शनिवार, जून 16, 2018

चमत्कार की उम्मीद से भ्रमित समाज में बाबा


चमत्कार की उम्मीद से भ्रमित समाज में बाबा  

वीरेन्द्र जैन
लगभग एक दशक पहले मीडिया में एक फोटो आयी थी जिसमें भगवा वस्त्रों में प्रज्ञा सिंह जिन्हें बाद में साध्वी प्रज्ञा के नाम से प्रचारित किया गया, बीच में विराजमान हैं और उनके दोनों तरफ क्रमशः राजनाथ सिंह और शिवराज सिंह चौहान अपनी पत्नी सहित श्रद्धा की मुद्रा में बैठे हैं। यह फोटो तब ज्यादा प्रसारित हुयी जब प्रज्ञा सिंह को आतंकी गतिविधियों और उससे जुड़ी हत्याओं के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था। अनेक लोगों से पूछने पर भी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला कि देश के इतने बड़े बड़े नेता जो देश के प्रतिष्ठित धर्म गुरुओं के सम्पर्क में भी रहते हैं, इन कथित साध्वी की किस प्रतिभा से प्रभावित होकर श्रद्धानवत बैठे दिख रहे हैं। क्या केवल वस्त्रों के रंग और माथे पर लगे तिलक टीके ही श्रद्धा का आधार बन जाते हैं!
तब से अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है व हर दूसरे तीसरे महीने कोई न कोई बाबा, स्वामी, संत, महंत कहलाने वाला व्यक्ति किसी न किसी अनैतिक कर्म से जुड़ा पाया जा रहा है। इसके साथ ही यह बात भी प्रकाश में आती है कि उसके पास कितनी जमीन, बंगले, बगीचे, आश्रम, और दौलत के खजाने मौजूद हैं, व उनके पास कितने नामी गिरामी लोग श्रद्धापूर्वक आते हैं। जब इतने सारे धर्म हैं और उनकी अनेक शाखाएं उपशाखाएं हैं तो उनके गुरु तो होंगे ही किंतु उन सब के अलग होने के पीछे कुछ सिद्धांत, नीति नियम भी होंगे, उपासना की भिन्न विधियां भी होंगीं। अनेक मामलों में ऐसा है भी। किंतु जब अस्पष्ट दर्शन, सिद्धांतों, या आचरणों के बाबजूद कोई धर्मगुरु बहुत बड़ी संख्या में अनुयायी बना लेता है, उनसे ढेर सारा धन निकलवा लेता है व संदिग्ध जीवन जीता है तब सरकार और उसके अनुयायियों को सन्देह क्यों नहीं होता! धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को धर्म की ओट में मनमानी करने का अधिकार क्यों बना लिया गया है। धर्मस्थलों की पवित्रता अपराधियों के प्रवेश से भंग नहीं होती किंतु पुलिस के प्रवेश से भंग हो जाती है।  
महेश योगी, ओशो रजनीश, श्री श्री रविशंकर, गायत्री पीठ के श्रीराम शर्मा, रामदेव, आदि की स्थापनाएं समझ में आती हैं जिन्होंने विचारों, आचरणों, या प्रयोगों में कुछ नया कर के अपने अभियान को मौलिक रूप देकर आगे बढाया है, किंतु आसाराम, राम रहीम, रामपाल, निर्मल बाबा, राधे माँ, आदि आदि से लेकर दाती महाराज तक अपने अनुयायी किस आधार पर बना लेते हैं जो अपने मूल इष्ट को छोड़ कर नई आस्था की भीड़ बना लेते हैं। इस भीड़ के लोग  किसी भी सामान्य बुद्धि के व्यक्ति को प्रथम दृष्ट्या हास्यास्पद लगने वाला आचरण करते हुए लगते हैं। उनके इन गुरुओं के आपराधिक कृत्य सामने आने, उनके गिरफ्तार हो जाने के बाद भी कुछ भक्तों की आस्था कम नहीं होती। रोचक यह है कि वे इस विषय पर बात भी नहीं करना चाहते हैं। खेद इस बात का भी है कि इस अन्ध आस्था से होने वाले खतरों के प्रति शासन प्रशासन भी उदासीन है और कोई भी जनता को तब भी शिक्षित नहीं करना चाहता, जब कि सम्बन्धित धर्मगुरु के भेष में रहने वाला पुलिस की गिरफ्त में आ चुका होता है। इन कथित आश्रमों या धार्मिक संस्थानों में एकत्रित धन का बड़ा हिस्सा काला धन होता है और बहुत सारे मामलों में अवैध ढंग से कमाया हुआ होता है। घटनाक्रम बताता है कि लगभग सभी डाकुओं ने मन्दिर बनवाये हैं और पुजारियों व बाबाओं को पाला है, भले ही यह काम उन्होंने अपनी भयमुक्ति के लिए किया हो। समस्त काले धन वाले लोग अपनी कमाई का एक हिस्सा धार्मिक संस्थानों को देते हैं। इस प्रकार ये संस्थान देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रहे हैं और सरकार की सतत निगाह इन पर रहनी चाहिए।
 धार्मिक संस्थानों की वित्तीय व्यवस्था को पारदर्शी बनाये बिना अर्थव्यवस्था में सुधार सम्भव नहीं है। जिस तरह बड़े कार्पोरेट घरानों, पब्लिक सेक्टर आदि को अपनी आडिट की हुयी बैलेंस शीट को सार्वजनिक करना अनिवार्य होता है उसी तरह एक निश्चित राशि से अधिक लेन देन वाली हर सार्वजनिक संस्था को अपनी बैलेंस शीट सार्वजनिक करना जरूरी होना चाहिए।  
साधु भेष में धोखा देने की परम्परा सबसे प्रसिद्ध रामकथा से शुरू होती है जिसमें रावण ने साधु भेष रख कर ही सीता का हरण किया था। इसी कथा में कालनेमि ने ही साधु का भेष रख कर हनुमान को धोखा देने का प्रयास किया था। कबीर ने झूठे साधुओं के लिए ही कहा है कि मन न रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा। “पानी पीजे छान कर और गुरु कीजे जानकर” भी इसीलिए कहा गया है क्योंकि गलत लोग भी धर्मगुरु के रूप में आ जाते हैं और लूट कर चल देते हैं। “ मुँह में राम, बगल में छुरी’ भी ऐसे ही नकली भक्तों के लिए कहा गया होगा, जैसे कि “बगुला भगत” शब्द आया है।
सच यह भी है कि बिना श्रम किये उपलब्धि पाने की इच्छा रखने वाले लोग चमत्कार की उम्मीदों में ऐसे बाबाओं के चक्कर में फँस जाते हैं और संयोगवश लाभ हो जाने से वे उनके स्थायी गुलाम बन जाते हैं। दूसरे जिन कार्यों में परिणाम अनिश्चित होता है या कहें कि जहाँ दाँव होता है वहाँ भी लोग अन्धविश्वासी हो जाते हैं और बाजी जीतने पर वे गलत विश्वासों के शिकार हो जाते हैं। सभी राजनीतिक दलों, मीडिया व सामाजिक संस्थाओं सहित सच्ची धार्मिक संस्थाओं को चाहिए कि प्रत्येक धार्मिक संस्थानों पर निगाह रखे जाने की मांग करें, व उसका समर्थन करें।
वीरेन्द्र जैन
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