बाबरी मस्जिद घ्वंस
अपराध के गुरूत्व को पहचानने का समय
वीरेन्द्र जैन
क्या सजा देने से किये को अनकिया किया जा सकता है?
तो फिर सजा क्यों दी जाती है?
प्रत्येक समाज अपने अपने दौर में समाज को संचालित करने की दृष्टि से कुछ नियम कानून और अनुशासन तय करता रहा है और जब कोई उन नियमों या अनुशासनों को भंग करता है तो उसे अपराध कहा जाता है। जब समाज में होने वाले अपराध, अगर उसे करने वाले खुल कर समाज के सामने उसे स्वीकार करते हैं और समाज से टकराने को तैयार रहते हैं तो समाज के खिलाफ एक तरह का विद्रोह होते हैं । इसलिए समाज या सरकार का दायित्व होता है कि ऐसे विद्रोहों को रोके। इसके लिए एक ओर तो प्राथमिक रूप से उसे न होने देने के लिए सुरक्षा व्यवस्था की जाती है व दूसरी ओर हो गये अपराध के अपराधियों को पकड़ने व उनको ऐसी सजा देने की व्यवस्था की जाती है जिससे कि वे अपराधी दुबारा और दूसरे लोग भविष्य में वह अपराध करने के बारे में नहीं सोचें। सजायें नियमों और कानूनों का परिपालन सुनिशचित करने हेतु भय स्थापित करने का काम करती हैं।
जब अपराध का आरोपी अपराध करने से इंकार करता है (जिसे चोरी की श्रेणी में रखा जा सकता है) तो वह जाँच का विषय बन जाता है। ऐसे मामले का आरोपी प्रत्यक्ष में नियमों और कानूनों के प्रति विशवास व्यक्त करता नजर आता है इसलिए उसे विद्रोही नहीं कहा जा सकता और जाँच व फैसले के बाद यदि वह दोषी पाया जाता है तो उसे अपेक्षाकृत अधिक कड़ी सजा का हकदार होना चाहिये क्योंकि वह न केवल पूरे समाज को धोखा दे रहा होता है अपितु न्यायिक व्यवस्था का समय व देश का धन भी बरबाद करने का दोषी होता है।
बाबरी मस्जिद को टूटे सत्तरह साल हो गये। उसे तोड़ने के लिए उकसाने हेतु रथ यात्राएं किसने की थीं, भड़काऊ भाषण किसने दिये थे, दूसरे सम्प्रदाय के पूजा स्थलों और मुहल्लों में जाकर उत्तेजना फैलाने वाले गाली गलौज भरे नारे किसके समर्थक लगाते थे और फिर उस उत्तेजक माहौल में साम्प्रदायिक दंगे कौन फैलाता था, ये सारी बातें जग जाहिर थीं फिर भी नियमानुसार जाँच बैठायी गयी और उसे सत्त्रह साल तक खींचा भी गया व सैंतालीस बार उसके समय में विस्तार किया गया। आरोपियों द्वारा उसके खिलाफ वातावरण बनाया गया व असहयोग किया गया, तथा यह पूरी कोशिश की गयी कि जाँच आयोग का फैसला कभी नहीं आये और अगर आये भी तो जैसा आरोपी चाहें वैसा ही आये। एक आरोपी सुश्री उमा भारती ने अपनी गवाही मैं कहा कि उन्हें कुछ भी याद नहीं है कि उस दिन क्या हुआ था। जिसकी याद्दाश्त कभी इतनी तेज रही हो कि बचपन में उसे पूरी रामायण याद हो और वह उस पर प्रवचन करती हो व उन्हीं प्रवचनों की दम पर उसने राष्ट्रीय राजनीति में शिखर का स्थान पाया हो, उसे उस ऐतिहासिक दिन की कोई घटना याद नहीं थी जो अखबारों में भरी पड़ी थी। मस्जिद गिरने की प्रसन्नता में मुरली मनोहर जोशी के कंधों पर सवार हो जाने के दृश्य सारे अखबारों में छपे थे। वे ही अब कह रही हैं कि उसके लिए फंासी पर चढने को तैयार हैं और छोड़ चुकी पार्टी भाजपा के नेताओं को सलाह दे रही हैं कि उन्हें भी इस सच को स्वीकारना चाहिये। लालकृष्ण आडवाणी की पूर्वबहू गौरी आडवाणी ने जो रथ यात्रा काल में उनकी सेक्रेटरी रही थी, आयोग को महत्वपूर्ण खुलासा करने वाला पत्र दिया था जो 'ऐशियन एज' समेत सभी महत्वपूर्ण समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ था पर बाद में उन्हें मैनेज कर लिया गया। अब जब आयोग ने अपनी रिपोर्ट तैयार कर के सरकार को सौंप दी है व सरकार ने उसका खुलासा भी नहीं किया है पर आरोपियों के संगठन ने चिल्लपों मचाना प्रारंभ कर दिया है। काँग्रेस प्रवक्ता ने सही कहा है कि चोर की दाढी में तिनका बोल रहा है। जिस घटना की निंदा देश के सभी राजनीतिक दल एक स्वर से करते हों उस घटना को संघ परिवार के संगठन 'शौर्य दिवस' के रूप में मनाते हों तो कहने के लिए और क्या रह जाता है!
दर असल बाबरी मस्जिद का टूटना केवल एक ऐसी चार सौ साल पुरानी इमारत का टूटना भर नहीं है जो उस स्थल निर्मित बतायी जाती है जिस पर पूर्व में कभी राम मंदिर होने का अनुमान था, अपितु वह देश के संविधान में वर्णित धर्म निरपेक्षता, धार्मिक स्वतंत्रता, और मिलीजुली संस्कृति पर हमला था। यह आपसी सद्भाव और राष्ट्रीय एकता पर भी हमला था। इतना ही नहीं उसके आरोपी लगातार घटना की उत्तेजना से राजनीतिक लाभ उठाते और सत्ता की लूट के खेल खेलते घूम रहे हैं, जिससे लोकतंत्र की मूल दिशा भी प्रभावित हुयी है। सरकारें चुनने का जो काम शांतचित्त से होना चाहिये वह धार्मिक भावनाओं में पगी उत्तेजनाओं के प्रभाव में होने से लोकतंत्र के मूल लक्ष्य से भटक कर हुये। इस प्रभाव में इतनी बड़ी संख्या में वे लोग भी पवित्र संसद के अन्दर पहुँच गये जिन्हें उसके बाहर खड़े होने का भी हक नहीं था। लोकतंत्र को भटकाने का षड़यंत्र हमारे पूरे देश की उस आजादी के खिलाफ भी था जिसे हमारे पूर्वजों ने अपने प्राणों की बाजी लगा कर पायी है। यह सचमुच देश द्रोह है।
सवाल उस एक पुरानी इमारत का नहीं है जिसमें 22/23 दिसम्बर 1949 की रात्रि में मूर्तियाँ लाकर रख दी गयीं थीं और जिस कलैक्टर केक़े नैयर ने साम्प्रदायिक उपद्रव का डर दिखा कर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोबिन्द बल्लभ पंत की सलाह मानने से भी मना कर दिया था। (उसी कलैक्टर और उसकी पत्नी को बाद में जनसंघ ने टिकिट देकर संसद सदस्य बनवाया था।) उस इमारत में मूर्तियाँ रख दिये जाने के बाद से उसमें नवाज पढना बंद हो गया था। असल में उस मस्जिद को जो एक मंदिर की तरह ही प्रयोग में लायी जा रही थी को तोड़ने के लिए उकसाने के पीछे केवल साम्प्रदायिकता फैलाना और उस साम्प्रदायिकता के प्रभाव में सत्ता हथियाना था। यदि मुसलमान उसे छोड़ने को तैयार भी हो जाते तो मथुरा के कृष्ण मंदिर और बनारस के विश्वनाथ मंदिर के पास बनी ज्ञानवापी मस्जिद के बहाने वही काम करने का लक्ष्य बनाया हुआ था। इतना ही नहीं विश्व हिंदू परिषद ने तो ऐसी साढे तीन सौ इमारतें चिन्हित कर लीं थीं जिनके बहाने स्थानीय साम्प्रदायिकता पैदा की जा सकती हो और उसे वोटों में बदला जा सकता हो। मध्यप्रदेश में भोजशाला भी उनमें से एक है जिसका स्तेमाल वे जरूरत के हिसाब से करते रहते हैं। उनका लक्ष्य भव्य राम मंदिर का निर्माण नहीं था और यदि होता तो वह अयोध्या में कहीं भी बन सकता था, पर उन्हें तो उत्तेजना फैलाना थी इसलिए बिल्कुल उसी स्थान पर बनाना था जहाँ मस्जिद बनी हुयी थी। इसे समझा जाना चाहिये। मुबंइ के एक आर्कीटैक्ट ने उस दौरान कहा था कि वह ऐसे नक्शो बना कर दे सकता है जिसमें मस्जिद को तोड़ने की जरूरत नहीं पड़े व उसी के ऊपर भव्य मंदिर उसी जगह पर बन जायेगा और यदि नीचे चाहें तो अन्डर ग्राउन्ड बन जायेगा। पर उसका प्रस्ताव संघ परिवारियों ने ठुकरा दिया क्यों कि तब उत्तेजना का मसाला नहीं मिलता इसलिए उन्हें मस्जिद तोड़ कर ठीक उसी स्थान पर मंदिर चाहिये था। सच तो यह है कि इन लोगों ने कभी भी कोई मंदिर नहीं बनाया और ना ही वे कभी कहीं मंदिर बनाना ही चाहते हैं, पर उनकी रूचि उसी में होती है जिस पर विवाद हो। उस में ही उन्हें धर्म नजर आने लगता है।
अब जरूरत इस बात की है कि मस्जिद के बहाने लोकतंत्र भाईचारा और राष्ट्रीय एकता को तोड़ने वालों को कठोर से कठोर सजा मिले ताकि भविष्य में कोई ऐसा अपराध न कर सके व उससे पूर्व जनता के सामने सच्चाई रखे जाने के ईमानदार प्रयास भी होने चाहिये ताकि अपराधी जनता की भावनाओं को साम्प्रदायिकता में न बदल सकें।
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