बुधवार, अगस्त 04, 2010

अदालतों और जांच एजेन्सियों की गरिमा गिराती भाजपा


अदालतों और जाँच एजेंसियों की गरिमा गिराती भाजपा
वीरेन्द्र जैन
यह सहज रूप से जुबान की फिसलन नहीं है कि जब संघ द्वारा थोपे गये मध्यप्रदेश भाजपा के अध्यक्ष प्रभात झा ने इन्दौर में भारतीय जनता पार्टी के महापौर और पार्षदों के सम्मेलन में कहा कि हाईकोर्ट से समाज नहीं चलता अपितु हाईकोर्ट को समाज से चलना होगा। भाजपा के सन्दर्भ में यह साफ है कि जब वे देशवासी, हिन्दू या समाज शब्द का स्तेमाल करते हैं तो उनका मतलब केवल संघ भाजपा तक ही सीमित होता है। पिछले दिनों घटे घटनाक्रम में भाजपा में सक्रिय अपराधी एक एक कर कानून की गिरफ्त में आते जा रहे हैं और राम जेठमलानी जैसे वकीलों को राज्यसभा की सदस्यता सौंपने के बाद भी वे समझते हैं कि कानून के छिद्रों में से आखिर कितने लोग निकल पायेंगे, इसलिए वे न केवल सीबीआई जैसी जाँच एजेंसियों को ही निशाना बनाने में लग गये हैं अपितु न्यायपालिका पर भी हमले कर के केवल भीड़ और लाठी की ताकत ही नहीं अपितु आतंकी कार्यवाहियों में पकड़े गये लोगों को भी खुला संरक्षण देने में लग गये हैं।
रोचक है कि अभी पिछले दिनों ही मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने इमरजेंसी समाप्त होने के उन्नीस साल बाद मीसा बन्दियों के नाम पर इस तर्क से मासिक पेंशन बाँटना शुरू कर दी कि उन्होंने तानाशाही के विरोध में अपनी अवाज बुलन्द की थी जब इन्दिरा गान्धी ने कोर्ट का फैसला आने के बाद प्रधानमंत्री पद से स्तीफा न देकर इमरजेंसी लागू कर दी थी और कानून बदल कर सता में बनी रही थीं। यह पेंशन उन संघ और जनसंघ के उन लोगों के लिए भी उपलब्ध करायी गयी जो कि माफी माँग कर श्रीमती गान्धी की प्रशंसा करते हुए जेल से बाहर आये थे। अब वही संघ परिवार अपने द्वारा नामित प्रतिनिधियों के माध्यम से आपराधिक मुकदमों का सामना करने जा रहे अपने सदस्यों को बचाने के लिए हाईकोर्ट के आदेशों की अवहेलना का आवाहन कर रहा है। यदि प्रभात झा के कथनानुसार देखें तो श्रीमती गान्धी, जो उस समय “समाज” की प्रतिनिधि थीं, द्वारा लागू की गयी इमर्जेंसी सही ठहराई जा सकती है और इस आधार पर मीसाबन्दियों की पेंशन मुफ्त में जीमने वाले इन लोगों को अपनी अपनी पेंशन वापिस कर देना चाहिए, पर उसे वे कभी नहीं करेंगे।
हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत सोच समझ कर लोकतंत्र को कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के खम्भों पर खड़ा किया था, जिसमें न्यायपालिका के प्रति अतिरिक्त सम्मान का भाव है जो तबतक कार्यपालिका और विधायिका के निर्णयों को भी रोक सकती है जब तक कि विधायिका कानून में ही परिवर्तन न कर दे। इसलिए उसकी स्तिथि सर्वोच्च मानी गयी है। हमारे तंत्र में समाज की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व विधायिका करती है और वह चाहे तो नये कानून बना सकती है, जिसके आधार पर ही न्यायपालिका अपने फैसले देगी। यह व्यवस्था सभी संस्थाओं को एक दूसरे का सम्मान करना सिखाती है।
संघ परिवार इस समय केन्द्र की सता में नहीं है इसलिए वह कानून बनाने की स्तिथि में नहीं है, किंतु जिन प्रदेशों में वह सत्त्ता में है, वहाँ पुलिस और अभियोजन पर प्रभाव डालकर वह कानून को भटका रही है। दशहरा के अवसर पर मुख्यमंत्री के नाबालिग पुत्र द्वारा पुलिस अधिकारियों के सामने गोली चलाने का मामला हो या इसी दिन एक आरएसएस कार्यकर्ता की गोली लगने से हुयी मौत का मामला हो, पत्रकारों द्वारा पूछे जाने पर पुलिस अधिकारियों का यह उत्तर देना कि गवाह ही नहीं मिल रहे हैं अपने आप में अपनी कहानी कह देता है। उज्जैन के सव्वरवाल हत्याकाण्ड में गवाहों का पलट जाना और फैसले में कोर्ट द्वारा अभियुक्तों को बरी करने के बाद सारा दोष अभियोजन को देने से साफ संकेत मिलते हैं कि भाजपा शासित राज्यों में कानून का किस तरह खिलवाड़ होता रहा है।
भाजपा में प्रत्येक स्तर पर संगठन सचिव का पद संघ के प्रचारक द्वारा ही भरे जाने का नियम है और संघ इनके माध्यम से ही भाजपा में अपना एजेंडा लागू करती है। संघ के प्रतिनिधियों ने भविष्य की सम्भावनाओं को दृष्टिगत रखते हुए अपने हमले प्रारम्भ कर दिये हैं। अयोध्या का फैसला आने वाला है और संघ परिवारियों ने कहना शुरू कर दिया है कि अगर फैसला उनके खिलाफ आता है तो वे मानने के लिए तैयार नहीं हैं जबकि इंडियन मुस्लिम लीग की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष ने कहा है कि वे अदालत का फैसला मानेंगे भले ही वह उनके खिलाफ ही क्यों न हो। आतंकी घटनाओं में घेरे में आये संघ के सदस्यों के बारे में कहना शुरू कर दिया है कि सरकार जानबूझ कर “हिन्दुओं” को परेशान कर रही है। साध्वी के चोले में रहने वाली प्रज्ञा की वेषभूषा ही इनकी पक्षधरता का आधार बन रही है भले ही जाँच में कितने ही सबूत मिल गये हों। मोदी के खिलाफ हुयी जाँच और अमित शाह की गिरफ्तारी भी हिन्दुओं के खिलाफ कांग्रेस की रची गयी साजिश बतायी जा रही है। मध्यप्रदेश का तो हर तीसरा नेता कहीं न कहीं भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबा हुआ ही नहीं है अपितु अनेकों के प्रकरण भी दर्ज करने पड़े हैं। संघ की ओर से प्रदेश संगठन मंत्री माखन सिंह ने तो गत दिनों एक बैठक के दौरान भाजपा विधायकों से हाथ जोड़ कर कहा कि अब बस करो और और न लजवाओ। पर जब अदालतों और जाँच एजेंसियों को ही चुनौती देने की योजना है तो मंत्री विधायक बस कहाँ करने वाले। इस अपील के अगले दिन ही करैरा के भाजपा विधायक रिश्वत लेते हुये कैमरे की कैद में आ गये। पुलिस अभियोजन और प्रशासन को मुट्ठी में कर लेने के बाद भरपूर बहुमत प्राप्त पार्टी जब अदालतों को भी धता बताने के सन्देश देने लगे तो तानाशाही कितनी दूर रहती है।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

2 टिप्‍पणियां:

  1. अदालत में भ्रष्टाचार है जो बढ़ता ही जा रहा है लेकिन अदालत को उस समाज के अनुसार नहीं चलना चाहिए जिस समाज में अपराधियों का बोलबाला हो और जिसके डर और भय से लोग सत्य बोलने और देखने की बात से इंकार करतें हों | अदालत को सिर्फ और सिर्फ सत्य और न्याय के आधार पर चलना चाहिए लेकिन इसके लिए समाज में जागरूकता और निडरता की जरूरत है जिससे लोग अपराध और अपराधियों के खिलाप जान की परवाह किये वगैर खरे हो सके |

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  2. अदालत समाज का हिस्सा होती है|

    समाज का महत्व किसी भी अदालत से अधिक है|

    असल मसला है समाज और अदालत के संतुलित तालमेल का|

    आज दोनो ही में गंभीर असंतुलन और विकृतियाँ पैदा हो गयी हैं|

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