जो भाषा डाउन लोड कर ली है वह भोजपुरी है। उसे न तो झूठ बोलना आता है और न ही किसी दूसरे के कथन को वह झूठ समझता है। यही कारण है कि अपने यंत्र की तलाश में जब वह सबसे यही उत्तर दुनता है कि ‘भगवान जानें’ तो वह सभी तरह के भगवानों के पास जाता है जिस यात्रा में पता चलता है कि भगवानों की कथित दुनिया में सब कुछ झूठ पर ही चल रहा होता है। इसी यात्रा में उसकी मुलाकात प्रेम में धोखा खाकर आयी एक टीवी पत्रकार से हो जाती है जो अपने पिता के गुरु से बदला लेने के लिए उस सच्चे आदमी का स्तेमाल करना चाहती है। इसी में सारे पाखण्ड निरावृत होते जाते हैं और मासूमियत व झूठ के टकराव में मजेदार हास्य पैदा होता रहता है। अंत में गलतफहमियां दूर होती जाती हैं।
ईसा मसीह ने कहा है कि स्वर्ग के दरवाजे उनके लिए खुले हैं जिनके ह्रदय बच्चों की तरह हैं और वह मासूम एलियन भी उसी तरह का मासूम देवता तुल्य है जो चार्ली चेप्लिन और राजकपूर की भूमिकाओं की याद दिलाता रहता है। उसकी उपस्थिति से पता चलता है कि हमारा आज का कथित धार्मिक समाज कितने झूठों और गलत विश्वासों में जीता रहता है और अपनी अन्धभक्ति में कभी विचार कर विवेकपूर्ण उत्तर तलाशने की कोशिश भी नहीं करता। शातिर बाबा इसी का लाभ उठा कर अपना घर भरते रहते हैं। अति महात्वाकांक्षाएं पाल कर भी मेहनत से बचने वाले ईश्वर की कृपा तलाशते तलाशते शार्टकट के चक्कर में निरंतर फँसते और लुटते चले जाते हैं।
फिल्म में शरद जोशी के व्यंग से उठाया गया नर्वसयाना, और कन्यफुजियना भी है तो काका हाथरसी की कविता नाम रूप का भेद भी पढवायी गयी है। बेढब बनारसी की ‘लेफ्टीनेंट पिग सन की डायरी’ में किसी अंग्रेज द्वारा पहली बार बुर्के वाली औरत को देख कर भूत समझने का व्यंग्य भी आया है, तो विभिन्न पूजा पद्धितियां और समाजिक मान्यताओं की विसंगतियां भी हास्य पैदा करती हैं। आज के नगरों, महानगरों की भाषा अंग्रेजी उर्दू मिश्रित खड़ी बोली है किंतु जब इन स्थानों के वासी अपनी देसी बोली में बोलते हैं तो यह विसंगति एक लुत्फ पैदा करती है। एक एलियन द्वारा बनारसी कानपुरी अन्दाज़ में पान खा कर भोजपुरी बोलना भी सहज हास्य को जन्म देता है।        
कुल मिला कर यह एक स्वस्थ सामाजिक सन्देश देकर अपने कामों को ठहर कर देखने का सन्देश देने वाली फिल्म है जिसे टैक्स फ्री कर देना चाहिए था और देश भर के कालेजों में उसके मुफ्त शो आयोजित किये जाने चाहिए थे। उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, त्रिपुरा, उड़ीसा तामिलनाडु की सरकारें तो ऐसा कर ही सकती थीं। इसके बाद भी दर्शक समुदाय ने भरपूर समर्थन देकर अपना सन्देश दे दिया है।
वीरेन्द्र जैन                                                                           
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629
  

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