स्व मुकुट बिहारी सरोज के 83वें जन्म दिवस 26 जुलाई के अवसर पर-
सरोज जी गीत के गुलेरी थे
मुकुट बिहारी सरोज का हिन्दी साहित्य में जो स्थान है वह केवल उनके दो संग्रहों के आधार पर बना है। दूसरा संग्रह भी पहले संग्रह के अप्राप्य हो जाने व उनके 75वें जन्मदिन पर आयोजित होने वाले समारोह में विमोचित होने के लिए उनके प्रशंसकों ने प्रकाशित कराया था जिसमें तीन चौथाई रचनाएं तो पहले स्रंगह की रचनाओं में से ली गयी हैं। इस तरह कह सकते हें कि वे केवल एक ही काव्य संकलन के आधार पर कविता की दुनिया में अपनी छाप छोड़ गये हैं। इस आधार पर उन्हें चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के समकक्ष रखा जा सकता है जिनकी कुल चार कहानियों ने या कहें कि कुल एक कहानी 'उसने कहा था' ने उन्हें हिन्दी कथा साहित्य का सिरमौर बना दिया है। हिन्दी गीत काव्य के क्षेत्र में सरोज जी के इकलौते संकलन 'किनारे के पेड़' जो अपने नवीनीकृत रूप में 'पानी के बीज' के नाम से आया उन्हें अमर कर गया। अभी हाल ही में दिवंगत हुये डा सीता किशोर खरे ने कभी उनके गीतों पर टिप्पणियाँ लिखी थीं, (जो ग्वालियर के एक साप्ताहिक में नियमित स्तंभ की तरह प्रकाशित हुयी थीं व गत दिनों ग्वलियर के ही श्री माताप्रसाद शुक्ल के सौजन्य से उनका संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है।) व इस स्तंभ का नाम रखा था 'सूत्र सरोज के टीका सीताकिशोर की'। स्मरणीय है कि ये वही सीता किशोर हैं जिन्हें पहला मुकुट बिहारी सरोज सम्मान दिया गया था। सीता किशोर जी का अपने स्तंभ का यह नामकरण बिल्कुल उपयुक्त ही था क्योंकि सरोज जी ने जो कविताएं लिखी हैं वे सूत्र ही हैं व एक एक सूत्र से कई महाकाव्य पैदा होते हैं। मेरे मित्र वेणुगोपाल कहा करते थे कि कवि को अपने पाठकश्रोता को मूर्ख समझने की भूल नहीं करना चाहिये, कविता तो जनमानस के अन्दर प्र्रवाहमान रहती है कवि को तो केवल इशारे करना होते हैं। सरोज जी की कविता ऐसे ही इशारों की कविता है। उन्होंने स्वयं ही लिखा है-
प्रशन बहुत लगते हैं, लेकिन थोड़े हैं
मेंने खूब हिसाब लगा कर जोड़े हैं
उत्तर तो कब के दे देता शब्द मगर
अधरों के घर आना जाना छोड़े हैं
कविता की सफलता का एक मापदण्ड उसका मुहावरा बन जाना भी होता है। रहीम, कबीर के दोहे, तुलसी की चौपाइयां, सूर के पद और मीर गालिब आदि के शेर ऐसी कविताएं हैं, जिनके माध्यम से हम आज भी अपनी बात कहते हैं। समकालीन हिन्दी साहित्य में सरोजजी और दुष्यंत कुमार ऐसे ही कवियों में आते हैं जिन्होंने इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के बीच पनप रही विसंगतियों पर अपनी काव्य टिप्पणियों द्वारा आम जन की सोच को शब्दों में ढाला है। वे कहते हैं-
क्योंजी, ये क्या बात हुयी?
ज्यों ज्यों दिन की बात की गयी
त्यों त्यों रात हुयी
क्योंजी ये क्या बात हुयी?
जितना शोर मचाया घर में सूरज पाले का
उतना काला और हो गया वंश उजाले का
धूप गयी, सो गयी, किरण की कोर नहीं मिलती
उस पर ये आनन्द कि चारों ओर नहीं मिलती
जैसे कोई खुशी किसी मातम के साथ हुयी
क्योंजी ये क्या बात हुयी?
सरोजजी के ऐसे ही अनगिनित गीतों में हम आजादी के बाद की राजनीति, एक स्वप्नदर्शी प्रधानमंत्री द्वारा जनता को दिखाये गये सपनों का टूटना महसूस कर सकते हैं, और इस भंजन का क्रम अभी टूटा नहीं है। यही कारण है कि आज भी सरोजजी के गीत जनता की भावनाओं को वाणी देते हुये लगते हैं। हम हर बार ठगे जा रहे हैं और जो, जब होता है तब तक गंगा में बहुत सारा पानी बह चुका होता है। सरोज जी के शब्दों में ही देखें तो-
निर्माणों की कथा, बहुत संक्षिप्त हमारी है
जो पूरा हो जाना था, उसकी तैयारी है
यह परिणाम हुआ है संसद के प्रस्तावों का
अंतिम अंगारा तक बुझने लगा अलावों का
यों ही हवा हिमानी थी, उस पर बरसात हुयी
क्योंजी, ये क्या बात हुयी?
अब कौन कह सकता है कि ये साठ के दशक की कविता है! यदि हम इसे आज के सन्दर्भ में देखें तो हो सकता है कि हमें ये आज और अधिक सटीक लगे। अब इस गीत में जो घबराहट अकुलाहट और छटपटाहट है क्या उसे किसी खास काल की बेचैनी कहा जा सकता है जबकि ये बेचैनी आज और भी अधिक तात्कालिक लगती है-
कोई सुनता नहीं भीड़ में
और लगी है आग नीड़ में
कितनी ऊंची और करूं आवाज बताओ
कैसे काम बनेगा कुछ तो करो इशारा
में तो अपनी हर कोशिश कर कर के हारा
शक्ति लगा कर बोली की सीमा तक बोला
बहरे कोलाहल ने लेकिन कान न खोला
ऐसी उलझन आन पड़ी है
आफत में हर जान पड़ी है
कहाँ बचेंगे प्राण, जगह का कोई तो अन्दाज बताओ
कितनी ऊंची और करूं आवाज बताओ
सरोज जी के गीतों की हर एक पंक्ति आज भी जीवंत है प्राणवान है क्योंकि वह मनुष्यता के दर्द को बयान करती है व आदमी को आदमी से जोड़ने का काम करती है जिससे कि वे एक साथ होकर अपने समय के शत्रुओं की पहचान कर सकें और उनसे लोहा ले सकें। वे कहते हैं-
कल ऐसी बात नहीं होगी
ऐसी बरसात नहीं होगी
इसलिए कि दुनिया में रोने का आम रिवाज नहीं
सब प्रश्नों के उत्तर दूँगा, लेकिन आज नहीं
vyangya samraat mukut bihaari saroj ji ke saath jab pahli baar maine mumbai k chakkllas samaaroh me kavita padhi thi aur unhen nazdik se jaanne ka avsar mila tha tab main atyant garvit tha.....aj atyant maayus hoon kyonki unke na rahne se
जवाब देंहटाएंhindi ko gahri kshti pahunchi hai.............
vinamra pranaam..........
सरोज जी तो गीतों के बादशाह थे। उन के गीत हमेशा जनता की बात को कहते थे।
जवाब देंहटाएंप्रिय बंधू |आपका आभारी हूँ |दुष्यंत जी की तो एक किताब मेरे पास है सरोज जी की कवितायेँ मेरे पास नहीं थी मैंने आपकी अनुमति के वगैर आपके ब्लॉग से सरोज जी की कवितायेँ उतार
जवाब देंहटाएंkya aap ''doob'' ke virendr jain ji hain ?
जवाब देंहटाएंसुशीला जी
जवाब देंहटाएंमें डूब वाला वीरेन्द्र जैन नहीं हूँ बाकि के लिए मेरा प्रोफाइल देखें .डूब मुझे भी पसंद है पर में डूब वालों से भी पहले से लिख और छप रहा हूँ. अगर आप पत्रिकाओं की पुराणी पाठिका हैं तो मुझे धर्मयुग वाला वीरेन्द्र जैन "दतिया" की तरह याद कर सकती हैं
मित्रो
जवाब देंहटाएंमें सरोज जी का मुरीद रहा हूँ और उनके निकट रहने का भी मौका मिला है वे मेरे लिए आदर्श थे . जब में और पूर्व सांसद उदय प्रताप सिंह मिल जाते हैं तो उनके बारे में बातें करने का सिलसिला नहीं टूटता समय कम पढ़ जाता है . पर ऐसे उनके मुरीद हजारों की संख्या में हैं. आपकी टिप्पणियां पढ़ कर मुझे अपार सुख मिला है आभारी हूँ मुझे उनकी अधिकांश कवित्तायें कंठस्थ रही हैं